Thursday 1 January 2015

कम्युनिस्ट पार्टी माक्र्सवादी पंजाब समय-अनुकूलित पार्टी प्रोग्राम

कम्युनिस्ट पार्टी माक्र्सवादी पंजाब समय-अनुकूलित पार्टी प्रोग्राम

(यह पार्टी प्रोग्राम 1964 मेें स्वीकृत किया गया। प्रोग्राम को समय अनुकूलित करते हुये सी.पी.एम. पंजाब ने 2006 को पास किया)

I भारत  द्वारा स्वतंत्रता-प्राप्ति
   
 1. फाशीवादी शक्तियां, जिनका नेतृत्व हिटलरशाही जर्मन कर रहा था, की फौजी हार ने तथा फाशीवादी हमलावरों को चकनाचूर करने में सोवियत यूनियन द्वारा निभाई गई निर्णायक भूमिका ने विश्व स्तर पर वर्गीय शक्तियों का पलड़ा समाजवाद व राष्टï्रीय मुक्ति के लिये संघर्ष कर रही शक्तियों के हक में तीव्र रूप से झुका दिया था। जंगबाज जर्मन, इतालवी व जापानी फाशीवादी शक्तियों को युद्ध में हुई करारी हार ने ना सिर्फ इन देशों को, एक सीमा तक, नकारा बना दिया था बल्कि इसका परिणाम साम्राज्यवाद के, कुछ समय के लिये, विश्व स्तर पर कमजोर होने के रूप में निकला। विश्व साम्राज्यवाद, पूर्वी यूरोप के कई एक देशों में जनवादी राज्यों की उत्पति को रोकने में पूरी तरफ असफल सिद्ध हुआ, जिससे सोवियत यूनियन के नेतृत्व में विश्व समाजवादी कैंप का निर्णाण सहज हो गया। समाजवाद की इन ऐतिहासिक जीतों तथा साम्राज्यवाद की असफलताओं से प्रभावित होकर, एशिया व अफ्रीका के समस्त देशों में औपनिवेशिक शासनों के विरूद्ध राष्टï्रीय स्वतंत्रता के शक्तिशाली आंदोलन फैल गये। भारत में भी बर्तानवी शासन के विरूद्ध व्यापक क्रांतिकारी उभार देखा गया, जहां किसान विद्रोह, मजदूरों की आम हड़तालें, विद्यार्थी हड़तालें, रियासती जनता के जन संघर्ष बेमिसाल पैमाने पर विकसित हो गये। कई जगह सशस्त्र सेनाओं व जल-सेना ने भी बगावतें कर दीं।
    2. संघर्षों के इस ज्वारभाटे, जो कि आम राष्टï्रीय बगावत का रूप धारण करने की ओर बढ़ रहा था, को सन्मुख देखते हुये बर्तानवी साम्राज्यवाद ने यह अनुभव किया कि उसके लिये अब यहां अपना शासन जारी रख सकना संभव नहीं रहेगा। दूसरी ओर, कांग्रेसी नेतृत्व को यह आशंका थी कि यदि साम्राज्यवाद के विरूद्ध आंदोलन व्यापक बगावत का रूप धारण कर गया तो साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन का नेतृत्व उसके हाथों से खिसक जायेगा। इन परिस्थितियों में एक ओर बर्तानवी साम्राज्यवाद तथा दूसरी ओर कांग्रेस व मुस्लिम लीग के नेताओं के बीच समझौता हो गया।
    3. परिणामस्वरूप, देश को दो भागों, पाकिस्तान व भारत, के रूप में विभाजित कर दिया गया तथा भारत में 15 अगस्त 1947 को राजनीतिक सत्ता कांग्रेस पार्टी के नेताओं के हाथ सौंप दी गई। इस तरह भारत में बर्तानवी शासन का समापन हुआ तथा भारतीय बड़ी बुर्जुआजी के नेतृत्व में शासन की स्थापना हुई। इसके साथ, भारतीय क्रांति का पहला पड़ाव, आम राष्टï्रीय संयुक्त मोर्चे का पड़ाव, जिसकी धारा मुख्य रूप से विदेशी साम्राज्यवादी शासन के विरूद्ध थी, समाप्त हो गया।
    4. बर्तानवी साम्राज्यवाद को आशा थी कि सत्ता परिवर्तन के बावजूद, भारतीय अर्थव्यवस्था में उनकी गहरी पैठ के कारण, वे हमारी स्वतंत्रता को रस्मी बनाने के समर्थ हो जायेंगे। परंतु इसके उपरांत जिस प्रकार ऐतिहासिक घटनायें घटीं, उन्होंने बर्तानवी साम्राज्यवादियों की यह आशायें पूरी नहीं होने दीं।
    5. इस समय के दौरान ही, 1949 में, हुई महान चीनी क्रांति की सफलता के साथ, विश्व स्तर पर शक्तियों की कतारबंदी में समाजवाद के पक्ष में एक और महत्त्ववूर्ण परिवर्तन आया। इस दौरान एशिया, अफ्रीका व लातिनी अमरीका में नव-स्वतंत्र राष्टï्र उभरे, जिनका निर्माण उपनिवेशवाद के खंडहरों पर हुआ। भारत को इन राष्टï्रों में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ।
    6. दूसरी ओर, राजनीतिक ताकत भारतीय बुर्जुआजी के हाथों में परिवर्तित हो जाने के साथ लोगों को आशा थी कि नया राष्टï्रीय शासन औपनिवेशिक अतीत की समस्त भद्दी विरासत को साफ कर देगा, हमारी उत्पादक शक्तियों की समस्त जंजीरों को काट देगा, तथा लोगों की सृजनात्मक शक्तियों को बंधन मुक्त कर देगा। उनकी बड़ी तीव्र आशा थी कि भारत तेजी से अपनी आर्थिक निर्भरता व पिछड़ेपन पर काबू पा लेगा, अभाव व गरीबी को समाप्त करेगा, एक खुशहाल ओद्यौगिक शक्ति के रूप में उभरेगा तथा इस तरह लोगों की भौतिक व सांस्कृतिक आवश्यकताओं को बढ़ती मात्रा में संतुष्टï करेगा। परंतु लोगों की यह आशायें पूरी नहीं हुई।
    7. भारतीय क्रांति का दूसरा पड़ाव मांग करता था, तथा यह मांग पूरी भी जल्द ही हो जानी चाहिये थी, कि सामंती व अद्र्ध-सामंती भू-स्वामित्व पूरी तरी समाप्त हो तथा भूमि खेत-मजदूरों व गरीब किसानों में मुफ्त बांटी जाये। इसकी यह भी मांग थी कि बर्तानवी पूंजी को जब्त करने व उसके राष्टï्रीयकरण का कार्य पूर्ण किया जाये तथा इस प्रकार हमारी राष्टï्रीय अर्थव्यवस्था पर से विदेशी पूंजी की लुटेरी जकड़ खत्म हो। जागीरदारी की समाप्ति तथा सचमुच की कृषि-क्रांति ने हमारे कृषि उत्पादन पर से युगों पुरानी जंजीरों को एकदम तोड़ देना था तथा इसे आगे की बड़ी छलांग लगाने के योग्य बना देना था। हमारे लोगों को अनाज, हमारे उद्योगों के लिये पर्याप्त मात्रा में कच्चा माल तथा निरंतर बढ़ता हुआ बाजार प्रदान करना था तथा हमारी कृषि को हमारे उद्योगों के लिये आवश्यक पूंजी के निर्माण (Formation) के मुख्य स्रोत्र के रूप में पलट देना था। इसी तरह बर्तानवी पूंजी के जब्त किये जाने तथा उसके राष्टï्रीयकरण ने हमारे नव-जन्मे राष्टï्रीय राज्य के हाथों में उद्योग व विदेशी व्यापार का एक विशाल क्षेत्र दे देना था, जिसके मुनाफे, पिछले समय की तरह, देश को निचोडऩे की जगह उद्योगों में निवेश के लिये एक निरंतर बढ़ते स्रोत्र में पलट जाने थे।
    8. यद्यपि, मजदूर वर्ग, किसान, मध्यम वर्ग व प्रगतिशील बुद्धिजीवी साम्राज्यवादी शासन के विरूद्ध प्रमुख लड़ाकू शक्ति रहे थे तथा उन्हें ही उसकी मार भी सहनी पड़ी, परंतु तब भी, बुर्जुवाजी ही स्वतंत्रता आंदोलन के नेतृत्व में रही थी तथा इस तरह राजसत्ता हथिया गई। यही कारण है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बड़ी बुर्जुवाजी के नेतृत्व वाला राष्टï्रीय राज्य, भारतीय क्रांति के इन आवश्यक कार्यों को पूरा करने में असफल रहा। जनवादी कांति के इन बुनियादी कार्यों के पूर्ण होने से निकलने वाले स्वाभाविक परिणामों से भय खाते हुये बड़ी बुर्जुवाजी ने साम्राज्यवाद के साथ समझौता कर लिया तथा बर्तानवी कामनवैल्थ के सदस्य बने रहना स्वीकार करने के उपरांत वह यह भी मान गयी की बर्तानवी वित्तीय पूंजी को अपनी लूट जारी रखने की आज्ञा होगी। देशी रियासतों में व्यापक जनउभार की पृष्ठïभूमि में, जिसने राजाओं, रजवाड़ों व सामंतशाही को समाप्त कर देना था, सामंती रजवाड़ाशाही को भारी रियायतें दी गईं तथा बुर्जुवा वर्ग व्यवस्था को सहारा देने के लिये उनसे गठजोड़ किया गया। रजवाड़ों, जो कि बर्तानवी शासकों के मददगार रहे थे, का कांग्रेस में शामिल होने के लिये स्वागत किया गया। कांग्रेसी शासकों ने लोगों को दबाने के लिये बर्तानिया की प्रशिक्षित नौकरशाही को कायम रक्खा। इस प्रकार जनवादी क्रांती को ना तो जोर पकडऩे दिया गया तथा न ही इसके बुनियादी निशाने पूरे होने दिये गये।
    9. हमारे दौर के राष्टï्रीय स्वतंत्रता संग्रामों का यह ऐतिहासिक तजुर्बा है कि यदि बुर्जुवाजी के हाथों में स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व हो तो वह राष्टï्रीय जनवादी क्रांति को उसकी संपूर्णता तक आगे नहीं लेकर जाती। इसके विपरीत राजनीतिक स्वतंत्रता जीतने के बाद, ज्यों-ज्यों सामाजिक अंतरविरोध तीखे होते हैं, यह साम्राज्यवाद के साथ समझौता करने का प्रयत्न करती है तथा घरेलू जागीरदार प्रतिक्रियावादियों के साथ गठजोड़ बनाती है। ऐतिहासिक तर्जुबा यह भी दर्शाता है कि साम्राज्यवाद-विरोधी राष्टï्रीय मोर्चा जब मजदूर वर्ग के नेतृत्व में होता है तो जनवादी क्रांति न केवल अपने समस्त पड़ावों को पूरा करती है बल्कि क्रांति जनवादी पड़ाव पर नहीं रूकती बल्कि तेजी से समाजवादी क्रांति के पड़ाव की ओर बढ़ जाती है। भारत की अधूरी क्रांति भी इस ऐतिहासिक तर्जुबे की पुष्टिï करती है।
 
