Monday 21 December 2015

कम्युनिस्ट क्या चाहते हैं?

विश्व भर के कम्युनिस्ट अपने-अपने देश में, हर प्रकार के अन्याय, भेदभाव, शोषण, दमन-उत्पीडऩ से मुक्त व समानता पर आधारित समाज के सृजन के लिये प्रयत्नशील हैं। इस लक्ष्य के लिये वे, अपने-अपने देश की विशेष आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व भौगोलिक अवस्थाओं के अनुसार उचित गतिविधियों द्वारा मेहनतकश जनसमूहों को एकजुट करते हैं तथा इस विकट मार्ग पर चलते हुए अपने समक्ष उभरती विभिन्न कठिनाईयों से जूझते हुए हर प्रकार का बलिदान भी कर रहे हैं।
इसके बावजूद, सर्वसाधारण के मन में कम्युनिस्टों के लक्ष्य और उद्देश्यों के प्रति विभिन्न प्रकार की अस्पष्टïतायें तथा गलत भावनायें आज भी एक सीमा तक विद्यमान हैं। जिन को और गहरा करने के लिये कम्युनिस्टों के विरोधियों द्वारा जानबूझकर, योजनाबद्ध व जोरदार प्रयत्न किये जाते हैं। उदाहरणत: कम्युनिस्टों का भला न चाहने वालों में बहुत से ऐसे 'महानुभाव' हैं जो कम्युनिस्टों को नितांत अत्याचारी, निर्दयी व हिंसावादी लांछित करके उनकी मानववादी छवि को आम लोगों की नजरों में बिगाडऩे का प्रयत्न करते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो कि कम्युनिस्टों के विरुद्ध उनके नास्तिक व सिद्धान्तहीन होने का दुष्प्रचार करके उनके प्रति घृणा की भावना उभारने में निरंतर जुटे रहते हैं। सर्वसाधारण के समक्ष प्रतिदिन उभरती सामाजिक, आर्थिक व प्राकृतिक घटनाओं को समझने के प्रति कम्युनिस्टों के भौतिकवादी दृष्टिïकोण को भी 'गणमान्य' विद्धानों द्वारा बिगाड़कर प्रस्तुत किया जाता है तथा कम्युनिस्टों को पदार्थ अथवा धन दौलत एकत्र करने वाले और विलासी तक बखाना जाता है। कम्युनिस्टों की इस तरह से छवि बिगाडऩे वालों में, एक सीमा तक, भटकावों से ग्रस्त 'कम्युनिस्टों' की भी भूमिका है। हमारे देश में तो इस बात का भी प्रचार किया जा रहा है कि कम्युनिस्टों की विचारधारा एक विदेशी विचारधारा होने के कारण यह इस देश की सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों के अनुकूल ही नहीं है तथा देश के लिये हानिप्रद है।
दूसरी ओर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जिनके मन में कम्युनिस्टों के प्रति अपार श्रद्धा है और जो इस श्रद्धावश अथवा अपने निजी अनुभव के आधार पर कम्युनिस्टों को सर्वस्व बलिदानी, निडर, हर प्रकार के लोभ-लालच से मुक्त, साफ-सुथरे, पारदर्शी व्यक्तित्व वाले, सत्य, न्याय तथा अपने सिद्धान्तों के लिये मर मिटने वाले योद्धाओं के तौर पर जानते हैं तथा उन्हें आदर देते हैं। यह बात अलग है कि उनकी ऐसी समझ प्राय: कोरे आदर्शवादी पहलू से ही बनी हुई होती है और उनको कम्युनिस्टों के ऐसे गुणों, लक्षणों के पीछे काम करते बुनियादी कारकों का कोई ठोस ज्ञान नहीं होता। इसलिये हम यहां कम्युनिस्टों के वास्तविक लक्ष्यों व उदेश्यों के प्रति, उनके विरुद्ध शत्रुओं द्वारा लगाये जाते लांछनों संबंधी और कम्युनिस्टों के आसाधारण एव मानववादी नैतिक सरोकारों वाले आचरण संबंधी कुछ जरूरी बुनियादी तथ्य, जिनका आधार पूरी तरह वैज्ञानिक समझदारी पर आधारित है, को स्पष्टï करने का एक छोटा सा प्रयास कर रहे हैं ताकि सर्वसाधारण मेहनतकशों की कम्युनिस्टों के प्रति सही और संतुलित धारणा बन सके।
 


कम्युनिस्टों का सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य 
 घोषित रूप में कम्युनिस्टों का लक्ष्य सामाजिक व आर्थिक असमानताओं, अभावों, अन्यायों तथा अनेक प्रकार की विषमताओं से भरे सामाजिक ढांचे को बदल कर इसके स्थान पर समानता तथा प्रचुरता पर आधारित सामूहिक साझेदारी वाली सामाजिक प्रणाली का निर्माण करना है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि 19वीं शताब्दी के प्रथम अर्ध में विकसित हुई कम्युनिस्ट विचारधारा से पहले भी बहुत से आदर्शवादी समाज सुधारकों, बुद्धिजीवियों व चिन्तकों द्वारा ऐसे ही, भेद-भाव तथा अन्याय मुक्त, समाज के निर्माण के कई सपने संजोये जाते रहे हैं और इस लक्ष्य के लिये कई बार आवाज भी उठाई जाती रही है। विश्व के हर क्षेत्र में तथा हर दौर में तत्कालीन अन्याय, शोषण तथा दमन उत्पीडऩ के विरुद्ध भी ऐसी जोरदार आवाजें उठती रही हैं और आज भी कई एक ऐसे सज्जन हैं जो कि कम्युनिस्ट विचारधारा से तो अनभिज्ञ हैं, परन्तु इस मानवीय दिशा में सहृदयता पूर्वक प्रयत्नशील हैं और इस मार्ग पर चलते हुए कई प्रकार की कठिनाईयों से भी भिड़ रहे हैं। ऐसे मार्ग पर चलते हुए जनता के विशाल भागों को अपने प्रभाव में लाने वाले बहुत से धर्मों की आधारशिलाओं को सुद्ढ़ बनाने वालों का भी इस पहलू से गौरवमई इतिहास है। परन्तु यह भी सत्य है कि पूर्ण सहृïदयता से किये गये वह सारे प्रयास भी सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को समाप्त करने की दिशा में चिरस्थायी परिणाम नहीं निकाल सके। ऐसी सभी विद्रोही आवाज़ें अपने समय के साधन संपन्न लोगों के अन्यायपूर्ण  व्यवहार से पीडि़त लोगों को लाजि़मी तौर पर प्रभावित करती रही हैं; उनको अपनी ओर आकृष्टï भी करती रही हैं, परन्तु ये आवाज़ें उस समय के अत्याचारियों द्वारा दबा दी जाती रही हैं और या फिर विचलित कर उन्हें बेजान बना दिया जाता रहा है। इस त्रासदी का मुख्य कारण सदैव एक ही रहा है; और वह है; इन आन्दोलनों की सैद्धांतिक प्रकृति और उनकी आदर्शवादी, वर्गीय एंव भावनात्मक सीमायें। इन सीमाओं के अधीन ही ये सभी क्षण-भंगुर आन्दोलन सामाजिक प्रतिरोध का निर्माण करने की दिशा को त्याग कर उपदेशात्मक बन जाते रहे हैं और किसी न किसी नाम के 'सर्वशक्तिमान'  को, गुहार लगाने/प्रार्थनाएं करने, पूजा पाठ करने और 'सर्वशक्तिमान' को जिसकी आज्ञा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता, अत्याचारियों को सन्मति देने की आराधनायें करने की राह पर चल पड़ते रहे हैं।
इसके मुकाबले में कम्युनिस्टों के लिये सामाजिक-आर्थिक समता और साझेदारी पर आधारित समाज का निर्माण कोई मनोकल्पित एंव हवाई लक्ष्य नहीं है अपितु उनके लिये यह सामाजिक विकास के शाश्वत नियमों का प्रमाणित निष्कार्ष है और यह किसी भी प्रकार के उपदेशात्मक प्रचार या प्रार्थनाओं का मुहताज नहीं है। कम्युनिस्टों की यह विचारधारा जिसको माक्र्सवादी विचारधारा भी कहा जाता है, न केवल दर्शनशास्त्र (फिलासफी) के वैज्ञानिक नियमों पर आधारित है अपितु मानवीय समाज की संरचना और इसमें अब तक हुए महत्त्वपूर्ण और क्रांतिकारी परिवर्तनों के वैज्ञानिक विश्लेषण अर्थात ''क्या है, क्यों है और कैसे अस्तित्व में आया है? के प्रमाणिक निष्कर्षों पर खड़ी है और निरन्तर रूप में विकसित हो रही हैं। यह वैज्ञानिक नियम ही इस विचारधारा को रूढि़वादी एंव ग्रन्थात्मक रूप धारण करने से बचाते हैं तथा बदलती परिस्थितियों के अनुसार विकसित होने के योग्य बनाते हैं।
 


माक्र्सवादी दर्शन से क्या अभिप्राय है?
 जर्मनी के दार्शनिक, कार्ल माक्र्स द्वारा अपने अभिन्न मित्र और सहयोगी फ्रैडरिक ऐंग्लस के साथ मिलकर उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम अद्र्ध में विकसित की गई वैज्ञानिक विचारधारा को माक्र्सवादी विचारधारा या माक्र्सवादी दर्शन कहा जाता है। यह दर्शन न केवल सृष्टिï को जानने तथा सृष्टिï के साथ संबंधों को समझने के प्रति उस समय तक अर्जित समूह वैज्ञानिक अन्वेषणों और सैद्धान्तिक स्थापनाओं पर आधारित है अपितु समाजवाद की दिशा में सामाजिक परिवर्तन के लिये इन स्थापनाओं को प्रयोग में लाने की ओर एक महान ऐतिहासिक उद्यम है। यह दर्शन यह स्थापित करता है कि सृष्टिï का पासार नाशवान घटना चक्र नहीं है अपितु यह शाश्वत सत्य है जोकि अनादि और अन्त है। पदार्थ के रूप में यह सत्य निरन्तर गति में है और अपने  अटल नियमों के अधीन समय और स्थान के अनुसार भिन्न भिन्न स्वरूपों में प्रकट होता है। मानवीय मस्तिष्क इसी पदार्थ का एक अतिविकसित रूप है जोकि मानवीय चेतना का भौतिक स्रोत है और भौतिक गति में विद्यमान अटल नियमों की खोज करने और प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को समझने के सक्षम है बशर्ते कि वह इस प्रयोजन हेतु अवश्यमेव कठिन पुरूषार्थ करने का साहस करे। इस प्रकार से यह यथार्थवादी समझदारी उन अध्यात्मवादी समझदारियों के विपरीत है जो कि इस सृष्टिï को किसी परलौकिक शक्ति के आदेशानुसार अस्त्तिव में आई और उसकी इच्छा के अनुसार ही कार्यरत मानती हैं और अन्तिम रूप में उसे नश्वर मानती हैं, जोकि मानवी विचारों को भी किसी 'परम विचार' की ही प्रतिछाया मानती हैं और यह समझती हैं कि मनुष्य प्रकृति के रहस्यों को समझने में असमर्थ है। अत: मनुष्य को तो इस 'सर्वशक्तिमान' की इच्छा में नतमस्तक होकर चलते रहना चाहिये क्योंकि उसकी इच्छा बगैर तो ''पत्ता भी नहीं हिल सकता।'' माक्र्सवादी क्योंकि ऐसे प्राभौतिक एंव निष्क्रियवादी सिद्धांत को रद्द करते हैं, इसलिये उन पर नास्तिकता का आरोप लगा दिया जाता है।
यह भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि प्रकृति और मनुष्य के इन संबंधों की खोज कर रहे चिन्तकों में आदिकाल से ही दो परस्पर विरोधी मत चले आ रहे हैं। भौतिक सृष्टिï को मानवी विचारों की प्रतिच्छाया मानने वाले, विचार को ही अग्रिम मानते हैं और पदार्थ को, इसके सभी रूपों में, द्वितीय स्थान पर रखते हैं। यह सैद्धांतिक समझदारी रखने वाले दार्शनिकों को विचारवादी या अध्यात्मवादी कहा जाता है जबकि इसके विपरीत विचारों को भौतिक अस्तित्व की प्रतिच्छाया मानने वालों को, जोकि भौतिक सत्य को पहल देते हैं और विचारों को इनकी उपज मानते हैं, भौतिकवादी कहा जाता है। इस तरह भौतिकवाद (Materialism) वास्तव में दर्शन का एक ऐसा पाक्षिक दृष्टिïकोण है जो कि विचारों को भौतिकवादी यथार्थ की उत्पत्ति मानता है, न कि यह भौतिकवादी सुख सुविधाओं का संग्रह करना, जैसा कि शोषण पर आधारित आज के पूंजीवादी दौर के संदर्भ में इस धारणा को  बिगाड़ कर इसे प्रस्तुत किया जाता है। कार्ल माक्र्स, निश्चित तौर पर भौतिकवादी पहँुच की धारणा रखनेवाला दार्शनिक था परन्तु वह दर्शन को प्राकृतिक घटनाक्रम और सामाजिक कार्यकला की व्याख्या तक ही सीमित रखने भर में संतुष्टï नहीं था। उसका बहु-चर्चित कथन, ''अब तक दार्शनिकों ने इस संसार की अलग-अलग ढंग से व्याख्या ही की है, जबकि वास्तविक मुद्दा इसको बदलने का है।'' हमारी इस समझ की पुष्टिï करता है। पूँजीवादी लूट-खसूट के अधीन मजदूर वर्ग के हो रहे शोषण के कारण उस समय तक बन चुकी त्रासदिक सामाजिक-आर्थिक अवस्थाओं से प्रभावित हुई इस भावना के तहत ही कार्ल माक्र्स और उसके साथी फ्रैड्रिक ऐंग्लस ने निरंतर तौर पर हो रहे परिवर्तन की व्याख्या के लिये तत्त्कालीन प्रसिद्ध विचारवादी दार्शनिक हीगल द्वारा विकसित की गई द्वनदात्मक विधि का प्रयोग किया। यह प्रयोग केवल प्रकृति में हो रहे भौतिक परिवर्तनों को समझने के लिए ही नहीं किया अपितु मानवीय समाज में आये महत्त्वपूर्ण परिवर्र्तनों का भी इस विधि द्वारा विश्लेषण किया और इस तरह, सैद्धांतिक पक्ष से, एक नई क्रांतिकारी सिद्धांत को जन्म दिया जिसको द्वन्दात्मक भौतिकवाद कहा जाने लगा।
 


द्वन्दात्मक विधि (Dialectics) क्या है?
 अन्य सभी अध्यात्मवादी विचारों के विपरीत द्वन्दात्मक विधि सृष्टिï को अनायास अस्तित्व में आये पदार्थों व घटनाओं का समूह नहीं समझती, जो कि एक दूसरे से स्वतंत्र हों अथवा परस्पर रूप में अलग-अलग हों; बल्कि, इस सृष्टिï को एक अखण्ड सम्पूर्ण इकाई मानती है जिसमें पदार्थ के भिन्न-भिन्न स्वरूप और घटनाक्रम आपस में पूर्ण रूप से संबंधित हैं, एक दूसरे पर निर्भर हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। यह सिद्धांत आधुनिक वैज्ञानिक अन्वेषणों पर भी आधारित है तथा ठोस तथ्यों एंव प्रत्यक्ष प्रमाणों से भी भरी पड़ी है। सृष्टिï को जानने व समझने की इस विधि के अनुसार यह सृष्टिï किसी भी प्रकार से अचल या स्थिरता की स्थिति में नहीं है और न ही इसके बीच का कोई स्वरूप या व्यवहार अपरिवर्तनीय है अपितु यह एक ऐसी गति में है जिसके द्वारा निरंतर परिवर्तन हो रहे हैं और यहां पर हर समय कुछ न कुछ नया अस्तित्व में आ रहा है और कुछ न कुछ समाप्त हो रहा है। इसकी व्याख्या आगे परिवर्तन के तीन नियमों के अनुसार की जा रही है:
    1. विरोधियों का मेल और संघर्ष (गति का स्रोत)
    2. मात्रात्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन (परिवर्तन की विधि)
    3. निषेध का निषेध (परिवर्तन की दिशा)

प्रकृति में हो रहे इन निरंतर परिवर्तनों का कारण पदार्थ के हर अंश में, हर प्राकृतिक अथवा सामाजिक व्यवहार में एंव हर विचार में दो विरोधी तत्वों का अस्तित्व है जिन में निरंतर संघर्ष चलता रहता है। यह संघर्ष ही गति का स्रोत है। इसको 'विरोधियों के मेल और संघर्ष' के एक अटल नियम के तौर पर स्थापित किया गया है। इस समझदारी के अनुसार दोनों विरोधी तत्त्वों में से एक तत्त्व निरंतर घटता जाता है और दूसरा निरंतर बढ़ता जाता है। इसी कारणवश हर समय कुछ नया अस्तित्व में आ रहा होता है और कुछ अन्य अस्तित्वहीन होता जा रहा होता है। इस तरह कोई भी वस्तु, व्यवहार या विचार स्थिर नहीं है और यह प्रक्रिया एक निरंतर चल रही प्रक्रिया है एंव सृष्टिï का मूल लक्षण है।
इस प्रक्रिया के अधीन बढ़ रहे तत्त्व में हो रही मात्रात्मक वृद्धि एक निश्चित सीमा पर पहुंच कर एक नई वस्तु/घटनाक्रम/विचार को जन्म देती है, जिसको मात्रा परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन में प्रकट होने के रूप में जाना जाता है। परन्तु यह गुणात्मक परिवर्तन कोई सहज स्वभाव होने वाला परिवर्तन नहीं होता अपितु एक छलांग के रूप में होता है। उसको क्रांतिकारी परिवर्तन की संज्ञा दी जाती है। इस द्वारा विगत वस्तु/घटनाक्रम/विचार से मूलत: एक अलग वस्तु/घटनाक्रम/विचार अस्तित्व में आते हैं जिनमें आगे चलकर फिर दो नये विरोधी तत्त्वों के मध्य संघर्ष आरंभ हो जाता है।
इस प्रकार से जो तत्त्व किसी पहले तत्त्व को ध्वस्त करके नई वस्तु/घटनाक्रम/विचार के रूप में अस्तित्व में आता है, आगे चलकर उसके नष्टï होने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है, उसके स्थान पर नया अग्रगामी तत्त्व उभर आता है। इस व्यवहार को 'निषेध का निषेध' के तौर पर जाना जाता है। इस तरह सृष्टिï के अन्दर निरंतर परिवर्तन अर्थात विकास की प्रक्रिया युगों-युगान्तरों से चली आ रही है, आज भी चल रही है और आगे भी चलती रहेगी।
जैसा कि पहले बताया गया है, परिवर्तन की निरंतर प्रक्रिया को दर्शाती इस विधि की खोज हीगल ने की थी जो अपने समय का माना हूआ सुप्रसिद्ध विचारवादी दार्शनिक था, परन्तु कार्ल माक्र्स ने उसकी इस खोज के के्रंदीय तत्त्व को ले लिया और इसके विचारवादी फोकट को फेंक दिया। इस विधि को ही उसने आगे मानवीय समाज में हुए व हो रहे परिवर्तनों अर्थात मानव इतिहास का विश्लेषण करने के लिये इस्तेमाल किया क्योंकि उसके सामने तो विषय मुख्यत: असंख्य दु:ख तकलीफों में घिरे हुए मेहनतकशों की त्रासदिक स्थिति को बदलने का था। कार्ल माक्र्स द्वारा इस विधि से मानव इतिहास की, की गई मौलिक खोज द्वारा स्थापित किये गये विकास के वैज्ञानिक नियमों को ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा जाता है।
 


सामाजिक विकास की द्वन्दात्मक व्याख्या : ऐतिहासिक भौतिकवाद 
कार्ल माक्र्स व फ्रैंडरिक ऐंग्लस द्वारा स्थापित किया ऐतिहासिक भौतिकवाद का वैज्ञानिक सत्य मानव इतिहास के अलग-अलग पड़ावों के द्वन्दात्मक संबंधों का विश्लेषण करता है। यह अब तक हुए समूह सामाजिक परिवर्तनों के कारणों की द्वन्दात्मक विधि द्वारा की गई जांच पड़ताल से न केवल तब तक ऐतिहासिक तौर पर अस्तित्व में आ चुकी चार सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों :
    1. आदि कबीला कम्युनिज़्म
    2. दास प्रथा
    3. सामंतवाद (जागीरदारी) तथा
    4. पूँजीवाद

की व्याख्या करता है अपितु इस विधि द्वारा उन्होंने मानवीय समाज के आगामी और उच्चतर पड़ावों--समाजवाद व कम्युनिज़्म को भी चिन्हित कर लिया है।
मानव विकास के इस महत्त्वपूर्ण व महान विश्लेषण को संपूर्ण करने में कार्ल माक्र्स ने संसार के उस समय के महान जीव विज्ञानी, डार्विन द्वारा वर्षों परिश्रम करके प्रमाणित की गई खोज, जिसके अनुसार जीवों की विभिन्न प्रजातियों की उत्पत्ति व विकास को निर्धारित किया गया है, का भी ठोस रूप में प्रयोग किया। इस खोज द्वारा माक्र्स ने दर्शाया कि कैसे आदिकाल से, अपने बचाव व जीवन निर्वाह के लिये आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन की प्रक्रिया में लगे हुए मानव ने, शिकार पर निर्भर रह कर और कबीलों में रहते जंगली मनुष्य से विकसित होकर चरवाहे, किसान, कारीगर तथा कारखानेदार बनने तक का लाखों वर्षों का सफर तय किया है। ऐतिहासिक तथ्यों तथा घटनाओं की खोजबीन के आधार पर उसने यह स्थापित किया कि इन सब परिवर्तनों का मूल स्रोत कोई सर्वशक्तिमान, कोई विशेष व्यक्ति या समय-समय पर अवतरित हुआ कोई 'अवतार' नहीं है अपितु मानव द्वारा अपनी आवश्यक्ताओं की पूर्ति के लिये पैदावार करने की अटूट प्रक्रिया है। इस उद्देश्य के लिये मनुष्य ने जहां अपनी उत्पादक  शक्ति द्वारा प्राकृतिक स्रोतों का उपयोग किया है वहीं उसने उत्पादन के लिये औज़ार भी बनाये तथा विकसित किये हैं। मनुष्य की यह प्रतिभा अर्थात् औज़ार बनाने का गुण ही उसे दूसरे जीवों से मुख्य रूप में भिन्न बनाता है।
जीवन निर्वाह के लिये आवश्यक खाद्य सामग्री व सुरक्षा सबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उत्पादन करने की इस प्रक्रिया के चलते ही जंगली मनुष्य ने आदिकाल में पहले उत्पादन के साधन (औज़ार) के रूप में पत्थरों का प्रयोग किया जो समय पाकर बाद में बढिय़ा तथा धातु से बने हुए औज़ारों के रूप में विकसित हुए। क्योंकि उस समय के इन बुनियादी औज़ारों द्वारा उत्पादन करने की सामथ्र्य इतनी अधिक संभव नहीं थी कि मानव आर्जित उत्पादन को बचाकर उसे अपनी संपत्ति के तौर पर प्रयोग कर सके। इसलिये प्रारंभिक साझेदारी के इस दौर में अपनी सुरक्षा संबंधी और आहार संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये वह कबीले में रहने के लिये विवश था। परन्तु उत्पादन के लिये औज़ारों के विकसित हाने और उत्पादक शक्तियों के बढ़ जाने से मानव के लिये जब अपनी जरूरतों की पूर्ति से अधिक उत्पादन करना संभव हो गया तो निजी संपत्ति बनने लगी और साझेदारी वाले इस सामाजिक संबंध में दरारें पैदा होने लगीं और अन्त में यह उत्पादक संबंध तब टूट गये जब कुछ शक्तिशाली कबीलों या व्यक्तियों ने दूसरे कबीले के लोगों को अपने अधीन लाकर उनसे काम करवाना आरम्भ कर दिया। इस तरह आरंभ हो गया दास प्रथा का युग, जहाँ गुलाम-मालिक अपने गुलामों से अपनी इच्छा के अनुसार जो काम करवाना चाहे करवा सकते थे, उन्हें बेच सकते थे और मरवा भी सकते थे। इस तरह से मानव समाज पहले समतामूलक समाज को पीछे छोड़ कर दो वर्गीय समाज में परिवर्तित हो गया। इस नये समाज में कामकाजी व्यस्तता के मुकाबले में फुरसतयाफ्ता गुलाम मालिकों ने जहां कला-कृतियां विकसित कीं वहीं साथ ही उत्पादन के औजार भी और विकसित हुए, जिनसे उत्पादन और बढ़ा, परन्तु इसके साथ ही इस समाज में दो विरोधी तत्त्वों (वर्गों) मालिकों और गुलामों में एक लंबा और रक्त रंजित संघर्ष भी आरंभ हो गया, जिसको वर्ग संघर्ष कहा जाता है। स्वाभाविक तौर पर गुलाम भी चाहते थे कि उन्हें उनकी कमाई में से अधिक भाग मिले। इसलिए वे मालिक व गुलाम के इस संबंध को समाप्त कर स्वतंत्र होना चाहते थे। इस दोहरे चरित्र ने अर्थात् उत्पादन के औज़ारों के विकसित होने से बढ़ी उत्पादक शक्तियों ने और निरंतर तीक्षण होते गये वर्ग संघर्ष ने अंतत: गुलाम मालिकों व गुलामों के इस उत्पादन संबंध को भी, समय पाकर, तोड़ दिया और गुलामदारी से भी उच्चतर एक नई सामाजिक प्रणाली अस्तित्व में ला दी जिसे सामंतवादी समाज कहा जाता है।
इस नयी सामाजिक प्रणाली तक पहुँचते हुए मानव समाज जंगली मनुष्य या चरवाहे से आगे बढ़कर आवश्यक वस्तुओं का कृषि द्वारा उत्पादन करने तक पहुँच चुका था। इसलिये इस प्रणाली के अधीन गुलाम अपने मालिक का बेजुबान और काम करने वाला अधिकारहीन करिन्दा न रह कर अपेक्षाकृत एक स्वतन्त्र सत्ता का मालिक और जागीरदार (सामंत) के खेतों में काम करने वाला मुजारा बन गया जो कि भिन्न-भिन्न प्रकार की पद्धतियों के अनुसार अपनी कमाई में से मालिक को हिस्सा देता था। इस हिस्से के कई रूप विकसित हुए परन्तु उत्पादक साधनों के विकसित होते जाने से और उत्पादन बढऩे से उसके बटवारे संबंधी जागीरदारों व मुजारे खेतीहरों की हड़प्प की गई कमाई के ऊपर पनपी सामन्तशाही के ऐश्वर्य आदि की पूर्ति के लिये आवश्यक वस्तुओं, विशेषकर वस्त्रों और बर्तनों आदि का उत्पादन करने वाले कारीगरों का एक नया वर्ग भी पैदा हो गया जो कि स्वयं ही उन वस्तुओं का व्यापार भी करता था। इस तीसरे वर्ग के हित भी यह मांग करते थे कि उस द्वारा पैदा की गई वस्तुओं की माँग बढ़े तथा उसकी शिल्प कला का अधिक से अधिक मूल्य पड़े। ऐसा तभी संभव था यदि मुजारे किसानों के विशाल भागों की क्रय शक्ति में बढ़ौत्तरी हो। इसलिए उनके द्वारा पैदा की जाती वस्तुओं में उनका भाग बढऩा जरूरी था। इस लिए स्वाभाविक तौर पर शिल्पियों तथा व्यापारियों के इस वर्ग ने भी किसानों के आन्दोलनों के साथ सहानुभूति प्रकट की और जिससे उत्पादक औज़ारों--साधनों में क्रांतिकारी परिवर्तन होने से कारखाना प्रणाली विकसित हुई, तो कारखानेदारों और व्यापारियों का यह तीसरा वर्ग सामंती जागीरदारी प्रबन्ध के विरुद्ध किसानों के चल रहे वर्ग संघर्ष में हमदर्द से बढ़कर अगुवा बनने तक जा पहुँचा। 17वीं शताब्दी में उत्पादक शक्तियों में हुई इस बढ़ौत्तरी ने तथा जगीरदारों व किसानों, शिल्पकारों, व्यापारियों आदि में बढ़े टकराव ने जागीरदारी प्रबन्ध के पैदावारी संबंधों को तोडऩा आरंभ कर दिया और एक नई उत्पादन प्रणाली विकसित करनी आरंभ कर दी जिसमें कारखानों के मालिक पूँजीपतियों का वर्चस्व हो गया। इस तरह विश्व भर में पूँजीवाद की उत्पत्ति और विकास का दौर अरंभ हो गया।
परंतु, यहां जागीरदार वर्ग की समाप्ति और पूँजीवादी प्रणाली का उदय होने के साथ साथ ही एक और नये वर्ग--मजदूर वर्ग, ने भी जन्म ले लिया जो कि किसी भी प्रकार की संपत्ति से विहीन था और जिसके पास अपनी श्रम शक्ति के बिना अपने जीवन निर्वाह के लिये और कोई साधन नहीं है। इसलिए पूंजीवादी प्रणाली के अधीन मजदूर वर्ग, जो कि अब सबसे अधिक उत्पीडऩ का शिकार है, तथा पूंजीपतियों के बीच वर्ग संघर्ष शुरू हो गया। कार्ल माक्र्स ने अपने महान ग्रन्थ 'दास कैपीटल' (पूँजी) द्वारा पूँजीवादी प्रणाली के अन्र्तगत इन अन्तविरोधों का बहुत ही विवेक पूर्वक और प्रमाणित विश्लेषण कर यह सिद्ध किया कि पूँजीवाद के आरंभ से ही इस प्रणाली का कबर खोद अर्थात मजदूर वर्ग पैदा हो चुका है और यह वर्ग मानवीय समाज में अब तक पैदा हुए सब वर्गों से अधिक जुझारू क्रांतिकारी वर्ग है जो कि वर्ग संघर्ष को उस सीमा तक ले जाने में समर्थ है जहां कि समाज में वर्ग भेद समाप्त हो जायेंगे; मानव द्वारा मानव का शोषण समाप्त हो जायेगा और मानवीय श्रम के गौरव से समता पर आधारित एक बेहतर समाज विकसित हो जायेगा, जिसको कम्युनिज़्म (साम्यवाद) कहा जायेगा।
इस तरह कार्ल माक्र्स ने न केवल वर्तमान पूँजीवादी प्रणाली के अन्तर्गत अन्तर्निहित अन्तर्विरोधों के कारण इसके, पिछली तीनों ही प्रणालियों की भान्ति, समाप्त हो जाने व अतीत की स्मृति बन जाने की वैज्ञानिक आधार पर भविष्यवाणी की, अपितु इन्हीं वैज्ञानिक नियमों अर्थात उत्पादक शक्तियों के बढऩे से उनका उत्पादक संबंधों से टकराव में आना तथा अपने विकास हेतु उन संबंधों को तोड़ देने, द्वारा यह भी स्थापित कर दिया कि मानव श्रम शक्ति की लूट पर खड़ी पूँजीवादी प्रणाली के स्थान पर एक नयी प्रणाली विकसित होगी जिसमें उत्पादन के समूचे साधन निजी स्वामित्व में नहीं, अपितु समूचे समाज के स्वामित्व में होंगे। इस में काम न करने वालों की कोई जगह नहीं होगी, 'हर एक से उसकी सामथ्र्य के अनुसार काम लिया जायेगा, हर एक को उसके काम के अनुसार पारिश्रमिक अदा किया जायेगा।' यह प्रणाली समाजवादी प्रणाली कहलायेगी जो कि आगे चलकर कम्युनिज़्म की ओर बढ़ जायेगी जहां कि 'हर एक से उसकी सामथ्र्य के अनुसार काम लिया जायेगा और हर एक को उसकी आवश्यकताओं के अनुसार पारिश्रमिक दिया जायेगा।' कार्ल माक्र्स ने, इस तरह यह प्रस्थापित किया कि हरेक सामाजिक प्रणाली के अस्तित्व को उसकी भीतरी उत्पादक शक्तियाँ (उत्पादन के साधन+श्रम शक्ति) और उत्पादन के संबंध निर्धारित करते हैं और इन्हीं के बीच अन्तर्विरोध विशेष तौर पर उत्पादन क्रिया में सक्रिय अलग-अलग वर्गों का परस्पर संघर्ष (वर्ग संघर्ष) उस प्रणाली की स्थापना और समप्ति में अहम भूमिका निभाता है। इस प्रकार वर्ग संघर्ष ही सामाजिक विकास की चालक शक्ति होता है। इसके साथ ही उसने यह भी स्थापित किया कि उत्पादक शक्तियों और उत्पादक संबंधों के अनुसार बनते आधार पर, राज्य प्रणाली व संस्कृति आदि का एक ढाँचा भी निर्मित होता है जोकि हर एक सामाजिक प्रणाली में होते परिर्वतनों की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। इस समस्त ढाँचे में से राज्य शक्ति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है जो कि शासक वर्गों (गुलाम मालिकों, सामन्तों व पूँजीपतियों) द्वारा निचले वर्गों को दबाये रखने के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार से अति निर्दयतापूर्वक प्रयुक्त की जाती है। इस तरह सामाजिक-परिवर्तन के लिये प्रयासरत शक्ति, वर्तमान संदर्भ में श्रमिक वर्ग, के लिये यह परम आवश्यक होता है कि वह इस राज्य शक्ति पर आधिपत्य जमाये और इसके स्थान पर अपने विकास हेतु उपयोगी नई राज्य शक्ति स्थापित करे। इस उद्देश्य के लिये कार्ल माक्र्स ने पूँजीवाद के अन्तर्गत समूह अन्तर्विरोधों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करने के अतिरिक्त शोषण से मुक्ति प्राप्त करने के लिये विश्व भरके मजदूरों का एक होकर वर्ग संघर्ष प्रचंड करने का भी आह्वïवान किया। कम्युनिस्ट मैनीफैस्टो (घोषणा पत्र) द्वारा यह आह्वïान करते हुए उन्होंने कहा कि इस संघर्ष में ''मजदूरों के पास अपनी जंजीरों को खोने के सिवाए और कुछ नहीं है, जबकि उनके पास जीतने के लिये सारा संसार है।'' बाहरमुखी घटनाओं से प्राप्त अनुभव और सिद्धांत के आधार पर, उन्होंने यह भी स्पष्टï किया कि पुंजीवादी शोषण से मुक्ति पाकर समाजवाद और आगे कम्युनिज़्म (साम्यवाद)  की ओर बढऩे का कोई सीधा स्पष्टï व सरल मार्ग नहीं हैं अपितु यह मार्ग बेहद कठिन व पेचीदा होगा। परन्तु, मजदूर वर्ग जो कि पूँजीवाद ने पैदा किया है वह पूँजीवाद में अन्तर्निहित अन्तविरोधों को समझ कर और उनके समाधान के लिये वर्ग संघर्ष के द्वारा इस कार्य को अवश्य ही परिपूर्ण कर लेगा क्योंकि यह वर्ग समाज में उभरे अब तक के सभी वर्गों में से सर्वाधिक कर्मठ व क्रांतिकारी वर्ग है। महान माक्र्स द्वारा विकसित की गई वैज्ञानिक स्थापनाओं के आधार पर परिस्थापित की गई समाज के विकास की इस अवधारणा को द्वन्दात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा जाता है। निश्चित तौर पर यह एक प्रमाणिक विज्ञान है और विश्व भर में मौजूद समग्र आर्थिक-सामाजिक व्यवहारों की तर्कसंगत व्याख्या करने में सक्षम है। यह निश्चय ही मानव की एक बहुमूल्य प्राप्ति है। इसलिये इसे किसी एक देश या काल के साथ नहीं बांधा जा सकता जैसा कि अन्य प्राकृतिक विज्ञानों की खोजों को किसी भी एक देश या राष्टï्र के साथ नहीं बांधा जाता।
 