पूंजीवाद का दिवालिया रास्ता इजारेदारियों की बढ़ौत्तरी व नव-उपनिवेशवाद के खतरे की ओर ले गया
    10. स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले ही, भारतीय बुर्जुवाजी ने एक निर्विवाद आकार ग्रहण कर लिया था तथा इसने उद्योग की कुछ शाखाओं, जैसे कि कपड़ा, चीनी व सीमैंट आदि में अपने आप को स्थापित कर लिया था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, बुर्जवाजी ने, आम रूप से इसके बड़े भागों ने, अथाह धन जमा कर लिया था तथा अपनी आर्थिक स्थिति को काफी बढ़ा लिया था।
    11. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शासक बुर्जुवाजी देश की अर्थव्यवस्था को पूंजीवादी रास्ते पर विकसित करने तथा समाज में अपनी वर्गीय स्थिति को और दृढ़ करने की ओर अग्रसर हो गई। पर क्योंकि इसके पास ना तो भारी उद्योगों का तकनीकी आधार था तथा ना ही औपनिवेशिक साम्राज्य था, जिसकी लूट से साम्राज्यवाद ने विशाल मात्रा में पूंजी जमा की थी, इसलिये बुर्जुवाजी ने हथियाई गई राजसत्ता का, अपनी पूंजीवादी आवश्यकताओं की खातिर तथा पूंजीवादी रास्ते पर अर्थव्यवस्था को विकसित करने के लिये, जनसाधारण की मेहनत के फल को हथियाने के लिये प्रयोग किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से केंद्रीय सरकार की आर्थिक नीतियां निरंतर रूप से इस उद्देश्य की ओर निर्देशित रहीं।
    12. भारतीय बुर्जुवाजी ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये बर्तानवी व अमरीकी साम्राज्यवादियों की सहायता पर भी आशायें लगाईं जिसकी कीमत उनके हितों की रक्षा करके उतारी गई, जो कि 1947 में बेमिसाल तेजी से जोर पकड़ रहे साम्राज्यवाद-विरोधी जन-उभार के मद्देनजर उनकी आवश्यकता थी।
    13. परंतु , स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के वर्षों में बर्तानवी व अमरीकी सामा्रज्यवादियों ने, भारतीय बुर्जुवाजी की जरूरतों की संतुष्टि करना तो दूर की बात रही, नये भारतीय राज्य को अपनी युद्धक योजनाओं में खींचने के लिये कई प्रकार के दबाव डालने आरंभ किये तथा ऐसी योजनायें शुरू कीं जो प्राप्त की गई राजनीतिक स्वतंत्रता को भी कमजोर करती थीं। भारतीय बुर्जुवाजी द्वारा बार-बार निवेदन करने के बावजूद साम्राज्यवादियों ने भारी उद्योग, जो औद्यौगीकरण का आधार है, का निर्माण करने के लिये सहायता प्रदान करने से इंकार किया। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हमारे लोगों की खून-पसीने की कमाई से अर्जित देश के बर्तानवी सिक्के के भंडारों को भी नष्टï कर दिया। विदेशी सिक्का बचाने के बहाने उन्होंने हमारे ऊपर राष्टï्रीय हितों के विपरीत, विदेशी इजारेदारों के साथ ऐसे सौदे थोपे जो हमारे राष्टï्रीय हितों के लिये घातक थे, जैसे कि तेल साफ करने, समुद्री जहाज बनाने व रसायनिक उद्योगों आदि के मामलें में। साम्राज्यवादियों के इस कठोर व्यवहार ने भारतीय बुर्जुवाजी को भारी उद्योगों का निर्माण करने के लिये समाजवादी देशों, विशेष रूप से सोवियत यूनियन, से सहायता लेने के लिये मजबूर किया। समाजवादी देशों से मिली निस्वार्थ सहायता भारतीय सरकार के लिये इजारेदारों के साथ सौदेबाजी करने में भी बहुत लाभदायक सिद्ध हुई।
    14. इस तरह बुर्जुवाजी का दोगला चरित्र जो कि स्वतंत्रता संग्राम के वर्षों के दौरान एक ओर लोगों को साम्राज्यवाद के विरूद्ध लामबंद करने तथा दूसरी ओर साम्राज्यवादियों के साथ समझौता करने के रूप में उभरा था, वह अब स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, नये रूप में सामने आया। एक ओर साम्राज्यवाद व जागीरदारी तथा बुर्जुवाजी समेत आम लोगों के बीच अंतरविरोधों के तीव्र होने के बावजूद, तथा दूसरी ओर समाजवादी देशों द्वारा उपलब्ध करवाई गई बहुत ही लाभदायक सहायता व समर्थन के बावजूद भी बड़ी बुर्जुवाजी ने, जो कि राज्य का नेतृत्व कर रही थी, साम्राज्यवाद व जागीरदारी पर ऐसे निर्णायक हमले नहीं किये जिनसे कि उनका अंत हो जाता। इसके विपरीत उसने अपनी वर्गीय स्थिति को मजबूत करने के लिये, राज्य पर अपनी पकड़ का तथा नये मिले अवसरों का उपयोग एक ओर लोगों पर हमले करने के लिये तथा दूसरी ओर साम्राज्यवाद व जागीरदारी के साथ अंतरविरोधों व झगड़ों का दबाव, सौदेबाजी तथा समझौतों द्वारा समाधान करने के लिये किया। इस प्रक्रिया द्वारा उसने विदेशी वित्तीय पूंजी तथा इजारेदारों के साथ मजबूत संबंध स्थापित किये तथा भूस्वामियों के साथ राजसत्ता में वह निरंतर हिस्सेदारी करती आ रही है। इस तरह, वह, कुछ एक भारी औद्योगिक प्रोजैक्टों का निर्णाण करने के लिये आसानी से उपलब्ध होती समाजवादी सहायता लेने में कोई हिचकचाहट दिखाये बिना, साम्राज्यवाद के साथ सौदेबाजी करते हुये तथा अपनी शक्ति को बढ़ाते हुये अंतिम रूप में यहां पहुंच गई है कि अब वह साम्राज्यवादी विश्वीकरण तथा नव-उदारवाद की एक मजबूत झंडाबरदार बन गई है तथा बहुराष्टï्रीय कंपनियों की लूट-खसूट के लिये भारतीय अर्थव्यवस्था के द्वार अधिक से अधिक खोलती जा रही है। इस तरह, इसने अपने जन-विरोधी चरित्र को पूरी तरह नंगा कर लिया है तथा यह भारतीय क्रांति के जागीरदारी-विरोधी व साम्राज्यवाद-विरोधी कार्यों को संपूर्ण करने में एक बड़ी रूकावट बन गई है।
    15. भारतीय शासकों द्वारा पूंजीवाद का निर्माण करने के प्रयत्नों के अंग के रूप में आरंभ की गई योजनाबंदी का समाजवादी योजनाबंदी से दूर का भी रिश्ता नहीं। हमारी अर्थव्यवस्था का केवल नगण्य सा भाग ही राजकीय क्षेत्र के अधीन लिया गया जबकि औद्योगिक, व्यापारिक व अन्य सरगर्मियों के विशाल क्षेत्र निजी कारोबार के अधीन रहे। वास्तव में पूंजीवादी योजनाबंदी के यह बुर्जुवा प्रयास पूंजीवाद के स्वाभाविक नियमों के विरूद्ध हैं तथा अंतिम विश्लेषण के रूप में वास्तविक आर्थिक योजनाबंदी व पूंजीवाद एक दूसरे के विरोधी हैं तथा वे बहुत दूर तक इक्_ïे नहीं चल सकते। यही कारण है कि पंचवर्षीय योजनायें हमारी अर्थव्यवस्था को अग्रगामी बनाने तथा इसे तीव्र औद्योगिकरण व विकास के राजमार्ग पर चलाने के लिये देश के भौतिक व मानव शक्ति के संसाधनों को लामबंद करने में असफल रही हैं तथा इसकी जगह, मुख्य रूप से, शोषक वर्गों के मुनाफे बढ़ाने पर निर्भर रही हैं।
    16. जबकि, भारत जैसे किसी अल्प-विकसित देश में योजनाबंदी, जिसे बुर्जुवाजी  की राजसत्ता का समर्थन प्राप्त हो, निश्चय ही सरकार की नीतियों की सीमाओं के भीतर प्राप्त संसाधनों के अधिक तीव्र उपयोग को सरल बनाने के द्वारा पूंजीवादी आर्थिक विकास को एक निश्चित गति व निर्देश प्रदान करती है। इन योजनाओं का ऐसा प्रमुख लक्षण औद्योगिक विस्तार में, विशेष रूप से राजकीय क्षेत्र में कुछ भारी व मशीन विनिर्माण के उद्योगों के स्थापित होने के रूप में सामने आया है। यह प्रमुख प्राप्ति संभव ना हो सकती, यदि समाजवादी देशों से, मुख्य रूप से सोवियत यूनियन से, निस्वार्थ सहायता ना मिली होती। इसके अतिरिक्त राजकीय क्षेत्र में यातायात, संचार व बिजली आदि का भी पर्याप्त विस्तार हुआ।
    17. बुर्जुआ-भूस्वामी सरकार की बजट संबंधी व आम आर्थिक नीतियां, विशेष रूप से इसके द्वारा टैक्स संबंधी उठाये जाते कदम व कीमतों संबंधी अपनाई जाती नीतियां, मुख्य रूप से शोषक वर्गों के छोटे से घेरे के दृष्टिïकोण से ही निर्धारित होती हैं। अप्रत्यक्ष टैक्सों में अंधाधुंध बढौत्तरी तथा घाटे का बजट, जो जन-साधारण को हानि पहुचाते हैं, योजनाओं में पैसा लगाने के लिये तथा अफसरशाही, सैनिक, अद्र्ध सैनिक तथा पुलिस की भारी मशीनरी को कायम रखने के लिये आवश्यक संसाधन जुटाने का एक मुख्य स्रोत्र हैं। सरकार वास्तव में विकास के लिये मुनाफे की प्रवृति पर निर्भर करती है तथा वह कीमतों के स्तर को कायम रखने के लिये कोई प्रभावशाली कदम उठाने से इंकारी है। मुद्रा-स्फिति तथा निरंतर बढ़ती कीमतें लोगों को उनकी मेहनत द्वारा सृजित दौलत में से उनके हिस्से की कमाई से उन्हें वंचित करने तथा इस दौलत को निजी पूंजीपतियों के हाथों में पूंजी के रूप में संचित होने देने का शक्तिशाली साधन हैं।
    18. वित्तीय संस्थाओं, समेत राष्टï्रीयकृत बैकों, जीवन बीमा निगम तथा सरकार द्वारा निर्मित अन्य विशेष ऋण संस्थाओं के, सब ने निजी पूंजीपतियों के दौलत इक्_ïा करने की ओर निर्देशित हितों की ही पूर्ति की है। रिजर्व बैंक का सलाहकार बोर्ड, बीमा निगम तथा अन्य संस्थाओं की निवेशकारी समितियां सारी ही बड़ी बुर्जुवाजी के प्रतिनिधियों से भरी हुई हैं। उन्होंने बहुत सारी ऋण संस्थाओं तथा राजकीय व सार्वजनिक संस्थाओं के कार्य-कलापों पर कंट्रोल भी किया हुआ है। इसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक ओर पूंजी के कुछ एक हाथों में केंद्रित होने की प्रक्रिया में अथाह बढ़ौतरी हुई है तथा दूसरी ओर औद्योगिक व बैंक पूंजी में घनिष्ठï संबंध तेजी से बढ़ते गये हैं।
    19. आजादी प्राप्ति के उपरांत, भारत में उपलब्ध स्थितियों में, राजकीय क्षेत्र में जो भारी मशीनसाजी तथा अन्य कुंजीवत उद्योगों का निर्माण हुआ था, वह केवल इसलिये ही हुआ था कि भारी ओद्यौगिक प्रोजैक्टों के लिये निजी पूंजी पर्याप्त संसाधन जुटा सकने की स्थिति में नहीं थी। इस तरह राजकीय क्षेत्र में इन कारोबारों का निर्माण एक हद तक आर्थिक पिछड़ेपन तथा साम्राज्यवादी इजारेदारी पर पूर्ण निरर्भता पर काबू पाने में तथा उद्यौगीकरण के लिये तकनीकी आधार कायम करने में सहायक सिद्ध हुआ।
    20. राजकीय क्षेत्र किसी अल्प-विकसित अर्थव्यवस्था में तब ही प्रगतिशील भूमिका निभा सकता है यदि इसको साम्राज्यवाद-विरोधी, इजारेदार-विरोधी व जनवादी दिशा में चलाया जाये। यह आर्थिक निर्भरता घटाता है। इस तरह, यह विदेशी पूंजी की जकड़ को कमजोर करने व खत्म करने तथा  भारतीय इजारेदारियों की बढ़ौत्तरी को सीमित करने व काबू करने का साधन हो सकता था। परंतु बड़ी बुर्जुवाजी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा अब तक चलाई गई जन-विरोधी आर्थिक नीतियों के कारण ऐसी सारी आशाओं पर पानी फिर गया है। धनी वर्ग के पास दौलत का इक्_ïा होते जाना तथा भारतीय इजारेदारियों में तीव्र बढ़ौतरी होना, इस समय का एक प्रमुख घटनाक्रम (Phenomena) रहा है। योजनाओं के लिये पूंजी जुटाने के नाम पर आम लोगों, मजदूरों, किसानों व मध्यम वर्गों की बेरहमी से लूट की गई है तथा उन पर अत्याचार ढाये गये हैं। यद्यपि शासक वर्गों ने राजकीय क्षेत्र को भारत में समाजवाद का निर्णाण करने के अपने इरादों के प्रमाण के रूप में बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया परंतु वास्तव में यह उस समय पूंजीवाद का निर्माण करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण हथियार के रूप में बेहद जरूरी था। परंतु अब, जब से ढांचागत सुधारों का प्रोग्राम अपनाया गया है तथा साम्राज्यवादी-विश्वीकरण व नव-उदारवाद की आवश्यकताओं के अधीन नई आर्थिक नीतियों को लागू करना प्रारंभ किया गया है, राजकीय क्षेत्र को नष्टï करने तथा उसका निजीकरण करने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है, जो कि देश की आर्थिक आत्म-निर्भरता, जो थोड़ी-बहुत आज है, को भी लाजमी रूप से खत्म कर देगी।
    21. सरकार द्वारा अपनाई गई इन समस्त नीतियों के परिणामस्वरूप तथा इस तथ्य के कारण कि बड़ी बुर्जुवाजी के हाथ में राज्य का नेतृत्व है, हमारे राजकीय क्षेत्र में बड़े पूंजीपतियों का प्रभाव निरंतर बढ़ा है तथा, इस तरह, उन्हें और सहारा देने में इसका ज्यादा-से ज्यादा उपयोग हो रहा है। वित्तीय संस्थाओं द्वारा कर्जे का सहूलियतों का बढ़ा भाग भी इन्हें और अधिक सुदृढ़ करने के काम आया है। योजना के अधीन या सरकार के अन्य सभी प्रमुख ठेके बड़े पूंजीपतियों को दिये गये हैं तथा पुन: बड़े कारोबारी ही कई राजकीय कारोबारों के उत्पादन की बांट को कंट्रोल करते हैं। राजकीय पूंजीवाद व इजारेदारियों के बीच बढ़ते संबंधों के अतिरिक्त सरकार ने, विश्वीकरण व नव-उदारीकरण की होड़ में, विदेशी वित्तीय पूंजी तथा विदेशी इजारेदारों समेत बड़ी बुर्जुवाजी का सरकारी स्वामित्व के कारोबारों में पैसा लगाने का आह्वïान किया है। यह बात सार्वजनिक क्षेत्र के विकास को और बिगाड़ती है। इसके अतिरिक्त, सरकारी स्वामित्व वाले संस्थान नौकरशाहों के कंट्रोल में हैं जो मजदूरों के  विरोधी व अलोकतांत्रिक रूचियों वाले होते हैं। यदि सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े पूंजीपतियों का प्रभाव तथा नौकरशाहों का कंट्रोल बढ़ता जाये तो राजकीय पूंजीवाद अपना प्रगतिशील चरित्र गंवा बैठता है तथा बड़ी बर्जुवाजी का हथियार बन जाता है। यह दोनों हानिकारक रूझान, हमारे राजकीय स्वामित्व वाले उद्योगों पर भारी रहे हैं तथा इन्होंने हमारी कई इकाईयों को पहले ही इजारेदारियों/बहुराष्टï्रीय कंपनियों के संस्थानों के मुकाबले में नकारा बना दिया है।
    22. शासकों द्वारा स्वीकार किये गये उद्योग नीति संबंधी प्रस्ताव के विपरीत, भारी व बुनियादी उद्योग, जिन्हें कि समूचे रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के लिये रिजर्व रक्खा गया था, को बाद में निजी क्षेत्र में लगाने की आज्ञा दे दी गई। प्रारंभिक रूप में निजी क्षेत्र में पहले से ही मौजूद उद्योगों, जैसे कि टाटा आयरन एंड स्टील आदि को भारी वित्तीय व राज्य द्वारा दी गई अन्य तरह की सहायता द्वारा अपना समथ्र्य बढ़ाने की आज्ञा दी गई। परंतु बाद में, इजारेदार पूंजी में हुई तीव्र बढ़ौत्तरी तथा प्रसार के साथ व इसकी विदेशी इजारेदारों के साथ बढ़ती गई तीव्र सांझों के कारण, भारतीय इजारेदार अब विदेशी सांझीदारों के साथ मिलकर सारे कुंजीवत उद्योगों को चलाने के लिये अपने आपको पूरी तरह योग्य समझते हैं। साथ ही, सरकार ने भारी व सुरक्षा की दृष्टिï से संवेदनशील उद्योगों के नये प्लांट लगाने के बारे में ओद्यौगिक नीति संबंधी प्रस्ताव में दर्ज पाबंदियां एक-एक करके नरम कर दी हैं तथा हर क्षेत्र में निजी पूंजीपतियों को लाइसेंस खुलेआम व बड़ी आसानी से जारी किये जा रहे हैं।
    23. सरकार ने ना सिर्फ देश में पहले से ही घुसे हुये बर्तानवी, अमरीकन व अन्य विदेशी पूंजी की लूट को खत्म करने से इंकार किया, बल्कि इसने विदेशी पूंजी के भारी नये दाखिले के लिये भी खुली रियायतें, गारंटियां तथा नई संभावनायें पेश की हैं। तथाकथित स्वैचालक अर्थव्यवस्था का निर्माण करने तथा विदेशी सिक्के की कमी, जो इन्हीं नीतियों की ही पैदावार थी, पर काबू पाने के नाम पर भारतीय शासक बिट्रेन, अमरीका, जर्मन, इटली, जापान तथा अन्य विकसित देशों तथा दूसरे पश्चिमी देशों की इजारेदारियों को भारत में आने, अपनी पूंजी लगाने तथा गारंटी-शुदा बड़े मुनाफे कमाने का निमंत्रण दे रहे हैं। कुंजीवत क्षेत्रों में अमरीकी पूंजी की तीव्र रूप में बढ़ौतरी, हमारे आर्थिक जीवन में, तथा उसके फलस्वरूप राजनीतिक जीवन में भी, अमरीकी दखलंदाजी के बढ़ते खतरे को सामने लाती है।
    24. इस प्रकार, पूंजीवादी ओद्यौगिकरण ने, जो देश के बड़े बुर्जुवा नेतृत्व ने अपनी पंच-वर्षीय योजनाओं द्वारा प्रारंभ किया, तथा राजकीय क्षेत्र के निर्माण ने बड़े भारतीय कारोबारों की उत्पत्ति के लिये रास्ता साफ किया तथा इसके साथ ही भारत के सस्ते श्रम तथा दूसरे कुदरती संसाधनों की निरंतर लूट के द्वारा विदेशी इजारेदारियों की लूट बढ़ी। हर साल वह अरबों रूपये मुनाफों, लाभांशों, ब्याज, वेतनों व भत्तों, कमीशनों, बीमें व भाड़े तथा कई अन्य प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष खातों के द्वारा देश से बाहर निकाल लेते हैं। इन लुटेरों का हमारे राष्टï्रीय हितों के साथ कोई सरोकार नहीं है। हमारे संसाधनों की बेदर्द लूट-खसूट में ही उनकी एकमात्र दिलचस्पी है। वे भारतीय बड़ी बुर्जुवाजी तथा हमारे राष्टï्रीय जीवन में दूसरी प्रतिक्रियावादी शक्तियों की बढ़ौत्तरी में भी सहायता करते हैं। वे खुले रूप से तथा चोरी-छिपे ढंग से भी हमारी अर्थ-व्यवस्था को कमजोर करने तथा इसकी तरक्की की रफ्तार को घटाने व इसे बिगाडऩे का प्रयास करते हैं। राष्ट्र-विरोधी षडयंत्रों व साजिशों की खतरनाक स्रोत्र, इस साम्राज्यवादी विदेशी पूंंजी की भूमिका बुनियादी रूप से हमारे राष्टï्रीय हितों के विरूद्ध है।
    25. इस तरह, भारत सरकार ने किसान पक्षीय तीखे कृषि सुधारों द्वारा हमारी कृषि को पुन: संगठित करने तथा विदेशी व भारतीय इजारेदारों, जो कि देश में भारी कमाई कर रहे हैं, के पास से प्राप्त करने योग्य वित्तीय संसाधनों को पूरी तरह उपयोग में लाने की जगह विकास के नाम पर तथा देश की एकता-अखंडता की रक्षा के नाम पर लोगों पर कमर तोड़ बोझ लादा है। इस तथ्य के बावजूद कि भारतीय पूंजी की मात्रा में, कुल घरेलू उत्पाद तथा विदेशी व्यापार की दृष्टिï से तथा सूचना प्रौद्यौगिकी के क्षेत्र में उत्पादन शक्तियों के विकास की दृष्टिï से प्रभावशाली बढ़ौतरी हुई है, आज भी हमारी अर्थव्यवस्था का यह एक सुस्पष्टï पहलू है कि कुल मिला कर यह विदेशी ऐजंसियों से मिलने वाली सहायता पर तीव्रता से निर्भर होती जा रही है तथा परिणामस्वरूप बहु-राष्टï्रीय निगमों आदि के लुटेरा हितों की सेवा कर रही है।
    26. 1991 में ढांचागत परिवर्तनों व तथाकथित आर्थिक सुधारों को लागू करते हुये, यह निर्भरता हमारी अर्थ-व्यवस्था के लगभग सारे ही क्षेत्रों में इस हद तक बढ़ गई है कि योजनाबंदी एक धोखा बन कर रह गई है। भारतीय अर्थव्यवस्था के लगभग सारे ही क्षेत्र विदेशी पूंजी के प्रत्यक्ष निवेश के लिये तथा विदेशी वित्तीय लुटेरों की मुनाफा$खोरी के लिये खोल दिये गये हैं। विदेशी वित्तीय पूंजी को राज्य की ओर से एक के बाद एक छूट प्रदान की जा रही हैं तथा भारतीय व विदेशी पूंजीपतियों के बीच साझीदारी के अनेक समझौतों पर हस्ताक्षर किये जा रहे हैं।
    27. विदेशी पूंजी के प्रत्यक्ष निवेश द्वारा तथा साझीदारियों द्वारा हमारी अर्थव्यवस्था के अंदर लगातार बढ़ती जा रही यह घुसपैठ हमारे देश के भविष्य के लिये तथा अंदरूनी व बाहरी रूप से स्वतंत्र राजनीतिक-आर्थिक नीतियां अपनाने की हमारी समर्था के लिये गंभीर खतरा पैदा कर रही है। यह एक ऐसी भयानक अवस्था है जो कि देश के अंदर अति प्रतिक्रियावाद को जन्म देती है, जो कि ना सिर्फ देश के अंदर विदेशी इजारेदार पूंजी की घुसपैठ का समर्थन करती है बल्कि अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ फौजी व युद्धनीतिक संधियों की तथा आर्थिक क्षेत्र में राष्टï्रीय हितों की संपूर्ण अधीनता की खुली वकालत करती है।
    28. सोवियत यूनियन के अंदर समाजवाद को लगे धक्कों के कारण तथा परिणामस्वरूप समाजवादी कैंप के खिंड जाने के उपरांत साम्राज्यवादी-विश्व का सबसे अधिक अमीर तथा शक्तिशाली देश, अमरीका, सबसे बड़ा अंतर्राष्टï्रीय लुटेरा बन गया है तथा एशिया, अफ्रीका व लातिनी अमरीका के देशों के दौलत के भंडारों को निचोड़ता जा रहा है। अमरीकी साम्राज्यवाद बहुत से पिछड़े देशों को अपने अधीन लाने के लिये प्रयत्नशील है तथा इस उद्देश्य के लिये मुख्य रूप से फौजी समझौतों तथा आर्थिक दबावों का उपयोग कर रहा है। यह आर्थिक नाकाबंदियों आदि द्वारा इन देशों की सरकारों की बांह मरोड़ता है, आर्थिक लूट-खसूट व राजनीतिक कंट्रोल बढ़ाने के लिये इन देशों पर हर तरह का दबाव बनाता है तथा इस तरह नव-उपनिवेशवाद का प्रमुख स्तंभ बन गये हैं। यह इन देशों को अपनी प्रत्यक्ष प्रभुता में लाने तथा कंट्रोल में करने के लिये प्रयत्नशील है। पिछले वर्षों की अंतर्राष्टï्रीय घटनाओं ने विशेष रूप से अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले ने तथा ईराक पर एंग्लो-अमरीकन हमले ने इस बात के प्रत्यक्ष सबूत दिये हैं कि अमरीकी साम्राज्यवाद विश्व प्रतिक्रियावाद का प्रमुख स्तंभ तथा अंतर्राष्टï्रीय लुटेरा है तथा वह सारे विश्व के लोगों का मुख्य दुश्मन बन चुका है।
    इन स्थितियों में भारत में अमरीकी पूंजी का प्रवेश तथा उसके साथ बढ़ रहे हमारे संबंध, हमारे देश के लिये खतरनाक स्थिति पैदा कर रहे हैं। वह हमारे देश की लूट-खसूट करने के लिये और अधिक रियायतें लेने,भारतीय बड़ी बुर्जुवाजी के साथ सांझ स्थापित करने, ‘विश्व व्यापार संस्था’ द्वारा अपने हुक्म थोपने तथा हमारे देश पर राजनीतिक दबाव डालने के लिये प्रयत्नशील है। वह सामाजिक, सांस्कृतिक तथा शिक्षा के क्षेत्रों समेत हमारे राष्टï्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में घुसपैठ कर रहा है। वह हमारे देश में भिन्न-भिन्न सांप्रदायिक तथा प्रतिक्रियावादी तत्वों से सीधे संबंध स्थापित कर रहा है। हमारे देश में प्रतिगामी सामाजिक संस्कृति के प्रसार से प्रक्ट होता है कि यह साम्राज्यवादी हमारे सामाजिव व सांस्कृतिक जीवन को भ्रष्टï कर रहे हैं। हमारी पार्टी जहां विश्व की भिन्न-भिन्न राष्टï्रीयताओं तथा राज्यों के बीच आधुनिक, विज्ञान, कला, साहित्य व संस्कृति के आदान-प्रदान व स्वतंत्र प्रवाह के सिद्धांत पर खड़ी है, वहीं यह पतनोन्मुखी साम्राज्वादी संस्कृति के आयात का डटकर विरोध करती है। भारत सरकार पतनोन्मुखी पश्चिमी साम्राज्यवादी शिक्षा व संस्कृति के विरूद्ध हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के द्वारा बुलंद किये गये बगावत के झंडे को आगे ले जाने की जगह भिन्न-भिन्न साधनों द्वारा हमारे देश में प्रतिगामी पश्चिमी साहित्य, कला व फिल्मों के प्रवेश व प्रसारण को उत्साहित करती आई है। सांस्कृतिक आदान-प्रदान की तथाकथित स्कीमें, वास्तव में पश्चिमी व विशेष रूप से अमरीकी संस्कृति के साथ नियमबद्ध रूप में संबंध स्थापित करने के लिये उपयोग की जाती हैं। पश्चिम की यह संस्कृति हमारे लोगों की नई पीढ़ी की सैद्धांतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टिï पर बुरा प्रभाव डाल रही है। इसने हमारे सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक जीवन के लिये खतरा पैदा कर दिया है।
    29. क्योंकि हमारी पंच-वर्षीय योजनायें निजी मुनाफे के उद्देश्य से देशी व विदेशी इजारेदारों पर निर्भर हैं, इसलिये यह हमारे लोगों में देशभक्तिपूर्ण उत्साह जागृत करने में असफल रही हैं। जिसके फलस्वरूप हमारे लोगों के अंदर तेजी से अमीर बनने की इच्छा बढ़ती जा रही है। साम्राज्यवादी विश्वीकरण व उपभोक्तावाद ने इस प्यास को और भडक़ाया है तथा इस तरह सामाजिक तनाव व अपराधों को बढ़ाने में योगदान डाला है। चोर-बाजारी, टैक्सों की चोरी तथा अन्य आर्थिक व वित्तीय अपराधों द्वारा बड़े पूंजीपतियों ने अरबों रुपये कमाये हैं तथा कमाये जा रहे हैं। यह मुनाफे पुन: सृजनात्मक क्रिया में नहीं लगते, बल्कि सट्टïेबाजी, शहरी संपत्ति के क्रय-विक्रय तथा व्यापार में लगते हैं। मु_ïी भर हाथों में एकत्र हो रही यह छिपी पूंजी, जिसे आम तौर पर काला धन कहते हैं, मु_ïी भर इजारेदारों, नौकरशाहों, बुर्जवा राजनीतिज्ञों तथा उनके ल_ïमारों के हाथों में है तथा व्यापक रूप से फैले हुये भ्रष्टïाचार, राजनीति के अपराधीकरण व भाई-भतीजावाद का प्रमुख स्रोत्र है जिसको समाप्त करने के समस्त यत्न विफल रहे हैं। यह सामाजिक राजनीतिक रोग आज देश के अंदर जनवाद के विकास के लिये सर्वोच्च खतरा बन चुके हैं।
    30. बिना किसी संदेह के, हमारे पिछले 5 दशकों से भी अधिक समय का तर्जुबा, यह दर्शाता है कि पूंजीवाद के आम संकट के दौर में, विशेषकर उस समय जबकि यह संकट नये गंभीर पड़ाव पर पहुंच चुका है तथा और अधिक तेज-तर्रार (Bullish) व हमलावर बन चुका है, अल्प विकसित देशों के लिये पूंजीवाद के रास्ते पर चलकर विकास करने का प्रयास निर्अर्थक है। ऐसे विकास की संभावनायें अत्यंत सीमित हैं। यहां तक कि विज्ञान व तकनीक के क्षेत्रों में, विशेष रूप से सूचना तकनीक, बायो-तकनीक तथा जीव-विज्ञान के क्षेत्रों में हुई बेमिसाल उन्नति तथा इसके फलस्वरूप वस्तुओं के उत्पादन व सेवाओं के उत्पादन की मात्रा में हुई भारी बढ़ौत्तरी भी पूंजीवाद के संकट को हल करने तथा लोगों को उनकी मुसीबतों से मुक्ति दिलवाने में बुरी तरह असफल सिद्ध हुई है। अब यह प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिïगोचर है कि यह मरणासन्न रास्ता आर्थिक निर्भरता व पिछड़ेपन, गरीबी व बेरोजगारी की हमारी बुनियादी समस्याओं को सुलझा नहीं सकता। बल्कि यह हमें लाजमी रूप से नव-उपनिवेशवाद के खतरे की ओर खींच ले जायेगा। यह हमारे देश के मानवीय व भौतिक संसाधनों का पूरा उपयोग यकीनी बनाने के भी असमर्थ है। यह नित्य बढ़ते अंतर-विरोधों को जन्म देता है तथा असंतुलनों व संकटों से भरपूर है। जहां यह साधारण लोगों पर अथाह बोझ लादता है, वहीं दूसरी ओर यह बड़े पूंजीपतियों की और अधिक मुनाफे कमाने की लालसा को भी तीव्र करता है। इस तरह, यह लोगों को और अधिक अच्छे भविष्य की आशा नहीं बंधाता तथा उन्हें विकास के पूंजीवादी रास्ते के अटल अंतरविरोधों के बीच ले जाकर खड़ा कर देता है।
 