पूँजीवाद के भीतरी अन्तर्विरोधों का स्रोत 
 पूंजीवादी आर्थिक प्रणाली के अन्तर्गत अन्तर्विरोधों के समाधान के लिये कार्ल माक्र्स के समय से पहले भी विद्वानों नेे काफी खोज भरपूर स्थापनायें की हुई हैं। परन्तु इन सैद्धांतिक स्थापनाओं का उद्देश्य पूँजीवादी प्रणाली को सुदृढ़ बनाने और संकट मुक्त रखने के लिये प्रयास करना ही रहा है। इस प्रयोजन के लिये उन्हों ने पूंजीवादी उत्पादन के भिन्न-भिन्न उत्पादक साधनों के बीच बंटवारे के कई सिद्धांत रचे हैं। परन्तु कार्ल माक्र्स द्वारा राजनैतिक-आर्थिकता के इस क्षेत्र में एक बिलकुल भिन्न बढ़ौत्तरी की गई है। उसने पूँजीवादी प्रणाली में समय-समय पर उभरे सारे संकटों की जड़ पकड़ी है। इस उद्देश्य के लिये उसने यूरोप में तब यौवन पर रही पूँजीवादी प्रणाली का वैज्ञानिक विश्लेषण किया और इस प्रणाली के अन्तर्गत क्रियाशील समूह अन्तर्विरोधों के ठोस रूप में चिन्हित किया। उनके द्वारा यह बहुमूल्य अध्ययन ही ''पूँजी'' शीर्षक से तीन जिल्दों पर आधारित ग्रन्थ में अंकित किया गया है। कार्ल माक्र्स द्वारा पूँजीवादी प्रबन्ध के किये गए अध्ययन द्वारा स्थापित की गई सैद्धांतिक धारणाओं का प्रयोग करके महान लेनिन ने आगे पूँजीवाद के अन्तिम पड़ाव साम्राज्यवाद का विश्लेषण करते हुए सामाजिक विकास के इस माक्र्सवादी सिद्धांत में ठोस बढ़ौत्तरी की। अपनी अन्तिम और मरणासन्न सीमा की ओर बढ़ रहे पूँजीवाद का ऐसा विश्लेषणात्मक अध्ययन ही आधुनिक राजनीतिक अर्थशास्त्र की असल विषय-वस्तु है। विज्ञान के इस क्षेत्र में निहित सैद्धांतिक स्थापनाओं के द्वारा अपने देश की बाहरमुखी ठोस अवस्थाओं का विश्लेषण करके ही कम्युनिस्ट अपने अपने देशों में वर्ग संघर्ष की कारगर योजनाबन्दी कर सकते हैं। जैसा कि वी.आई. लेनिन के नेतृत्व में रूस की कम्युनिस्ट पार्टी (बाल्शविक) ने अपने देश मेें करके दिखाया और वहां ज़ारशाही का खात्मां करके एक समाजवादी समाज की आधारशिलायें रखी। विश्व स्तर पर इससे; पूँजीवाद का समाजवाद में परिवर्तन होने का दौर आरंभ हो गया है। चाहे लेनिन और स्टालिन के बाद वहां की कम्युनिस्ट पार्टी में उभरे कुछ संशोधनवादी नेताओं की गलत नीतियों के कारण तथा उस पार्टी में घुस आए साम्राज्यवाद के पि_ïू गद्दारों की साजिशों के कारण वहां समाजवाद को अस्थायी तौर पर ध्वस्त किया जा चुका है, परंतु इस भारी हानि के बावजूद भी समाजवाद ही पूँजीवाद के विकल्प के तौर पर विश्व भर में मेहनतकशों के लिये ध्रुव तारे की भूमिका निभा रहा है।
पूँजीवादी प्रणाली का सबसे अधिक अद्वितीय लक्षण है-वस्तु उत्पादन। इसका अर्थ है कि यहां वस्तुएं मुख्य बाजार के लिये अर्थात बेचने के लिये पैदा की जातीं हैं। इस उत्पादन की चाल को मण्डी की शक्तियां निर्धारित करती हैं और पैदावार के लिए मुख्य चालक शक्ति (प्रेरक शक्ति) मानवीय आवश्यक्ताओं की पूर्ति के स्थान पर मुनाफा बन जाता है। मुनाफा उत्पादन का वह भाग है जो कि उत्पादन को उसके उपयोगिता मूल्य के अनुसार बेचने और सभी देन-दारियों की अदायगी करने के बाद उत्पादन साधनों के मालिक, जैसे कि कारखानेदार, के पास बच जाता है। उदाहरण के तौर पर यदि एक कारखानेदार 1000 रुपये का धागा खरीद कर उससे बना कपड़ा 1800 रुपये में बेचता है तो उसने इस धागे के उपयोगिता मूल्य में 800 रुपये की वृद्धि की है। यह उपयोगिता मूल्य मशीनों व मजदूरों की श्रम शक्ति द्वारा पैदा हुआ है। इसलिये यदि मालिक मशीनों की घिसाई, बिजली आदि के 300 रुपये रख कर शेष बचे 500 रुपयों में से मजदूरों को 250 रुपये देता है और 250 रुपये अपने मुनाफे के तौर पर रखता है तो उसने मजदूरों द्वारा पैदा किये 500 रुपये के कुल मूल्य में से आधा मूल्य स्वयं रख लिया है जो कि उसके लिये मुनाफा है, परंतु, यह मजदूरों द्वारा लगाई गई श्रम शक्ति में से हथियाया गया अतिरिक्त मूल्य (Surplus Value) है। मान लीजिये यदि मजदूर ने 500 रुपये का मूल्य पैदा करने के लिये 8 घण्टे काम किया हो तो उसे केवल 4 घंटे का मेहनताना ही मिला है और शेष 4 घंटे में उसने अतिरिक्त मूल्य ही पैदा किया है। यह अतिरिक्त मूल्य ही समूची पूँजीवादी प्रणाली को चला रहा है और पूँजीपति सदैव इस बात के लिये प्रयत्नशील रहते हैं कि उनकी वस्तुओं में से उन्हें अधिक से अधिक अतिरिक्त मूल्य मिले। इस प्रयोजन हेतु उनकी यही पहुँच रहती है कि मजदूरों से काम इस तरह लिया जाये कि उनको दी जाने वाले पारिश्रमिक के मुकाबले में अधिक से अधिक मूल्य हथियाया जा सके। यह अतिरिक्त कमाई जितनी अधिक होगी उतना ही मालिकों का मुनाफा बढ़ जायेगा। अतिरिक्त मूल्य के रूप में श्रम शक्ति की यह लूट ही वर्ग संघर्ष को प्रचण्ड करने का आधार बनती है और सामाजिक परिर्वतन की दिशा में स्पष्टïता आती है।
पूँजीवाद के अंतर्गत उत्पादन साधनों में हुई क्रांतिकारी उन्नति के कारण उत्पादन की प्रक्रिया बहुत ही जटिल और पेचीदा होती जा रही है और उत्पादन पूर्णतय एक सामाजिक रूप धारण कर चुका है। परंतु ,इस सामाजिक उत्पादन को उत्पादन के साधनों के मालिकों द्वारा निजी तौर पर हथियाया जाना पूँजीवादी प्रणाली का मुख्य अन्त र्विरोध बन जाता है जिस का समाधान उत्पादन साधनों के सामाजीकरण में अर्थात, समाजवाद में ही है। पूँजीपतियों द्वारा हथियाया गया अतिरिक्त मूल्य बिना बंटी संपत्ति के रूप में एकत्र होकर कई क्षेत्रों मेें अतिरिक्त उत्पादन का संकट खड़ा कर देता है। उन क्षेत्रों में इस तरह आया ठहराव कारखाने बन्द करने के लिये विवश कर देता है और मजदूरों का रोजगार छीन लेता है। इस तरह आपाधापी के कारण यदि एक ओर धन-संपत्ति बढ़ती है तो दूसरी ओर मंदहाली का दौर आरंभ हो जाता है जो कि बेरोजगारी तथा असमान विकास को जन्म देता है।
यह घटनाक्रम पूँजीपतियों को नये बाजारों को खोजने के लिये प्रेरित करता है और बाजार पर कब्जे के लिए युद्ध होते हैं। मौजूदा साम्राज्यवादी विश्वीकरण बाजारों पर अधिकार जमाने की इस दौड़ को ही रूपमान करता है। यह बड़ी-बड़ी बहुराष्टï्रीय कंपनियों द्वारा अपने अपने अतिरिक्त उत्पादन बेचने के लिये भी है तथा उनके पास एकत्र हुई वित्तीय पूँजी के समूचे संसार में बेरोक टोक प्रवेश कराने के लिये भी है ताकि इस पूँजी को पिछड़े देशों की सस्ती से सस्ती श्रम शक्ति की लूट करने का, वहां के कच्चे माल व प्राकृतिक स्रोतों को हथियाने का अवसर मिल सके। इस उद्देश्य के लिये यह विशालकाय कंपनियां दूसरे देशों की कमजोर उत्पादन इकाईयों को खरीदकर या भागीदारी द्वारा भी अपने अधिपत्य में ले रही हैं ताकि परस्पर प्रतियोगिता घटाई जा सके तथा अपनी इजारेदारी कायम की जा सके। इस तरह यह साम्राज्यवादी विश्वीकरण इस बढ़ रहे पूंजीवादी संकट को काबू करने का एक प्रयत्न है पर यह आगे नयी समस्याओं को जन्म दे रहा है। क्योंकि इस तरह पूँजी कुछ एक बड़ी कंपनियों/संस्थानों के हाथों में तेजी से एकत्र होती जा रही है और कंगाल हुए मजदूरों में बेचैनी बढ़ रही है। दूसरी ओर अधिक से अधिक सूक्ष्म मशीनरी का प्रयोग बढ़ते जाने से मुनाफे की दर घट रही है। इसलिये एक ओर पूँजी के कुछेक हाथों में केंद्रित होने की प्रक्रिया तेज हो रही है तो दूसरी ओर परजीवी पूँजी द्वारा पूँजी बाजार में सट्टïेबाजी का अमल तीखा किया जा रहा है। इसी कारणवश गरीब देशों की आर्थिक स्वतन्त्रता खतरे में है और समूचे तौर पर आर्थिक असुरक्षा भी बढ़ रही है जो कि बहुत ही भयानक किस्म की मन्दी पैदा कर सकती है और अधिक निर्दयता भरी लूट-खसूट तथा सामाजिक तनाव को उभार सकती है। सामाजिक अस्थिरता में निहित इस संभावित अमानवीय घटनाक्रमों की रोकथाम के लिये तथा जनता के लिए दिनो-दिन असहनीय होती जा रही पूँजीवादी प्रणाली के स्थान पर विश्व भर के कम्युनिस्ट समाजवादी प्रणाली स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील है।
 


कम्युनिस्टों के मुख्य कार्य

मनुष्य के लिये विकास करने के समान अवसरों पर आधारित न्याय संगत समाज की संरचना के लिये कम्युनिस्ट अन्य आदर्शवादी समाज सुधारकों की भान्ति आशावादी तो बहुत है परंतु उनकी तरह शेखचिल्लीवादी नहीं अपितु यथार्थवादी हैं और, ये उनकी तरह सभी मौजूदा अन्यायों व बेईमानियों के जन्मदाताओं, अत्याचारियों को उपदेशात्मक विधि द्वारा या किसी तरह की अगम्य शक्तियों के श्राप का भय देकर उनकी मनोवृत्तियों को बदल देने का,भ्रम भी नहीं पालते। इसके विपरीत, कम्युनिस्ट, माक्र्सवादी-लेनिनवादी वैज्ञानिक समझ के अनुसार मौजूदा सामाजिक प्रबन्ध में उभरते व फलते-फूलते सभी घटनाक्रमों का ठोस अवस्थाओं के आधार पर ठोस विश्लेषण करते हैं और निरंतर बढ़ती जा रही तथा अधिक से अधिक क्रूरता भरपूर होती जा रही पूंजीवादी लूट-खसूट के विरुद्ध चल रहे वर्ग संघर्ष के बारे में श्रमिक वर्ग को जागरूक करते, संगठित करते और संघर्षों की राह पर डालते हैं। यह वर्ग संघर्ष केवल आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं अपितु राजनीतिक क्षेत्र में, सांस्कृतिक क्षेत्र में भी साथ-साथ चलता है। कम्युनिस्टों के सम्मुख यह भी कार्य होता है कि सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में चल रहे वर्ग संघर्ष के इन विभिन्न रूपों के मध्य सुगठित तालमेल स्थापित किया जाये ताकि इस संघर्ष की तीक्षणता बढ़ सके और सामाजिक विकास की प्रक्रिया अपने उद्देश्य के अनुरूप निष्कर्ष निकाल सके और आगामी उच्चतर पड़ाव पर पहुँच सके।
वर्ग संघर्ष के इन सभी रूपों में से राजनैतिक संघर्ष को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व दिया जाता है ताकि राज्यसत्ता, जो पूंजीवादी शोषण को कायम रखने के लिये अस्तित्व में लाई गई है और इस प्रणाली को स्थापित रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, को सर्वहारा वर्ग के अधीन लाया जा सके। यह राज्यसत्ता, वर्ग संघर्ष को पूँजीपतियों के पक्ष से प्रभावित करती है और उसको रोकती है। अत: राज्यसत्ता पर अधिकार करना मजदूर वर्ग का तात्त्कालिक और महत्त्वपूर्ण कत्र्तव्य बन जाता है तथा प्राय: इसको ही क्रांति लाना कहा जाता है। इस कार्य के लिये मजदूर वर्ग की एक ऐसी राजनैतिक पार्टी की आवश्यकता पैदा होती है जो कि उपरोक्त सभी कार्यों को संपन्न करने के सक्षम हो। महान लेनिन ने ऐसी ही पार्टी के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा था : ''सामाजिक परिवर्तन के संघर्ष में मजदूर वर्ग के पास उसका संगठन ही एक मात्र हथियार है।'' और सामाजिक विकास के मौजूदा पूँजीवादी दौर में ''क्रांतिकारी पार्टी के बिना क्रांति नहीं हो सकती।'' इसके साथ ही लेनिन ने मजदूर वर्ग की अनुशासनबद्ध पार्टी की संरचना और उसके अद्वितीय लक्षणों को भी सूत्रबद्ध किया व उसकी फौलादी एकजुटता को और ऐसे अनुशासन को उभारा जो कि पार्टी में काम करते सभी नेताओं और सदस्यों पर एक समान लागू होता हो। ऐसी पार्टी के सामने सर्वप्रथम यह कार्य होता है कि वह अपने देश की उत्पादक शक्तियों और उत्पादक संबंधों का, उत्पादक शक्तियों के विकास में बाधक बन रहे शासक वर्गों की सूत्रबद्धता का, राज्यसत्ता के स्वरूप और रचना का तथा प्रचलित उत्पादक संबंधों को तोड़कर आगे बढऩे की उत्कण्ठा रखते वर्गों की वर्ग संघर्ष में भूमिका संबंधी ठोस अवस्थाओं का माक्र्सवादी दृष्टिïकोण से ठोस अध्ययन करे और उस अध्ययन के आधार पर अपना युद्धनीतिक लक्ष्य तय करे। यह युद्धनीतिक लक्ष्य ही पार्टी का कार्यक्रम कहलाता है। फिर उस कार्यक्रम के कार्यन्वयन के योग्य पार्टी का निर्माण किया जाता है जो कि चल रहे सामाजिक आर्थिक घटनाक्रम के सन्दर्भ में उचित दाँव-पेच लगा कर प्रभावशाली हस्तक्षेप करने में सक्ष्म हो। केवल इसी प्रकार के सुगठित व निरन्तर उद्यम द्वारा ही कम्युनिस्ट वाँछनीय निष्कर्ष निकालने अर्थात वर्ग संघर्ष को विजयी बनाने के समर्थ हो सकते हैं।
 


भारतीय क्रांति की रूपरेखा  
आधुनिक भारतीय समाज का उपरोक्त माक्र्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिïकोण से यदि विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट होता है कि अभी यहां पूर्व पूँजीवादी अवशेषों वाला सामंती व अर्ध सामंती उत्पादक ढाँचा भी कायम है और देश की राज्यसत्ता इजारेदार-पूंजीपतियों के नेतृत्व में पूँजीपतियों व जगीरदारों के पास है जो कि यहां पूँजीवादी ढाँचे के निर्माण के लिये विदेशी पूँजीपतियों से घनिष्टता निरंतर बढ़ाते जा रहे हैं। देश में भेदभाव और अन्यायपूर्ण मध्य युगीन वर्ण भेद की जड़ें भी काफी गहरी हैं और यहां विभित्र प्रकार के धार्मिक विश्वासों और अन्ध विश्वासों को मानने वाले लोग बसते हैं जिनकी सोच पर धार्मिक कट्टïरपंथियों की जकड़ अभी काफी मजबूत है। देश में सर्वमत-वोट-व्यवस्था वाली संसदीय प्रणाली पर आधारित सरकार का गठन होता है परंतु राज्यसत्ता पर काबिज वर्ग अपने वर्गीय हितों की खातिर इस चुनाव प्रणाली के अन्दर का जनवादी तत्त्व निरंतर कमजोर करता जा रहा है और अपनी दमनकारी प्रशासनिक मशीनरी को मजबूत करता जा रहा है जबकि अनपढ़ता तथा सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के शिकार करोड़ों देशवासी जनवादी अधिकारों को सही अर्थों में समझने और कल्याणकारी दिशा में उनका प्रयोग करने के प्रति काफी हद तक अनजान हैं।
ऐतिहासिक तौर पर, अंग्रेज साम्राज्यवादियों द्वारा भारत पर अधिकार जमाने से पहले यहां सामन्तवाद का दौर दौरा था, अर्थात जागीरदारी प्रणाली कायम थी, जिसके विरुद्ध समय समय पर किसानों की बगावतें उठ रही थीं। इसीलिए यहां उपनिवेशवादी गुलामी से मुक्ति के संग्राम की मुख्यधारा साम्राज्यवाद विरोधी होने के साथ साथ जागीरदार (सामंत) विरोधी भी थी अर्थात यह संग्राम राष्टï्रवादी व जनवादी था। इसीलिए देश का पूँजीपति वर्ग इस स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व हासिल कर गया था।
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति और देश की राज्यसत्ता का परिवर्तन होते समय राज्यसत्ता के पूँजीपतियों के हाथों में आने के पश्चात नये शासकों ने देश में पूँजीवादी पथ पर विकास करने की राह अपनाई। इस प्रयोजन के लिये उन्होंने साम्राज्यवादी पूँजी जब्त करने और सामंती प्रबन्ध खत्म करके उनकी जमीन-जायदाद गरीबों व भूमिहीन किसानों व खेत मजदूरों में बाँटने की जगह, इसके विपरीत विदेशी पूँजीपतियों के साथ भागीदारी करके उनके हित सुरक्षित रखने का वचन पाला और देश में अपने सामाजिक आधार को विस्तृत करने के लिये जागीरदारों के साथ भी राजनैतिक साँठगाँठ कर ली।
इस तरह देश में साम्राज्यवादियों व जागीरदारों की लूट-खसूट के विरुद्ध चल रही राष्टï्रीय जनवादी क्रांति अधर में लटक गई और राज्यसत्ता पर काबिज हुआ नया वर्गीय गठजोड़ देश में साम्राज्यवादी व सामंती हितों को कायम रखते हुए पूँजीवाद को विकसित करने की दीवालिया राह पर चल निकला। शासकों द्वारा इस दिशा में अपनाई जा रही समस्त नीतियां वास्तव में मज़दूरों, किसानों तथा अन्य मेहनतकश लोगों के हितों के लिये हानिप्रद हैं। यहां तक कि कई बार तो छोटे पूँजीपति और अन्य मध्यवर्गीय लोगों के लिये भी ये नीतियां अति घातक परिणाम निकालती हैं, इन्हीं नीतियों के कारण ही देश में पिछले 60 वर्षों के दौरान मंदहाली, महंगाई, बेकारी, भ्रष्टïाचार, नैतिक पतन आदि बीमारियां लगातार बढ़ती ही गई हैं और अमीरों व गरीबों की बीच की खाई भी अति भयानक सीमा तक बढ़ गई है। धर्म निरपेक्ष, जनवादी व स्वस्थ नैतिक मूल्यों पर भी इस अवधि में आक्रमण तीव्र रूप से बढ़ते गये हैं।
इस अवस्था में जरूरत इस बात की है कि 1947 में अधर में लटक गई क्रांति को संपूर्ण करने के लिये नये बने शासक गठजोड़ के विरुद्ध अर्थात जागीरदारों, साम्राज्यवादियों तथा इजारेदार पूँजीपतियों के विरोध में देश के समूचे सर्व साधारण जनसमूहों को संघर्षशील किया जाये और विशाल जन लामबंदी द्वारा वर्ग संघर्ष को प्रचण्ड करके जन-हितैषी सामाजिक परिवर्तन किया जाये अर्थात ऐसी लोक जनवादी क्रांति की जाये जो कि जनता के उपरोक्त तीनों ही वर्ग शत्रुओं के विरुद्ध हो, अर्थात जागीरदार विरोधी, साम्राज्यवाद विरोधी, इजारेदार विरोधी, जनवादी क्रांति हो।
भारत जैसे सामंती, अद्र्ध सामंती और पूँजीवादी ढाँचे में ऐसी जन हितैषी क्रांति को सफलबनाने के लिये कृषि को सामंती जकड़ से निकालना सर्वप्रथम अनिवार्यता बन जाती है ताकि कृषि उत्पादन में भी वृद्धि हो और कृषि पर निर्भर 70 प्रतिशत जनसंख्या की क्रय शक्ति भी बढ़े जो कि देश में औद्योगिक उत्पादन के लिये निरंतर विकसित होने वाला बाजार भी उपलब्ध करवाये। इसके लिये राजनीतिक पहलू से आज के युग के सबसे अधिक क्रांतिकारी वर्ग अर्थात मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मजदूरों व गरीब किसानों (जिनमें भूमिहीन किसान व खेत मजदूर प्रमुख हैं) की एकता बनाना सबसे बड़ी और प्रथम जरूरत है। ऐसी मजबूत और शक्तिशाली जन-एकता के ठोस आधार पर निर्मित लोक जनवादी गठजोड़ के गिर्द कुछ और वर्ग जैसे कि मंझले किसान, शिल्पी, छोटे दुकानदार, छोटे व्यापारी, छोटे कर्मचारी, धनी किसान, और गैर-इजारेदार पूँजीपतियों आदि का सहयोग प्राप्त करने के लिये निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिये।
परन्तु ऐसी वैज्ञानिक अवधारणा अपनाकर देश में अधूरी रही जनवादी क्रांति को सम्पूर्ण बनाने के लिये प्रभावशाली नेतृत्व प्रदान करने के स्थान पर यहां भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन, जिसने स्वतंत्रता संग्राम में असंख्य बलिदान दिये और संघर्ष में बहुत बड़ा योगदान किया था, 1947 में राज्यसत्ता में हुए परिर्वतन को समझने में असफल रहा और संकीर्णतावादी वाम-भटकाव का शिकार हो कर दुस्साहसवाद की राह पर चल निकला। परन्तु, आन्दोलन का पर्याप्त नुकसान करा कर जब यह वाम-भटकाव से पीछे मुड़ा तो फिर दायें भटकाव का शिकार हो कर 1964 में विभाजित हो गया।
इस ऐतिहासिक विभाजन के पश्चात नयी बनी पार्टी--सी.पी.आई.(एम), ने तो यहां अधूरी रही जनवादी क्रांति को संपूर्ण करने के लिये उपरोक्त वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार लोक-जनवादी-क्रांति का प्रोग्राम बना लिया परन्तु पुरानी पार्टी--सी.पी.आई., ने इस उद्देश्य के लिये शासकों अर्थात पूँजीपति वर्ग से सहयोग करने की नीति अपनाने की राहें चुन ली, जिस राह पर यह पार्टी आज भी चल रही है और सांसदीय अवसरवाद की दलदल में फंस कर कम्युनिस्ट चरित्र को निरंतर खोती जा रही है।
दूसरी ओर, सी.पी.आई.(एम) को, स्वाभाविक रूप से, देश के शासकों के दमन का शिकार होना पड़ा। परंतु, इसके बावजूद कामरेड पी. सुंदरैय्या के नेतृत्व में पार्टी ने जुझारू पहुँच अपनाकर मेहनतकश जन-समूहों में शीघ्र ही अपने पाँव जमा लिये और देश के राजनीतिक मानचित्र पर सम्मानजनक स्थान बना लिया। परन्तु तीन साल बाद ही सी.पी.आई.(एम) में वाम संकीर्णतावादी भटकाव ने पुन: सिर उठा लिया और नक्सलबाड़ी आंदोलन के नाम पर इसका काफी काडर दुस्साहसवाद के कन्धों पर चढ़कर पार्टी से जुदा हो गया। जोकि देश को वास्तव में आज़ाद हुआ ही नहीं मानता अपितु इस बात का धारक है कि साम्राज्यवादी लुटेरों ने राज्यसत्ता अपने दलालों के हाथ में सौंपी हुई है और यहां दलाल-नौकरशाह पूँजीपतियों का राज्य है, न कि इजारेदार पूँजीपतियों के नेतृत्व में पूँजीपति-जागीरदारों का। दुस्साहसवाद की पटरी पर चढ़े कम्युनिस्ट आन्दोलन के इस भाग ने पिछले 40 वर्षों के दौरान चुनाव का बायकाट करने, व्यक्तिगत दहशतगर्दी, सिर्फ हथियारबंद गतिविधियां करने और जन-संगठनों के निर्माण के कार्य को निरर्थक मानने जैसे कई प्रयोग किये हैं, बलिदान भी दिये हैं, परंतु अपने आंदोलन को एकजुट रखने और मजबूत बनाने की जगह पैटी-बुर्जुआ मानसिकता के अधीन आंदोलन में विभाजन-दर-विभाजन किया है। एक भाग आज भी चुनाव बाहिष्कार और एकमात्र हथियारबन्द गतिविधियों पर खड़ा है जबकि कुछ अन्य भाग चुनाव में भाग लेने और जन संगठन बनाने की ओर परत आये हैं।
परंतु, भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब सी.पी.आई.(एम) के नेतृत्व द्वारा 1964 में पारित किये गए कार्यक्रम को त्याग दिया गया। इस कार्यक्रम को समयअनुकूलित करने के नाम पर इस पार्टी ने अक्टूबर 2000 में कार्यक्रम में निहित क्रांतिकारी समझदारी को बेहद छिछला बना दिया और तीनों ही वर्ग शत्रुओं अर्थात--जागीरदारों, साम्राज्यवादी लुटेरों और इजारेदार पूँजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष की धारा को कुंठित करके उनके साथ भागीदारी बना ली है और अमल में सी.पी.आई. जैसी युद्धनीतिक समझदारी ही अपना ली है। गत दिनों पश्चिमी बंगाल में, जहां सी.पी.आई.(एम) के नेतृत्व में आपात्तकाल के काले दौर के पश्चात सत्ता में आया वाम मोर्चा 30 वर्षों से प्रान्तीय सरकार चला रहा है, सिंगूर तथा नन्दीग्राम में गरीब किसानों व मजदूरों पर सरकार द्वारा ढाये गये बर्बर्तापूर्ण अत्याचार इस संशोधनवादी पहुँच का ही तार्किक निष्कर्ष हैं और इसने इस पार्टी की पूँजीपति लुटेरों के साथ बन चुकी घनिष्टïता को जग जाहिर कर दिया है। अन्तर्राष्टï्रीय स्तर पर सोवियत यूनियन और पूर्वी युरोपीय देशों में वहां की कम्युनिस्ट पार्टियों में आये संशोधनवादी पतन के परिणामस्वरूप समाजवाद को पहुँचे आघातों के कारण साम्राज्यवादी जोर-जबरदस्तियां बढ़ गई हैं और विश्वीकरण के नाम पर पिछड़े हुए अथवा विकासशील देशों में साम्राज्यवादी लूट-खसूट और तेज हो गई है, जिसके परिणामस्वरूप विश्व भर में कम्युनिस्टों का कार्य और कठिन हो गया है तथा यह पहले से भी अधिक दृढ़ता और साहस की मांग करता है। इन कठिन अवस्थाओं का सामना करने की बजाय सी.पी.आई.(एम) अब, भारत में विश्वीकरण, उदारीकरण व निजीकरण पर आधारित जनविरोधी विकास के साम्राज्यवादी नुस्खे को अमली रूप देने के लिये देश में सबसे आगे है और इस उद्देश्य के लिये मेहनतकशों का सर्वनाश करने पर ऊतारू हो गई है।
इस तरह देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन में उभरे इन गंभीर सैद्धांतिक-राजनीतिक मतभेदों और इनसे लगे संगठनात्मक आघातों के कारण यहां के हकीकी कम्युनिस्टों के समक्ष आज गंभीर चुनौतियां खड़ी हैं। जबकि, सामाजिक विकास की गति तो रुकने वाली नहीं होती बेशक कभी कभी इसको अस्थायी आघात भी लग सकते हैं। इसी लिये पूँजीवादी व सामंती शोषण तथा सरकारी दमन के होते हुए भी देश में वर्ग संघर्ष को तेज करने के लिये बाहरमुखी तौर पर आधार निरंतर विकसित हो रहा है। परंतु कम्युनिस्टों के संगठनात्मक तौर पर कमजोर होने के कारण पूर्व-पूँजीवादी प्रतिक्रियावादी और साम्प्रदायिक सामाजिक-सांस्किृतिक विचारधारायें देश में जोरदार ढंग से सिर उठा रहीं हैं तथा पूँजीवादी शोषण से पीडि़त लोगों को पथ-विचलित कर रही हैं, जिनसे कम्युनिस्टों का कार्य और अधिक जटिल हो गया है।
इन अवस्थाओं में लोक-जनवादी-क्रांति की जरूरतें यह माँग करती है कि यहां उत्पादक शक्तियों को बाँध कर बैठे, भारतीय यौवन को बेकार रखकर नशों के सेवन की ओर तथा अन्य गैर असमाजिक धंधों की ओर धकेल रहे, मजदूरों को मंदहाली के नरक में फेंक रहे और किसानी को आत्म हत्यायें करने के लिये विवश कर रहे तीनों ही शत्रुओं के विरुद्ध वर्ग संघर्ष को इसके तीनों ही रूपों-आर्थिक, राजनीतिक और विचारधारक रूप में आगे बढ़ाया जायेे। इन संघर्षों को निरंतर तौर पर संगठित करते जाना और संघर्षों के उच्चतर रूपों की ओर अग्रसर होते जाना ही क्रांतिकारी अमल कहला सकता है। बुर्जुआ संसदीय चौखटे में भी वर्ग संघर्ष का राजनीतिक रूप मुख्य रूप से गैर-संसदीय संघर्ष ही होते हैं क्योंकि ऐसे चोखटे में भी मजदूर वर्ग के पक्ष में वर्गीय ताकतों के संतुलन में निर्णायक परिर्वतन केवल जनता की लामबंदी पर आधारित गैर संसदीय संघर्ष ही ला सकते हैं। इस लिए कम्युनिस्टों को गैर संसदीय गतिविधियों के द्वारा विशाल से विशाल जन शक्ति उभारने के लिये अपनी अधिक से अधिक शक्ति लगानी चाहिये।
बुर्जुआ संसदीय चौखटे में मेहनतकश आवाम का उत्पीडऩ तेज करने के लिये लुटेरे शासक वर्गों द्वारा किये जाते विभिन्न हमलों का विरोध करने के लिये संसदीय संघर्षों का उपयोग करना भी आवश्यक होता है। बेशक ऐसे संघर्ष की सीमाएं प्राय: बहुत ही सीमित रहतीं हैं, परंतु ,फिर भी शोषक वर्गों के आम लोगों के प्रति हमदर्दी और खोखले दावों का पर्दाचाक करने के लिए, उनके द्वारा लोगों को रिझाने के लिये किये जाते नित्य नये पाखण्डों की वास्तविकता उजागर करने के लिए और शासक वर्गोें के राजनीतिक नेतृत्व के निरंतर बढ़ते जाते नैतिक पतन को बेनकाब करने के लिये संसदीय मंचों का भी सफलता सहित प्रयोग करना चाहिये।
इस तरह संघर्ष के संसदीय व गैर संसदीय रूपों का सामंजस्य, भारत में लोक जनवादी क्रांति के कार्यन्वयन के लिए हकीकी कम्युनिस्टों को अति विवेक पूर्ण ढंग से और धैर्य पूर्वक उठाये गये साहसी व सुगठित प्रयत्नों द्वारा समय-समय पर उचित दावपेच लगाने होंगे। इस उद्देश्य के लिए फौरी तौर पर राजनैतिक मंच पर तथा जन-संगठनों के मंचों पर भी समस्त वामपंथी शक्तियों के प्रभाव वाले जन समूहों को एकजुट करने का कार्य बहुत ही महत्त्व रखता है, क्योंकि हर क्षेत्र में जनता की कतारबंदी पर आधारित प्रभावशाली संघर्ष के निर्माण में वामपंथी शक्तियों की एकता जादू की छड़ी का काम करती है। इसके बिना ऐसी संयुक्त गतिविधियां देश में हकीकी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण में भी ठोस योगदान करने के समर्थ होती है। अन्तिम तौर पर, यह भी याद रहना चाहिए कि शक्तिशाली हकीकी कम्युनिस्ट पार्टी बनाये बिना न तो मेहनतकश आवाम के लिए चिरस्थायी और कल्याणकारी सफलतायें ही प्राप्त की जा सकती हैं और न ही क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन संभव हो सकता है।
 


हकीकी क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण 
मेहनतकश अवाम के चिरस्थाई कल्याण तथा शोषण मुक्त समाज के निर्माण की दिशा में कम्युनिस्टों के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये दरकार हकीकी कम्युनिस्ट पार्टी का गठन करना भी अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण व जटिल कार्य है। पार्टी निर्माण का यह कार्य ऊपर से आरंभ होता है। माक्र्सवाद-लेनिनवाद को समझने वाले और इसकी समझदारी के अनुसार किसी राज्य/क्षेत्र की बाहरमुखी अवस्थाओं का विश्लेषण कर वहां जन हितैषी क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिये सुहृदयता सहित प्रयत्न करने के इच्छुक पार्टी कार्यकत्र्ता, अपने आपको एक अनुशासनबद्ध संगठन में बांधते है। वह आगे उस संगठन की जड़े लोगों में लगाने के लिये विशाल से विशाल स्तर पर, ऊपर से निर्धारित की गई योजनाबंदी के अनुसार गतिविधियां करते हैं और नीचे तक मेहनतकश आवाम की इकाईयां और अलग-अलग स्तर पर कमेटियों का एक संगठित जाल बुनने का प्रयास करते हैं। इस तरह मेहनतकश लोगों की हकीकी मुश्किलों के निदान के प्रति ऊपरी कमेटी में विकसित हुई समझदारी को नीचे तक अमली रूप देने का प्रयत्न करते हैं और निचले स्तर से आम लोगों की भावनाएँ तथा मांगें ऊपर के नेतृत्व के पास पहुँचती है। इस कार्य को सफलता तक पहुँचाने के लिये पार्टी इकाईयां सबसे बड़ी तथा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
इन सभी कार्यों को परिपूर्ण करने वाले पेशावर क्रांतिकारी के रूप में जाने जाते कम्युनिस्ट जहां ज्ञानवान, निस्वार्थ भावना से काम करने वाले भय-मुक्त व विश्वसनीयता सरीखे निजी गुणों की दृष्टिï से बहुत अद्वितीय होते हैं वहीं वे अपने कार्यकलाप तथा परस्पर संबंधों को प्रणालीबद्ध करने के लिये एक अनोखी कार्यशैली भी विकसित करते हैं। पार्टी की इस कार्य शैली आदि के बारे में महान लेनिन के नेतृत्व में दुनियां भर के कम्युनिस्टों ने मिलकर कुछ सैद्धांतिक नियम निर्धारित किये हैं जिनका पालन करना हरेक कम्युनिस्ट के लिये अनिवार्य है। इन बुनियादी सिद्धांतों की अवमानना के कारण ही कई कम्युनिस्ट नेता और कुछ कम्युनिस्ट पार्टियां तबाह हुई हैं तथा समस्त आन्दोलन को काफी बड़ी सीमा तक घायल करने तक गई हैं।
हकीकी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण के लिए जनवादी केंद्रीयवाद और सामूहिक कार्य प्रणाली के दो नियम, बुनियादी स्तंभों का काम करते हैं। जनवादी केंद्रीयवाद पार्टी की एकता-एकजुटता और रचनात्मक पहलकदमी बढ़ाने की गारंटी करता है। इसके अनुसार पार्टी में न अफसरशाही की कोई जगह है और न ही अनुशासनहीनता (अल्ट्रा डैमोक्रेसी) की। पार्टी के भीतर हर मंच पर सम्पूर्ण जनवादी विधि के अनुसार विचार विमर्श करने और निर्णय लेने की पूरी गारंटी की जाती है। परंतु, किये गए निर्णयों का उल्लंघन या उनके विरूद्ध पार्टी मंच के बाहर जाकर प्रचार करने की बिल्कुल अनुमति नहीं दी जाती। इसी तरह ऊपरी कमेटियों द्वारा भेजे गये निर्णयों के प्रति निचली कमेटियों को अपनी राय भेजने की तो स्वतंत्रता है परंतु इस स्वतंत्रता का प्रयोग करके ऊपर से आये निर्णयों को अमली रूप देने में कोई बाधा खड़ी नहीं की जा सकती। कम्युनिस्ट पार्टी की अनुशासन पद्धति के अनुसार पार्टी का यह अनुशासन सबके लिए एक समान होता है अर्थात अनुशासन के दृष्टिïकोण से कोई बड़ा या छोटा नहीं होता।
पार्टी का विकास व प्रसार तो जन कार्यवाहियां संगठित करने और उनमें से उभरे जुझारू और सुहृदय तत्त्वों को पार्टी की अनुशासनबद्ध शाखाओं में विलीन कर लेने से ही होता है। परंतु, इस सम्पूर्ण कार्य को गति प्रदान करने का काम सामूहिक कार्य प्रणाली द्वारा किया जाता है। पार्टी की भीतरी गतिविधियां किसी व्यक्ति विशेष की आज्ञा पर निर्भर नहीं करती अपितु हर फैसला, हर स्तर पर संबंधित कमेटी सदस्यों से मिलकर लिया जाता है, पार्टी द्वारा किये गये निर्णय को हरेक की ओर से अपनी-अपनी जिम्मेवारी के अनुसार अमली रूप देने के उपरांत इस के बारे में हुई प्रगति आदि की जाँच पड़ताल भी मिलकर ही की जाती है, जिसके लिए आलोचना व स्वयं आलोचना की प्रणाली का बिना किसी हिचहिचकाहट के प्रयोग किया जाता है।
पार्टी सदस्यों में निजी गुणों के विकास के लिये कम्युनिस्ट सदाचार का पालन करने को आवश्यंभावी बनाने के प्रयास किये जाते हैं। इस प्रयोजन हेतु पार्टी में परस्पर सुहृदयता व समानता पूर्ण वातावरण विकसित किया जाता है तथा हरेक से अपेक्षा की जाती है कि वह पार्टी द्वारा मिले कार्यों को अपनी सम्पूर्ण साम्थर्य के अनुसार निभाये और कोई भी ऐसा व्यवहार न करे जिसमें कि संबंधित मेहनतकश जन समूहों की नजर में पार्टी की प्रतिष्ठïा को ठेस लगती हो। कम्युनिस्ट सदाचार से संबंधित सिद्धांतों में से किसी एक का भी बार-बार उल्लंघन करने से कम्युनिस्ट भटकावों के शिकार हो जाते हैं और कई बार अपने को भी तथा समूचे आन्दोलन को भी काफी क्षति पहुँचा देते हैं। इसलिए पार्टी द्वारा पार्टी के अन्दर घुसपैठ करती लघु-बुर्जुआ कुरूचियों के विरुद्ध और सैद्धांतिक भटकावों के विरुद्ध भी निरंतर चौकसी रखी जाती है और इसके विरुद्ध अन्र्तपार्टी संघर्ष, सदैव जारी रखा जाता है।
इस तरह कम्युनिस्ट हर देश के मेहनतकश जनसमूहों को उनके शोषण के विरुद्ध चेतन करते हैं और उनको संगठित करके वर्ग संघर्ष के लिये तैयार करते हैं, लोगों को शोषण से सदैव मुक्ति प्राप्त करने के योग्य बनाने के लिए एक अनुशासनबद्ध पार्टी का निर्माण करते हैं, उस पार्टी की एकता की रक्षा आँख की पुतली की तरह करते हैं, उसकों हर प्रकार के भटकावों से बचाने के लिये निरंतर प्रयास करते हैं, हर प्रकार के दमन तथा उत्पीडऩ का निर्भय होकर सामना करते हैं और मानव द्वारा मानव के शोषण पर आधारित पूँजीवादी प्रणाली को ध्वस्त करके समाजवाद के निर्माण के लिये निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं।

Monday 14 December 2015

sad news

ਸਾਡੇ ਸਤਿਕਾਰਯੋਗ ਸਾਥੀ ਅਮਰਜੀਤ ਸਿੰਘ ਕੁਲਾਰ ਨਹੀਂ ਰਹੇ! 