बुर्जुवा कृषि नीतियों का लेखा-जोखा
    31. किसी भी अन्य क्षेत्र में बुर्जवा जागीरदार सरकार की नीतियों की पूर्ण असफलता इतने स्पष्टï रुप से प्रकट नहीं हुई जितनी की कृषि के मामले में। लगभग छह दशकों के बुर्जवा राज्य ने, बिना किसी संदेह के, सिद्ध कर दिया है कि इसकी कृषि नीतियों की दिशा अथवा उद्देश्य हमारे जमीनी-संबंधों पर से सामंती व अद्र्ध-सामंती बंधनों को समाप्त करना तथा इस प्रकार किसानी को सदियों पुरानी गुलामी से मुक्त करवाना नहीं बल्कि, सामंती भूस्वामियों को पूंजीवादी भूस्वामियों में परिवर्तित करना तथा धनी किसानों का एक वर्ग प्रफुल्लित करना है। वे पूंजीवादी विकास की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अधिक खेती उत्पादन के लिये जागीरदारों व धनी किसानों के भागों पर निर्भर करते हैं। वे गावों में इन भागों को शासक वर्गों का मुख्य राजनीतिक आधार बनाने में भी इनकी सहायता कर रहे हैं।
    32. रजवाड़ाशाही रियासतों का खात्मा, भूतपूर्व रजवाड़ों को यह आश्वासन देकर किया गया था कि उन्हें करोड़ों रुपये सालाना वजीफों के रूप में दिये जायेंगे जबकि उनके द्वारा लूटी गई अथाह दौलत व कृषि योग्य तथा जंगली जमीन के उनके कब्जेल वाले भू भागों को छुआ तक नहीं गया। जागीरदार, जमींदार, इनामदार आदि बिचौलियों के खात्मे के लिये बनाये गये कानून इन बिचौलियों को जानबूझ कर, खुदकाश्त जमीनों के नाम पर विशाल भू-संपत्तियां अपने कब्जे में रखने की आज्ञा देते हैं तथा मुआवजे के रूप में अथाह दौलत देने की गारंटी करते हैं। बिचौलगी के इन अधिकारों तथा बाद में राज-भत्तों (Privy-Purses) की समाप्ति का परिणाम, स्वतंत्र रूप में तथा अपने आप ही मालिकाना अधिकार हलवाहक के हाथ में चले जाने में नहीं निकला। दूसरी ओर लाखों ही मुजारों (Tenants) को कानूनी अथवा गैर-कानूनी ढंगों द्वारा पूरी तरह ही बेदखल कर दिया गया या उन्हें जागीरदारों से भिन्न-भिन्न मात्रा में कीमतें चुकाकर भू-अधिकार खरीदने के लिये मजबूर किया गया। इस प्रकार वजीफों की शक्ल में रजवाड़ों को चुकाये गये करोड़ों रुपये की रकम ने, मुआवजे के रूप में बड़े भूस्वामियों को किश्तों में चुकाई गई करोड़ों रुपये की रकम ने,  तथा जमीनें बेचने द्वारा जागीरदारों द्वारा किसानों से छीनी गई रकम आदि ने कृषि क्षेत्र को उस पूंजी से वंचित कर दिया जोकि उत्पादन के लिये उसे तीव्र रूप से दरकार थी। यह सारा खर्च राज्य पर बोझ बन गया तथा इससे लाभ केवल आलसी अमीरों अथवा जागीरदारों को हुआ।
    33. रईयतवाड़ी इलाकों के लिये बनाये गये मुजारा कानून, सबसे पहले, खुदकाश्त के नाम पर जागीरदारों को मुजारों के कब्जे वाली जमीन की तथाकथित बहाली का अधिकार देते हैं। मुजारों को एक या दूसरे बहाने उनके ऊचित अधिकारों से वंचित करने की प्रक्रिया ने तथाकथित पर्याप्त लगान नीयत करने की सारी महत्ता गंवा दी जबकि बहुधा स्थितियों में यह पर्याप्त लगान भी अपर्याप्त था। एक ओर कानूनों में जानबूझ कर रक्खे गये छेद और दूसरी ओर जागीरदार अंशों से मिले हुये नौकरशाह अधिकारियों द्वारा उन पर आधे मन से किये गये अमल के फलस्वरूप, वास्तव में, इन कानूनों का परिणाम लाखों मुजारों को ज़मीन से बेदखल करने तथा उन्हें कंगाल हुये किसानों व खेत-मजदूरों की कतारों में फेेंक देने में निकला।
    34. जमीन की हदबंदी के बहु-चर्चित कानून भी इस ढंग से बनाये गये कि जमीन के बड़े मालिक या तो अपनी भू-संपत्ति को अछूते रूप से कायम रक्ख सकें तथा या फिर अपने परिवार के सदस्यों के नाम पर मनमर्जी से गलत इंतकाल कर सकें ताकि हदबंदी के कानून उन पर लागू ही ना हो सकें। अधिकतर स्थितियों में यह हद वैसे ही बहुत ऊंची रक्खी गई व तथाकथित धार्मों, बागों व चरागाहों के नाम पर दी गई छूट ने भी इस कदम की बुनियाद को ठोकर मारी। कोई हैरानी वाली बात नहीं कि इस कानून को लागू करने द्वारा मेहनतकश किसानों में बांटने के लिये बहुत कम भूमि उपलब्ध हुई। जबकि कृषि-संबंधी मशीनरी, जो कि भूमि-उपयोग की प्रणाली में परिवर्तन की मांग करती है, के विकसित होने के साथ बड़े भूस्वामियों द्वारा एक शक्तिशाली दबाव बनाया जा रहा है कि भूमि हदबंदी कानून, जो थोड़े बहुत हैं भी, को वापिस लिया जाये। इस संभावित खतरे से छोटे किसानों के हाथों से जमीन छिन जाने की प्रक्रिया और तेज हो जायेगी। कारपोरेट कृषि के रूझान के अधीन अब तो भारतीय शासकों ने भूमि सुधारों के संकल्पों को ही त्याग दिया है।
    35. जमीन की चक्कबंदी एक और कदम है जिसके द्वारा बुर्जुवा-लैंडलार्ड शासकों ने कृषि उत्पादन को बढ़ाने का प्रयत्न किया। यह कार्य भी कुछ राज्यों में ही किया गया। जहां-जहां यह कदम लागू किये गये हैं वहां मुख्य लाभ अधिकतर मालिकों के अमीर भागों को ही हुआ है। वे गरीब व मध्यम किसानों की कीमत पर उचित स्थानों पर उत्तम भूमि प्राप्त करने की चालें चल सकने के समर्थ रहे हैं।
    36. कृषि कार्यों के लिये हल-वाहकों में बांटने के लिये जागीरदारों से भूमि प्राप्त करने की बात तो दूर रही, सरकार ने अपने इस वर्षों चले शासनकाल में कृषि योग्य बंजर जमीन भी एक जा दूसरे बहाने खेत मजदूरों व गरीब किसानों में बांटने से इंकार किया है। लाखों ही ऐकड़ ऐसी जमीन बहुत सारे राज्यों में मौजूद है तथा यह जमीन आज भी भिन्न-भिन्न राज्यों में बड़े जागीरदारों व नौकरशाहों के कब्जे में है तथा इस प्रकार जरूरतमंद किसानों को यह जमीन जोतने से वंचित रक्खा गया है। जहां कहीं गरीब किसान इन फालतू जमीनों, जिन्हें बंजर कहा जाता है, को जोतने के लिये डटे हैं, वहां हर वर्ष उन पर भारी जुर्माने लगाकर वसूल किये जाते हैं। कई राज्यों में प्रोजैक्टों के स्थानों या ओद्यौगिक कारोबारों के स्थानों से उठाये गये लोगों विशेषतय: आदिवासियों को वैकल्पिक जमीनें नहीं दी जा रहीं तथा उन्हें भूमिहीन मजदूरों की कतारों में शामिल होने के लिये मजबूर किया गया। साम्राज्यवादी-विश्वीकरण की प्रक्रिया के अधीन देश भर में औद्योगिक विकास के नाम पर विदेशी कंपनियों व भारतीय बड़े इजारेदार घरानों के लिये सरकार द्वारा किसानों की कृषि योग्य जमीनों पर जबरी कब्जे किये जा रहे हैं तथा संबंधित किसानों को उनकी जमीनों से वंचित किया जा रहा है।
    37. खेत मजदूर, जिनके पास बिल्कुल भी जमीन नहीं है या बहुत थोड़ी सी जमीन है व जिनका मुख्य गुजारा अपनी मेहनत बेचने से होता है, हमारे ग्रामीण जीवन का सबसे बड़ा इकलौता भाग हैं। सरकार की खेती संबंधी व अन्य नीतियों के कारण पिछले समय के दौरान लाखों ही बेदखल हुये मुजारों, तबाह हुये किसानों तथा उजड़े दस्तकारों के साथ उनकी कतारों में और बढ़ौत्तरी हुई है। इनमें से हजारों ही जागीरदारों तथा धनी किसानों के अधीन सालाना स्तर पर फार्म नौकरों के रूप में कार्य करते हैं। इनके न्यूनतम वेतनों को तय करने तथा अन्य सहूलियतें देने संबंधी केंद्रीय सरकार के वक्ताओं द्वारा 1947 से की जा रही बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद इनकी जीवन स्थितियों को सुधारने तथा इन्हें जागीरदारों की पाशविक लूट-खसूट से बचाने के लिये अमली रूप में कोई भी असरदार बात नहीं की गई। न्यूनतम वेतन के कथित कानून जो वर्षों के दावों तथा प्रतीक्षा के उपरांत कुछ राज्यों में बनाये गये, कानून की पुस्तक में सजावट की वस्तु के बिना और कुछ नहीं हैं। वेतन, कार्य की अन्य स्थितियां व वेतन दरें जो इन कानूनों में स्वीकार की गई हैं, वह अक्सर ऐसी हैं कि या तो संबंधित इलाकों में प्रचलित दरों से कहीं कम हैं तथा या जहां ऊंची दरें नीयत की गई हैं, वहां लागू नहीं की गईं, क्योंकि अब तक इस उद्देश्य के लिये कहीं भी कोई प्रशासनिक मशीनरी विकसित नहीं की गई है। इन श्रमिकों के बड़े भागों के पास रहने के लिये ना तो छोटे-मोटे घर हैं तथा ना ही झुग्गियां । साल के लगभग 9 महीने या तो वे पूरी तरह बेरोजगार रहते हैं तथा या फिर अद्र्ध-बेरोजगारी की अवस्था में। सरकारी व अद्र्ध-सरकारी एजंसियों की अनेकों रिर्पोटें स्पष्टï रुप से दर्शाती हैं कि इनके वास्तविक वेतन कम हो रहे हैं, इनके रोजगार के दिन कम हो रहे हैं, तथा इनके सिर पर कर्जे का बेझ बढ़ रहा है तथा कंगालीकरण में बढ़ौत्तरी हो रही है। इसके बावजूद भी इनके लिये राष्टï्रीय स्तर पर ‘‘समुचित श्रम कानून’’ बनाने की मांग के प्रति निर्दयतापूर्ण पहुंच अपनाई जा रही है। इनकी जीवन परिस्थितियों में तीव्र परिवर्तन किये बिना हमारे अति कमजोर पड़ चुके ग्रामीण जीवन के चेहरे-मोहरे का परिवर्तित करने तथा कृषि क्षेत्र में उत्पादक शक्तियों को लामबंद करने की कल्पना तक नहीं की जा सकती।
    38. सरकार द्वारा चलायी गई पंचायती राज (पंचायतें, ब्लाक समितियां व जिला परिषदें) तथा सामूहिक विकास स्कीमें, लोगों को सीमित सी सुविधायें तथा लाभ दे सकने के बावजूद अंतिम निर्णय के रूप में ग्रामीण इलाकों में शासक वर्गों के--धनी किसानों व जागीरदारों के, आधार को ही विस्तृत  बनाने तथा परिपक्च करने की साधन मात्र साबित हुई हैं। अपनी वर्गीय नीतियों के अनुसार सरकार ने हमेशा भूस्वामियों तथा किसानों के धनी भागों को ही अधिकतर प्रत्यक्ष वित्तीय, तकनीकी व अन्य सहायता दी है जबकि हल जोतने वालों व दस्तकारों के अन्य भागों को पर्याप्त मात्रा में सहायता नहीं मिली। सामूहिक विकास व राष्टï्रीय विस्तार स्कीमों पर खर्च की जाने वाली रकम का बड़ा भाग भी जागीरदारों, धनी किसानों तथा नौकरशाहों की जेब में चला गया है। उन्हें भारी रकमें तकावी कर्जों के रुप में दी गई हैं। ट्रैक्टरों, पंपिंग सैटों, आयल ईजनों तथा अन्य खेती मशीनरी की खरीद के लिये तथा ट्यूबवैल लगाने के लिये विशेष कृषि कर्जे भी अधिकतर उन्हें ही दिये गये। सरकार द्वारा बांटे जाते उन्नत किस्म के बीजों, रसायनिक खादों तथा अन्य सुधारे आदानों (Inputs) का भारी हिस्सा भी वे ही हड़प जाते हैं।
    39.  तथाकथित हरित क्रांति, घनी कृषि तथा व्यापारिक फसलों द्वारा ग्रामीण इलाकों में मुद्रा अर्थव्यवस्था का तीव्र प्रसार हुआ है। भविष्यमुखी व्यापार, अनाजों तथा अन्य कृषि जिन्सों के मुनाफाखोरी व सट्टïेबाजी के लिये भंडारीकरण में भी बहुत बढ़ौत्तरी हुई है। इसके साथ ही भारतीय व विदेशी इजारेदार हितों की कृषि उत्पादन व कृषि उपयोग में आने वाली वस्तुओं पर जकड़ भी और मजबूत हुई है, जिसके कारण असंतुलित विनियम द्वारा, महंगे व घटिया किस्म के आदानों (Inputs) द्वारा तथा कृषि वस्तुओं की कीमतों में भारी उतरावों-चढ़ावों द्वारा किसानों की लूट-खसूट तीव्र हुई है। परिणामस्वरूप, कृषि वस्तुओं के विक्रेता के रूप में तथा ओद्यौगिक वस्तुओं के खरीददार के रूप में भी, दोनों ओर से, किसानों की बुरी तरह चमड़ी उतारी जाती है।
    40. इस सब के परिणामस्वरूप सूदखोर पूंजी में भी महत्त्वपूर्ण बढ़ौतरी हुई है। हमारे देश में ग्रामीण कर्जदारी छलागें मार कर बढ़ी है। इसके साथ ही किसानों के लिये, अपने कृषि कार्य-कलाप के लिये, साधारण ब्याज दर पर कर्जा प्राप्त करना अधिक से अधिक मुश्किल होता जा रहा है। समस्त कर्जा संस्थाओं के कर्जे, सरकारी कर्जे तथा बैंकों के कर्जे सब मिला कर भी कुल ग्रामीण कर्जे की जरूरतों का बड़ा नगण्य अंश बनते हैं तथा यह कर्जे भी ज्यादातर जागीरदारों व अमीर किसानों द्वारा ही उपयोग में लाये जाते हैं। जबकि गरीब व मध्यम किसानों को अपनी आवश्यकताओं के लिये कर्जे हासिल करने के लिये अधिकतर आढ़तियों व साहूकारों की शरण में जाना पड़ता है जो कि कर्जे पर भारी ब्याज लेते हैं तथा किसानों को कर्जे के ऐसे पेचीदा व मरणासन्न जाल में फंसा लेते हैं कि उनमें से बहुतों को इससे छुटकारा हासिल करने के लिये अपनी जमीन-जायदादों से हाथ धोने पड़ते हैं। कर्जे के बोझ के कारण पैदा हुई इस दर्दनाक अवस्था में फंसे हुये हजारों किसानों ने, उन सारे ही प्रांतों में जहां कभी हरित क्रांति का गुणगान हुआ था, निराशावश आत्म-हत्यायें की हैं तथा यह त्रासदी निरंतर बढ़ती जा रही है। इसके बावजूद सरकार इस भारी ग्रामीण कर्जे का बोझ घटाने के लिये कोई प्रभावशाली कदम उठाने से इंकारी है।
    41. इन कृषि नीतियों के संपूर्ण दिवालियेपन ने भारतीय कृषि को एक सर्वव्यापी संकट में धकेल दिया है। शुरू के वर्षों में सिंचाई प्रोजैक्टों आदि पर अरबों-खरबों रुपये खर्चने के बावजूद, अब कृषि से संबंधित ढांचागत जरूरतों जैसे कि सिंचाई सुविधाओं, कृषि संबंधी खोज तथा मंडीकरण सुविधाओं आदि में बढ़ौत्तरी करने पर सरकार द्वारा लगभग बिल्कुल भी कोई पूंजी निवेश नहीं किया जा रहा है। जिसके परिणामस्वरूप, कुल मिलाकर कृषि उत्पादन स्थिर है तथा यहां अनाजों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी तेजी से घटती जा रही है। फलस्वरूप, खुराक की दृष्टिï से हमारे सिरों पर एक गंभीर खतरा मंडरा रहा है। परंतु सरकार, साम्राज्यवादी निर्देशों के अधीन, खुराकी फसलों की जगह फसल विभिन्ता का ढोल पीट रही है तथा इसे व कृषि-कंपनियों के बड़े-बड़े निगमों के निर्माण (Corporatisation of agriculture) को ही समस्त कृषि समस्याओं के समाधान के रामबाण के रूप में प्रचारित कर रही है जबकि यह भी स्पष्टï है कि यदि तथाकथित कृषि-विभिन्नता पर अमल हो गया तो उससे असंगठित, निर्आश्रय व गरीब किसानों की और अधिक चमड़ी उधेड़ी जायेगी तथा बीजों व अन्य कृषि आदानों का व्यापार कर रहे बड़े घरानों व बहु-राष्टï्रीय निगमों की दौलत में ही और बढ़ौत्तरी होगी।
    42. आज, आजादी के लगभग 6 दशकों उपरांत तथा कृषि संबंधी सुधारों के समस्त कानूनों समेत बुर्जुवाजी के इतने समय के शासन के बाद भी जमीन के स्वामित्व का केंद्रीयकरण पहले की तरह ही कायम है। सन 2000 में घाषित की गई ‘‘राष्टï्रीय कृषि नीति’’ के अधीन ‘‘निगमित कृषि’’ शुरू कर देने के साथ देश के अंदर भूमि के स्वामित्व की स्थिति लाजमी रूप में पूंजीपति लैंडलार्डों व कंपनियों की ओर अधिक झुकेगी तथा परिणामस्वरूप जमीन के उनके हाथों में संचित होने की प्रक्रिया और मजबूत होगी। यह भी स्पष्टï है कि जमीन पर से इजारेदारी तोडऩा, खेत मजदूरों व गरीब किसानों में फालतू जमीन की बांट करना तथा उन पर कर्ज के भारी बोझ को खत्म करना लाखों ही किसानों की सृजनात्मक शक्ति को बंधन मुक्त करने व उनके उत्साह को प्रफुल्लित करने के लिये लाजमी शर्त है। केवल ऐसे तीव्र जमीनी सुधार ही कृषि उत्पादन में असीमित बढ़ौत्तरी का आधार बन सकते हैं। जबकि वर्तमान जमीनी संबंधों में हर साल अरबों करोड़ रूपये जागीरदारों, बड़े-बड़े लैंडलार्डों व सूदखोरों के हाथों में चले जाते हैं तथा यह रकम पुन: उत्पादन के उद्देश्यों के लिये उपयोग नहीं की जाती है बल्कि मुनाफाखोर व्यापार व सूदखोर पैसे के रूप में उपयोग की जाती है। इस प्रकार इन संंबंधों का समाप्त किया जाना हमारे उद्योगों व कृषि के लिये पूंजी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत्र मुहैय्या करवायेगा।
    43. मौजूदा अवस्थाओं में हम कृषि में पर्याप्त मात्रा में कदाचित विकास नहीं कर सकते तथा देश के लिये जरूरी अन्न व कच्चा माल मुहैय्या नहीं करा सकते क्योंकि जमीन से वंचित गरीब किसान कृषि को बेहतर बनाने के लिये अत्यंत बुनियादी आधुनिक कृषि यंत्रों व जरूरी उर्वरक खरीद सकने से ही असमर्थ हैं।
    हम अपने राष्टï्रीय उद्योगों का विकास नहीं कर सकते तथा देश का व्यापक स्तर पर ओद्यौगिकीकरण भी नहीं कर सकते क्योंकि किसान जो आज भी आबादी का लगभग 75 प्रतिशत है, तैयार वस्तुओं को नगण्य सी मात्रा में भी खरीद नहीं सकता।
    हम मजदूर वर्ग की जीवन स्थितियों को बेहतर नहीं बना सकते क्योंकि गरीबी के सताये लाखों ही भूखे लोग अपने इलाके छोडक़र शहरों में जाते हैं, ‘‘श्रम के बाजार’’ (Labour Market) में भीड़ पैदा करते हैं, बेरोजगारों की फौज बढ़ाते हैं व श्रम की कीमत को घटाते हैं।
    हम अपने सांस्कृतिक पिछड़ेपन में से तेजी से निकलने का रास्ता नहीं खोज सकते क्योंकि गरीब व भूखे किसान जो आबादी का बहु-संख्यक हैं, अपने बच्चों को उचित व उच्च-स्तरीय विद्या प्रदान करना तो एक ओर रहा, बुनियादी प्राईमरी शिक्षा देने के लिये जरूरी भौतिक साधनों से भी वंचित हैं।
    इस प्रकार कृषि व किसानी समस्याऐं हमारे देश के जीवन के लिये बुनियादी महत्ता रखती हैं तथा यह अभी भी सब से बड़े राष्टï्रीय प्रश्न के रूप में खड़ी हैं।  

विदेश नीति    

44. किसी भी राज्य व उसकी सरकार की विदेश नीति अंतिम निर्णय के रूप में उसकी अंदरूनी नीतियों का प्रतिबिंब ही होती है, तथा यह मुख्य रूप से उस वर्ग या वर्गों के हितों को प्रकट करती है जो संबंधित राज्य व सरकार का नेतृत्व कर रहे होते हैं। कुदरती रूप से भारत सरकार की विदेश नीति भी हमारी बुर्जुवाजी के दोगले चरित्र--साम्राज्यवाद का विरोध भी तथा उसके साथ सांझ भी-- को प्रकट करती है। साम्राज्यवादी देशों की इजारेदार बुर्जुवाजी के विपरीत भारतीय बुर्जुवाजी को अपने विकास के लिये विश्व शांति की जरूरत है, इसलिये यह विश्व युद्ध के विरुद्ध है। पहले जबकि विश्व एक ओर साम्राज्यवाद के युद्धक कैंपों तथा दूसरी ओर समाजवाद के शांति कैंपों के बीच तीव्र रूप से बंटा हुआ विश्व था, तथा उस अवस्था में, जब अमरीका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी कैंप ने भिन्न-भिन्न देशों को अपने कंट्रोल में लाने की खातिर आक्रामक फौजी गठजोड़ बनाने की स्कीमें शुरू की हुई थीं तब भारत सरकार ने इस देश की नव-प्राप्त राजनीतिक स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिये तथा अपने वर्गीय हितों को आगे बढ़ाने के लिये निरपेक्षता या गुटों से निरलेप रहने की नीति अपनाई थी। इस नीति पर चलते हुये साम्राज्यवाद व समाजवाद के कैंपों के बीच के अंतरविरोधों को तथा अमरीकी व बर्तानवी साम्राज्यवाद के बीच के अंतरविरोधों को भी इस्तेमाल करने का प्रयास किया गया। इसी नीति के अधीन भारत सरकार ने गुट-निरपेक्षता व निरलेपता की नीति को भिन्न-भिन्न समयों पर, अपने फौरी वर्गीय हितों के अनुसार, अलग-अलग अर्थ दिये। परंतु समाजवादी कैंप के बिखर जाने तथा विश्व के एक धु्रवी बन जाने के साथ भारतीय सरकार गुट निरलेपता व निरपेक्षता की नीति को, एशिया, अफ्रीका व लातिनी अमरीका के अल्प विकसित व विकासशील देशों के हितों को, पूरी तरह बेशर्म होकर पीठ दे गई है तथा अमरीकी साम्राज्यवाद की ओर बड़ी तीव्रता से झुक गई है। यद्यपि यह आज भी अपने वर्गीय हितों को बढ़ाने के लिये अंतर-साम्राज्यवादी अंतरविरोधों का उपयोग करने का प्रायास करती है परंतु अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ नजदीकियां विकसित करना व युद्धनीतिक नजदीकियां बनाना ही इसकी वर्तमान विदेश नीति का उभरता लक्षण है।
    45. आजादी के एकदम बाद के समय में भी जब यह अपने औद्योगिक विकास के लिये विशेष करके अमरीका की ओर झांकती थी, जब इसे अमरीकी हथियारों के अविजयी होने का पूर्ण विश्वास था, तब भारत सरकार ने साम्राज्यवादी कैंप की ब्लैकमेल के सामने घुटने टेकने के रूझान को बहुत प्रकट किया था तथा यह उस ओर बहुत झुकी। मलाया के स्वतंत्रता संघर्ष को दबाने के लिये बर्तानवी साम्राज्यवादियों को भारत की धरती से गोरखे भरती करने के लिये कैंप लगाने की आज्ञा देनी, वियतनाम जनवादी गणराज्य के विरूद्ध लडऩे जाते फ्रांसीसी साम्राज्यवादी जंगी जहाजों को भारतीय अड्डïों में सुविधायें प्रदान करना, यद्यपि नगण्य रूप में ही, कोरिया में अमरीकी फौजों को चिकित्सा सहायता भेजना, औद्योगिक विकास के लिये सोवियत यूनियन द्वारा पेश की गई सहायता को स्वीकार करने से हिचकिचाना--यह सब इस रूझान के स्पष्टï संकेत थे। इस पड़ाव पर ही भारत ने आम  तौर से संयुक्त राष्टï्र में पश्चिमी ब्लाक का साथ दिया। इस तथ्य को भारतीय प्रतिनिधी ने संयुक्त राष्टï्र में खुलेआम व स्पष्टï रूप से ब्यान किया। इसी समय ही, संयुक्त राष्टï्र के नाम पर लोक-जनवादी कोरिया के विरुद्ध छेड़े गये आक्रमक युद्ध का तथा उत्तरी कोरिया को हमलावर करार देने के प्रस्ताव का भारतीय प्रतिनिधि ने समर्थन किया।
    46. परंतु बाद में कोरिया तथा वियतनाम में साम्राज्यवादी हथियारों के परास्त होने के साथ, समाजवादी विश्व की आर्थिक व फौजी शक्ति में बढ़ौत्तरी के साथ तथा परमाणु हथियारों में पश्चिम, विशेष रूप से अमरीका की इजारेदारी टूटने के साथ, एशिया व अफ्रीका में स्वतंत्रता संघर्षों की बेमिसाल चढ़त के साथ, जिनके कारण समाजवाद, शांति व राष्टï्रीय आंदोलनों के पक्ष में विश्व ताकतों का संतुलन बदल गया, साम्राज्यवादी देशों से अपने औद्योगिक विकास के लिये भारी आर्थिक सहायता प्राप्त करने का भ्रम दूर होने के साथ, कुंजीवत महत्त्व के उद्योग निर्मित करने के लिये समाजवादी देशों से निस्वार्थ सहायता प्राप्त करने की बढ़ती संभावनाओं के साथ, देश में शांति आंदोलन तथा जन जुझारू आंदोलनों के बढऩे के साथ जिनका प्रकटावा पहले आम चुनावों में हुआ तथा भारत पर दबाव डालने के उद्देश्य के अधीन सीटो फौजी संधि में शामिल होने के बारे में अमरीका व पाकिस्तान का समझौता होने से भारत सरकार की गुट-निरलेपता की नीति में एक नया दौर प्रारंभ हुआ। यह वह दौर था जब सरकार फौजी गठजोड़ों के विरूद्ध, साम्राज्यवादी हमलों के विरूद्ध, उपनिवेशवाद के विरूद्ध, जन संघर्षों के समर्थन में, परमाणु हथियारों पर पाबंदी व निशस्त्रीकरण के लिये तथा एफ्रो-एशियाई सौहार्द के हक में सामने आई। यह दौर कोरिया में शांति कायम करवाने के लिये जेनेवा सम्मेलन में इसकी भागीदारी तथा इसकी शमूलियत तथा इसकी सरगरम भूमिका में, तिब्बत के बारे में भारत-चीन संधि पर जिसमें शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धांत (पंचशील) शामिल थे, पर हस्ताक्षर करने में तथा एशिया-अफ्रीकी देशों के बांडुंग सम्मेलन में इसकी भूमिका के रूप में देखा गया।
    गुट-निरपेक्षता की नीति को प्रदान किये गये साम्राज्यवादी विरोधी तत्व ने अंतर्राष्टï्रीय क्षेत्र में एक सकारात्मक भूमिका अदा की। इसने भारत को युद्ध तथा परमाणु डिप्लोमेसी की नीतियों के विरूद्ध, अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों के शांतिपूर्ण निपटारे के लिये तथा शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के हक में दृढ़ता से खड़ा किया। समाजवादी देशों के साथ भारत के संबंध ज्यादा नजदीकी तथा सौहार्दपूर्ण हो गये तथा उसका अंतर्राष्टï्रीय गौरव, विशेष रूप से एशिया व अफ्रीकी देशों में, बढ़ गया।
    47. यद्यपि लगभग सन् 1958 के आरंभ से ही भारत सरकार की विदेश नीति साम्राज्यवाद व समाजवाद, दोनों ही, कैंपों के बीच संतुलन बनाये रखने के पड़ाव से गुजरी है। कांगो में इसकी भूमिका, अल्जीरिआई अस्थाई सरकार को मान्यता देने से इसका इंकार, कई उपनिवेशवाद विरोधी मामलों पर इस द्वारा स्पष्टï व दृढ पहुंच धारण करने से इंकार, वियतनाम व लाओस संबंधी अंतर्राष्टï्रीय कंट्रोल कमीशन के चेयरमैन के रूप में इसकी भूमिका, 1961 में बैलग्रेड में हुये निरपेक्ष देशों के सम्मेलन में इसका स्टैंड, जिसने भारत को बहुसंख्यक एशिआई अफ्रीकी देशों के विरोध में खड़ा कर दिया, निरपेक्ष देशों के काहिरा में हुये सम्मेलन में इसकी भूमिका तथा इस द्वारा साम्राज्यवाद की शह से बने मलेशिया को मान्यता दिये जाना, सब घटनायें इस नये दौर की साक्षी हैं।
    48. यह बात नोट करने वाली है कि चाहे बहुत सारे एशियाई, अफ्रीकी देशों जिन्होंने भारत द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करने के उपरांत अपने गले से उपनिवेशवाद को उतार फेंका, से संबंधित मामलों तथा ऐसे अन्य मामलों पर स्पष्टï रूप में तथा निरंतर साम्राज्यवाद विरोधी स्टैंड लिया। यद्यपि उस समय, जब समाजवादी कैंप की नित्यप्रति बढ़ती शक्ति के कारण, अफ्रीका के बहुत से देशों द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त कर लेने के कारण, विश्व की स्थिति अधिक सौहार्दपूर्ण हो गई थी, आशा तो यह की जा सकती थी कि स्वतंत्र भारत उपनिवेशवाद के विरोध, गुट निरपेक्षता तथा शांति की नीति को अधिक दृढ़ता से आगे ले जायेगा पर हुआ इसके एकदम विपरीत।
    49. भारत में इजारेदारियों के बड़े कारोबारों में बढ़ौत्तरी तथा उनके विदेशी इजारेदारियों के साथ निर्मित संबंध, जिन्हें सरकार द्वारा उत्साहित किया जाता रहा, सरकार की पंचवर्षीय योजनाओं की पश्चिमी देशों, विशेषकर अमरीका तथा अन्य पश्चिमी देशों व अंतर्राष्टï्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक जैसी साम्राज्यवादी एजंसियों की सहायता पर बढ़ती आत्म निर्भरता, भारतीय लोगों के समक्ष खड़ीं बुनियादी समस्यायें सुलझा सकने में सरकार की विफलता तथा सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण देश के भीतर सामाजिक विरोधाभासों का उभरना व तीव्र होना, इस सब कुछ का सरकार की सब नीतियों पर बड़ा प्रभाव पड़ा तथा विदेश नीति इस प्रभाव क्षेत्र से बाहर नहीं थी हो सकती। भारत सरकार की विदेश नीति का उपरोक्त पड़ाव एकदम उन घटनाक्रमों का परिणाम था तथा यह बुर्जुवा सरकार के वर्गीय चरित्र में से उत्पन्न होता था। इसी दौरान, साम्राज्यवादी सहायता पर बढ़ती निर्भरता ने एंग्लो-अमरीकी साम्राज्यवादियों को कश्मीर के प्रश्न पर पाकिस्तान के साथ झगड़े में बढ़ती मात्रा में दखलअंदाजी करने के समर्थ बना दिया।
    50. चीन के साथ उभरे सीमा-झगड़े, जिसने कि एशिया के दो सबसे बड़े देशों के बीच सीमा-युद्ध का रूप धारण कर लिया था, से भारत सरकार की विदेश नीति में साम्राज्यवादी ब्लाक के पक्ष में झुकाव और अधिक बढ़ गया। परंतु 1971 में बंगला देश से संबंधित संकट इस नीति में एक नया मोड़ सिद्ध हुआ तथा भारत सरकार ने समाजवादी कैंप, विशेष रूप से सोवियत यूनियन जो कि भारत के साथ ठोस रूप से खड़ा हुआ, के साथ बहुत नजदीकी संबंध स्थापित कर लिये।
    51. परंतु, जब 80 के दशक में देश के अंदर आर्थिक संकट और गंभीर हुआ तथा भुगतान संतुलन के संकट पर काबू पाने के लिये साम्राज्यवादी एजंसियों से फौरी मदद की जरूरत उभरी तो पुन: विदेश नीति में अमरीका के पक्ष में तीखा उभार आया।
    52. प्रत्यक्ष रूप से, बड़ी बुर्जुवाजी के नेतृत्व में चल रहे राज्य व सरकार से, जो कि जन-विरोधी नीतियों पर चल रही हो, ना ही गुट-निरपेक्षता की नीति की तथा ना ही उस पर वास्तविक अमल की आशा रक्खी जा सकती थी। इसका प्रमाण यहां स्पष्टï दिखाई देता है। परंतु 1991 से नई आर्थिक पहुंच अपनाने के साथ, तथा साथ ही समाजवादी कैंप के बिखर जाने के साथ, गुट-निरपेक्षता की विदेश नीति गंभीर खतरे में आ गई है तथा निरंतर रूप से बेजान होती जा रही है। हमारे देश की अर्थ-व्यवस्था पर साम्राज्यवादी इजारेदार पूंजी की पकड़ मजबूत हो जाने के साथ भारत सरकार अंतर्राष्टï्रीय समस्याओं संबंधी स्वतंत्र दृष्टिïकोण लेने तथा अमरीकी साम्राज्यवाद के प्रभूत्ववादी मंसूबों का विरोध करने के रूख को छोड़ती जा रही है। अमरीकी सरकार के साथ युद्धनीतिक सुरक्षा संधि व परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर करके सरकार ने गुट-निरपेक्षता संबंधी अपनी नीति लगभग गिरवी रख दी है।
    इसलिये, आज यह एक प्रथम आवश्यकता बन गई है कि भारत के देशभक्त जनसमूहों को विदेश नीति के बीच के स्वतंत्र व निरपेक्ष तत्वों की रक्षा के लिये, साम्राज्यवादियों के हमलावर मंसूबों के विरूद्ध व चीन, पाकिस्तान, बंगला देश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, म्यांमार व विश्व के अन्य अल्पविकसित व विकासशील देशों के साथ भ्रातृत्वपूर्ण संबंध मजबूत करने के लिये विशाल स्तर पर लामबंदी की जाये।

 
बुर्जुवा शासन के अधीन राज्य का ढांचा व जनवाद    

53. वर्तमान भारतीय राज्य बड़ी बुर्जुवाजी के नेतृत्व में बुर्जुवाजी व जागीरदारी के वर्गीय शासन का साधन है, तथा यह वर्ग विकास के पूंजीवादी रास्ते पर चलते हुये विदेशी वित्तीय पूंजी के साथ अधिक से अधिक सहयोग बढ़ाता जा रहा है। यह वर्ग चरित्र ही देश के जीवन में राज्य के चरित्र को निर्धारित करता है।
    54. स्वतंत्रता के बाद भारतीय शासकों से आशा की जाती थी कि वे भाषाई प्रदेशों के आधार पर इन राज्यों को पूर्ण स्वायत्तता व आदिवासी क्षेत्रों को प्रादेशिक या स्थानीय स्वायत्तता देकर जनवादी भारत के राजनीतिक ढांचे को नया रूप देते। यद्यपि जन दबाव व जनसंग्रामों की पृष्ठïभूमि में इन्होंने रजवाड़ाशाही रियासतों को खत्म कर दिया तथा उनका भारतीय यूनियन में विलय कर दिया, तब भी संकुचित दृष्टिï वाले तथा प्रतिक्रियावादी इजारेदार गुटों के प्रभाव के नीचे सरकार ने सब राज्यों को भाषाई आधार पर पुर्नगठित करने से इंकार कर दिया। आखिरकार, जम्हूरी जनता के जनसंघर्षों के जोर से, चाहे रुक-रुक कर ही, यह समस्या हल हुई। यद्यपि, अभी भी कुछ ऐसी समस्यायें कायम हैं जो अभी तक सुलझाई नहीं गईं।
    55. भाषा संबंधी समस्या अभी भी संतोशजनक ढंग से सुलझाई नहीं गई है। भिन्न-भिन्न प्रदेशों की भाषाओं को भी प्रभावशाली ढंग से शासन प्रबंध व अदालतों की भाषा बनाना तथा शिक्षा माध्यम बनाया जाना बाकी रहता है। हमारे शासन प्रबंध व शिक्षा क्षेत्र में अभी भी अंग्रेजी भारी है। प्रादेशिक भाषाओं को प्रबंधकीय व शिक्षा क्षेत्र में अपना बनता स्थान देने से इंकार करते हुये, गैर-हिंदी भाषी लोगों पर अंग्रेजी की जगह हिंदी थोपने का प्रयास किया गया।
    56. यद्यपि हमारा राजनीतिक ढांचा फैडरल माना गया था तब भी अमल में सारी शक्ति तथा अधिकार केंद्रीय सरकार के हाथों में केंद्रित हैं। राज्यों के पास बड़ी सीमित सी शक्ति व अधिकार हैं, उनकी स्वायत्तता रस्मी है, यह स्थिति प्रदेशों को बुरी तरह केंद्र सरकार का मोहताज बना देती है, उनके विकास व अन्य राष्टï्रीय निर्माण की सरगरमियों को रोकती है तथा इस प्रकार उनकी प्रगति में बाधक बनती है।
    57. ऐसी अवस्था में केंद्रीय सरकार व प्रदेशों के बीच अंतरविरोधों का उत्पन्न होना तथा बढऩा स्वाभाविक ही था। इन अंतरविरोधों के अंदर, आम तौर से, एक ओर बड़ी बुर्जुवाजी है तथा दूसरी ओर समूचे लोग, समेत एक या दूसरे प्रदेश की स्थानीय बुर्जुवाजी, के बीच यह गहरा अंतरविरोध कार्य करता है। यह गहरा अंतरविरोध पूंजीवादी असंतुलित विकास के कारण आजाद भारत में एक दशक के भीतर ही तीव्र होना शुरू हो गया, जिसके परिणाम के रूप में कुछ एक शक्तिशाली इलाकाई बुर्जुवा-लैंडलार्ड पार्टियां उभर आई, जिन्होंने केंद्र व राज्यों में सरकारें बनाने संबंधी कांग्रेस की इजारेदारी को तोडऩे में तथा राजनीतिक शक्तियों के जनवादी-विकेंद्रीकरण द्वारा फैडरल ढांचा विकसित करने के संघर्ष में, एक सीमा तक, सकारात्मक भूमिका निभाई।
    58. परंतु बाद में, अपने वर्गीय हितों के कारण इन बुर्जुवा-लैंडलार्ड इलाकाई पार्टियों में से कुछ एक जैसे कि अकाली दल, डी.एम.के., ए,आई.ए.डी.एम.के., आर.जे.डी., समाजवादी पार्टी, तेलगू देशम आदि भी खुले रूप में सांप्रदायिक, जातिवादी या इलाकाई अलगाववादी नारे लगाने लगीं तथा उन्होंने अपने संकुचित राजनीतिक हितों के लिये आम जन समूहों के पिछड़ेपन का दुरूपयोग किया। साम्राज्यवादी विश्वीकरण की आमद के साथ सारी इलाकाई बुर्जुवा-लैंडलार्ड पार्टियां ही नवउदारवाद के जोरदार समर्थक के रूप में सामने आई हैं तथा जब भी तथा जहां भी उन्हें शासन चलाने का मौका मिला है, इन्होंने साम्राज्यवादी एजंसियों द्वारा निर्देशित जन-विरोधी नीतियों को पूरी ताकत से लागू किया है।
    59. कई प्रदेशों में कई ऐसे जुड़वें इलाके हैं जहां आदिवासी लोगों की ऐसी आबादी है जिनकी अपनी ही विशेष भाषा, संस्कृति व विरासत है। पूंजीवादी विकास की नई स्थितियों के अधीन यह लोग एक तरह के परिवर्तन व तबाही के दौर में से गुजर रहे हैं। उनके अंदर इस संबंध में चेतना भी उभर आई है। बड़े-बड़े प्रदेशों में बिखरे तथा छोटे-छोटे समूहों में होने तथा रहने की वर्तमान स्थितियों में यह नई चेतना अपनी अभिव्यक्ति के लिये अवसर हासिल नहीं कर सकती। जहां उनकी संख्या बहुत ज्यादा है तथा भूगोलिक स्थिति आज्ञा देती है, वहां वे अपने इलाकों को तरक्की प्रदान करने, प्रादेशिक या पूर्ण स्वायत्तता की मांग करते हैं। परंतु बुर्जुवाजी जिसके लिये आदिवासी लोग जंगलों, खानों आदि में श्रम की सप्लाई का अच्छा संसाधन बने हुये हैं तथा जो अपनी आदिवासी परिस्थितियों के अधीन उस की लूट-खसूट के सरलता से शिकार हो जाते हैं, उनके उचित अधिकारों से इंकार करती है तथा उन्हें ताकत से दबाती है या उनके अग्रणी नेताओं को कुछ रियायतें देकर उनमें फूट डालती है।
    60. बड़ा बुर्जुवा नेतृत्व बुलंद आवाज में दावा करता है कि हमारा धर्म-निरपेक्ष लोकतंत्र है तथा वे धार्मिक व अंधविश्वासों पर आधारित सिद्धांतों के इसमें प्रवेश के विरुद्ध हैं। पर सचाई यह है कि इन धर्म-निरपेक्षता विरोधी रूझानों को प्रभावशाली ढंग से रोकना तो दूर रहा, वे इन्हें रियायतें देकर मजबूत करता है। इसके नेता निरंतर सैकूलर स्टैंड नहीं लेते बल्कि खुद धार्मिक अंध-विश्वासों के शिकार हैं। वे धर्म-निरपेक्षता के समूचे संकल्प को बिगाडऩे का प्रयास करते हैं। वे लोगों को यह मनवाना चाहते हैं कि धर्म व राजनीति को पूरी तरह अलग-अलग रखने की जगह धर्म निरपेक्षता का अर्थ है सब धार्मिक विश्वासों के लोगों के राजनीतिक जीवन में दखल देने के बराबर के अवसर देना। वास्तव में, उनके लिये धर्म-निरपेक्षता एक राजनीतिक लाभप्रदता का मुद्दा है, सामाजिक प्रतिबद्धता का नहीं।
    61. ऐसी अवस्था में, मेहनतकश जनसमूहों की बुनियादी सामाजिक आर्थिक समस्याओं को निपटाने में सरकार की पूर्ण असफलता से तथा धर्म निरपेक्षता के प्रति शासक वर्गों की इस दुविधापूर्ण व अवसरवादी पहुंच का लाभ लेकर, देश के अंदर आर.एस.एस. के नेतृत्व में कट्टïड़ सांप्रदायिक शक्तियां बड़े स्तर पर उभरी हैं। इस घटना ने अल्पसंख्यकों के अंदर असुरक्षा व बेगानेपन की भावना पैदा की व मजबूत की है। इसकी प्रतिक्रिया के रूप में अल्पसंख्यकों से संबंधित सांप्रदायिक नेता व कट्टïरपंथी भी अल्पसंख्यकों को सांप्रदायिक व अलगाववादी दिशा में संगठित करने का प्रयास कर रहे हैं, जिससे देश की एकता व अखंडता के लिये गंभीर चिंतायें पैदा हुई हैं।
    इसलिये हमारी पार्टी का यह कत्र्तव्य बनता है कि वह धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत पर निरंतर अमल करवाने के लिये डट कर संघर्ष करे। इस सिद्धांत के प्रति शासकों की दुविधा को नंगी किया जाये व उनके विरूद्ध संघर्ष किया जाये। हर धार्मिक संप्रदाय के--चाहे वह बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक हो तथा वे जिनका किसी भी धर्म में विश्वास ना हो, सबके अपनी मर्जी से धर्म अपनाने या नास्तिक रहने के अधिकार की रक्षा करते हुये पार्टी, राष्टï्र के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व प्रबंधकीय जीवन में धर्म की किसी प्रकार की भी दखलंदाजी के विरूद्ध संघर्ष करे। देश के सार्वजनिक जीवन में दखलंदाजी करने के सभी धार्मिक समूहों के नेताओं के प्रयत्नों के विरुद्ध बराबर संघर्ष करने के साथ साथ हम बहुसंख्यक धार्मिक संप्रदाय अथवा हिंदुओं के छावनवादी नेताओं के विरुद्ध गोलीबारी अधिक केंद्रित करें। इसके साथ ही हम अल्पसंख्यकों के धार्मिक समूहों को बताते रहें कि उनके उचित अधिकार धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत पर निरंतर अमल के आधार पर ही कायम व सुरक्षित रह सकते हैं।
    62. पूंजीवादी मुकाबले की परिस्थितियों में संविधान में दबे-कुचले लोगों, दलितों, पिछड़े भागों तथा अलपसंख्यकों के गारंटीशुदा अथिकारों पर भी अमल नहीं किया जाता। इस प्रकार बुर्जुवा-जागीरदार शासन, एकता विरोधी शक्तियों को बल प्रदान करता है तथा मजबूत धर्म-निरपेक्ष व समानता की नींव पर देश की एकता निर्मित करने में असफल रहता है।
    63. प्रबंधकीय ढांचा अत्यंत केंद्रित नौकरशाही पर आधारित होने के कारण, जो कि पूंजीवादी विकास के उत्थान को दृश्यमान करता है, कुछ अग्रणी नौकरशाहों, जो दूसरे लोगों से कटे हुये हैं व जो शोषक वर्गों के हितों से वफादारी पालते हैं, के हाथ में सारी शक्ति केंद्रित करता है तथा यह समूची शक्ति उनके द्वारा उपयोग की जाती है। यहां तक कि पंचायती शासन प्रणाली भी नौकरशाही के हाथकंडों का शिकार बन गई है तथा लोगों को आम साधारण सुविधायें देने में असफल सिद्ध हो रही है। इस प्रकार पंचायती राज, ग्रामीण ईलाकों में, शासक वर्गों के हाथ में अपनी स्थिति मजबूत करने का हथियार बन जाता है। लुटेरे शाशकों व उनके नौकरशाहों द्वारा चलाई जाती ऐसे बुर्जुवा जनतंत्र में जनता के लिये वास्तविक लोकतंत्र की कोई जगह नहीं है।
    64. न्यायपालिका, मजदूरों, किसानों व अन्य मेहनतकश भागों के विरुद्ध पक्षपाती है। कानून, व्यवहार व इंसाफ का ढांचा चाहे सैद्धांतिक रूप में अमीर व गरीब के लिये बराबर है, परंतु अमल में वह शोषक वर्गों के हितों को पालता है तथा उनके वर्गीय शासन को बरकरार रखता है। यहां तक  कि न्यायपालिका व कार्यकारिणी को अलग-अलग रखने के बुर्जुवा-लोकतांत्रिक सिद्धांत पर भी अमल नहीं किया जाता तथा न्यायपालिका कार्यकारिणी के प्रभाव की रखैल बन जाती है।
    65. बुर्जुवाजी तथा उसके सहयोगी लैंडलार्ड, मजदूर वर्ग, किसान व मध्य श्रेणियों के मुकाबले में, जिन पर वे शासन करते हैं, तथा जमीन, पूंजी व गुजर-बसर के समस्त साधनों पर अपने स्वामित्व के कारण उनकी लूट-खसूट करते हैं, समूचे देश में एक छोटी सी अल्प-संख्या हैं। पूंजीवादी राजसत्ता व उसकी सरकार, संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली में बहुसंख्यक वोटों द्वारा चुने जाने के बावजूद, राजनीतिक व आर्थिक तत्व के रूप में अल्प-संख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं।
    66. जब यह राज्य शक्ति व इसके वर्गीय हित शोषित लोगों के हितों से सीधे रूप में टकराते हैं तो सरकार अपने शासन को बनाये रखने के लिये फौज व पुलिस पर अधिक से अधिक निर्भर होने की ओर बढ़ती है। इस प्रकार बुर्जुवाजी इन फौजों के बीच के लाखों फौजी जवानों को लोगों से, सारी राजनितिक चेतना से व सभी राजनीतिक अधिकारों से परे रखती है। यदि उन्हें चुनावों में नागरिकों के रूप में वोट देने का अधिकार दिया भी जाता है तो भी किसी भी प्रकार के साहित्य द्वारा किसी भी राजनीतिक पार्टी को उन तक पहुंचने की आज्ञा नहीं होती। फौजियों को अपने संसदीय क्षेत्र के प्रतिनिधि को भी किसी भी काम की खातिर मिल सकने की आज्ञा नहीं होती।
    67. यद्यपि, यह सारा कुछ जनरलों, नौकरशाहों तथा एकदम उपर के अफसरों पर लागू नहीं होता जो आम तौर पर बुर्जुवा-जागीरदार वर्गों में से लिये गये होते हैं तथा जिन्होंने विशेष संस्थाओं में शिक्षा प्राप्त की होती है। वे परदे के पीछे से अपने ही ढंग से अपनी राजनीति चलाते हैं।
    68. भारत में संविधान में बालिग वोट द्वारा चुनी गई संसद की व्यवस्था है तथा इस संविधान में लोगों को कुछ बुनियादी अधिकार दिये गये हैं। परंतु लोग बहुत ही सीमित हद तक इन अधिकारों का उपयोग करने में सफल हो सके हैं। मेहनतकश लोगों तथा बुर्जुवा-लैंडलार्ड वर्गों व उनके जोटीदारों के बीच तीव्र होते जा रहे अंतरविरोधों के कारण लोगों पर वर्गीय दमन निरंतर रूप से बढ़ा है, जिसके कारण जनवादी मूल्यों, संस्थाओं व सरोकारों को चोट पहुंची है। संविधान में दर्ज सारी ही जनवादी संस्थायें, जैसे कि संसद, विधान पालिका, न्यायपालिका तथा बुनियादी अधिकार आदि, बड़ी हद तक अपनी भरोसेयोग्यता गंवा चुकी हैं। यहां तक कि वोट का अधिकार भी, बड़ी हद तक, धन शक्ति का गुलाम बन चुका है। हर तरह के समाज विरोधी तत्वों, अपराधी तथा गुंंडा तत्वों ने भी बुर्जुवा राजनीतिज्ञों की गोद में बहुत ही सुरक्षित जगह खोज ली है। इस तरह अब राजनीति में भी बाहुबलियों की भारी मांग हो गई है। बुनियादी अधिकारों को, आम तौर से इनमें से बहुत सारे अधिकारों को, राज्य के अधिकारियों द्वारा गलत अर्थ दिये जाते हैं, बिगाड़ा जाता है तथा कई बार इनकी उल्लंघना की जाती है। जब मजदूरों, किसानों व जनवादी लोगों के अन्य भागों के संघर्ष का सामना होता है तो अधिकार लागू होने से रुक जाते हैं। अमन कानून कायम करने के नाम पर लाखों की आबादी वाले समूचे इलाकों या खंडों को महीनों व सालों तक धारा 144 के अधीन रख कर लोगों को इक_ïे होने की स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है। इसका उद्देश्य मजदूरों व किसानों को अपने हितों के लिये संघर्ष करने से रोकना होता है। मजदूर व किसान जब अपने राजनीतिक व आर्थिक अधिकारों की रक्षा व मांगों के लिये प्रयत्न करते हैं तब मजदूरों व किसानों के विरुद्ध सरकारी संस्थाओं का दमन उग्र रुप धारण करता है। घृणित निवारक नजरबंदी कानून भिन्न-भिन्न रुपों में स्वतंत्रता के बाद 60 सालों में निरंतर रूप से लागू रहे हैं। ऐसे कानून जो कि भूतपूर्व बर्तानवी शासकों ने भी युद्ध के दिनों के बिना कभी उपयोग में लाने की हिम्मत नहीं की थी, कानून की पुस्तक का बाकायदा अंग बन गये हैं तथा पिछले 60 सालों के दौरान लगातार उपयोग में लाये गये हैं। इसी तरह ही संविधान में रखी गई राष्टï्रीय एमरजैंसी की धारा का 1975 में गलत उपयोग किया गया। मजदूरों, किसानों व मध्यम वर्गों की न्यायोचित व जनवादी संघर्षों को दबाने के लिये आर्डीनैंस आम ही जारी किये जाते हैं।
    69. प्रेस, जलसे व प्रचार करने की आजादी भी वास्तव में शोषक वर्गों के लिये ही है जो कि रोजाना समाचार पत्रों, सभागारों, थियेटरों, रेडियो, इलैक्ट्रानिक मीडिया व अन्य जरूरी भारी वित्रिय संसाधनों के स्वामी हैं। अति आधुनिक विदेशी प्रचार मीडिया का उपयोग करने के लिये भी यह शोषक वर्ग पूरी तरह सक्षम हैं। मेहनतकश लोग उनके विशाल संसाधनों का मुकाबला नहीं कर सकते तथा इस प्रकार पारंपरिक रुप से हरेक को दिये गये अधिकार का उपयोग करने में असक्षम रहते हैं। बुर्जुवा जनवाद सदा शोषक अमीरों के लिये ही जनवाद रहता है जबकि मेहनतकश लोगों के लिये यह सिर्फ शाब्दिक, रस्मी व छलरूपी ही होता है।
    70. यद्यपि सर्वव्यापी बालिग वोट का अधिकार, संसद तथा राज्य विधान सभायें, जनवाद के लिये संघर्ष में तथा अपने हितों की रक्षा के लिये, लोगों के हाथों में हथियार के रूप में काम दे सकते हैं। भारत का वर्तमान संसदीय प्रबंध चाहे बुर्जुवाजी व वर्गीय शासन का ही एक रूप है तब भी लोगों के लिये यह, एक हद तक प्रगति का सूचक है। यह उनको अपने हितों की रक्षा करने तथा एक सीमा तक राज्य के मामलों में दखलंदाजी देने के मौके देता है तथा शांति, जनवाद व सामाजिक प्रगति के लिये संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिये उन्हें लामबंद करता है।
    71. संसदीय व्यवस्था व जनवाद को खतरा मेहनतकश लोगों व उनका प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों की ओर से नहीं आता बल्कि यह खतरा शोषक वर्गों की ओर से आता है। वही लोग संसदीय व्यवस्था का अपने वर्गीय हितों को आगे ले जाने के लिये तथा मेहनतकश लोगां को दबाने के लिये हथियार के रूप में उपयोग करते हैं, इसे अंदर व बाहर दोनों ही ओर से चोट पहुंचाते हैं। जब लोग संसदीय संस्थाओं का अपने हित आगे ले जाने के लिये उपयोग आरंभ करते हैं, तथा यह संस्थायें बुर्जुवाजी व जागीरदारों के प्रभाव से दूर चली जाती हैं तो यह वर्ग धारा 356 के बार-बार दुरूपयोग द्वारा तथा एमरजैंसी लगाकर संसदीय जनवाद को पैरों तले रोंदने से ही गुरेज नहीं करतीं। यहां तक कि शासक वर्गोे की भिन्न-भिन्न पार्टियां भी एक दूसरी को राजगद्दी से दूर रखने के लिये जनवादी मूल्यों की सरेआम उलंघना करने से भी गुरेज नहीं करतीं। जब उनके हित मांग करें तब वे संसदीय जनवाद की जगह फौजी तानाशाही लाने से भी नहीं झिझकते। यह ख्याल करना कि हमारा देश ऐसे सब खतरों से मुक्त है, एक गंभीर गलती व एक खतरनाक भ्रम होगा। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि संसदीय व जनवादी संस्थाओं की ऐसे खतरों के विरुद्ध तथा लोक-हितों के पक्ष में, रक्षा की जाये तथा ऐसी संस्थाओं का संसदीय क्षेत्र से बाहर की सरगरमियों से जोडक़र सुयोग्य ढंग से उपयोग किया जाये।
    72. आजादी प्राप्ति के बाद के इन 60 सालों के दौरान, पूंजीवादी प्रणाली के शोषक चरित्र के कारण इसके भीतरी जन्मजात आर्थिक अस्थिरता बढ़ कर राजनीतिक अस्थिरता का रूप धारण कर गई है जो कि बुर्जुवा-लैंडलार्ड राजनीतिक पार्टियों की भरोसेयोग्यता खत्म हो जाने के रूप में उभरकर सामने आ रही है। इन पार्टियों की जनविरोधी नीतियों के कारण तथा इनके नेताओं की भ्रष्टï, अनैतिक, गैर जनवादी व स्वार्थपूर्ण धंधों में प्रत्यक्ष भागीदारी के कारण, आम रुप में लोग इन पार्टियों से बड़ी हद तक निराश हैं। इन पार्टियों द्वारा लोगों के साथ किये जा रहे शर्मनाक विश्वासघातों के कारण तथा उनके गैर-जनवादी राजनीतिक अमलों के कारण लोग इन बुुर्जुवा-लैंडलार्ड पार्टियों से काफी हद तक उकता चुके हैं। लोग, प्रत्यक्ष रूप में एक जन-पक्षीय जनवादी राजनीतिक विकल्प की खोज में हैं। जबकि बुर्जुवा-लैंडलार्ड शासक वर्ग अपनी राजनीतिक पार्टियों की घट रही भरोसेयोग्यता के संकट पर काबू पाने के लिये दो-पार्टी-प्रणाली या दो-गठजोड़-प्रणाली, जिसे आम तौर पर गठजोड़ (Coalition) सरकार कहा जाता है, विकसित करना चाहती हैं, ताकि एक ओर लोगों के अंदर निरंतर गहराती जा रही निराशा की प्रभावशाली ढंग से निकासी के लिये व्यवस्था उपलब्ध रहे तथा साथ ही, दूसरी ओर, जनवादी ढंग-तरीकों व प्रक्रियाओं की कांट-छांट करने, जनवादी संस्थाओं को खुर्द-बुर्द करने तथा विश्वीकरण, उदारीकरण व निजीकरण की नीतियों के विरुद्ध व्यापक रूप से विकसित हो रहे प्रतिरोध को दबाने व खत्म करने के लिये अधिक से अधिक दमनकारी हथकंडे अपनाने का कार्य चलता रहे। इस तरह कुल मिला कर, बुर्जुवा-लैंडलार्ड पार्टियों की भरोसेयोग्यता का यह संकट आगे बुर्जुवा-जनवाद के आम संकट के रूप में विकसित हो रहा है, जिसे फाशीवादी प्रतिक्रियावादी प्रणाली की ओर बढऩे से रोकने के लिये कम्युनिस्टों द्वारा, लोक-जनवादी प्रोग्राम पर आधारित स्पष्टï राजनीतिक विकल्प द्वारा, फौरी व शक्तिशाली दखलंदाजी करने की जरूरत है।
 