Saturday 12 December 2015

FOUR LEFT PARTIES TO BUILD STRONG MOVEMENT AGAINST BLACK LAW



CO-ORDINATION COMMITTEE FOUR LEFT PARTIES
CPI, CPI(M), CPM PUNJAB & CPI(ML) LIBERATION
Jalandhar, December 10, 2015.
The state leaders of Four Left Parties held a meeting at Deshbhagat Yaadgar Hall, Jalandhar yesterday under the presidentship of Comrade Mangat Ram Pasla. The meeting was attended by Comrades Hardev Arshi, Bant Brar, Jagroop Singh and Sarwan Singh akalpuri from CPI, Charan Singh Virdi, Vijay Misra and Raghunath Singh from CPI(M), Mangat Ram Pasla, Harkanwal Singh and Kulwant Singh Sandhu from CPM Punjab, Gurmit Singh Bakhtpura, Sukhdarshan Natt and Ruldu Singh Mansa from CPI(ML) Liberation.
Through a resolution adopted by the meeting of the Left parties they strongly condemned the ‘ Punjab Prevention Of Damage To Public And Private Property Act – 2014’ enacted by the Badal led Akali – BJP government to suppress the voice of protest against the misdeeds and anti people policies of the central and state governments. They decided to building a strong movement in
Punjab to get this draconian law scrapped which is an attack on the democratic right of the people . It was also decided to extended full support to the ,Human Right Day’ on 10th December and to all other organizations who are protesting against this law.
The meeting of the Left Parties thanked the people for a very good and encouraging response to the week long Jatha March programme in support of the 15 points demand charter which concluded on 7th December and congratulated party workers for the successful conduct of the Jatha March through their tireless efforts. It was decided to hold joint meetings at district and tehsil levels to effectively organise 500 political conferences in the state by the end of January, 2016.

Monday 23 November 2015

ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਪਾਰਟੀ ਮਾਰਕਸਵਾਦੀ ਪੰਜਾਬ ਅਪਡੇਟਿਡ ਪਾਰਟੀ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ

(ਇਹ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ 31 ਅਕਤੂਬਰ ਤੋਂ 7 ਨਵੰਬਰ 1964 ਨੂੰ ਪ੍ਰਵਾਨ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਅਤੇ 26-29 ਨਵੰਬਰ 2006 ਨੂੰ ਸਮਾਂ-ਅਨੁਕੂਲ ਕੀਤਾ ਗਿਆ।)


I. ਭਾਰਤ ਵਲੋਂ ਕੌਮੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ

1. ਫਾਸ਼ੀਵਾਦੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ, ਜਿਹਨਾਂ ਦੀ ਸਰਦਾਰ ਹਿਟਲਰਸ਼ਾਹੀ ਜਰਮਨੀ ਸੀ, ਦੀ ਫੌਜੀ ਹਾਰ ਨੇ ਅਤੇ ਫਾਸ਼ੀ ਹਮਲਾਵਰਾਂ ਨੂੰ ਚਕਨਾ ਚੂਰ ਕਰਨ ਵਿਚ ਸੋਵੀਅਤ ਯੂਨੀਅਨ ਵਲੋਂ ਅਦਾ ਕੀਤੇ ਗਏ ਫੈਸਲਾਕੁਨ ਰੋਲ ਨੇ, ਸੰਸਾਰ ਪੱਧਰ ਉੱਤੇ ਜਮਾਤੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦਾ ਸਮਤੋਲ ਸਮਾਜਵਾਦ ਅਤੇ ਕੌਮੀ ਮੁਕਤੀ ਲਈ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰ ਰਹੀਆਂ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੇ ਹੱਕ ਵਿਚ ਤਿਖੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਤਬਦੀਲ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਜੰਗਬਾਜ ਜਰਮਨ, ਇਤਾਲਵੀ ਤੇ ਜਾਪਾਨੀ ਫਾਸ਼ੀਵਾਦੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਨੂੰ ਯੁੱਧ ਵਿਚ ਹੋਈ ਕਰਾਰੀ ਹਾਰ ਨੇ ਨਾ ਕੇਵਲ ਇਹਨਾਂ ਰਾਜਾਂ ਨੂੰ ਇਕ ਹੱਦ ਤੱਕ ਨਕਾਰਾ ਬਣਾ ਦਿੱਤਾ ਸਗੋਂ ਇਸਦਾ ਸਿੱਟਾ ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ ਦੇ, ਕੁੱਝ ਸਮੇਂ ਲਈ, ਸੰਸਾਰ ਪੱਧਰ 'ਤੇ ਕਮਜ਼ੋਰ ਹੋਣ ਵਿਚ ਵੀ ਨਿਕਲਿਆ। ਸੰਸਾਰ ਸਾਮਰਾਜ, ਪੂਰਬੀ ਯੂਰਪ ਦੇ ਕਈ ਇਕ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਲੋਕਤੰਤਰੀ ਰਾਜਾਂ ਦੀ ਉਤਪਤੀ ਨੂੰ ਰੋਕਣ ਵਿਚ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਅਸਫਲ ਸਿੱਧ ਹੋਇਆ, ਜਿਸ ਨਾਲ ਸੋਵੀਅਤ ਯੂਨੀਅਨ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਹੇਠ ਸੰਸਾਰ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਕੈਂਪ ਦੀ ਸਿਰਜਨਾ ਸਹਿਲ ਹੋ ਗਈ। ਸਮਾਜਵਾਦ ਦੀਆਂ ਇਹਨਾਂ ਇਤਿਹਾਸਕ ਜਿੱਤਾਂ ਅਤੇ ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ ਦੀ ਅਸਫਲਤਾ ਤੋਂ ਪ੍ਰਭਾਵਤ ਹੋ ਕੇ, ਏਸ਼ੀਆ ਅਤੇ ਅਫਰੀਕਾ ਦੇ ਸਭਨਾਂ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਬਸਤੀਵਾਦੀ ਰਾਜਾਂ ਵਿਰੁੱਧ ਕੌਮੀ ਅਜ਼ਾਦੀ ਦੇ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਘੋਲ ਪਸਰ ਗਏ। ਭਾਰਤ ਨੇ ਵੀ ਬਰਤਾਨਵੀ ਰਾਜ ਵਿਰੁੱਧ ਵਿਆਪਕ ਇਨਕਲਾਬੀ ਉਭਾਰ ਵੇਖਿਆ, ਜਿੱਥੇ ਕਿ ਕਿਸਾਨੀ ਬਗਾਵਤਾਂ, ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੀਆਂ ਆਮ ਹੜਤਾਲਾਂ, ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਹੜਤਾਲਾਂ, ਰਿਆਸਤੀ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਜਨਤਕ ਸੰਘਰਸ਼ ਬੇਮਿਸਾਲ ਪੈਮਾਨੇ ਉੱਤੇ ਵਿਕਸਤ ਹੋ ਗਏ। ਕਈ ਥਾਈਂ ਹਥਿਆਰਬੰਦ ਫੌਜਾਂ ਤੇ ਜਲ ਸੈਨਾਂ ਨੇ ਵੀ ਬਗਾਵਤ ਕਰ ਦਿੱਤੀ।
    2. ਸੰਘਰਸ਼ਾਂ ਦੀ ਚੜ੍ਹਦੀ ਇਹ ਕਾਂਗ, ਜਿਹੜੀ ਕਿ ਆਮ ਕੌਮੀ ਬਗਾਵਤ ਦਾ ਰੂਪ ਧਾਰਨ ਕਰਨ ਵੱਲ ਵੱਧ ਰਹੀ ਸੀ, ਨੂੰ ਮੁੱਖ ਰੱਖਦਿਆਂ ਬਰਤਾਨਵੀ ਸਾਮਰਾਜ ਨੇ ਇਹ ਅਨੁਭਵ ਕੀਤਾ ਕਿ ਉਸ ਲਈ ਹੁਣ ਏਥੇ ਆਪਣਾ ਰਾਜ ਜਾਰੀ ਰੱਖ ਸਕਣਾ ਸੰਭਵ ਨਹੀਂ ਰਹੇਗਾ। ਦੂਸਰੇ ਬੰਨੇ, ਕਾਂਗਰਸੀ ਲੀਡਰਸ਼ਿਪ ਨੂੰ ਇਹ ਤੌਖਲਾ ਸੀ ਕਿ ਜੇ ਸਾਮਰਾਜ ਵਿਰੁੱਧ ਸੰਘਰਸ਼ ਵਿਆਪਕ ਬਗਾਵਤ ਦਾ ਰੂਪ ਵਟਾ ਗਿਆ ਤਾਂ ਸਾਮਰਾਜ-ਵਿਰੋਧੀ ਵਿਆਪਕ ਲਹਿਰ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਉਸ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿਚੋਂ ਖਿਸਕ ਜਾਵੇਗੀ। ਇਹਨਾਂ ਹਾਲਤਾਂ ਵਿਚ ਇਕ ਬੰਨੇ ਬਰਤਾਨਵੀ ਸਾਮਰਾਜ ਅਤੇ ਦੂਸਰੇ ਬੰਨੇ ਕਾਂਗਰਸ ਤੇ ਮੁਸਲਮ ਲੀਗ ਦੇ ਆਗੂਆਂ ਵਿਚਕਾਰ ਸਮਝੌਤਾ ਹੋ ਗਿਆ।
    3. ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ, ਦੇਸ਼ ਨੂੰ ਦੋ ਹਿੱਸਿਆਂ, ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਤੇ ਭਾਰਤ, ਵਿਚ ਵੰਡਿਆ ਗਿਆ ਅਤੇ ਭਾਰਤ ਵਿਚ 15 ਅਗਸਤ 1947 ਨੂੰ ਰਾਜਸੀ ਸੱਤਾ ਕਾਂਗਰਸ ਪਾਰਟੀ ਦੇ ਆਗੂਆਂ ਨੂੰ ਸੌਂਪ ਦਿੱਤੀ ਗਈ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਬਰਤਾਨਵੀ ਰਾਜ ਦਾ ਖਾਤਮਾ ਹੋਇਆ ਤੇ ਭਾਰਤੀ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਵਿਚ ਰਾਜ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਹੋਈ। ਇਸ ਨਾਲ, ਭਾਰਤੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦਾ ਪਹਿਲਾ ਪੜਾਅ, ਆਮ ਕੌਮੀ ਸਾਂਝੇ ਮੁਹਾਜ ਦਾ ਪੜਾਅ ਜਿਸ ਦੀ ਧਾਰਾ ਮੁੱਖ ਤੌਰ 'ਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਸਾਮਰਾਜੀ ਰਾਜ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਸੀ, ਖਤਮ ਹੋ ਗਿਆ।
    4. ਬਰਤਾਨਵੀ ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਨੂੰ ਉਮੀਦ ਸੀ ਕਿ ਸੱਤਾ ਪਰਿਵਰਤਨ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ, ਭਾਰਤੀ ਅਰਥਚਾਰੇ ਵਿਚ ਉਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਡੂੰਘੀਆਂ ਜੜ੍ਹਾਂ ਸਦਕਾ, ਉਹ ਸਾਡੀ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਨੂੰ ਰਸਮੀ ਬਣਾਉਣ ਦੇ ਸਮਰੱਥ ਹੋਣਗੇ। ਪ੍ਰੰਤੂ ਇਸ ਉਪਰੰਤ ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਇਤਿਹਾਸਕ ਘਟਨਾਵਾਂ ਵਾਪਰੀਆਂ, ਉਹਨਾਂ ਨਾਲ ਬਰਤਾਨਵੀ ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਦੀਆਂ ਇਹ ਆਸ਼ਾਵਾਂ ਪੂਰੀਆਂ ਨਹੀਂ ਹੋਈਆਂ।
    5. ਇਸ ਸਮੇਂ ਦੌਰਾਨ ਹੀ, 1949 ਵਿਚ, ਹੋਏ ਮਹਾਨ ਚੀਨੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੀ ਸਫਲਤਾ ਨਾਲ, ਸੰਸਾਰ ਪੱਧਰ 'ਤੇ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੇ ਸਮਤੋਲ ਵਿਚ ਸਮਾਜਵਾਦ ਦੇ ਪੱਖ ਵਿਚ ਇਕ ਹੋਰ ਮਹੱਤਵਪੂਰਨ ਤਬਦੀਲੀ ਆਈ। ਇਸ ਦੌਰਾਨ ਏਸ਼ੀਆ, ਅਫਰੀਕਾ ਤੇ ਲਾਤੀਨੀ ਅਮਰੀਕਾ ਵਿਚ ਨਵੀਆਂ ਆਜ਼ਾਦ ਕੌਮਾਂ ਉਭਰੀਆਂ, ਜਿਹਨਾਂ ਦੀ ਉਸਾਰੀ ਬਸਤੀਵਾਦ ਦੇ ਖੰਡਰਾਂ ਉੱਪਰ ਹੋਈ। ਭਾਰਤ ਨੂੰ ਇਹਨਾਂ ਕੌਮਾਂ ਵਿਚ ਮਹੱਤਵਪੂਰਨ ਸਥਾਨ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਇਆ।
    6. ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ, ਰਾਜਸੀ ਤਾਕਤ ਭਾਰਤੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿਚ ਤਬਦੀਲ ਹੋ ਜਾਣ ਨਾਲ ਸਾਡੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਉਮੀਦ ਸੀ ਕਿ ਨਵਾਂ ਕੌਮੀ ਰਾਜ ਬਸਤੀਵਾਦੀ ਪਿਛੋਕੜ ਦੀ ਸਮੁੱਚੀ ਭੱਦੀ ਰਹਿੰਦ-ਖੂੰਹਦ ਨੂੰ ਹੂੰਝ ਸੁਟੇਗਾ, ਸਾਡੀਆਂ ਉਤਪਾਦਕ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੀਆਂ ਸਭਨਾ ਬੇੜੀਆਂ ਨੂੰ ਕੱਟ ਸੁਟੇਗਾ, ਅਤੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਸਿਰਜਣਾਤਮਕ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਨੂੰ ਬੰਧਨਾਂ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਕਰੇਗਾ। ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਬੜੀ ਤੀਬਰ ਆਸ਼ਾ ਸੀ ਕਿ ਭਾਰਤ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਆਪਣੀ ਆਰਥਕ ਮੁਥਾਜੀ ਤੇ ਪਛੜੇਪਨ ਉਪਰ ਕਾਬੂ ਪਾਏਗਾ, ਥੁੜੋਂ ਤੇ ਗਰੀਬੀ ਦਾ ਖਾਤਮਾ ਕਰੇਗਾ, ਇਕ ਖੁਸ਼ਹਾਲ ਸਨਅਤੀ ਸ਼ਕਤੀ ਵਜੋਂ ਉਭਰੇਗਾ ਅਤੇ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਪਦਾਰਥਕ ਤੇ ਸਭਿਆਚਾਰਕ ਲੋੜਾਂ ਨੂੰ ਵੱਧਦੀ ਮਾਤਰਾ ਵਿਚ ਸੰਤੁਸ਼ਟ ਕਰੇਗਾ। ਪ੍ਰੰਤੂ ਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਇਹ ਆਸ਼ਾਵਾਂ ਵੀ ਪੂਰੀਆਂ ਨਹੀਂ ਹੋਈਆਂ।
    7. ਭਾਰਤੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦਾ ਇਹ ਦੂਸਰਾ ਪੜਾਅ ਮੰਗ ਕਰਦਾ ਸੀ, ਤੇ ਇਹ ਮੰਗ ਪੂਰੀ ਵੀ ਝੱਟ ਹੀ ਹੋਣੀ ਚਾਹੀਦੀ ਸੀ, ਕਿ ਜਗੀਰੂ ਤੇ ਅਰਧ-ਜਗੀਰੂ ਭੂਮੀ ਮਾਲਕੀ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਖਤਮ ਹੋਵੇ ਅਤੇ ਭੋਂ ਖੇਤ-ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਤੇ ਗਰੀਬ ਕਿਸਾਨਾਂ ਵਿਚ ਮੁਫਤ ਵੰਡੀ ਜਾਵੇ। ਇਸ ਦੀ ਇਹ ਵੀ ਮੰਗ ਸੀ ਕਿ ਬਰਤਾਨਵੀ ਸਰਮਾਏ ਨੂੰ ਜਬਤ ਕਰਨ ਤੇ ਉਸ ਦੇ ਰਾਸ਼ਟੀਕਰਨ ਦਾ ਕੰਮ ਨਿਬੇੜਿਆ ਜਾਏ ਤੇ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਸਾਡੇ ਕੌਮੀ ਅਰਥਚਾਰੇ ਉਪਰੋਂ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਸਰਮਾਏ ਦੀ ਲੋਟੂ ਜਕੜ ਦਾ ਖਾਤਮਾ ਹੋਵੇ। ਜਾਗੀਰਦਾਰੀ ਦੇ ਖਾਤਮੇ ਅਤੇ ਸੱਚਮੁੱਚ ਦੇ ਖੇਤੀ ਇਨਕਲਾਬ ਨੇ ਸਾਡੇ ਖੇਤੀ ਉਤਪਾਦਨ ਉਪਰੋਂ ਚਿਰਾਂ-ਪੁਰਾਣੀਆਂ ਬੇੜੀਆਂ ਨੂੰ ਇਕ ਦਮ ਤੋੜ ਦੇਣਾ ਸੀ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਅਗਾਂਹ ਵੱਲ ਇਕ ਚੰਗੀ ਪੁਲਾਂਘ ਪੁੱਟਣ ਦੇ ਸਮਰੱਥ ਬਣਾ ਦੇਣਾ ਸੀ। ਸਾਡੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਅਨਾਜ, ਸਾਡੀਆਂ ਸਨਅੱਤਾਂ ਲਈ ਚੌਖੀ ਮਾਤਰਾ ਵਿਚ ਕੱਚਾ ਮਾਲ ਤੇ ਨਿੱਤ ਵੱਧਦੀ ਮਾਰਕੀਟ ਮੁਹੱਈਆ ਕਰਨੀ ਸੀ ਅਤੇ ਸਾਡੀ ਖੇਤੀ ਨੂੰ ਸਾਡੀ ਸਨਅੱਤ ਲਈ ਲੋੜੀਂਦੇ ਸਰਮਾਏ ਦੇ ਨਿਰਮਾਣ (Formation) ਦੇ ਮੁਖੀ ਸਰੋਤ ਵਿਚ ਪਰਤ ਦੇਣਾ ਸੀ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਬਰਤਾਨਵੀ ਸਰਮਾਏ ਦੀ ਜ਼ਬਤੀ ਤੇ ਉਸ ਦੇ ਰਾਸ਼ਟਰੀਕਰਨ ਨੇ ਸਾਡੇ ਨਵ-ਜਨਮੇ ਕੌਮੀ ਰਾਜ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿਚ ਸਨਅਤ ਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਵਪਾਰ ਦਾ ਇਕ ਵਿਸ਼ਾਲ ਸੈਕਟਰ ਦੇ ਦੇਣਾ ਸੀ ਜਿਸ ਦੇ ਮੁਨਾਫੇ, ਪਿਛਲੇ ਸਮੇਂ ਵਾਂਗ, ਦੇਸ਼ ਨੂੰ ਨਿਚੋੜਨ ਦੀ ਥਾਂ ਸਨਅੱਤ ਵਿਚ ਨਿਵੇਸ਼ ਲਈ ਇਕ ਨਿੱਤ ਵੱਧਦੇ ਸਰੋਤ ਵਿਚ ਪਰਤ ਜਾਣੇ ਸਨ।
    8. ਭਾਵੇਂ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ, ਕਿਸਾਨੀ, ਦਰਮਿਆਨੀਆਂ ਜਮਾਤਾਂ ਅਤੇ ਅਗਾਂਹ ਵਧੂ ਬੁੱਧੀਜੀਵੀ ਸਾਮਰਾਜੀ ਰਾਜ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਮੁਖ ਲੜਾਕੂ ਸ਼ਕਤੀ ਰਹੇ ਸਨ ਤੇ ਇਹਨਾਂ ਨੇ ਹੀ ਉਸ ਦੀ ਮਾਰ ਨੂੰ ਸਹਿਣ ਕੀਤਾ ਸੀ, ਐਪਰ ਤਦ ਵੀ, ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਹੀ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਲਹਿਰ ਦੀ ਲੀਡਰਸ਼ਿਪ ਵਿਚ ਰਹੀ ਅਤੇ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਉਹ ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਹਥਿਆ ਗਈ। ਇਹੋ ਕਾਰਨ ਹੈ ਕਿ ਆਜ਼ਾਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਹੇਠਲਾ ਕੌਮੀ ਰਾਜ, ਭਾਰਤੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਇਹਨਾਂ ਜ਼ਰੂਰੀ ਕਾਰਜਾਂ ਨੂੰ ਨੇਪਰੇ ਚਾੜਨ ਵਿਚ ਅਸਫਲ ਰਿਹਾ। ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਇਹਨਾਂ ਬੁਨਿਆਦੀ ਕਾਰਜਾਂ ਦੇ ਸੰਪੂਰਨ ਹੋਣ ਨਾਲ ਨਿਕਲਣ ਵਾਲੇ ਸੁਭਾਵਕ ਸਿੱਟਿਆਂ ਤੋਂ ਭੈ ਖਾਂਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਨੇ ਸਾਮਰਾਜ ਨਾਲ ਸਮਝੌਤਾ ਕਰ ਲਿਆ, ਅਤੇ ਬਰਤਾਨਵੀ ਕਾਮਨਵੈਲਥ ਦੇ ਮੈਂਬਰ ਬਣੇ ਰਹਿਣਾ ਪਰਵਾਨ ਕਰਨ ਉਪਰੰਤ ਉਹ ਇਹ ਵੀ ਮੰਨ ਗਈ ਕਿ ਬਰਤਾਨਵੀ ਵਿੱਤੀ ਸਰਮਾਏ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਲੁੱਟ ਜਾਰੀ ਰੱਖਣ ਦੀ ਆਗਿਆ ਹੋਵੇਗੀ। ਦੇਸੀ ਰਿਆਸਤਾਂ ਵਿਚ ਵਿਆਪਕ ਜਨਤਕ ਉਭਾਰ ਦੇ ਪਿਛੋਕੜ ਵਿਚ, ਜਿਸ ਨੇ ਰਾਜਿਆਂ, ਰਜਵਾੜਿਆਂ ਤੇ ਸਾਮੰਤਸ਼ਾਹੀ ਦਾ ਖਾਤਮਾ ਕਰ ਦੇਣਾ ਸੀ, ਸਾਮੰਤੀ ਰਜਵਾੜਿਆਂ ਨੂੰ ਭਾਰੀ ਰਿਆਇਤਾਂ ਦਿੱਤੀਆਂ ਗਈਆਂ ਅਤੇ ਬੁਰਜੁਆ ਜਮਾਤੀ ਰਾਜ ਨੂੰ ਸਹਾਰਾ ਦੇਣ ਲਈ ਉਹਨਾਂ ਨਾਲ ਗਠਜੋੜ ਕੀਤਾ ਗਿਆ। ਰਜਵਾੜਿਆਂ, ਜਿਹੜੇ ਕਿ ਬਰਤਾਨਵੀ ਹਾਕਮਾਂ ਦੇ ਮਦਦਗਾਰ ਰਹੇ ਸਨ, ਦਾ ਕਾਂਗਰਸ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਲ ਹੋਣ ਲਈ ਸਵਾਗਤ ਕੀਤਾ ਗਿਆ। ਕਾਂਗਰਸੀ ਹਾਕਮਾਂ ਨੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਦਬਾਉਣ ਲਈ ਬਰਤਾਨੀਆਂ ਦੀ ਸਿਖਲਾਈ ਹੋਈ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹੀ ਨੂੰ ਕਾਇਮ ਰੱਖਿਆ। ਇਸ ਪਰਕਾਰ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਨੂੰ ਨਾ ਤਾਂ ਜ਼ੋਰ ਫੜਨ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਇਸਦੇ ਬੁਨਿਆਦੀ ਨਿਸ਼ਾਨੇ ਪੂਰੇ ਕੀਤੇ ਗਏ।
    9. ਸਾਡੇ ਦੌਰ ਦੇ ਕੌਮੀ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਸੰਗਰਾਮਾਂ ਦਾ ਇਹ ਇਤਿਹਾਸਕ ਤਜ਼ਰਬਾ ਹੈ ਕਿ ਜੇ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ ਹੱਥ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਸੰਗਰਾਮ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਹੋਵੇ ਤਾਂ ਉਹ ਕੌਮੀ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਨੂੰ ਉਸ ਦੀ ਸੰਪੂਰਨਤਾ ਤੱਕ ਅੱਗੇ ਨਹੀਂ ਲੈ ਕੇ ਜਾਂਦੀ। ਇਸ ਦੇ ਉਲਟ ਰਾਜਸੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਜਿੱਤਣ ਪਿਛੋਂ, ਜਿਉਂ ਜਿਉਂ ਸਮਾਜੀ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਤਿੱਖੀਆਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ, ਇਹ ਸਾਮਰਾਜ ਨਾਲ ਸਮਝੌਤਾ ਕਰਨ ਦਾ ਯਤਨ ਕਰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਘਰੋਗੀ ਜਗੀਰੂ ਪਿਛਾਖੜ ਨਾਲ ਭਿਆਲੀ ਪਾਉਂਦੀ ਹੈ। ਇਤਿਹਾਸਕ ਤਜਰਬਾ ਇਹ ਵੀ ਦਰਸਾਉਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਸਾਮਰਾਜ-ਵਿਰੋਧੀ ਕੌਮੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਜਦੋਂ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਵਿਚ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਨਾ ਕੇਵਲ ਆਪਣੇ ਸਭ ਪੜਾਵਾਂ ਨੂੰ ਸੰਪੂਰਨ ਕਰਦਾ ਹੈ ਸਗੋਂ ਇਨਕਲਾਬ ਜਮਹੂਰੀ ਪੜਾਅ ਉਪਰ ਨਹੀਂ ਖਲੋਂਦਾ ਬਲਕਿ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਪੜਾਅ ਵੱਲ ਵੱਧ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਭਾਰਤ ਦਾ ਅਧੂਰਾ ਇਨਕਲਾਬ ਵੀ ਇਸ ਂਿੲਤਿਹਾਸਕ ਤਜ਼ਰਬੇ ਦੀ ਪੁਸ਼ਟੀ ਕਰਦਾ ਹੈ।


II. ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਦਾ ਦੀਵਾਲੀਆ ਰਾਹ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਦੇ ਵਾਧੇ ਤੇ ਨਵ-ਬਸਤੀਵਾਦ ਦੇ ਖ਼ਤਰੇ ਵੱਲ ਲੈ ਗਿਆ    

10. ਅਜ਼ਾਦੀ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ, ਭਾਰਤੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਨੇ ਇਕ ਉਚੇਰਾ ਕੱਦ ਕੱਢ  ਲਿਆ ਸੀ ਤੇ ਇਸ ਨੇ ਸਨਅੱਤ ਦੀਆਂ ਕੁੱਝ ਸ਼ਾਖਾਵਾਂ, ਜਿਵੇਂ ਕਿ ਸੂਤੀ ਕੱਪੜਾ, ਖੰਡ ਅਤੇ ਸੀਮਿੰਟ ਆਦਿ ਵਿਚ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਸਥਾਪਤ ਕਰ ਲਿਆ ਸੀ। ਦੂਸਰੇ ਸੰਸਾਰ ਯੁੱਧ ਦੌਰਾਨ, ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਨੇ, ਆਮ ਕਰਕੇ ਇਸ ਦੇ ਵਡੇਰੇ ਭਾਗਾਂ ਨੇ, ਅਥਾਹ ਧਨ ਜਮ੍ਹਾਂ ਕਰ ਲਿਆ ਸੀ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਆਰਥਕ ਪੁਜੀਸ਼ਨ ਨੂੰ ਚੋਖਾ ਵਧਾ ਲਿਆ ਸੀ।
    11. ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਤੋਂ ਪਿੱਛੋਂ ਹਾਕਮ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਅਰਥਚਾਰੇ ਨੂੰ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਲੀਹਾਂ ਉੱਤੇ ਵਿਕਸਤ ਕਰਨ ਅਤੇ ਸਮਾਜ ਵਿਚ ਆਪਣੀ ਜਮਾਤੀ ਸਥਿਤੀ ਹੋਰ ਦ੍ਰਿੜ ਕਰਨ ਵੱਲ ਤੁਰੀ। ਪਰ ਕਿਉਂ ਜੋ ਇਸ ਕੋਲ ਨਾ ਤਾਂ ਭਾਰੀ ਸਨਅੱਤ ਦਾ ਤਕਨੀਕੀ ਅਧਾਰ ਸੀ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਬਸਤੀਵਾਦੀ ਸਲਤਨਤ ਸੀ, ਜਿਸ ਦੀ ਲੁੱਟ ਤੋਂ ਸਾਮਰਾਜ ਨੇ ਵਿਸ਼ਾਲ ਮਾਤਰਾ ਵਿਚ ਸਰਮਾਇਆ ਜਮ੍ਹਾਂ ਕੀਤਾ ਸੀ, ਇਸ ਲਈ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਨੇ ਹਥਿਆਈ ਗਈ ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਨੂੰ, ਆਪਣੀਆਂ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਲੋੜਾਂ ਖਾਤਰ ਅਤੇ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਲੀਹਾਂ ਉੱਤੇ ਆਰਥਕਤਾ ਨੂੰ ਵਿਕਸਤ ਕਰਨ ਲਈ, ਜਨ-ਸਾਧਾਰਨ ਦੀ ਮਿਹਨਤ ਦਾ ਫਲ ਹਥਿਆਉਣ ਲਈ ਵਰਤਿਆ। ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਕੇਂਦਰੀ ਸਰਕਾਰ ਦੀਆਂ ਆਰਥਕ ਨੀਤੀਆਂ ਨਿਰੰਤਰ ਤੌਰ 'ਤੇ ਇਸ ਆਸ਼ੇ ਵੱਲ ਸੇਧਤ ਰਹੀਆਂ ਹਨ।
    12. ਭਾਰਤੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਨੇ ਆਪਣੇ ਨਿਸ਼ਾਨਿਆਂ ਦੀ ਪੂਰਤੀ ਲਈ ਬਰਤਾਨਵੀ ਤੇ ਅਮਰੀਕਨ ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਉੱਪਰ ਵੀ ਆਸ ਲਾਈ ਅਤੇ ਇਸ ਸਹਾਇਤਾ ਦਾ ਮੁੱਲ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਹਿੱਤਾਂ ਦੀ ਰੱਖਿਆ ਕਰਕੇ ਤਾਰਿਆ ਗਿਆ, ਜਿਹੜੀ ਕਿ 1947 ਵਿਚ ਬੇਮਿਸਾਲ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਜ਼ੋਰ ਫੜ ਰਹੇ ਸਾਮਰਾਜ ਵਿਰੋਧੀ ਲੋਕ-ਉਭਾਰ ਕਾਰਨ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਲੋੜੀਂਦੀ ਸੀ।
    13. ਪਰੰਤੂ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਤੋਂ ਮਗਰੋਂ ਦੇ ਵਰ੍ਹਿਆਂ ਵਿਚ ਬਰਤਾਨਵੀ ਤੇ ਅਮਰੀਕਨ ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਨੇ, ਭਾਰਤੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੀਆਂ ਲੋੜਾਂ ਦੀ ਸੰਤੁਸ਼ਟੀ ਕਰਨਾ ਤਾਂ ਦੂਰ ਦੀ ਗੱਲ ਰਹੀ, ਨਵੇਂ ਭਾਰਤੀ ਰਾਜ ਨੂੰ ਆਪਣੀਆਂ ਜੰਗੀ ਯੋਜਨਾਵਾਂ ਵਿਚ ਖਿੱਚਣ ਲਈ ਕਈ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦਾ ਦਬਾਅ ਪਾਉਣਾ ਅਰੰਭਿਆ ਅਤੇ ਅਜਿਹੀਆਂ ਯੋਜਨਾਵਾਂ ਸ਼ੁਰੂ ਕੀਤੀਆਂ ਜੋ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕੀਤੀ ਗਈ ਰਾਜਨੀਤਕ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਨੂੰ ਵੀ ਕਮਜ਼ੋਰ ਕਰਦੀਆਂ ਸਨ। ਭਾਰਤੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੁਆਰਾ ਵਾਰ-ਵਾਰ ਕੀਤੀਆਂ ਬੇਨਤੀਆਂ ਕਰਨ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਨੇ ਭਾਰੀ ਸਨਅੱਤ, ਜੋ ਸਨਅੱਤੀਕਰਨ ਦਾ ਆਧਾਰ ਹੈ, ਉਸਾਰਨ ਵਿਚ ਸਹਾਇਤਾ ਕਰਨ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰ ਕੀਤਾ। ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਦੂਸਰੀ ਵੱਡੀ ਜੰਗ ਦੌਰਾਨ ਸਾਡੇ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਲਹੂ ਪਸੀਨੇ ਦੀ ਕਮਾਈ ਦੁਆਰਾ ਜਮਾਂ ਹੋਏ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਬਰਤਾਨਵੀ ਸਿੱਕੇ ਦੇ ਭੰਡਾਰਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਘੱਟੇ ਕੌਡੀਆਂ ਰਲਾ ਦਿੱਤਾ। ਬਦੇਸ਼ੀ ਸਿੱਕਾ ਬਚਾਉਣ ਦੇ ਨਾਂਅ ਉੱਪਰ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਸਾਡੇ ਉੱਪਰ ਸਾਡੇ ਕੌਮੀ ਹਿੱਤਾਂ ਦੇ ਉਲਟ, ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਨਾਲ ਅਜੇਹੇ ਸੌਦੇ ਠੋਸੇ ਜਿਹੜੇ ਕਿ ਸਾਡੀ ਕੌਮੀ ਹਿੱਤਾਂ ਲਈ ਘਾਤਕ ਸਨ, ਜਿਵੇਂ ਕਿ ਤੇਲ ਸਾਫ ਕਰਨ, ਸਮੁੰਦਰੀ ਜਹਾਜ ਬਣਾਉਣ ਤੇ ਰਸਾਇਣਕ ਸਨਅੱਤਾਂ ਆਦਿ ਵਿਚ। ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਦੇ ਇਸ ਕਠੋਰ ਵਤੀਰੇ ਨੇ ਭਾਰਤੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਨੂੰ ਵੱਡੀਆਂ ਸਨਅੱਤਾਂ ਦੀ ਉਸਾਰੀ ਲਈ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਦੇਸ਼ਾਂ, ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਤੌਰ ਤੇ ਸੋਵੀਅਤ ਯੂਨੀਅਨ, ਤੋਂ ਸਹਾਇਤਾ ਲੈਣ ਲਈ ਮਜ਼ਬੂਰ ਕੀਤਾ। ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਤੋਂ ਮਿਲੀ ਇਹ ਬੇਗਰਜ਼ ਸਹਾਇਤਾ ਭਾਰਤੀ ਸਰਕਾਰ ਲਈ ਸਾਮਰਾਜੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਨਾਲ ਸੌਦੇਬਾਜ਼ੀ ਕਰਨ ਵਿਚ ਬਹੁਤ ਲਾਭਕਾਰੀ ਸਿੱਧ ਹੋਈ।  
    14. ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦਾ ਦੋਹਰਾ ਕਿਰਦਾਰ ਜਿਹੜਾ ਕਿ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਸੰਗਰਾਮ ਦੇ ਵਰ੍ਹਿਆਂ ਦੌਰਾਨ ਇਕ ਪਾਸੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ ਵਿਰੁੱਧ ਲਾਮਬੰਦ ਕਰਨ ਅਤੇ ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਨਾਲ ਸਮਝੌਤਾ ਕਰਨ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਉਭਰਿਆ ਸੀ, ਉਹ ਹੁਣ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਤੋਂ ਬਾਅਦ, ਨਵੇਂ ਰੂਪ ਵਿਚ ਸਾਹਮਣੇ ਆਇਆ। ਇਕ ਪਾਸੇ ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ ਤੇ ਜਾਗੀਰਦਾਰੀ ਅਤੇ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਸਮੇਤ ਆਮ ਲੋਕਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਦੇ ਤਿੱਖੇ ਹੋਣ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ, ਅਤੇ ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵੱਲੋਂ ਉਪਲੱਬਧ ਬਣਾਈ ਗਈ ਬਹੁਤ ਹੀ ਲਾਭਦਾਇਕ ਸਹਾਇਤਾ ਤੇ ਸਮਰਥਨ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਵੀ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਨੇ, ਜਿਹੜੀ ਕਿ ਰਾਜ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਕਰ ਰਹੀ ਸੀ, ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ ਅਤੇ ਜਾਗੀਰਦਾਰੀ ਉੱਪਰ ਅਜੇਹੇ ਫੈਸਲਾਕੁੰਨ ਵਾਰ ਨਹੀਂ ਕੀਤੇ ਜਿਹਨਾਂ ਨਾਲ ਕਿ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਖਾਤਮਾ ਹੋ ਜਾਂਦਾ। ਇਸਦੇ ਉਲਟ ਉਸ ਨੇ ਆਪਣੀ ਜਮਾਤੀ ਪੁਜੀਸ਼ਨ ਨੂੰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਕਰਨ ਲਈ, ਰਾਜ ਸ਼ਕਤੀ ਉੱਪਰ ਆਪਣੀ ਪਕੜ ਦੀ ਅਤੇ ਨਵੇਂ ਮਿਲੇ ਮੌਕਿਆਂ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਇਕ ਪਾਸੇ ਲੋਕਾਂ ਉੱਪਰ ਹਮਲਿਆਂ ਲਈ ਅਤੇ ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ ਤੇ ਜਾਗੀਰਦਾਰੀ ਨਾਲ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਤੇ ਝਗੜਿਆਂ ਦਾ  ਦਬਾਅ, ਸੌਦੇਬਾਜ਼ੀ ਅਤੇ ਸਮਝੌਤਿਆਂ ਰਾਹੀਂ ਹੱਲ ਕਰਨ ਲਈ ਕੀਤੀ। ਇਸ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਰਾਹੀਂ ਉਸਨੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਵਿੱਤੀ ਸਰਮਾਏ ਅਤੇ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਨਾਲ ਤਕੜੇ ਸੰਬੰਧ ਸਥਾਪਤ ਕੀਤੇ ਅਤੇ ਭੋਂ-ਪਤੀਆਂ ਨਾਲ ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਵਿਚ ਉਹ ਨਿਰੰਤਰ ਭਾਈਵਾਲੀ ਕਰਦੀ ਆ ਰਹੀ ਹੈ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ, ਇਹ, ਕੁਝ ਇਕ ਭਾਰੀ ਸਨਅਤੀ ਪ੍ਰਾਜੈਕਟ ਉਸਾਰਨ ਖਾਤਰ ਆਸਾਨੀ ਨਾਲ ਉਪਲੱਬਧ ਹੁੰਦੀ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਲੈਣ 'ਚ ਕੋਈ ਹਿਚਕਚਾਹਟ ਦਿਖਾਏ ਬਿਨਾਂ, ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ ਨਾਲ ਸੌਦੇਬਾਜ਼ੀ ਕਰਦਿਆਂ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਸ਼ਕਤੀ ਨੂੰ ਵਧਾਉਂਦਿਆਂ ਅੰਤਿਮ ਰੂਪ ਵਿਚ ਏਥੇ ਪੁੱਜ ਗਈ ਹੈ ਕਿ ਹੁਣ ਇਹ ਸਾਮਰਾਜੀ ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ ਅਤੇ ਨਵ-ਉਦਾਰੀਵਾਦ ਦੀ ਇਕ ਤਕੜੀ ਝੰਡਾਬਰਦਾਰ ਬਣ ਗਈ ਹੈ ਅਤੇ ਬਹੁਕੌਮੀ ਕੰਪਣੀਆਂ ਦੀ ਲੁੱਟ-ਚੋਂਘ ਲਈ ਭਾਰਤੀ ਅਰਥਚਾਰੇ ਦੇ ਦਰ ਵੱਧ ਤੋਂ ਵੱਧ ਖੋਲ੍ਹਦੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ, ਇਸਨੇ ਆਪਣੇ ਲੋਕ ਵਿਰੋਧੀ ਕਿਰਦਾਰ ਨੂੰ  ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਬੇਪਰਦ ਕਰ ਲਿਆ ਹੈ ਅਤੇ ਇਹ ਭਾਰਤੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਜਾਗੀਰਦਾਰੀ ਵਿਰੋਧੀ ਅਤੇ ਸਾਮਰਾਜ ਵਿਰੋਧੀ ਕਾਰਜਾਂ ਨੂੰ ਨੇਪਰੇ ਚਾੜ੍ਹਨ ਵਿਚ ਇਕ ਵੱਡੀ ਰੁਕਾਵਟ ਬਣ ਗਈ ਹੈ।