लोगों की दशा
    73. लोगों को जनवाद, जो बुर्जुवा-जागीरदार सरकार स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के वर्षों से ही उपयोग में ला रही है, से वास्तव में वंचित रखा गया है, तथा केवल उपरी शोषक वर्ग ही देश के करोड़ों मेहनतकशों की कीमत पर, इसके अधीन प्रफुल्लत हो रहे हैं।
    74. उत्पादन में बढ़ौत्तरी के बावजूद, भौतिक रूप में, आम लोगों की हालत बेहतर नहीं हुई है क्योंकि अधिकतर दौलत शोषक वर्गों के हाथों में इक्_ïी हो रही है। मजदूर वर्ग, किसान, मध्यम वर्ग यहां तक कि मध्यम कारोबारी लोगों के कुछ हिस्से भी सरकार की नीतियों व देशी तथा विदेशी इजारेदारियों के बढ़ते प्रभुत्व को बुरा समझते हैं। मेहनतकश लोगों की असंतुष्टिï संघर्षों के कई रूपों में अपनी अभिव्यक्ति करती है।
    75. मजदूर वर्ग पर अप्रत्यक्ष टैक्सों द्वारा बढ़ती मात्रा में बोझ डाला गया है तथा इन्हें मालिकों व सरकार के कठोर हमलों का निरंतर सामना करना पड़ता है। ना सिर्फ समूचा उत्पादन बल्कि मजदूर की उत्पादकता भी बढ़ी है। तब भी बढ़ती दौलत में मजदूरों का हिस्सा घटा है जबकि उनके मालिकों का बढ़ा है। मजदूरों के वास्तविक वेतनों में कोई बढ़ौत्तरी नहीं हुई। जब वे वेतनों में वृद्धि के लिये लड़े  हैं तथा सफलता भी प्राप्त की है तब भी नित्य बढ़ती कीमतों ने उनके वेतनों में हुई बढ़ौत्तरियों को बेकार बना दिया है। बहुत से उद्योगों में वेतनों का स्तर द्वितीय विश्व युद्ध के पहले के स्तर से भी नीचे गया है। चाहे पहले नई फैक्ट्रियों की स्थापना तथा विस्तृत सेवा सैक्टर के खुलने के साथ रोजगार बढ़ा परंतु साम्राज्यवादी विश्वीकरण के प्रभाव में तथा विश्व बैंक व विश्व व्यापार संस्था के निर्देशों पर सामाजिक क्षेत्र को निरंतर रूप से खुर्द-बुर्द करते जाने के साथ रोजगार के साधन बड़ी तेजी से सिकुड़े हैं तथा रोजगार रहित विकास का घटनाक्रम (Phenomena) बड़े स्तर पर उभरा है। इस तरह हमारे देश में आज बेरोजगारी का राक्षस बुरी तरह बेलगाम हो चुका है जिसके कारण मेहनतकश लोगों के परिवारों के जीवन स्तर को और अधिक चोट पहुंची है।
    76. मजदूरों ने पिछले सालों में दृढ़ व लंबे संघर्षों के द्वारा मालिकों व सरकार को वेतनों के निपटारे के लिये सरकारी मशीनरी जैसे कि वेतन बोर्ड, न्यूनतम वेतनों की कमेटियों, ट्रिब्यूनल आदि कायम करने के लिये मजबूर किया। चाहे कई संगठित उद्योगों में वेतनों का कुछ स्तर भी कायम हुआ है, परंतु, वेतन संबंधी गड़बड़ घोटाले, जो पूंजीवादी प्रबंध का लक्षण हैं, पहले की तरह ही जारी हैं। चाहे न्यूनतम वेतनों को तय करने के लिये कुछ नियम घड़े गये हैं परंतु अभी भी वे धरे-धराये हैं। ट्रेड यूनियनें कायम करने तथा सामूहिक सौदेबाजी करने के अधिकार को मालिकों द्वारा अपनी मर्जी के अनुसार या तो पूरी तरह ठुकरा दिया जाता है या फिर इसको ढ़ौंग बनाया जाता है। कई कानून बनाये गये हैं पर उनकी मालिकों द्वारा खुलेआम उल्लंघना की जाती है तथा सरकार द्वारा स्थापित औद्योगिक संबंध मशीनरी की धारा मुख्य रूप से मजदूरों के संघर्षों के विरुद्ध केंद्रित है। मजदूरों के एक वर्ग ने सामाजिक सुरक्षा का अधिकार प्राप्त किया था परंतु नौकरशाहों द्वारा इस पर किया गया अमल सहायक होने की जगह तकलीफ का कारण अधिक बना है। सरकार व मालिकों की आवास से संबंधित स्कीमों ने मजदूरों व उनके परिवारों को गंदी बस्तियों से मुक्त नहीं किया जहां वे आज भी रहने के लिये मजबूर हैं। नवउदारवादी नीतियों के परिणामस्वरूप औद्योगिक मजदूरों के सेवा सुरक्षा के अधिकार तेजी से क्षरित हो रहे हैं तथा चोरी-छिपे व कपटी ढंग से ‘हायर एंड फायर’ की नीति लागू की गई है। विदेशी निवेशकों के आदेशों पर देश में कई स्थानों पर विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाये गये हैं जहां कोई भी श्रम कानून लागू नहीं होता।
    77. हमारे करोड़ों ही किसान कष्टïप्रद गरीबी तथा पिछड़ेपन में रह रहे हैं। किसानों की बहुत बड़ी आबादी के पास वास्तव में अपनी कोई जमीन नहीं है तथा कई करोड़ कंगाली की दशा में रहते हैं, जबकि अधिक लगान व ब्याज द्वारा, ऊंची टैक्स दरों द्वारा तथा पूंजीवादी मंडी की हेरा फेरियों के द्वारा किसानों की लूट-खसूट जारी हैं। ‘विश्व व्यापार संगठन’ के आदेशों के अधीन कृषि लागतों पर से सबसिडी घटा देने के  साथ या खत्म कर देने के साथ किसानी के कंगालीकरण की प्रक्रिया और तीव्र हुई है। खेत मजदूरों व गरीब किसानों के परिवारों को गुजारे योग्य वेतन के बिना कार्य करना पड़ता है। रोजगार की कमी, भूख, कर्ज व लाचारी तथा अपनी किसानी की तबाही आज हम ग्रामीण ईलाकों में देख रहे हैं।
    78. देश का भारत व पाकिस्तान के बीच सांप्रदायिक विभाजन शरणार्थियों की समस्या साथ लेकर आया जिनकी संख्या लाखों-करोड़ों तक पहुंच गई। 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में से बंगला देश बनने के साथ यह समस्या और गंभीर हो गई क्योंकि वहां से भारत के अंदर नाजायज प्रवेश निरंतर जारी है। इन नव सृजित देशों के बीच निरंतर खिंचाव तथा विरोध के परिणामस्वरूप इन बेघरे लोगों की संख्या और बढ़ गई है। इसके बाद, कश्मीर में निरंतर चल रही गड़बड़ के कारण लाखों हिंदू परिवारों को अपने घर घाट छोडऩे पड़े तथा वे सारे देश के अंदर शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं। शरणार्थियों की यह समस्या संतोषजनक ढंग से बिल्कुल भी सुलझाई नहीं गई। सरकार अपने बहुत से दावों से मुकर गई है तथा इन विस्थापित लोगों के पुर्नवास के लिये कोई उचित प्रबंध नहीं किया गया। उनकी दशा अत्यंत मंदी है। यह समस्यायें आज भी भारत के बहुत से भागों की आबादी के जीवन पर तीव्र रूप से असर-अंदाज हो रही हैं। सरकार की पुर्नवास स्कीमों व उन पर किये गये अमल ने इस संबंध में रखी गई सब आशाओं को झुठला दिया है।
    79. विकास का पूंजीवादी रास्ता, जो हमारे शासक वर्गों ने, बिना तीव्र भूमि सुधार किये तथा हमारी अर्थ-व्यवस्था में से विदेशी पूंजी को खत्म किये अपना लिया था, लाखों ही दस्तकारों के जीवन को चोट पहुंचा रहा है। इन दस्तकारों को या तो सीधे ही कंगालों की कतारों में धकेला जा रहा है या अत्यंत नगण्य सी आमदनी, अन्न व कच्चे माल की चढ़ती कीमतों व विभिन्न तरह के भारी टैक्सों के प्रभाव के नीचे उनको पूरी तरह चूसा जा रहा है। राज्य के तथा केंद्रीय बजटों में कभी कभार दी जाती नगण्य सी सबसिडीयां व अन्य सुविधायें विशाल स्तर पर पीडि़त किसानों व दस्तकारों के परिवारों को कोई वास्तविक लाभ पहुंचाने में असफल रही हैं तथा उनके परिवारों के पास साधनहीन मजदूरों की निरंतर  बढ़ रही संख्या में शामिल होने के बिना और कोई विकल्प नहीं है। सरकार की जन-विरोधी नीतियां इन समस्याओं का कोई समाधान नहीं करतीं तथा हमारे देश के दस्तकारों में असंतुष्टïता तेजी से बढ़ रही है।
    80. शहरी मध्य वर्ग, विशेषकर निम्र मध्य वर्ग की भी स्थिति अच्छी नहीं है। जीवन की जरुरतों की बढ़ती कीमतों के कारण उनका जीवन स्तर निरंतर अस्थिरता की स्थिति में रहता है। पिछले वर्षों के दौरान साम्राज्यवादी विश्वीकरण व नव-उदारीकरण की नीतियों के प्रभाव के कारण मध्य वर्ग में बेरोजगारी तीव्र रूप से बढ़ीे है। प्राइवेट कार्यालयों, कारोबारी संस्थानों, स्कूलों, कालिजों आदि में सब-स्टैंडर्ड वेतनों पर कार्य करने वाले मध्य वर्ग का भविष्य भी बहुत धुंधला है। मध्य श्रेणीयां, कला, साहित्य, विज्ञान व संस्कृति के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं पर उनमें से बहुतों के लिये यह क्षेत्र बंद हैं इसलिये हम मध्यवर्ग के पढ़े-लिखे नौजवानों को साधारण नौकरियों के लिये भी दर-दर ठोकरें खाते आम ही देखते हैं।
    81. सरकार की वर्तमान नीतियों से तथा विदेशी व भारतीय इजारेदारियों के प्रफुल्लत होने से बहुत से उद्योगपतियों, उत्पादकों, कारोबारी लोगों व व्यापारियों को चोट पहुंची है। पूंजी, कच्चा माल, यातायात सुविधायें, आयात-निर्यात के प्रश्न सरकार व नौकरशाहों द्वारा इस तरह हल किये जाते हैं कि बड़े पूंजीपतियों व साम्राज्यवादी लुटेरों के बिना सब को नुकसान पहुंचता है। छोटे व घरेलू उद्योगों में अधिकतर लोगों को निरंतर संकट का सामना करना पड़ता है।
    82. अब तक की सरकारों द्वारा अपनाई गई जन-विरोधी नीतियों के परिणामस्वरूप जनता के विशाल भाग बढ़ती कीमतों, बढ़ते टैक्सों व वेतनों के अंधाधुंध अवमूल्यन के कारण बड़ी हद तक पिस रहे हैं। एक ओर उपरी शोषक वर्गों के कुछ मु_ïी भर लोग तथा उनके पिछलग्गू ऐशो-आराम कर रहे हैं तथा दूसरी ओर करोड़ों ही लोग फटेहाल व गरीबी में आंसू बहा रहे हैं। इसलिये एक ओर लोगों तथा दूसरी ओर बड़ी बुर्जुवाजी के नेतृत्व में चल रहे बुर्जुवा-जागीरदार शासन के बीच अंतरविरोध तेजी से तीक्ष्ण हो रहे हैं।
 
 लोक पक्षीय जनवाद का प्रोग्राम
    83. हमारे लोगों के बीच पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था के निर्माण की नीतियों तथा इस संबंध में किये गये प्रयासों संबंधी मोहभंग व बेचैनी तेजी से बढ़ रही है। जीवन खुद सिखा रहा है कि वर्तमान बुर्जुवा शासन में पिछड़ेपन गरीबी, भूख व लूट-खसूट से छुटकारे की कोई संभावना नहीं है। लोगों में पसरी हुई व्यापक बेचैनी से यह भली प्रकार स्पष्टï होता है। पूंजीवाद एक व्यवस्था के रूप में लोगों में बदनाम हो रहा है।
    84. जिन ऐतिहासिक अवस्थाओं में हमने स्वतंत्रता प्राप्त की थी, जबकि शक्तिशाली विश्व समाजवादी प्रणाली कायम थी तथा आर्थिक उन्नति की ओर तेजी से बढ़ रही थी तथा उपनिवेशवादी व्यवस्था तेजी से टूट-फूट रही थी, बहुत से भारतीय कम्युनिस्टों द्वारा गैर-पूंजीवादी रास्ते की संभावना का सिद्धांत पेश किया गया जो कि नव-स्वतंत्र देशों में, पूंजीवादी पड़ाव को छोड़ कर समाजवाद की ओर बढ़ सकता था। उन्होंने हमारे देश में भी इस रास्ते की संभावनाओं की वकालत की तथा ‘राष्टï्रीय जनवाद’ का युद्धनीतिक निशाना पेश किया, जो कि राष्टï्रीय बुर्जुवाजी, जिसे कि उनके अनुसार अंग्रेजों ने राजसत्ता सौंपी थी, के साथ मिल कर प्राप्त किया जा सकता था।
    85. परंतु ऐसा रास्ता भारत में हमारे लिये स्पष्टï रूप से बंद है। हमारा देश तब भी जब कि अंग्रेजों के उपनिवेशवादी राज्य का एक अंग था, पूंजीवादी रास्ते पर विकसित उपनिवेशों व अद्र्ध-उपनिवेशों में से एक था। बड़ी बुर्जुवाजी, जो कि राष्टï्रीय मुक्ति आंदोलन तथा 1947 में नव-स्वतंत्र देश भारत का नेतृत्व करती थी, लगातार राजसत्ता पर काबिज थी तथा उसने एक ओर आम लोगों की कीमत पर तथा दूसरी ओर साम्राज्यवादियों व बड़े लैंडलार्डों के साथ समझौतों व सौदेबाजियों द्वारा अपने वर्गीय हितों को बढ़ावा देने तथा सुरक्षित करने के लिये राजसत्ता का खुल कर उपयोग किया। पूंजीवादी विकास के रास्ते पर आगे बढ़ते हुये, दो दशकों के दौरान ही भारतीय इजारेदारियों में भारी बढ़ौत्तरी हुई थी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में भी पूंजीवादी प्रणाली विकसित हो रही थी। ऐसे बाहरमुखी यथार्थ के होते हुये गैर-पूंजीवादी रास्ते पर चल सकने योग्य ‘राष्टï्रीय जनवादी राज्य’ की बातें करना पूर्ण रूप से संशोधनवाद था।
    86. इसके बिना, भारत में पूंजीवादी विकास उस किस्म का नहीं है जिस तरह का यूरोप या अन्य पूंजीवादी देशों में था। चाहे भारतीय समाज पूंजीवादी ढंग से विकास कर रहा है तब भी इसमें पूर्व पूंजीवादी समाज के शक्तिशाली अंश मौजूद हैं। विकसित पूंजीवादी देशों के विपरीत, जहां पूंजीवाद उभर रही बुर्जुवाजी द्वारा तबाह किये गये पूर्व-पूंजीवादी समाज की राख से उत्पन्न हुआ था, वहीं भारत में पूंजीवाद पूर्व-पूं्जीवादी समाज पर थोपा गया। ना तो बर्तानिवी उपनिवेशवादियों ने, जिनका शासन एक सदी से अधिक समय तक रहा तथा ना ही भारतीय बुर्जवाजी ने जिसके हाथों में 1947 में ताकत आई, पूर्व-पूंजीवादी समाज पर निर्णायक चोट की, जिसकी पूंजीवादी समाज के स्वतंत्र विकास तथा बाद में समाजवादी समाज द्वारा इसका स्थान लेने के संबंध में जरूरत थी। इस प्रकार वर्तमान भारतीय समाज, वर्गों, जातियों, संप्रदायों तथा आदिवासी संस्थाओं सहित इजारेदार पूंजी के प्रभुत्व का एक अजीब मिश्रण है। इस तरह यह जिम्मेदारी मजदूर वर्ग व उसकी पार्टी पर आती है कि पूर्व-पूंजीवादी समाज को तोडऩे में दिलचस्पी रखने वाली समस्त प्रगतिशील शक्तियों को एकजुट करे तथा इसके अंदर की क्रांतिकारी शक्तियों को इस ढंग से परिपक्व बनाये कि जनवादी क्रांति की तेजी से संपूर्णता सरल हो जाये तथा समाजवाद की ओर परिवर्तन का आधार तैयार हो जाये।
    87. इन कार्यों के सन्मुख कम्युनिस्ट पार्टी अपना यह कत्र्तव्य समझती है कि वह इस शिथलता जो कि वर्तमान सरकार तथा राज्य ने लोगों पर थोपी हुई है, में से निकलने के लिये अमली कार्य व राजनीतिक प्रोग्राम लोगों के समक्ष रक्खे।
    कम्युनिस्ट पार्टी समाजवाद तथा कम्युनिज्म का निर्माण करने के अपने निशाने के प्रति दृढ़ता से पाबंद है। यह शासक वर्गों तथा उनकी सरकारों के बुर्जुवा नेतृत्व के इन झूठे दावों के धोखे में बिल्कुल नहीं फंसती कि वे भारत में न्यायसंगत समाज का निर्माण करना चाहते हैं। यह बात प्राथमिक जानकारी वाली है कि हकीकी तथा सच्चे समाजवाद का सिर्फ तब ही निर्माण किया जा सकता है यदि समाज में उत्पादन के सभी प्रमुख साधन राज्य के स्वामित्व के अधीन हों, जहां हरेक से ‘उसकी समर्था के अनुसार’ तथा हर एक को ‘उसके कार्य के अनुसार’ का सिद्धांत लागू हो तथा जो कम्युनिज्म के निर्माण का एक पड़ाव बने जहां हरेक से ‘उसकी समर्था के अनुसार’ तथा हरेक को ‘उसकी जरूरत के अनुसार’ का सिद्धांत लागू होगा। स्पष्टï है कि यह सब कुछ बुर्जुवा-जागीरदार सरकार तथा राज्य के अधीन संभव नहीं। असली समाजवादी समाज की स्थापना सिर्फ सर्वहारा राज्य के अधीन ही संभव है।
    समाजवादी समाज के निर्माण के अपने निशाने पर पाबंद रहने के साथ-साथ हमारी पार्टी आर्थिक विकास के स्तर, मजदूर वर्ग की राजनीतिक विचारधारक परिपक्वता तथा उसके संगठन के स्तर को ध्यान में रखते हुये मजदूर वर्ग के प्रभुत्व में सब हकीकी जागीरदार विरोधी व साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों के गठजोड़ पर आधारित लोक जनवाद की स्थापना का प्रोग्राम लोगों के समक्ष रखती है। यह सबसे पहले मांग करता है कि वर्तमान बुर्जुआ-जागीरदार राज्य व सरकार को उतारकर इसकी जगह दृढ़ मजदूर-किसान एकता पर आधारित मजदूर वर्ग के नेतृत्व में लोक-जनवादी राज्य व सरकार की स्थापना की जाये। केवल इस तरह ही भारतीय क्रांति के अधूरे रह गये बुनियादी जनवादी कार्य को तेजी से तथा मुकम्मल रूप से संपूर्ण किया जा सकता है तथा देश को समाजवाद की ओर बढ़ाने के लिये रास्ता साफ किया जा सकता है। यह कार्य व प्रोग्राम जो समाजवाद की ओर बढऩे की पहली शर्त के रूप में, लोक जनवादी सरकार पूर्ण करेगी, इस प्रकार है :
    88. शासकीय ढांचे के क्षेत्र में : लोक जनवादी भारत, देश की भिन्न-भिन्न राष्ट्रीयताओं के लोगों की स्वै-इच्छित यूनीयन होगा।
    हमारी पार्टी, शासक वर्गों की स्वायत्तता से इंकार करती केंद्रीयकरण की मुहिम के विरुद्ध है तथा यह समस्त विघटनकारी, गड़बड़ पैदा करने वाले तथा अलगाववादी आंदोलनों के भी विरूद्ध है।
    हमारी पार्टी देश में रह रही भिन्न-भिन्न राष्टï्रीयताओं के लिये वास्तविक बराबरी तथा स्वायत्तता के आधार पर भारतीय यूनीयन की एकता को कायम रखने व बढ़ाने के लिये तथा निम्र अनुसार जनवादी राजनीतिक ढांचे को विकसित करने के लिये कार्य करती है :
    (I) भारतीय यूनियन जनवादी केंद्रीयता पर आधारित एक फैडरेशन होगी।
    (II) लोग स्वायत्त हैं। राजसत्ता की सभी संस्थायें लोगों के प्रति उत्तरदायी होंगी। राजसत्ता चलाने संबंधी बालिग वोट तथा अनुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के आधार पर चुने गये जन-प्रतिनिधियों के हाथ में सर्वोच्च सत्ता होगी तथा इन प्रतिनिधियों को वापिस बुलाया जा सकेगा।
    सर्वव्यापी समान व प्रत्यक्ष वोट का अधिकार उन सभी नागरिकों को स्वतंत्र व निरपक्ष रूप से प्राप्त होगा जो 18 साल के हो चुके होंगे। संसद, राज्य विधान सभायें व स्थानीय स्वशासन संस्थाओं सबके चुनाव इसी आधार पर होंगे। गुप्त वोट का तथा किसी भी प्रतिनिधी संस्था के लिये चुने जाने संबंधी चुनने वाले के अधिकार को यकीनी बनाया जायेगा।
    (III) अखिल भारतीय केंद्र में समान अधिकार वाले दो सदन होंगे, लोक सभा व राज्य सभा। राष्टï्रपति दोनों सदनों के फैसलों के अनुसार अमल करेगा तथा उसका कोई अलग अधिकार नहीं होगा।
    (IV) भारतीय यूनीयन के समस्त राज्यों को वास्तविक स्वायतत्ता (Autonomy) तथा समान अधिकार प्राप्त होंगे।
    आदिवासी इलाकों या उन इलाकों को, जहां आबादी नस्ली संरचना के नजरिये से विशेष किस्म की है तथा सामाजिक व सांस्कृतिक हालतों के आधार के लिहाज से भिन्न प्रकार की है, संबंधित राज्य के भीतर क्षेत्रीय शासन वाली क्षेत्रीय स्वायत्तता हासिल होगी। उन्हें अपने विकास के लिये पूरी-पूरी सहायता मिलेगी।
    (V) राज्यों के स्तर पर कोई उपरी सदन नहीं होंगे तथा ना ही राज्यों के गवर्नर उपर से नीयत किये जायेंगे। समस्त प्रबंधकीय सेवायें संबंधित राज्य या स्थानीय राज्य अधिकारियों के प्रत्यक्ष कंट्रोल में होंगी। राज्य सभायें, भारतीय नागरिकों के साथ समान व्यवहार करेंगी तथा जाति, धर्म, सांप्रदाय व राष्टï्रीयता के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा।
    (VI) संसद व केंद्रीय राज्य प्रबंध में समस्त राष्टï्रीय भाषाओं को समान माना जायेगा, संसद के सदस्यों को किसी भी राष्ट्रीय भाषा में बोलने का अधिकार प्राप्त होगा तथा अन्य समस्त राष्टï्रीय भाषाओं में साथ की साथ अनुवाद करना होगा। सब कानून, सरकारी आदेश व प्रस्ताव सभी राष्टï्रीय भाषाओं में दिये जायेंगे। सरकारी भाषा के रूप में हिंदी भाषा का उपयोग लाजमी करार नहीं दिया जायेगा। बढ़ते हुये आर्थिक, सामाजिक व बौद्धिक मेल-मिलाप के दौरान, भारत के भिन्न-भिन्न राज्यों के लोग अपनी जरूरतों के लिये परस्पर संचार की अति उचित भाषा को अमल में विकसित करेंगे। शासन प्रबंध, कानून साजी, न्याय-पालिका के क्षेत्रों में तथा पढ़ाई के माध्यम के रूप में अंग्रेजी के उपयोग को त्याग दिया जायेगा तथा इसका स्थान राष्टï्रीय भाषाओं को दे दिया जायेगा। शिक्षा संस्थायें खुद अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने संबंधी लोगों के अधिकार, राज्य की समस्त सार्वजनिक व सरकारी संस्थाओं में शासन प्रबंध की भाषा के रूप में उसी भाषाई राज्य की राष्टï्रीय भाषा के उपयोग तथा राज्य में अति ऊंचे स्तर तक शिक्षा के माध्यम के रूप में इसका उपयोग; जहां कहीं जरूरी हो, राज्य की भाषा के अतिरिक्त अल्पसंख्या या अल्प संख्यकों या किसी क्षेत्र की भाषा के उपयोग संबंधी प्रबंध करने का अधिकार लागू किया जायेगा। उर्दू भाषा तथा इसकी लिपी की रक्षा की जायेगी तथा इसे उन्नत किया जायेगा।
    (VII) लोक जनवादी सरकार आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में यूनीयन में शामिल राज्यों के बीच तथा भिन्न-भिन्न राज्यों की राष्टï्रीयताओं के बीच परस्पर सहयोग कायम करके तथा बढ़ाके भारत की एकता को सुदृढ़ करने के लिये कदम उठायेंगी। यह आर्थिक रूप से पिछड़े हुये व कमजोर राज्यों, क्षेत्रों व इलाकों की ओर विशेष ध्यान देगी तथा उन्हें वित्तीय व अन्य सहायता प्रदान करेगी ताकि अपने पिछड़ेपन पर तेजी से काबू पाने में उनका हाथ बंटाया जाये। कुदरती संसाधनों की आपसी बांट आदि जैसे विवादों को जनवादी ढंग से तथा जरूरत-आधारित सिद्धांत के अनुसार निपटाया जायेगा।
    (VIII) लोक जनवादी राज्य, स्थानीय शासन प्रबंध के क्षेत्र में, गांव से उपर तक स्थानीय संस्थाओं का विशाल जाल यकीनी बनायेगा। इन संस्थाओं के चुनाव लोग प्रत्यक्ष रूप से करेंगे तथा इनको सत्ता व जिम्मेवारी सौंपी जायेगी तथा काफी वित्तीय साधन मुहैय्या करवाये जायेंगे।
    (IX) लोक जनवादी राज्य, हमारी समस्त सामाजिक व राजनीतिक संस्थाओं में जनवाद का जज़बा भरने का प्रयास करेगा। यह राष्टï्रीय जीवन में हर स्तर पर पहलकदमी व कंट्रोल के जनवादी रूपों का प्रसार करेगा। इसमें ट्रेड यूनियनों, किसानों व खेत मजदूरों की सभायें तथा श्रमिक लोगों व अन्य के वर्गीय व जन संगठन प्रमुख भूमिका अदा करेंगे। हकूमत देश की कानूनसाज व कार्यकारिणी मशीन को निरंतर रूप में लोगों की जनवादी इच्छाओं के समक्ष उत्तरदायी ठहरायेगी तथा यह यकीनी बनायेगी कि आम लोग व उनके संगठन राज्य व शासन-प्रबंध में से नौकरशाही के तथा नौकरशाही अमलों के खात्मे के लिये कार्य करें।
    (X) न्याय-प्रणाली के मामले में जनवादी परिवर्तन लागू किये जायेंगे। तुरंत व उचित न्याय यकीनी बनाया जायेगा। जजों की नियुक्ति के लिये भिन्न-भिन्न स्तरों पर संसद, विधान सभाओं तथा अन्य जन संस्थाओं की स्वीकृति जरूरी होगी।
    समस्त नागरिकों को कानूनी-न्याय सरलता से उपलब्ध करवाने के उद्देश्य से लोगों को कानूनी सहायता व सलाह-मशवरा मुफ्त दिया जायेगा।
    किसी भी कर्मचारी के विरुद्ध कानून की अदालत में मुकदमा चलाने संबंधी लोगों का अधिकार यकीनी बनाया जायेगा।
    (XI) लोक  जनवादी हकूमत हथियारबंद फौजों के सिपाहियों में देश भक्ति, जनवाद तथा लोगों की सेवा का जज़बा भरेगी। यह उनके लिये अच्छे जीवन स्तर तथा बढि़ता सेवा स्थितियां यकीनी बनायेगी व उन्हें सांस्कृतिक जीवन के लिये तथा अपने बच्चों की शिक्षा व भलाई के लिये अधिक मौके उपलब्ध करेगी। यह सभी हृष्टï-पुष्टï लोगों को फौजी प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिये प्रोत्साहित करेगी तथा उनमें राष्टï्रीय स्वतंत्रता व इसकी  रक्षा के लिये जज़बा भरेगी।
    (XII) संपूर्ण नागरिक अधिकारों की गारंटी की जायेगी। व्यक्तिगत स्वतंत्रता व निवास की सुरक्षा तथा किसी आदमी को बिना मुकदमा चलाये नजरबंद नहीं रक्खा जायेगा। ज़मीर, धार्मिक विश्वास व पूजा-पाठ की, अभिव्यक्ति, प्रैस, एकत्रता, हड़ताल व इक_ïे होने की बेरोक-टोक आजादी, एक से दूसरी जगह जा सकने व कार्य करने की आजादी होगी।
    (XIII) काम के अधिकार की हर नागरिक के मूल अधिकार के रूप में गारंटी की जायेगी। धर्म, जाति-पाति, लिंग, नस्ल व राष्टï्रीयता की ओर कोई ध्यान दिये बिना समस्त नागरिकों के लिये समस्त अधिकारों की तथा समान काम के लिये समान वेतन यकीनी बनाया जायेगा।
    (XIV) वेतनों व आमदनियों के बीच अंतर मिटाये जायेंगे।
    (XV) एक जाति द्वारा दूसरी पर सामाजिक उत्पीडऩ को खत्म किया जायेगा तथा छुआछात का व्यवहार करने वाले को कानून द्वारा सजा मिलेगी।
    अनूसुचित जातियों (दलितों), आदिवासियों व अन्य पिछड़ी जातियों के लिये सेवाओं, शिक्षा सुविधाओं तथा अन्य विशेष सुविधाओं के मामले में विशेष रियायतें दी जायेंगी।
    (XVI) सामाजिक असमानतायें व अयोग्यतायें, जिनका शिकार स्त्रियां होती हैं, को दूर किया जायेगा। संपत्ती की विरासत, विवाह व तलाक के कानूनों को लागू करने, व्यवसायिक व सेवा संबंधी तथा प्रवेश संबंधी मामलों में स्त्रियों को मर्दों के समान अधिकार होंगे।
    (XVII) राज्य के धर्म-निरपेक्ष चरित्र की गारंटी की जायेगी। राज्य के मामलों व देश के राजनीतिक जीवन में धार्मिक संस्थाओं के दखल की मनाही कर दी जायेगी। धार्मिक अल्प संख्यकों की रक्षा की जायेगी तथा उनके विरुद्ध हर किस्म के भेदभाव की मनाही की जायेगी।
    (XVIII) राज्य शिक्षा को संपूर्ण रूप से अपने हाथ में ले लेगा तथा इसके सैकूलर चरित्र को यकीनी बनाया जायेगा। सैकंडरी स्तर तक मुफ्त व लाजमी शिक्षा यकीनी बनाई जायेगी।
    (XIX) स्वास्थ्य सेवाओं का विशाल जाल बिछा दिया जायेगा, जिनके लिये एक पैसा भी नहीं देना पड़ेगा तथा श्रमिकों के लिये आरामघर व मनोरंजन केंद्र कायम किये जायेंगे तथा बुढापा पैन्शन की गारंटी दी जायेगी।
    (XX) लोक जनवादी राज्य व सरकार नयी प्रगतिशील जन संस्कृति विकसित करने व फैलाने के लिये हमारे लोगों की रचनात्मक योग्यताओं को प्रफुल्लित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य हाथ में लेगी तथा ऐसी संस्कृति विकसित करेगी जो चरित्र के रूप में जागीरदार-विरोधी, साम्राज्यवाद विरोधी तथा जनवादी होगी। यह ऐसे साहित्य, कला व संस्कृति को आगे बढ़ाने, उत्साहित करने तथा विकसित करने के लिये निम्र जरूरी कदम उठायेगी जो :
    - अपनी जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने तथा अपना भौतिक व सांस्कृतिक जीवन को खुशहाली भरपूर बनाने के लिये लोगों के संघर्षों में सहायक बनेंगे।
    - जाति-पाति, सांप्रदायिक नफरत व धार्मिक कट्टïरता से तथा अधीनता, अंधविश्वास व दुर्बोधता के विचारों से छुटकारा प्राप्त करने में लोगों की मदद करेंगे।
    -हर राष्टï्रीयता, जिसमें आदिवासी लोग भी शामिल हैं, की इस संबंधी सहायता करेंगे कि वे विशेष भाषा, संस्कृति तथा जीवन ढंग को समूचे देश की जनवादी जनता की संयुक्त उमंगों के साथ एकसुर करते हुये विकसित करे।
    - दुनिया भरके देशों के सारे अमन-पसंद लोगों के साथ सोहार्द की भावनायें विकसित करने में तथा नस्लीय व राष्टï्रीय नफरत के विचारों से मुक्ति पाने में सहायता करेंगे।
    89. किसान समस्याओं तथा कृषि के क्षेत्र में
    (I) जागीरदारी बिना मुआवजा समाप्त करेगी तथा खेत मजदूरों व किसानों को जमीन मुफ्त में दी जायेगी।
    (II) किसानों, खेत मजदूरों व छोटे दस्तकारों के सिर आढ़तियों समेत समस्त लेनेदारों तथा जागीरदारों के जो कर्जें हैं, उन्हें समाप्त करेगी।
    (III) किसानों तथा दस्तकारों के लिये दीर्घकालोन सस्ते कर्जे तथा खेती उत्पादन के लिये उचित कीमतें यकीनी बनायेगी, विकसित बीजों तथा आधुनिक यंत्रों व तकनीक के उपयोग द्वारा कृषि के ढंगों में बेहतरी लाने के लिये किसानों की सहायता करेगी।
    (IV) गारंटी शुदा सिंचाई सुविधाओं का प्रबंध करेगी।
    (V) खेत-मजदूरों के लिये उचित वेतन तथा बेहतर जीवन हालतें यकीनी बनायेगी।
    (VI) कृषि, कृषि संबंधी सेवाओं तथा अन्य उद्देश्यों के लिये स्वै-इच्छा के आधार पर किसानों व दस्तकारों की सहिकारी संस्थाओं को प्रोत्साहित करेगी।
    90. उद्योग व श्रम के क्षेत्र में :
    हमारे उद्योग किसान की अत्यंत अल्प-खरीदशक्ति से ही नहीं बल्कि विदेशी पूंजी की लूट के कारण भी मार खाते हैं। जब तक ओद्यौगिकरण का विस्तार नहीं होता, तब तक हमारा देश खुशहाल देश नहीं बन सकता। पर उस हद तक हमारा ओद्यौगीकरण कभी नहीं हो सकता, जब तक बर्तानवी, अमरीकी व दूसरी विदेशी पूंजी भारत में मौजूद है तथा उसे साम्राज्यवादी विश्वीकरण के अधीन और गहरे धंसने के अवसर प्रदान किये जाते हैं, क्योंकि ऐसी वित्तीय पूंजी के मुनाफे देश से बाहर ले जाये जाते हैं तथा हम उनके उपयोग से वंचित रह जाते हैं।
    इसलिये उद्योग के क्षेत्र में लोक जनवादी सरकार :
    (I) बागों, खानों, तेल साफ करने के कारखानों व फैक्ट्रियों, जहाजरानी आदि तथा व्यापार में लगी समस्त विदेशी पूंजी पर कब्जा कर लेगी। यह समस्त बंैकों, कर्जा संस्थाओं तथा अन्य इजारेदार उद्योगों का राष्टï्रीयकरण करेगी। विदेशी व्यापार का राष्टï्रीयकरण करेगी।
    (II) आर्थिक पिछड़ेपन पर तेजी से काबू पाने के उद्देश्य से तथा देश के उद्योगों को निरंतर विस्तार देने के लिये राजकीय क्षेत्र को अत्यंत तेजी से विकसित करेगी। राजकीय स्वामित्व वाले नये कारखाने स्थापित करने के साथ-साथ यह राजकीय क्षेत्र का प्रभुत्व कायम करेगी व उसे निर्णायक बना देगी।
    (III) छोटे व मध्यम उद्योगों को कर्जे की सुविधायें व उचित कीमतों पर कच्चा माल देकर तथा मंडी संबंधी सुविधाओं के संबंध में उनकी सहायता करके, उन्हें सहारा देगी।
    (IV) लोगों के हितों में देश का संतुलन व योजनाबद्ध विकास यकीनी बनाने के लिये अर्थ व्यवस्था के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों को नियमबद्ध व एकसुर करेगी।
    (V) बड़े कारोबारों से संबंधित व्यक्तियों को राजकीय क्षेत्र के प्रबंध से बाहर निकाल कर तथा उद्योग चलाने व उनके प्रबंध में मजदूरों व तकनीशनों की रचनात्मक भागीदारी को यकीनी बना कर, राजकीय क्षेत्र के प्रबंधन का जनवादीकरण करेगी।
    (VI) गुजारे योग्य वेतन नीयत करके, काम के घंटे घटाकर, हर प्रकार की अपंगता व बेरोजगारी के विरुद्ध राज्य व पूंजीपतियों के पैसे से सामाजिक बीमा करके, ट्रेड यूनियनों को व उनके सामूहिक सौदेबाजी करने तथा हड़ताल कर सकने के अधिकारों को बाकायदा मान्यता देकर मजदूरों के जीवन स्तर तथा उनके काम-काज की हालतों में तीव्र बेहतरी लायेगी तथा उनके अंदर स्वस्थ कार्य-संस्कृति की भावना विकसित करने के लिये विशेष प्रबंध करेगी।
    (VII) सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत करेगी तथा जन-साधारण के हितों में कीमत-नीति प्रभावशाली ढंग से लागू करेगी।
    (VIII) मजदूरों, किसानों व दस्तकारों को टैक्स में अधिक से अधिक छूट दी जायेगी जबकि कृषि, उद्योग व व्यापार में दरजेवार टैक्स लगाया जायेगा तथा मुनाफों पर कंट्रोल किया जायेगा।
    91. विदेश नीति के क्षेत्र में
    यह यकीनी बनाने के लिये कि विश्व शांति की रक्षा, अंतरराष्टï्रीय संबंधों के जनवादीकरण, शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिये तथा साम्राज्यवादी घौंसपट्टïी के विरूद्ध संघर्ष में भारत अपनी बनती भूमिका निभाये, लोक-जनवादी सरकार :
    (I) हर संभव ढंग से एशिया, अफ्रीका व लातिनी अमरीका के विकासशील व अल्प-विकसित देशों के बीच ऐकता को मजबूत करेगी, शांति व स्वतंत्रता के हित में समाजवादी देशों तथा समस्त अमनपसंद देशों के साथ मेल-मिलाप व मित्रता वाले संबंधों को और आगे बढ़ायेगी, साम्राज्यवाद के विरुद्ध तथा जनवाद व समाजवाद के लिये संघर्ष कर रहे लोगों के समस्त संघर्षों का समर्थन करेगी।
    (II) पंचशील के आधार पर विभिन्न सामाजिक प्रबंधों वाले देशों के बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिये प्रयत्न करेगी।
    (III) मनुष्य जाति को परमाणु युद्ध के खतरे से मुक्त करवाने के लिये समस्त अमन पसंद शक्तियों के साथ मिलकर, अपनी शक्ति के अनुसार जो कुछ भी कर सकेगी, यह करेगी। परमाणु हथियारों व मनुष्यता के बीजनाश के समस्त अन्य हथियारों के प्रयोगों पर तथा उनकी तैयारी पर तुरंत पाबंदी लगाने की मांग करेगी तथा न्यूक्लिआई  व परमाणु हथियारों के भंडारों को नष्टï करवाने के लिये प्रयत्न करेगी। परमाणु हथियारों से मुक्त क्षेत्र बनाने के लिये समझौतों का प्रयत्न करेगी।
    (IV) युद्ध को टालने, शांति कायम करने तथा इसे सुरक्षित रखने के लिये कार्य करेगी। आम व नियंत्रित निशस्त्रीकरण के समझौते के लिये कार्य करेगी, समस्त फौजी संधियों व समस्त विदेशी फौजी अड्डïों के खात्मे तथा अन्य देशों मेें से समस्त विदेशी फौजों की वापसी की मांग करेगी। साम्राज्यवादी जंगबाजों तथा उनकी चालों व साजिशों के विरूद्ध अत्यंत चौकसी रक्खेगी तथा ऐसी चौकसी की भावना लोगों में उभारेगी।
    (V) भारत को बर्तानवी राष्टï्रकुल से बाहर निकालेगी। बर्तानिया, अमरीका व अन्य साम्राज्यवादी देशों के साथ ऐसे समस्त समझौतों व संधियों का त्याग करेगी जो देश के हितों के विरूद्ध हैं तथा राष्टï्रीय मान-सम्मान के अनुरूप नहीं हैं।
    (VI) बहुराष्टï्रीय कंपनियों द्वारा वातावरण को प्रदूषित करने का विरोध करेगी तथा वातावरण की संभाल व पर्यावरण का संतुलन बनाये रखने के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग व सहिकारिता बढ़ाने का प्रयत्न करेगी।
    (VII) भारत के पड़ोसी चीन, पाकिस्तान, बंगला देश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका तथा म्यानमार के साथ समस्त मतभेद व झगड़े शांतिपूर्ण ढंग से निपटाने तथा मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित करने के लिये विशेष ठोस प्रयत्न करेगी।