    15. ਭਾਰਤੀ ਹਾਕਮਾਂ ਵੱਲੋਂ ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਉਸਾਰਨ ਦੇ ਯਤਨਾਂ ਦੇ ਅੰਗ ਵਜੋਂ ਆਰੰਭੀ ਗਈ ਯੋਜਨਾਬੰਦੀ ਦਾ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਯੋਜਨਾਬੰਦੀ ਨਾਲ ਦੂਰ ਦਾ ਵੀ ਵਾਸਤਾ ਨਹੀਂ। ਸਾਡੇ ਅਰਥਚਾਰੇ ਦਾ ਕੇਵਲ ਨਿਗੂਣਾ ਜਿਹਾ ਭਾਗ ਹੀ ਰਾਜਕੀ ਸੈਕਟਰ ਦੇ ਅਧੀਨ ਲਿਆ ਗਿਆ ਜਦਕਿ ਸਨੱਅਤੀ, ਵਪਾਰਕ ਤੇ ਹੋਰ ਸਰਗਰਮੀਆਂ ਦੇ ਵਿਸ਼ਾਲ ਖੇਤਰ ਪ੍ਰਾਈਵੇਟ ਕਾਰੋਬਾਰ ਅਧੀਨ ਰਹੇ ਹਨ। ਅਸਲ ਵਿਚ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਯੋਜਨਾਬੰਦੀ ਦੇ ਇਹ ਬੁਰਜੁਆ ਯਤਨ ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਦੇ ਸੁਭਾਵਕ ਨਿਯਮਾਂ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਹਨ ਅਤੇ ਆਖਰੀ ਵਿਸ਼ਲੇਸ਼ਣ ਵਜੋਂ ਅਸਲੀ ਆਰਥਿਕ ਯੋਜਨਾਬੰਦੀ ਤੇ ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਇਕ ਦੂਜੇ ਦੇ ਵਿਰੋਧੀ ਹਨ ਅਤੇ ਇਹ ਬਹੁਤੀ ਦੂਰ ਤੱਕ ਇਕੱਠੇ ਨਹੀਂ ਤੁਰਦੇ। ਇਹੋ ਕਾਰਨ ਹੈ ਕਿ ਪੰਜ ਵਰਸ਼ੀ ਯੋਜਨਾਵਾਂ ਸਾਡੇ ਅਰਥਚਾਰੇ ਨੂੂੰ ਅਗਾਂਹ ਵਲ ਤੋਰਨ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਤੇਜ਼ ਸਨੱਅਤੀਕਰਨ ਤੇ ਵਿਕਾਸ ਦੀ ਜਰਨੈਲੀ ਸੜਕੇ ਪਾਉਣ ਲਈ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਪਦਾਰਥਕ ਤੇ ਮਨੁੱਖੀ ਸ਼ਕਤੀ ਦੇ ਵਸੀਲਿਆਂ ਨੂੰ ਲਾਮਬੰਦ ਕਰਨ ਵਿਚ ਅਸਫਲ ਰਹੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਇਸ ਦੀ ਥਾਂ, ਮੁੱਖ ਤੌਰ 'ਤੇ, ਲੋਟੂ ਜਮਾਤਾਂ ਦੇ ਮੁਨਾਫੇ ਵਧਾਉਣ ਉਪਰ ਨਿਰਭਰ ਰਹੀਆਂ ਹਨ।
    16. ਐਪਰ, ਭਾਰਤ ਵਰਗੇ ਕਿਸੇ ਘੱਟ ਵਿਕਸਤ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਯੋਜਨਾਬੰਦੀ, ਜਿਸ ਨੂੰ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿਚਲੀ ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਦੀ ਹਮਾਇਤ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੈ, ਨਿਸਚੇ ਹੀ ਸਰਕਾਰ ਦੀਆਂ ਨੀਤੀਆਂ ਦੀਆਂ ਸੀਮਾਵਾਂ ਦੇ ਅੰਦਰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਵਸੀਲਿਆਂ ਦੀ ਵਧੇਰੇ ਤੇਜ਼ ਵਰਤੋਂ ਨੂੰ ਸਹਿਲ ਬਣਾਉਣ ਦੁਆਰਾ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਆਰਥਕ ਵਿਕਾਸ ਨੂੰ ਇਕ ਨਿਸ਼ਚਤ ਚਾਲ ਤੇ ਸੇਧ ਦਿੰਦੀ ਹੈ। ਇਹਨਾਂ ਯੋਜਨਾਵਾਂ ਦਾ ਅਜੇਹਾ ਉਭਰਵਾਂ ਲੱਛਣ ਸਨੱਅਤੀ ਵਿਸਥਾਰ ਵਿਚ, ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਕਰਕੇ ਰਾਜਕੀ ਸੈਕਟਰ ਵਿਚ ਕੁਝ ਭਾਰੀ ਮਸ਼ੀਨਾਂ ਦੀ ਉਸਾਰੀ ਦੀਆਂ ਸਨਅੱਤਾਂ ਦੇ ਸਥਾਪਤ ਕਰਨ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਸਾਹਮਣੇ ਆਇਆ ਹੈ। ਇਹ ਗਿਣਨਯੋਗ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਸੰਭਵ ਨਾ ਹੋ ਸਕਦੀ, ਜੇਕਰ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਤੋਂ, ਮੁੱਖ ਰੂਪ ਵਿਚ ਸੋਵੀਅਤ ਯੂਨੀਅਨ ਤੋਂ, ਬੇਲਾਗ ਸਹਾਇਤਾ ਨਾ ਮਿਲੀ ਹੁੰਦੀ। ਇਸ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਰਾਜਕੀ ਸੈਕਟਰ ਵਿਚ ਆਵਾਜਾਈ, ਸੰਚਾਰ ਤੇ ਬਿਜਲੀ ਆਦਿ ਦਾ ਵੀ ਚੋਖਾ ਵਿਸਥਾਰ  ਹੋਇਆ।
    17. ਬੁਰਜੁਆ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਸਰਕਾਰ ਦੀਆਂ ਬਜਟ ਸੰਬੰਧੀ ਤੇ ਆਮ ਆਰਥਕ ਨੀਤੀਆਂ, ਖਾਸ ਕਰਕੇ ਇਸ ਵੱਲੋਂ ਟੈਕਸਾਂ ਸਬੰਧੀ ਚੁੱਕੇ ਜਾਂਦੇ ਕਦਮ ਤੇ ਕੀਮਤਾਂ ਸੰਬੰਧੀ ਅਪਣਾਈਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਨੀਤੀਆਂ, ਮੁੱਖ ਰੂਪ ਵਿਚ ਲੋਟੂ ਜਮਾਤਾਂ ਦੇ ਛੋਟੇ ਜਿਹੇ ਘੇਰੇ ਦੇ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀਕੋਣ ਤੋਂ ਹੀ ਨਿਰਧਾਰਤ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ। ਅਸਿੱਧੇ ਟੈਕਸਾਂ ਵਿਚ ਅੰਨ੍ਹਾਂ ਵਾਧਾ ਅਤੇ ਘਾਟੇ ਦਾ ਬਜਟ, ਜੋ ਜਨ-ਸਾਧਾਰਨ ਨੂੰ ਸੱਟ ਮਾਰਦਾ ਹੈ, ਯੋਜਨਾਵਾਂ ਵਿਚ ਪੈਸਾ ਲਾਉਣ ਲਈ ਅਤੇ ਅਫਸਰਸ਼ਾਹੀ, ਸੈਨਿਕ, ਅਰਧ-ਸੈਨਿਕ ਅਤੇ ਪੁਲਸ ਦੀ ਭਾਰੀ ਮਸ਼ੀਨਰੀ ਨੂੰ ਕਾਇਮ ਰੱਖਣ ਲਈ ਲੋੜੀਂਦੇ ਵਸੀਲੇ ਜੁਟਾਉਣ ਦਾ ਇਕ ਮੁੱਖ ਸਰੋਤ ਹੈ। ਸਰਕਾਰ ਅਸਲ ਵਿਚ ਵਿਕਾਸ ਲਈ ਮੁਨਾਫੇ ਦੇ ਮੰਤਵ ਉੱਤੇ ਨਿਰਭਰ ਕਰਦੀ ਹੈ ਤੇ ਉਹ ਕੀਮਤਾਂ ਦੇ ਪੱਧਰ ਨੂੰ ਕਾਇਮ ਰੱਖਣ ਲਈ ਕੋਈ ਪ੍ਰਭਾਵਕਾਰੀ ਕਦਮ ਚੁੱਕਣ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਸਿੱਕੇ ਦਾ ਫੈਲਾਅ ਤੇ ਨਿਰੰਤਰ ਚੜਦੀਆਂ ਕੀਮਤਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਮਿਹਨਤ ਦੁਆਰਾ ਸਿਰਜੀ ਦੌਲਤ 'ਚੋਂ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਹਿੱਸੇ ਦੀ ਕਮਾਈ ਨਾਲੋਂ ਨਿਖੇੜਨ ਅਤੇ ਦੌਲਤ ਦੇ ਪ੍ਰਾਈਵੇਟ ਪੂੰਜੀਪਤੀਆਂ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿਚ ਜਮ੍ਹਾਂ ਹੋਣ ਦਾ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਸਾਧਨ ਹਨ।
    18. ਵਿੱਤੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ, ਸਮੇਤ ਕੌਮੀਕਰਨ ਕੀਤੇ ਬੈਂਕਾਂ, ਜੀਵਨ ਬੀਮਾਂ ਕਾਰਪੋਰੇਸ਼ਨ ਅਤੇ ਸਰਕਾਰ ਵੱਲੋਂ ਸਿਰਜੀਆਂ ਹੋਰ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਕਰਜ਼ਾ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਦੇ, ਸਾਰੀਆਂ ਨੇ ਪ੍ਰਾਈਵੇਟ ਪੂੰਜੀਪਤੀਆਂ ਵਲੋਂ ਦੌਲਤ ਇਕੱਠੀ ਕਰਨ ਵੱਲ ਸੇਧਤ ਹਿੱਤਾਂ ਦੀ ਹੀ ਪੂਰਤੀ ਕੀਤੀ ਹੈ। ਰਿਜ਼ਰਵ ਬੈਂਕ ਦਾ ਸਲਾਹਕਾਰ ਬੋਰਡ, ਬੀਮਾ ਕਾਰਪੋਰੇਸ਼ਨ ਅਤੇ ਹੋਰ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਦੀਆਂ ਨਿਵੇਸ਼ਕਾਰੀ ਕਮੇਟੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਹੀ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ ਪ੍ਰਤੀਨਿੱਧਾਂ ਨਾਲ ਭਰੀਆਂ ਹੋਈਆਂ ਹਨ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਬਹੁਤ ਸਾਰੀਆਂ ਕਰਜ਼ਾ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਅਤੇ ਰਾਜਕੀ ਤੇ ਜਨਤਕ ਅਦਾਰਿਆਂ ਦੇ ਕੰਮ ਕਾਰ ਉੱਪਰ ਵੀ ਕੰਟਰੋਲ ਕੀਤਾ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਇਸ ਦੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਇਕ ਪਾਸੇ ਪੂੰਜੀ ਦੇ ਕੁਝ ਕੁ ਹੱਥਾਂ ਵਿਚ ਕੇਂਦਰਿਤ ਹੋਣ ਦੀ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਵਿਚ ਅਥਾਹ ਵਾਧਾ ਹੋਇਆ ਹੈ ਅਤੇ ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਸਨਅੱਤੀ ਤੇ ਬੈਂਕ ਪੂੰਜੀ ਵਿਚਕਾਰ ਕਰੰਘੜੀ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਵੱਧਦੀ ਗਈ ਹੈ।  
    19. ਆਜ਼ਾਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਉਪਰੰਤ, ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਉਪਲੱਬਧ ਹਾਲਤਾਂ ਅਧੀਨ, ਰਾਜਕੀ ਸੈਕਟਰ ਵਿਚ ਜੋ ਭਾਰੀ ਮਸ਼ੀਨਸਾਜ਼ੀ ਦੀਆਂ ਅਤੇ ਹੋਰ ਕੁੰਜੀਵਤ ਸਨਅੱਤਾਂ ਉਸਾਰੀਆਂ ਗਈਆਂ ਸਨ, ਉਹ ਕੇਵਲ ਇਸ ਕਰਕੇ ਸੀ ਕਿ ਏਨੇ ਭਾਰੀ ਸਨਅੱਤੀ ਪ੍ਰੋਜੈਕਟਾਂ ਲਈ ਨਿੱਜੀ ਸਰਮਾਇਆ ਲੋੜੀਂਦੇ ਵਸੀਲੇ ਲੱਭ ਸਕਣ ਦੀ ਪੁਜੀਸ਼ਨ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਰਾਜਕੀ ਸੈਕਟਰ ਵਿਚ ਇਹਨਾਂ ਕਾਰੋਬਾਰਾਂ ਦੀ ਉਸਾਰੀ ਇਕ ਹੱਦ ਤੱਕ ਆਰਥਕ ਪਛੜੇਵੇਂ ਅਤੇ ਸਾਮਰਾਜੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਦੀ ਮੁਕੰਮਲ ਮੁਥਾਜੀ ਉਪਰ ਕਾਬੂ ਪਾਉਣ ਵਿਚ ਅਤੇ ਸਨੱਅਤੀਕਰਨ ਲਈ ਤਕਨੀਕੀ ਅਧਾਰ ਕਾਇਮ ਕਰਨ ਵਿਚ ਸਹਾਇਕ ਸਿੱਧ ਹੋਈ।  
    20. ਰਾਜਕੀ ਸੈਕਟਰ ਕਿਸੇ ਘਟ-ਵਿਕਸਤ ਅਰਥਚਾਰੇ ਵਿਚ ਤਦ ਹੀ ਪ੍ਰਗਤੀਵਾਦੀ ਕਿਰਦਾਰ ਅਦਾ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹੈ ਜੇਕਰ ਇਸ ਨੂੰ ਸਾਮਰਾਜ-ਵਿਰੋਧੀ, ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਵਿਰੋਧੀ ਤੇ ਜਮਹੂਰੀ ਲੀਹਾਂ ਉੱਪਰ ਚਲਾਇਆ ਜਾਵੇ। ਇਹ ਆਰਥਕ ਮੁਥਾਜੀ ਘਟਾਉਂਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ, ਇਹ ਬਦੇਸ਼ੀ ਪੂੰਜੀ ਦੀ ਜਕੜ ਨੂੰ ਕਮਜ਼ੋਰ ਕਰਨ ਤੇ ਖਤਮ ਕਰਨ ਅਤੇ ਭਾਰਤੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਦੇ ਵਾਧੇ ਨੂੰ ਸੀਮਤ ਕਰਨ ਤੇ ਨੱਥ ਪਾਉਣ ਦਾ ਸਾਧਨ ਹੋ ਸਕਦਾ ਸੀ। ਪ੍ਰੰਤੂ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਹੇਠਲੀ ਸਰਕਾਰ ਵੱਲੋਂ ਹੁਣ ਤੱਕ ਚਲਾਈਆਂ ਗਈਆਂ ਲੋਕ ਵਿਰੋਧੀ ਆਰਥਕ ਨੀਤੀਆਂ ਕਾਰਨ ਅਜਿਹੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਉਮੀਦਾਂ ਉੱਪਰ ਪਾਣੀ ਫਿਰ ਗਿਆ ਹੈ। ਧਨੀ ਵਰਗ ਕੋਲ ਦੌਲਤ ਦਾ ਇਕੱਠਿਆਂ ਹੁੰਦੇ ਜਾਣਾ ਅਤੇ ਭਾਰਤੀ ਅਜ਼ਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਵਿਚ ਤਿੱਖਾ ਵਾਧਾ ਹੋਣਾ, ਇਸ ਸਮੇਂ ਦਾ ਉਭਰਵਾਂ ਵਰਤਾਰਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਰਾਜਕੀ ਅਤੇ ਪ੍ਰਾਈਵੇਟ ਦੋਹਾਂ ਖੇਤਰਾਂ ਵਿਚ, ਭਾਰੀ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਵਿੱਤੀ ਪੂੰਜੀ ਦੀ ਘੁਸਪੈਠ ਨਿਰੰਤਰ ਜਾਰੀ ਰਹੀ ਹੈ। ਯੋਜਨਾਵਾਂ ਲਈ ਪੂੰਜੀ ਜੁਟਾਉਣ ਦੇ ਨਾਂਅ ਹੇਠ ਆਮ ਲੋਕਾਂ, ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ, ਕਿਸਾਨਾਂ ਅਤੇ ਦਰਮਿਆਨੀਆਂ ਜਮਾਤਾਂ ਦੀ ਬੇਰਹਿਮੀ ਨਾਲ ਲੁੱਟ ਚੋਂਘ ਕੀਤੀ ਗਈ ਹੈ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਉੱਪਰ ਜ਼ੁਲਮ ਢਾਹੇ ਗਏ ਹਨ। ਭਾਵੇਂਕਿ ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਨੇ ਰਾਜਕੀ ਸੈਕਟਰ ਨੂੰ ਭਾਰਤ ਅੰਦਰ ਸਮਾਜਵਾਦ ਉਸਾਰਨ ਲਈ ਆਪਣੇ ਇਰਾਦਿਆਂ ਦੇ ਸਬੂਤ ਵਜੋਂ ਬੜਾ ਵਧਾ ਚੜ੍ਹਾ ਕੇ ਪੇਸ਼ ਕੀਤਾ ਪ੍ਰੰਤੂ ਅਸਲ ਵਿਚ ਇਹ ਉੇਦੋਂ ਇੱਥੇ ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਉਸਾਰਨ ਲਈ ਇਕ ਮਹੱਤਵਪੂਰਨ ਹਥਿਆਰ ਵਜੋਂ ਬੇਹੱਦ ਲੋੜੀਂਦਾ ਸੀ। ਐਪਰ ਹੁਣ, ਜਦੋਂ ਤੋਂ ਢਾਂਚਾਗਤ ਸੁਧਾਰਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ ਅਪਣਾਇਆ ਗਿਆ ਅਤੇ ਸਾਮਰਾਜੀ ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ ਅਤੇ ਨਵ-ਉਦਾਰੀਕਰਨ ਦੇ ਤਕਾਜ਼ਿਆਂ ਅਧੀਨ ਨਵੀਆਂ ਆਰਥਕ ਨੀਤੀਆਂ ਨੂੰ ਲਾਗੂ ਕਰਨਾ ਆਰੰਭਿਆ ਗਿਆ, ਰਾਜਕੀ ਖੇਤਰ ਨੂੰ ਖਿੰਡਾਉਣ ਅਤੇ ਉਸ ਦਾ ਨਿੱਜੀਕਰਨ ਕਰਨ ਦੀ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤੀ ਗਈ ਹੈ, ਜਿਹੜੀ ਕਿ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਆਰਥਕ ਸਵੈ-ਨਿਰਭਰਤਾ ਨੂੰ, ਜਿੰਨੀ ਕੁ ਵੀ ਉਹ ਅੱਜ ਹੈ, ਲਾਜ਼ਮੀ ਤੌਰ 'ਤੇ ਖਤਮ ਕਰ ਦੇਵੇਗੀ।