लोक जनवादी मोर्चे का निर्माण
    92. यह स्पष्टï है कि भारतीय क्रांति के बुनियादी कार्यों को पूर्ण रुप से संपूर्ण करने के लिये वर्तमान पड़ाव पर यह अत्यंत जरूरी है कि बड़ी बुर्जुवाजी के प्रभुत्व वाले मौजूदा बुर्जुवा-जागीरदार राज्य की जगह मजदूर वर्ग के प्रभुत्व में लोक-जनवादी राज्य स्थापित किया जाये।
    93. यह स्पष्टï है कि वर्तमान बड़े बुर्जुआ नेतृत्व को, जिसने जागीरदारी को अपना सहयोगी बना रखा है, राजसत्ता से उतारे बिना, तथा उसकी जगह राज्य पर मजदूर वर्ग का प्रभुत्व स्थापित किये बिना किसानों के हितों में हकीकी तीव्र भूमि सुधार नहीं किये जा सकते, जो कि हमारे जनसमूहों के लिये पर्याप्त अन्न, हमारे उद्योगों के लिये जरूरी कच्चा माल व बढ़ते बाजार व देश के विकास के लिये अतिरिक्त पूंजी निर्माण का एकमात्र स्रोत्र हो सकते हैं।
    94. यह भी उतना ही स्पष्टï है कि हमारी अर्थ व्यवस्था विदेशी इजारेदार पूंजी व उसकी लूट से तब तक मुक्त नहीं हो सकती जब तक विदेशी इजारेदार पूंजी के साथ समझौते व सांझ की नीति वाले मौजूदा शासक राज करते हैं। विदेशी इजारेदार पूंजी पर कंट्रोल करने तथा उसे काबू में रखने के लिये व अपनी आजादी को मजबूत नींव पर खड़ा करने के लिये, मजदूर वर्ग के नेतृत्व में लोक जनवादी मोर्चे की दृढ़तापूर्ण स्थापना के बिना, प्रगति की कोई गारंटी नहीं हो सकती।
    95. तथा फिर, यह भी सब को बढ़ती मात्रा में स्पष्टï हो रहा है कि जब तक जन विरोधी नीतियों वाले वर्तमान राज्य व सरकार को रद्द नहीं किया जाता, इसको निर्णायक रूप में परास्त नहीं किया जाता तथा इसकी जगह जन-पक्षीय जनवादी नीतियों वाले वैकल्पिक राज्य व सरकार स्थापित नहीं होते, तब तक हमारे लोगों के लिये ना तो पूंजीवादी विकास के मुश्किलों से भरपूर रास्ते से, जो ऐतिहासिक रूप में पुराना पड़ चुका है, बच सकना संभव है तथा ना ही हमारे लोगों को इजारेदार पूंजी की, जो कि विकास के ऐसे रास्ते की लाजमी ऊपज है, की बढ़ती जकड़ से आजाद कराया जा सकता है।
    96. हमारी क्रांति का वर्तमान पड़ाव तथा इसके समक्ष बुनियादी कार्य न केवल क्रांति के रूप को तय करते हैं, बल्कि इसकी प्राप्ति के संघर्ष में भिन्न-भिन्न वर्गों की भूमिका को स्पष्टï करते हैं। वर्तमान पड़ाव पर हमारी क्रांति का चरित्र जागीरदार विरोधी, साम्राज्यवाद विरोधी, इजारेदार विरोधी तथा जनवादी है। निश्चय ही, यह शब्दों के उन पारंपरिक अर्थों में जनवादी नहीं हो सकता जबकि भिन्न-भिन्न देशों में बुर्जुवाजी जनवादी क्रांतियों का नेतृत्व कर रही थी। हमारी जनवादी क्रांति विश्व इतिहास के बिल्कुल नये दौर की क्रांति है, जहां सर्वहारा वर्ग व उसकी राजनीतिक पार्टी ने नेतृत्व संभालना है तथा इससे गद्दारी करने के लिये इसे बुर्जुवाजी के रहम पर नहीं छोड़ देना। आज के दौर में सर्वहारा वर्ग को, समाजवाद की प्राप्ति के लिये आगे बढऩे के संबंध में एक जरूरी कदम के रूप में, जनवादी क्रांति का नेतृत्व करना होगा। इस प्रकार यह पुरानी किस्म की बुर्जुवा-जनवादी क्रांति नहीं बल्कि मजदूर वर्ग के प्रभुत्व व नेतृत्व में संगठित नई किस्म की लोक जनवादी क्रांति है।
    97. जागीरदार विरोधी व साम्राज्यवाद विरोधी जनवादी क्रांति को सबसे पहले किसानों के हित में तीव्र भूमि सुधार करने के कार्य को संपूर्ण करना होगा ताकि कृषि व उद्योग के क्षेत्रों की हमारी उत्पादन शक्तियों पर से जागीरू, व अद्र्ध-जागीरू बंधनों के अवशेषों को साफ किया जाये। इसके साथ ही सामाजिक प्रबंध को सुधारने के ऐसे तीव्र कदम उठाने होंगे जिनके द्वारा पूर्व-पूंजीवादी समाज के चिन्ह जैसे कि जाति-पाति तथा अन्य सामाजिक संबंध जो ग्रामीण लोगों को युगों पुराने पिछड़ेपन के साथ बांधें रखते हैं, खत्म हों। यद्यपि सामाजिक ढांचे में ऐसे तीव्र सुधार करने का कार्य कृषि क्रांति की संपूर्णता के साथ जुड़ा है, जो कि वास्तव में जनवादी क्रांति का धुरा है। इसके पूरे महत्त्व तथा जरूरत को समझने में असफलता जनवादी क्रांति के वास्तविक तत्व को ही भुलाने के बराबर है। हमारी जनवादी क्रांति का दूसरा जरूरी कार्य हमारी राष्टï्रीय अर्थ व्यवस्था में से विदेशी इजारेदार पूंजी को संपूर्ण रूप से खत्म करना अथवा इसको निकाल बाहर करना तथा इस प्रकार हमारे लोगों के आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक जीवन को इसके समस्त घातक प्रभावों में मुक्त करवाना है। इस प्रकार इन दो बुनियादी कार्यों का संपूर्ण किया जाना हमारी जनवादी क्रांति के सम्मुख है। इसके साथ ही इजारेदार पूंजी की शक्ति को जोडऩे का कार्य जुड़ा हुआ है।
    98. यद्यपि, आज के प्रसंग में क्रांति के यह बुनियादी कार्य बड़ी बुर्जुवाजी तथा इसके राजनीतिक प्रतिनिधियों, जो राज्य के नेतृत्वकारी स्थानों पर बैठे हैं, का दृढ़ विरोध करके तथा उनके विरुद्ध संग्राम किये बिना संपूर्ण नहीं किये जा सकते। वे तीव्र व हकीकी भूमि सुधारों में रोड़े अडक़ाते हैं तथा उन्हें साझीदार बना कर अपने संकुचित वर्गीय हितों को पालने के लिये जागीरू व अद्र्ध जागीरू किस्म की जागीरदारी में संशोधन करने के रास्ते चल पड़ते हैं ताकि अपने वर्गीय कब्जे को सहारा दे सकें। वे अपनी राजसत्ता का विदेशी वित्तीय व इजारेदार पूंजी के साथ अधिक से अधिक सांझ डालने तथा इसके गहरे व बेरोक प्रवेश को सहज बनाने के लिये उपयोग करते हैं। तथा फिर, विदेशी इजारेदारों के साथ समझौते व सांझ तथा बड़े भारतीय सामंतवादियों के साथ मोर्चा बनाने की अपनी नीतियों के कारण वे जोरदार ढंग से पूंजीवादी विकास के रास्ते पर चल रहे हैं, जो बदले में देश में इजारेदार पूंजी की बढ़ौत्तरी व दबदबे को पर्याप्त सहज बना रही है। इस प्रकार लोक जनवादी क्रांति ना सिर्फ जागीरदारी व विदेशी इजारेदार पूंजी के पूरी तरह विरूद्ध है बल्कि उसके साथ-साथ यह बड़ी बुर्जुवाजी की भी दुश्मन है जो राज्य का नेतृत्व कर रही है, साम्राज्यवादी पूंजी के साथ घनिष्टï रिश्ते बना चुकी है तथा साम्राज्यवादी विश्वीकरण की सबसे बड़ी मुद्दई है।
    99. कुदरती रूप से इन परिस्थितियों में लोक जनवादी क्रांति अटल रूप में हिंदुस्तान की बड़ी बुर्जुवाजी की राजसत्ता के विरोध में आ खड़ी होती है। इन स्थितियों में क्रांति की प्रप्ति के लिये बनाया जाने वाला लोक जनवादी मोर्चा पुरानी तरह का आम राष्टï्रीय मोर्चा नहीं हो सकता जैसा कि हमारे राष्टï्रीय स्वतंत्रता संग्राम के पड़ाव पर था, जब क्रांति की धारा मुख्य रूप से बर्तानवी साम्राज्यवाद के विदेशी शासन के विरूद्ध केंद्रित थी। क्रांति का जनवादी कृषि संबंधी पड़ाव तथा विकास के इस पड़ाव पर वर्गीय शक्तियों का नया संतुलन निर्मित किये जाने वाले जनवादी मोर्चे के लिये नये तत्व की मांग करता है।
    100. लोक जनवादी मोर्चा सफलता से नहीं निर्मित किया जा सकता तथा क्रांति सफलता का शिखर नहीं छू सकती यदि इसका नेतृत्व भारत के मजदूर वर्ग तथा इसकी प्रतिनिधि राजनीतिक पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी के हाथ में नहीं होता। ऐतिहासिक रूप से आधुनिक समाज में मजदूर वर्ग के बिना कोई भी अन्य वर्ग यह भूमिका नहीं निभा सकता। हमारे समय का समूचा तर्जुबा इस सच्चाई को पूरी तरह दर्शाता है।
    101. लोक जनवादी मोर्चे का धुरा तथा आधार मजदूर वर्ग व किसानी की दृढ़ एकता है। यह एकता ही राष्टï्रीय स्वतंत्रता की रक्षा करने, दूरगामी जनवादी परिवर्तनों को संपूर्ण करने तथा सर्व-व्यापी सामाजिक प्रगति को यकीनी बनाने के लिये महत्त्वपूर्ण शक्ति है तथा फिर यह बात भी नोट करने वाली है कि जागीरदार-विरोधी व साम्राज्यवाद-विरोधी कार्यों को संपूर्ण करने के लिये राष्टï्रीय बुर्जुवाजी के भिन्न-भिन्न भाग जिस मात्रा में शामिल होते हैं, इसकी भी मजदूरों व किसानों की एकता तथा दृढ़ता पर कोई कम निर्भरता नहीं। अंतिम बात यह है कि क्रांति को सफलता तक ले जाने के लिये लोक जनवादी मोर्चे के निर्माण की कामयाबी अटूट मजदूर किसान एकता के निर्माण के साथ जुड़ी है।
    102. यह आम जानी जाती बात है कि हमारी किसानी एक ही तरह की नहीं है। पूंजीवाद इसमें दाखिल हो गया है तथा इसमें दर्जाबंदी हो गई है। किसानी के भिन्न-भिन्न भाग क्रांति में भिन्न-भिन्न भूमिकायें निभाते हैं। खेत मजदूर व गरीब किसान जो ग्रामीण आबादी का 70 प्रतिशत भाग हैं तथा जो जागीरदारों की बेदर्द लूट-खसूट का शिकार है, वर्तमान समाज में अपनी वर्गीय स्थिति के कारण मजदूर वर्ग के बुनियादी संगी (Ally) होंगे। मध्यम किसान भी सूदखोर पूंजीपतियों, गांवों के जागीरू व पूंजीवादी जागीरदारों तथा पूंजीवादी बाजार की लूट-खसूट के शिकार हैं तथा ग्रामीण जीवन में जागीरदारों का प्रभुत्व इनकी सामाजिक स्थिति पर कई ढंगों द्वारा इस प्रकार असरअंदाज होते है कि वह लोक जनवादी मोर्चे में उनको भरोसे योग्य साथी बना देता है।
    103. धनी किसान, किसानी का एक और प्रभावशाली अंग हैं। बुर्जुवा खेती सुधारों ने निस्संदेह उनके कुछ भागों को लाभ पहुंचाया है तथा आजादी प्रप्ति के बाद के नये राज्य प्रबंध में उन्होंने एक हद तक लाभ हासिल किये हैं। वे पूंजीवादी जागीरदारों की कतारों में शामिल होने की इच्छा रखते हैं तथा अपने फार्मों पर कार्य करने के लिये किराये पर मजदूर लगाने के कारण उनके प्रति बैर भावना रखते हैं। यद्यपि, भारी टैक्स, खेती आदानों व ओद्यौगिक वस्तुओं की ऊंची कीमतों तथा मुद्रास्फिति उन्हें निरंतर परेशान करते हैं तथा इस प्रकार उनके भविष्य को अनिश्चित बनाते हैं। भारतीय व विदेशी इजारेदार व्यापारियों, मुनाफाखोरों तथा उद्योगपतियों की जकड़ में होने के कारण मंडी के घातक उतरावों-चढ़ावों के कारण कई बार बुर्जुवा-जागीरदार सरकार द्वारा अपनाई जाती नीतियों के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। इस तरह वे भी जनवादी मोर्चे में लाये जा सकते हैं तथा लोक जनवादी क्रांति में सहयोगियों के रूप में रक्खे जा सकते हैं।
    104. शहरी व अन्य मध्य श्रेणीयां, अपने अपर्याप्त वेतनों व नगण्य सी आमदनियों के कारण तथा बुर्जुवा-जागीरदार शासन द्वारा विदेशी इजारेदार पूंजी के साथ समझौते करके व जागीरदारों के साथ सांझ डाल कर विकास के पूंजीवादी रास्ते पर चलने की इसकी होड़ के अधीन, बुरी तरह दुख सह रही हैं। अनाज, कपड़ों व अन्य जरूरी नित्य-प्रति की वस्तुओं की नित्य बढ़ती कीमतें, उनके बच्चों की शिक्षा पर बढ़ता खर्च तथा राज्य द्वारा लगाये गये प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष करों का प्रभाव उनको गहरी चोट पहुंचा रहा है। बेरोजगारी एक और कहर है जो उन्हें निरंतर चिंतातुर रखता है। यह वर्ग जनवादी मोर्चे में सहयोगी हो सकता है और होगा। इसे क्रांति में खींचने के लिये हर प्रयास करना चाहिये।
    105. भारतीय बुर्जुवाजी के भी, हमारे जैसे विकासशील देश की बुर्जुवाजी होने के कारण, वर्ग के रूप में साम्राज्यवाद व जागीरू व अद्र्ध-जागीरू कृषि प्रबंध से टकराव व विरोध हैं। पर राजसत्ता पर काबिज होने के बाद से इसका बड़ा व इजारेदार भाग राजसत्ता पर अपने अधिकारों का  उपयोग समझौते, दबाव व सौदेबाजी द्वारा इन विरोधों को सुलझाने के लिये करने का प्रयत्न करता आया है। इस अमल में उन्होंने विदेशी इजारेदारों के साथ शक्तिशाली संबंध स्थापित कर लिये हैं तथा जागीरदारों के साथ राजसत्ता सांझी की हुई है। यह उपरी भाग अपने चरित्र के रूप में जन-विरोधी तथा कम्युनिस्ट विरोधी है व लोक जनवादी क्रांति व इसके उद्देश्यों का विरोध करता है।
    106. राष्टï्रीय बुर्जुवाजी के अन्य विशाल भाग, जिनके या तो विदेशी इजारेदारों के साथ बिल्कुल भी संबंध नहीं हैं तथा या फिर यह संबंध चिर-स्थाई नहीं, जो खुद इजारेदार नहीं तथा इजारेदारों के हाथों से कई तरह की चोटें खाते रहते हैं, बाहरमुखी रूप में जागीरदार विरोधी तथा साम्राज्यवाद विरोधी क्रांति के मुख्य कामों को संपूर्ण करने में दिलचस्पी रखते हैं। ज्यों-ज्यों विश्व पूंजीवादी प्रबंध का संकट गहरा हो रहा है ज्यों-ज्यों विदेशी इजारेदारों तथा उनके बीच अंतरविरोध अपनी पूर्ण तीक्षणता सहित बढ़ रहे हैं तथा ज्यों-ज्यों बड़ी बुर्जुवाजी अपनी आर्थिक शक्ति व राजसत्ता का नेता होने के अपने स्थान के द्वारा देश के भीतर के अपने भाईयों की कीमत पर इस संकट को सुलझाने का प्रयास करती है, बुर्जुवाजी के यह भाग राजसत्ता के विरोध में आने के लिये मजबूर होंगे तथा लोक जनवादी मोर्चे में अपना स्थान ले सकते हैं। पर यह बात याद रक्खी जाये कि वे अभी भी बड़ी बुर्जुवाजी के साथ राजसत्ता में भागीदार हैं तथा राज्य के अधीन ऊपर उठने की उनकी बड़ी आशायें हैं। बाहरमुखी रूप से अपने प्रगतिशील चरित्र के बावजूद ये, भारतीय बड़ी बुर्जुवाजी तथा विदेशी इजारेदारों के मुकाबले में अपने अत्यंत कमजोर स्थान के कारण, अस्थिर हैं तथा यह एक ओर साम्राज्यवाद व उनकी सहयोगी भारतीय बड़ी बुर्जुवाजी तथा दूसरी ओर लोक जनवादी मोर्चे के बीच अत्यंत अनिश्चयतता को प्रकट करते हैं। इनके दोगले स्वभाव के कारण क्रांति में इनकी भागीदारी के लिये कई एक ठोस हकीकतें जैसे कि वर्गीय शक्तियों के संतुलन में परिर्वतन, साम्राज्यवाद-जागीरदारी व लोगों के बीच अंतरविरोधों की तीव्रता तथा बड़ी बुर्जुवाजी के नेतृत्व निचले राज्य तथा बुर्जुवाजी के अन्य भागों के बीच अंतरविरोधों की गहराई पर निर्भर करती है।
    107. बुर्जुवाजी के ऐसे भागों को जनवादी मोर्चे के पक्ष में लाने के लिये हर प्रयत्न किया जाना चाहिये तथा उनकी समस्याओं के गहरे व ठोस अध्ययन द्वारा भारतीय इजारेदारों व विदेशी साम्राज्यवादी दुश्मनों के खिलाफ उनके सब संघर्षों का समर्थन करने का कोई भी मौका मजदूरों को गंवाना नहीं चाहिये।
    108. मजदूर वर्ग व कम्युनिस्ट पार्टी,लोक जनवादी क्रांति लाने के लिये लोक जनवादी मोर्चे के निर्णाण हेतु अपने बुनियादी निशाने को एक पल के लिये भी आखों से ओझल ना करते हुये तथा इस तथ्य को भी ना भुलाते हुये कि इसने निश्चय ही बड़ी बुर्जुवाजी के नेतृत्व वाले वर्तमान भारतीय राज्य से टकराव में आना है, बड़ी बुर्जुवाजी समेत भारतीय बुर्जुवाजी तथा विदेशी साम्राज्यवादियों के बीच जो अंतरविरोध मौजूद हैं उन्हें सामने रखती है। यह अंतरविरोध साम्राज्यवाद के प्रभुत्व के प्रश्न, अन्य विकासशील देशों के साथ आर्थिक व राजनीतिक संबंधों के प्रश्न, विदेशी इजारेदारों तथा साम्राज्यवादी एजंसियों से मिलती सहायता की शत्र्तों के प्रश्न, हमारे निर्यातों के लिये जरूरी मंडी को ढूंढने के प्रश्न, हमारी विदेश नीति तथा राष्टï्रीय सुरक्षा के प्रश्नों के रूप में अपने आपको प्रकट करते हैं। संसार पूंजीवाद के आम संकट के नित्यप्रति तीव्र होने की पृष्ठïभूमि में राष्टï्रीय व अंतर्राष्टï्रीय क्षेत्रों में विभिन्न अंतरविरोधों का तीव्र होना आवश्यक है। इस घटनाचक्र का गहन अध्ययन करते हुये कम्युनिस्ट पार्टी, साम्राज्यवादियों के साथ ऐसे हर मतभेद, दरार, टक्कर व विरोध का उपयोग करने का प्रयास करेगी ताकि साम्राज्यवादियों को अलग-थलग किया जाये तथा जनवादी विकास के लिये लोगों के संघर्ष को मजबूत किया जाये। बुर्जुवा-लैंडलार्ड पार्टियों के साथ किसी भी प्रकार की एकता या संयुक्त मोर्चे के बारे में किसी भी प्रकार का भ्रम ना रखते हुये, मजदूर वर्ग विश्व शांति की रक्षा के लिये तथा नव-उपनिवेशवाद, नवउदारवाद तथा साम्राज्यवादी विश्वीकरण के विरोध के समस्त प्रश्नों पर, जो देश के वास्तविक हितों में हैं, साम्राज्यवाद के साथ विरोध वाले समस्त आर्थिक व राजनीतिक मसलों, उन सारे प्रश्नों के बारे में जो हमारी प्रभुसत्ता को मजबूत करने तथा आजाद विदेश नीति से संबंधित हैं, पर सरकार को सर्मथन देने से संकोच नहीं करेगी।
    109. मजदूर वर्ग की एकजुट पार्टी व राजनीतिक रूप से प्रभावशाली व सरगरम आंदोलन की गैर-मौजूदगी में, पूंजीवादी विकास के रास्ते की विरूपताओं के विरूद्ध निरंतर बढ़ती जा रही जन-बेचैनी का कुछ नकारात्मक, प्रतिक्रियावादी तथा क्रांति विरोधी ताकतों ने अपने आधारों को मजबूत करने के लिये, विशेष रूप से हिंदी-भाषी क्षेत्रों में, घोर दुरुपयोग किया है। यह प्रतिक्रियावादी ताकतें अब कुछ राज्यों व केंद्र में भी, राजनीतिक घटनाओं पर भारी प्रभाव डालने की स्थिति में हैं। यह बुर्जुवा-लैंडलार्ड शासक वर्गों की जनवाद विरोधी चालों व मंसूबों के लिये भी काफी व स्पष्टï सहायता जुटा रही हैं। इन प्रतिक्रियावादी ताकतों में से भारतीय जनता पार्टी अब सबसे शक्तिशाली है। आर.एस.एस. की फाशीवादी विचारधारा से लैस यह पार्टी पुर्न-उत्थानवाद की झंडाबरदार के रूप में उभरी है तथा इसने देश के अंदर ‘धर्म आधारित सांप्रदायिक राज्य’ की स्थापना का निशाना निर्धारित किया हुआ है। इस तरह, यह अब तक जनवादी दिशा में हासिल की गई सभी उपलब्धियों को नष्टï करना चाहती है। इस पार्टी के घोर सांप्रदायिक अमल तथा इस द्वारा व आर.एस.एस. से संबंधित अन्य संगठनों द्वारा अल्प-संख्यक धर्मों से संबंधित लोगों पर किये गये पाशविक हमलों ने उनके भीतर असुरक्षा की गहरी भावना पैदा की है। इसकी प्रतिक्रिया के रूप में, उन्होंने भी सांप्रदायिक आधार पर अपने प्रभाव वाले कुछ   एक तगड़े इलाके स्थापित किये हैं। इस तरह यह प्रतिक्रियावादी घटनाचक्र ना सिर्फ मजदूर वर्ग की एकता के लिये हानिकारक है, बल्कि अंतरराष्टï्रीय स्तर पर उभर रही कट्टïरवादी शक्तियों से मिलकर, यह लोगों की आम सलामती के लिये भी तथा देश की एकता-अखंडता के लिये भी गंभीर खतरा पैदा करता है।
    इसी तरह, शासक वर्गों की दलित व समाज के शोषित तथा पिछड़े हिस्सों की समस्याओं के निपटाने में घोर असफलता का कुछ जतिवादी नेताओं ने अपने संकुचित राजनीतिक आधार को मजबूत बनाने के लिये उपयोग किया है। इन जातिवादी आंदोलनों की जड़ें चाहे सामाजिक उत्पीडऩ तथा आर्थिक लूट-खसूट के शिकार भागों में हैं, पर फिर भी इनके नेता इन भागों को मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलन से दूर रखने के लिये हर संभव प्रयत्न करते हैं। इसके अतिरिक्त, इन सांप्रदायिक व जातिवादी शक्तियों की गतिविधियों में विघटनकारी व अलगाववादी भूमिकायें निभाने वाले तत्व होने के कारण बुर्जुवा-लैंडलार्ड शासक वर्ग तथा साम्राज्यवादी घुसपैठिये भी इन आंदोलनों को छिपी या खुली सहायता देते हैं।
    इसलिये, लोक जनवाद के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिये हमारी पार्टी को भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा तथा उसके राजनीतिक उद्देश्यों के विरुद्ध निरंतर रूप से जोरदार संघर्ष करना होगा। पार्टी के लिये यह लाजमी होगा कि वह सामाजिक दमन व जातिवादी उत्पीडऩ के प्रश्नों पर पहलकदमी करते हुये तुरंत ठोस रूप में दखलअंदाजी करे तथा इस तरह दलित व पिछड़ी श्रेणियों का एक शक्तिशाली जन आंदोलन विकसित करे ताकि जातिवादी पार्टियों के पीछे खड़े लोगों को मजदूर वर्ग के संयुक्त संघषों द्वारा जन-लामबंदी की ओर खींचने में कोई कसर बाकी ना रहे।
    110. इन सब कारकों पर अपने आप को आधारित करते हुये कम्युनिस्ट पार्टी समस्त देशभक्त शक्तियों अथवा उन शक्तियों के साथ जो पूर्व-पूंजीवादी समाज के सभी अवशेषों को मिटाने, किसानी के हितों में कृषि क्रांति को संपूर्ण करने, विदेशी पूंजी की सारी जंजीरों को तोडऩे तथा भारतीय अर्थ-व्यवस्था, सामाजिक जीवन व संस्कृति के तीव्र पुर्न-निर्माण के रास्ते की समस्त रूकावटों को दूर करने में दिलचस्पी रखती हैं, के साथ एकजुट होने का कार्य अपने सामने रखती है।
    111. मजदूर किसान एकता के केंद्र के इर्द-गिर्द, समस्त देशभक्त व जनवादी शक्तियों की क्रांतिकारी एकता द्वारा, लोक जनवादी क्रांति के निशानों की पूर्ति का संघर्ष बड़ा पेचीदा तथा लम्बा संघर्ष है। यह संघर्ष विभिन्न पड़ावों में, विभिन्न परिस्थितियों में चलाया जायेगा। क्रांतिकारी आंदोलन के विकास के इन भिन्न-भिन्न पड़ावों पर एक ही वर्ग के भिन्न-भिन्न भागों द्वारा अलग-अलग स्टैंड लेना आवश्यक है। भिन्न-भिन्न वर्गों द्वारा तथा एक ही वर्ग के बीच वाले भिन्न-भिन्न भागों द्वारा स्टैंड के इस परिवर्तन से पैदा होती पेचीदगियां ही क्रांतिकारी मजदूर वर्ग के नेता के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण करने तथा इसकी कतारों में अत्यंत सुहृदय व स्वयं को न्यौछावर कर देने वाले क्रांतिकारियों को लाने के महत्त्व व जरूरत को दर्शाते हैं। केवल ऐसी पार्टी ही जो अपनी कतारों को निरंतर माक्र्सवाद-लेनिनवाद की भावना से शिक्षित व पुर्न-शिक्षित करती है, वर्गीय शक्तियों के बदलते संतुलन के अनुसार उपयुक्त अमल के समस्त रूपों में निपुणता प्राप्त कर सकने के समर्थ होगी। केवल ऐसी पार्टी ही लोगों को विभिन्न टेढ़े-मेढ़े रास्तों के बीच से, जो क्रांतिकारी आंदोलन में अवश्य आते हैं, गुजार सकने तथा उनका नेतृत्व करने के समर्थ होगी।
    112. पार्टी को प्रत्यक्ष रूप से तथा तेजी से बदल रही राजनीतिक अवस्था की जरूरतों के अनुसार कई अंतरिम नारे घडऩे पड़ेंगे। लोगों के समक्ष वर्तमान शासक वर्गों को गद्दी से उतारने तथा मजदूर वर्ग व किसानी की दृढ़ एकता के आधार पर नया जनवादी राज्य स्थापित करने का कार्य जारी रखते हुये भी पार्टी लोगों को फौरी सुविधायें देने के न्यूनतम प्रोग्राम से जुड़ी प्रांतीय सरकारों को कायम करने की समस्त संभावनाओं का पूरा-पूरा उपयोग करेगी। ऐसी सरकारों का बनना मेहनतकश लोगों के क्रांतिकारी आंदोलन को उत्साह देगा तथा इस प्रकार जनवादी मोर्चे के निर्माण के अमल में सहायक होगा। यद्यपि, यह देश की आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं को किसी भी तरह से बुनियादी रूप में हल नहीं कर सकेगा। इस तरह पार्टी, संक्रमणीय चरित्र वाली ऐसी सरकारों को, जो लोगों को फौरी राहत देती हैं तथा इस प्रकार जन आंदोलन को मजबूत करती हैं, बनाने की समस्त संभावनाओं का उपयोग करते हुये भी आम लोगों को बड़ी बुर्जुवाजी के नेतृत्व वाले वर्तमान बुर्जुवा जागीरदार राज्य को बदलने की जरूरत के बारे में निरंतर सुशिक्षित करती रहेगी।
    113. कम्युनिस्ट पार्टी, लोक जनवाद की स्थापना तथा समाजवादी परिवर्तन का उद्देश्य शांतिपूर्ण ढंग द्वारा प्राप्त करने का प्रयत्न करती है। शक्तिशाली जन क्रांतिकारी आंदोलन विकसित करने द्वारा संघर्ष के संसदीय व गैर-संसदीय रूपों को जोडऩे द्वारा मजदूर वर्ग तथा उसके सहयोगी, प्रतिक्रियावादी शक्तियों के प्रतिरोध पर काबू पाने तथा यह परिवर्तन शांतिपूर्ण ढंग से लाने का पूरा प्रयत्न करेंगे।   
    परंतु, यह बात सदा ध्यान में रखने की जरूरत है कि शासक वर्ग कभी भी अपने आप सत्ता नहीं छोड़ते हैं। वे लोगों की जनवादी इच्छाओं का उल्लंघन करने तथा इस इच्छा को गैर कानूनी ढंग द्वारा व दमन द्वारा बदलने का प्रयत्न करती हैं। इसलिये क्रांतिकारी शक्तियों के लिये जरूरी है कि वे सुचेत रहें तथा अपने कार्य को इस तरह ढालें कि वे समस्त स्थितियों व देश के राजनीतिक जीवन में आते सभी भूल-भुलैय्यों का सामना कर सकें।

कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण
    114. जन-समूहों को बुर्जुवा, जागीरू व अद्र्ध-जागीरू विचारधाराओं से मुक्त करवाने के लिये, उनकी राजनीतिक चेतना को ऊंचा उठाने के लिये तथा उन्हें वैज्ञानिक समाजवाद की स्थितियों पर लाने के लिये, विचारधारक मोर्चे पर जोरदार संघर्ष करने जरूरी हैं। कम्युनिज्म का विरोध शासक वर्गों का प्रत्यक्ष विचारधारक हथियार है। वे इस हथियार को जनवादी आंदोलन पर विचारधारक हमले जारी रखने के लिये तथा कम्युनिस्टों को अन्य जनवादी शक्तियों से अलग-थलग करने के लिये प्रयोग करते हैं। कम्युनिज्म का यह विरोध माक्र्सवादी सिद्धांत में भारी विकृतियां पैदा करता है तथा समाजवादी विचारधारा व व्यवस्था के विरुद्ध भद्दा दुष्प्रचार करता है, कम्युनिस्ट उद्देश्य को शेख-चिल्लीवाद के रूप में पेश करता है तथा जनवादी शक्तियों व संगठनों को घृणामयी हमलों का शिकार बनाता है। कम्युनिज्म का विरोध हमारे राष्टï्रीय हितों व समूचे रूप में जनवादी आंदोलन के भी विरूद्ध है। कम्युनिस्टों के लिये यह अत्यंत जरूरी है कि वे कम्युनिज्म के विरोध को बेनकाब करें तथा इसके विरूद्ध अत्यंत शक्तिशाली ढंग से संघर्ष करें। सोवियत यूनियन व पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवाद को लगे गंभीर धक्कों ने ना सिर्फ माक्र्सवाद-लेनिनवाद के कट्टïर वर्गीय शत्रुओं को समाजवाद के विरुद्ध दुश्मनी भरपूर गोलीबारी करने का एक स्वर्णिम अवसर दिया है बल्कि कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतरी दक्षिणपंथी संशोधनवादियों ने भी मजदूर वर्ग के अंदर भ्रम पैदा करने के लिये तथा उनके आंदोलन में भटकाव पैदा करके वर्गीय सहयोग व सोशल डैमोक्रेसी की पटरी पर चढ़ाने के लिये इसका घोर दुरूपयोग किया है। इसलिये कम्युनिस्टों के सम्मुख इन सारे दुश्मनों का पूरी ताकत से विरोध करने का मुश्किलों भरपूर कार्य भी आ खड़ा हुआ है।
    धार्मिक अंधविश्वासों, सांप्रदायिकता, जातिवाद तथा बुर्जुवा राष्टï्रवाद व क्षेत्रीय अलगाववाद जैसे गैर-वर्गीय रूझानों का प्रतिक्रियावादी स्वार्थी हितों द्वारा जनवादी आंदोलन की बढ़ौत्तरी को रोकने के लिये तथा इसमें विघटन पैदा करने के लिये उपयोग किया जाता है। हिंदुत्व व हिंदी अलगाववाद ने पहले ही अपना सिर उठाया हुआ है जिसकी प्रतिक्रिया के रूप में अल्प संख्यक रूढ़ीवादी व अन्य भाषाई गुट विघटनवादी व अलगाववादी मांगें उठा रहे हैं। यह सारे ही मजदूर वर्ग के संयुक्त आंदोलन तथा क्रांतिकारी आंदोलन के लिये हानिकारक हैं। इसलिये कम्युनिस्ट पार्टी इन सारे ही जन विरोधी रूझानों के विरुद्ध बेदर्द संघर्ष करेगी।
    बहुत सारे बुर्जुवा नेता तथा सोशल डैमोक्रेसी का प्रतिनिधित्व करते नेता लोगों को धोखा देने के लिये समाजवादी लफ्फाजी का बढ़ा-चढ़ा कर उपयोग करते हैं, जबकि यब बुर्जुवा व पैटी-बुर्जुवा नेता लोगों को वास्तविक समाजवादी रास्ते के लिये संघर्ष करने से दूर रखने का निरंतर प्रयत्न करते हैं। वे माक्र्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत व कम्युनिस्ट पार्टी पर अपने हमलों को छुपाने के लिये ‘सबके कल्याण’ जैसे लुभावने नारे देते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी जनसमूहों के समक्ष यह व्याख्या पेश करती है कि बुर्जुवा-लैंडलार्ड वर्गों का प्रतिनिधित्व करती सरकार के पास लोगों के कल्याण के लिये बिल्कुल भी कोई प्रोग्राम नहीं है तथा ऐसे बुर्जुवा व पैटी-बुर्जुवा सिद्धांतों में वैज्ञानिक समाजवाद का कण मात्र भी नहीं है।
    हमारे देश में जनवादी शक्तियों की एकता तथा मजबूती के लिये यह भी लाजमी है कि दक्षिण पंथी समाजवादियों, संशोधनवादियों तथा वामपंथी संकीर्णतावादी दुस्साहसवादियों की विघटनकारी व गैर-कम्युनिस्ट पुजीशनों के विरुद्ध भी कठोर विचारधारक तथा राजनीतिक संघर्ष किये जायें, क्योंकि यह कम्युनिस्ट विरोधी व गैर-वर्गीय रूझान भी देश के भीतर कई रूपों व गुटों में उभर आये हैं।
    115. लोक जनवादी सरकार की स्थापना, इन कार्यों को सफलता सहित पूर्ण करना, तथा लोक जनवादी राज्य में मजदूर वर्ग का नेतृत्व यह बात यकीनी बनायेगा कि भारतीय क्रांति जनवादी पड़ाव पर ही ना अटक जाये बल्कि तेजी से समाजवादी परिवर्तन के पड़ाव पर पहुंच जाये।
    116. हमारी पार्टी लोगों के समक्ष यह प्रोग्राम पेश करती है तथा वर्तमान समय के मुख्य कार्य सामने लाती है ताकि हमारे लोगों के सामने उस निशाने की तस्वीर स्पष्टï हो जाये, जिसके लिये वे संघर्ष कर रहे हैं तथा इस तरह उन्हें जनवादी राष्टï्रीय प्रगति के रास्ते का पता लग जाये।
    हमारी पार्टी करोड़ों ही मेहनतकशों, मजदूर वर्ग, किसानी, मेहनतकश बुद्धिजीवियों, मध्य श्रेणियों तथा साथ ही वास्तविक जनवादी विकास में तथा खुशहाल जीवन में दिलचस्पी रखने वाली राष्टï्रीय बुर्जुवाजी को इन फौरी कार्यों की पूर्ति के लिये तथा निशाने की प्राप्ति के लिये एकमात्र सही व सच्चे लोक जनवादी मोर्चे में एकजुट होने का आह्वïान करती है।
    117. भारतीय लोगों की लड़ाकू परंपराओं को आगे ले जाते हुये, हमारी पार्टी देश भक्ति को सर्वहारा अंतराष्टï्रीयतावाद से जोड़ती है तथा अपनी समस्त सरगरमियों व संघर्षों में माक्र्सवाद-लेनिनवाद के दर्शन व सिद्धांतों से अगुआई लेती है, जो कि मनुष्य के हाथों मनुष्य की लूट को समाप्त करने के लिये तथा मेहनतकश जनसमूहों की संपूर्ण मुक्ति के लिये उन्हें सही रास्ता दर्शाने वाला एकमात्र सिद्धांत है। पार्टी मेहनतकश जनता के अत्यंत विकसित, अत्यंत सरगरम तथा अत्यंत समर्पित पुत्र-पुत्रियों को अपनी कतारों में इक_ïा करती है तथा उन्हें दृढ माक्र्सवादी-लेनिनवादी तथा सर्वहारा अंतर्राष्टï्रीयवादियों के रूप में विकसित करने का निरंतर प्रयत्न करती है। पार्टी अपनी समस्त शक्तियां व संसाधन, विकास के जनवादी रास्ते के संघर्ष के लिये समूची देशभक्त व जनवादी शक्तियों को अपने साथ जोडऩे के कार्य में लगती है--प्रोग्राम की पूर्ति के लिये शक्तिशाली लोक जनवादी मोर्चे का निर्माण करने के महान कार्य हेतु।
    118. इस प्रकार हमारे देश के जनवादी विकास के लिये संघर्ष करती हुई हमारी पार्टी, साम्राज्यवादी विश्वीकरण, जो कि अब सामाजिक विकास के लिये सबसे बड़ा खतरा बनता जा रहा है, के विरुद्ध चल रहे विश्वव्यापी संघर्ष के लिये, जनवाद की रक्षा के लिये लड़े जा रहे संघर्षों में तथा समाजवाद के लिये लड़े जा रहे विश्वव्यापी संघर्ष में अपना स्थान प्राप्त करती है। हमारी पार्टी अपने आपको समस्त संशोधनवादी व कट्टïरवादी भटकावों से बचाती हुई माक्र्सवाद-लेनिनवाद की पवित्रता की रक्षा के लिये वचनबद्ध है। पार्टी वर्तमान संशोधनवाद के रोग के विरुद्ध, जो अब विश्व -कम्युनिस्ट आंदोलन को लगा हुआ है तथा मुख्य खतरा बन गया है, संघर्ष करने का प्रण करती हुई साथ ही वामपंथी भटकाव तथा दुस्साहसवाद के विरुद्ध भी सुचेत करती है। हमारी पार्टी अंतर्राष्टï्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की एकता को मजबूत करने का प्रयत्न करती है जो कि विश्व में, तथा हर देश में, महान अक्तूबर क्रांति के साथ प्रारंभ हुये नये दौर द्वारा उपजाई गई नई संभावनाओं को यथार्थ में बदलने की एकमात्र भरोसेयोग्य गारंटी है।
    119. यह भी एक आज का प्रत्यक्ष यथार्थ है कि सी.पी.आई.(एम) जिसने कि 1964 में, अपने जन्म के समय, वर्ग सहयोग की दक्षिण पंथी-संशोधनवादी लाइन के विरुद्ध जोरदार राजनीतिक-विचारधारक संघर्ष प्रारंभ किया था तथा मजदूरों, किसानों व अन्य श्रमिक जनसमूहों के बीच के लाखों कार्य-कत्र्ताओं को अपनी ओर खींचा था, अब संसदीयवाद के सुधारवादी भटकाव की दलदल में पूरी तरह धंस चुकी है। इस पार्टी ने, अपडेट करने के बहाने, 1964 में स्वीकृत किये गये प्रोग्राम में संशोधन कर लिये हैं तथा उस प्रोग्राम के बीच की वैज्ञानिक समझदारी व क्रांतिकारी भावना को नष्टï कर दिया है।
    हमारी पार्टी कम्युनिस्ट आंदोलन को लगे इस धक्के के ठोस कारणों की निशानदेही करने के लिये गंभीरता सहित प्रयत्न करेगी, भविष्य में ऐसे गैर-वर्गीय रूझानों के विरुद्ध अधिक से अधिक चौकस रहेगी तथा इन नव-संशोधनवादियों द्वारा भारत के अंदर लोक जनवादी क्रांति के कार्य को पहुंचाये गये भारी नुकसान पर काबू पाने के लिये जरूरी प्रयासों में अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं रहने देगी।
    120. हमारी पार्टी को विश्वास है कि हमारे देश के लोग, मजदूर वर्ग तथा इसके हिरावल दस्ते के नेतृत्व में माक्र्सवाद-लेनिनवाद की शिक्षाओं से अगुवाई लेते हुये, यह प्रोग्राम संपूर्ण करेंगे। हमारी पार्टी को विश्वास है कि हमारा महान देश, भारत भी एक विजयी लोक-जनवाद के रूप में उभरेगा तथा समाजवाद के रास्ते पर आगे बढ़ेगा।

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