    21. ਸਰਕਾਰ ਵਲੋਂ ਅਪਣਾਈਆਂ ਗਈਆਂ ਇਹਨਾਂ ਸਾਰੀਆਂ ਨੀਤੀਆਂ ਦੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਅਤੇ ਇਸ ਤੱਥ ਕਾਰਨ ਕਿ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ ਹੱਥ ਰਾਜ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਹੈ, ਸਾਡੇ ਰਾਜਕੀ ਸੈਕਟਰ ਵਿਚ ਵੱਡੇ ਪੂੰਜੀਪਤੀਆਂ ਦਾ ਪ੍ਰਭਾਵ ਨਿਰੰਤਰ ਵਧਿਆ ਹੈ ਅਤੇ, ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਹੋਰ ਸਹਾਰਾ ਦੇਣ ਵਿਚ ਇਸਦੀ ਜ਼ਿਆਦਾ ਤੋਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਵਰਤੋਂ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ। ਵਿਤੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਦੁਆਰਾ ਕਰਜ਼ੇ ਦੀਆਂ ਸਹੂਲਤਾਂ ਦਾ ਵੱਡਾ ਭਾਗ ਵੀ ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਹੋਰ ਵਧੇਰੇ ਉਸਾਰਨ ਦੇ ਕੰਮ ਆਇਆ ਹੈ। ਯੋਜਨਾ ਅਧੀਨ ਜਾਂ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਦੂਸਰੇ ਸਭ ਮੁੱਖੀ ਠੇਕੇ ਵੱਡੇ ਸਰਮਾਏਦਾਰਾਂ ਨੂੰ ਗਏ ਹਨ ਤੇ ਫਿਰ ਵੱਡੇ ਕਾਰੋਬਾਰ ਹੀ ਕਈ ਰਾਜਕੀ ਕਾਰੋਬਾਰਾਂ ਦੇ ਉਤਪਾਦਨ ਦੀ ਵੰਡ ਨੂੰ ਕੰਟਰੋਲ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਰਾਜਕੀ ਸਰਮਾਏਦਾਰੀ ਅਤੇ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਵਿਚਕਾਰ ਵੱਧਦੇ ਸਬੰਧਾਂ ਤੋਂ ਇਲਾਵਾ ਸਰਕਾਰ ਨੇ, ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ ਅਤੇ ਨਵ-ਉਦਾਰਵਾਦ ਦੀ ਹੋੜ ਅਧੀਨ, ਬਦੇਸ਼ੀ ਵਿੱਤੀ ਪੂੰਜੀ ਅਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰਾਂ ਸਮੇਤ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਨੂੰ ਸਰਕਾਰੀ ਮਾਲਕੀ ਦੇ ਕਾਰੋਬਾਰਾਂ ਵਿਚ ਪੈਸਾ ਲਾਉਣ ਲਈ ਸੱਦਾ ਦਿੱਤਾ ਹੈ। ਇਹ ਗੱਲ ਪਬਲਿਕ ਸੈਕਟਰ ਦੇ ਵਿਕਾਸ ਨੂੰ ਹੋਰ ਵਿਗਾੜਦੀ ਹੈ। ਇਸ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ, ਸਰਕਾਰੀ ਮਾਲਕੀ ਵਾਲੇ ਅਦਾਰੇ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹਾਂ ਦੇ ਕੰਟਰੋਲ ਹੇਠ ਹਨ ਜੋ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੇ ਵਿਰੋਧੀ ਤੇ ਗੈਰ-ਜਮਹੂਰੀ ਰੁਚੀਆਂ ਵਾਲੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਜੇ ਪਬਲਿਕ ਸੈਕਟਰ ਵਿਚ ਵੱਡੇ ਸਰਮਾਏਦਾਰਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਭਾਵ ਅਤੇ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹਾਂ ਦਾ ਕੰਟਰੋਲ ਵਧਦਾ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਰਾਜਕੀ ਸਰਮਾਏਦਾਰੀ ਆਪਣਾ ਅਗੇ ਵਧੂ ਕਿਰਦਾਰ ਗੁਆ ਲੈਂਦੀ ਹੈ ਤੇ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦਾ ਹਥਿਆਰ ਬਣ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਇਹ ਦੋਵੇਂ ਹਾਨੀਕਾਰਕ ਰੁਝਾਨ, ਸਾਡੀਆਂ ਰਾਜਕੀ ਮਾਲਕੀ ਵਾਲੀਆਂ ਸਨਅੱਤਾਂ 'ਤੇ ਭਾਰੂ ਰਹੇ ਅਤੇ ਇਹਨਾਂ ਨੇ ਸਾਡੀਆਂ ਕਈ ਇਕਾਈਆਂ ਨੂੰ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਅਜ਼ਾਰੇਦਾਰੀਆਂ/ਬਹੁਕੌਮੀ ਕੰਪਨੀਆਂ ਦੇ ਅਦਾਰਿਆਂ ਦੇ ਟਾਕਰੇ ਵਿਚ ਨਕਾਰਾ ਬਣਾ ਦਿੱਤਾ ਹੈ।
    22. ਹਾਕਮਾਂ ਵਲੋਂ ਪ੍ਰਵਾਨ ਕੀਤੇ ਗਏ ਸਨਅਤੀ ਨੀਤੀ ਸੰਬੰਧੀ ਮਤੇ ਦੇ ਉਲਟ, ਭਾਰੀ ਅਤੇ ਬੁਨਿਆਦੀ ਸਨਅੱਤਾਂ, ਜਿਹੜੀਆਂ ਕਿ ਸਮੁੱਚੇ ਤੌਰ 'ਤੇ ਜਨਤਕ ਖੇਤਰ ਲਈ ਰਾਖਵੀਆਂ ਕੀਤੀਆਂ ਗਈਆਂ ਸਨ, ਨੂੰ ਬਾਅਦ ਵਿਚ ਨਿੱਜੀ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਲਾਉਣ ਦੀ ਆਗਿਆ ਦੇ ਦਿੱਤੀ ਗਈ। ਸ਼ੁਰੂਆਤ ਵਜੋਂ ਪ੍ਰਾਈਵੇਟ ਸੈਕਟਰ ਵਿਚ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਮੌਜੂਦ ਅਜਿਹੀਆਂ ਸਨਅੱਤਾਂ, ਜਿਵੇਂ ਟਾਟਾ ਆਇਰਨ ਐਂਡ ਸਟੀਲ ਆਦਿ ਨੂੰ ਭਾਰੀ ਵਿਤੀ ਤੇ  ਰਾਜ ਵੱਲੋਂ ਦਿੱਤੀ ਗਈ ਦੂਸਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਦੁਆਰਾ ਆਪਣੀ ਸਮਰੱਥਾ ਵਧਾਉਣ ਦੀ ਆਗਿਆ ਦਿੱਤੀ ਗਈ। ਪ੍ਰੰਤੂ ਬਾਅਦ ਵਿਚ, ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਪੂੰਜੀ ਵਿਚ ਹੋਏ ਤੇਜ਼ ਵਾਧੇ ਅਤੇ ਪਸਾਰ ਨਾਲ ਅਤੇ ਇਸ ਦੀਆਂ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰਾਂ ਨਾਲ ਵੱਧਦੀਆਂ ਗਈਆਂ ਤਿੱਖੀਆਂ ਸਾਂਝਾ ਕਾਰਨ, ਭਾਰਤੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਹੁਣ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਭਾਈਵਾਲਾਂ ਨਾਲ ਮਿਲਕੇ ਸਾਰੇ ਕੁੰਜੀਵੱਤ ਉਦਯੋਗਾਂ ਨੂੰ ਚਲਾਉਣ ਲਈ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸਮਰੱਥ ਸਮਝਦੇ ਹਨ। ਨਾਲ ਹੀ, ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਭਾਰੀਆਂ ਅਤੇ ਸੁਰੱਖਿਆ ਪੱਖੋਂ ਸੰਵੇਦਨਸ਼ੀਲ ਸਨਅੱਤਾਂ ਦੇ ਨਵੇਂ ਪਲਾਂਟ ਉਸਾਰਨ ਬਾਰੇ ਸਨਅਤੀ ਨੀਤੀ ਸੰਬੰਧੀ ਮਤੇ ਵਿਚ ਦਰਜ ਸਾਰੀਆਂ ਪਾਬੰਦੀਆਂ ਇਕ ਇਕ ਕਰਕੇ ਨਰਮ ਕਰ ਦਿੱਤੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਹਰ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਨਿੱਜੀ ਪੂੰਜੀਪਤੀਆਂ ਨੂੰ ਲਾਇਸੈਂਸ ਖੁੱਲ੍ਹੇਆਮ ਅਤੇ ਬੜੀ ਆਸਾਨੀ ਨਾਲ ਜਾਰੀ ਕੀਤੇ ਜਾ ਰਹੇ ਹਨ।  
    23. ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਨਾ ਸਿਰਫ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਘੁਸੇ ਹੋਏ ਬਰਤਾਨਵੀ, ਅਮਰੀਕਣ ਅਤੇ ਦੂਸਰੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਵਿਤੀ ਸਰਮਾਏ ਦੀ ਲੁੱਟ ਖਸੁੱਟ ਨੂੰ ਖਤਮ ਕਰਨ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰ ਕੀਤਾ, ਬਲਕਿ ਇਸ ਨੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਸਰਮਾਏ ਦੇ ਭਾਰੀ ਨਵੇਂ ਦਾਖਲੇ ਲਈ ਵੀ ਖੁੱਲ੍ਹੀਆਂ ਰਿਆਇਤਾਂ, ਗਰੰਟੀਆਂ ਤੇ ਨਵੀਆਂ ਸੰਭਾਵਨਾਵਾਂ ਪੇਸ਼ ਕੀਤੀਆਂ। ਅਖੌਤੀ ਸਵੈਚਾਲਕ ਅਰਥਚਾਰਾ ਉਸਾਰਨ ਅਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਸਿੱਕੇ ਦੀ ਥੁੜੋਂ, ਜੋ ਇਹਨਾਂ ਨੀਤੀਆਂ ਦੀ ਹੀ ਪੈਦਾਵਾਰ ਸੀ, ਉਪਰ ਕਾਬੂ ਪਾਉਣ ਦੇ ਨਾਂਅ ਉੱਤੇ ਭਾਰਤੀ ਹਾਕਮ ਬਰਤਾਨੀਆਂ, ਅਮਰੀਕਾ, ਪੱਛਮੀ ਜਰਮਨੀ, ਇਟਲੀ, ਜਪਾਨ ਅਤੇ ਹੋਰ ਵਿਕਸਤ ਦੇਸ਼ਾਂ ਤੇ ਦੂਸਰੇ ਪੱਛਮੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੀਆਂ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਨੂੰ ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਆਉਣ, ਆਪਣਾ ਸਰਮਾਇਆ ਲਾਉਣ ਅਤੇ ਗਰੰਟੀ-ਸ਼ੁਦਾ ਵੱਡੇ ਮੁਨਾਫੇ ਕਮਾਉਣ ਦਾ ਸੱਦਾ ਦੇ ਰਹੇ ਹਨ। ਕੁੰਜੀਵਤ ਸੈਕਟਰਾਂ ਵਿਚ ਅਮਰੀਕਣ ਸਰਮਾਏ ਦਾ ਤਿੱਖੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਵਾਧਾ, ਸਾਡੇ ਆਰਥਕ ਜੀਵਨ ਤੇ ਉਸਦੇ ਫਲਸਰੂਪ ਰਾਜਸੀ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਵੀ ਅਮਰੀਕਨ ਮੁਦਾਖਲਤ ਦੇ ਵਧ ਰਹੇ ਖਤਰੇ ਨੂੰ ਸਾਹਮਣੇ ਲਿਆਉਂਦਾ ਹੈ।
    24. ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ, ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਸਨਅਤੀਕਰਨ, ਜੋ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆ ਲੀਡਰਸ਼ਿਪ ਨੇ ਆਪਣੀਆਂ ਪੰਜ-ਵਰਸ਼ੀ ਯੋਜਨਾਵਾਂ ਰਾਹੀਂ ਅਰੰਭਿਆ ਸੀ, ਅਤੇ ਰਾਜਕੀ ਸੈਕਟਰ ਦੀ ਉਸਾਰੀ ਨੇ ਵੱਡੇ ਭਾਰਤੀ ਕਾਰੋਬਾਰਾਂ ਦੀ ਉਤਪਤੀ ਲਈ ਰਾਹ ਸਾਫ ਕੀਤਾ ਅਤੇ ਇਸ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ ਭਾਰਤ ਦੀ ਸਸਤੀ ਮਿਹਨਤ ਅਤੇ ਦੂਸਰੇ ਕੁਦਰਤੀ ਵਸੀਲਿਆਂ ਦੀ ਨਿਰੰਤਰ ਲੁੱਟ-ਖਸੁੱਟ ਰਾਹੀਂ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜ਼ਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਦੀ ਲੁੱਟ ਵਧੀ। ਹਰ ਸਾਲ ਅਰਬਾਂ ਰੁਪਏ ਮੁਨਾਫਿਆਂ, ਲਾਭ ਅੰਸ਼ਾਂ, ਸੂਦ, ਤਨਖਾਹਾਂ ਤੇ ਅਲਾਊਂਸਾਂ, ਕਮਿਸ਼ਨਾਂ, ਬੀਮੇ ਤੇ ਭਾੜੇ ਅਤੇ ਕਈ  ਹੋਰ ਪ੍ਰਤੱਖ ਤੇ ਅਪ੍ਰਤੱਖ ਖਾਤਿਆਂ ਦੁਆਰਾ ਦੇਸ਼ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਕੱਢ ਦਿੱਤੇ ਗਏ ਹਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੋਟੂਆਂ ਦਾ ਸਾਡੇ ਕੌਮੀ-ਹਿੱਤਾਂ ਨਾਲ ਕੋਈ ਸਰੋਕਾਰ ਨਹੀਂ। ਸਾਡੇ ਵਸੀਲਿਆਂ ਦੀ ਬੇਤਰਸ ਲੁੱਟ-ਖਸੁੱਟ ਹੀ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਇਕੋ ਇਕ ਦਿਲਚਸਪੀ ਹੈ। ਉਹ ਭਾਰਤੀ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ  ਅਤੇ ਸਾਡੇ ਕੌਮੀ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਦੂਸਰੀਆਂ ਪਿਛੇ ਖਿੱਚੂ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੇ ਵਾਧੇ ਵਿਚ ਸਹਾਇਤਾ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਖੁੱਲ੍ਹੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਤੇ ਲੁਕਵੇਂ ਢੰਗ ਰਾਹੀਂ ਵੀ ਸਾਡੇ ਅਰਥਚਾਰੇ ਨੂੂੰ ਕਮਜ਼ੋਰ ਕਰਨ ਅਤੇ ਇਸ ਦੀ ਤਰੱਕੀ ਦੀ ਰਫਤਾਰ ਨੂੰ ਘਟਾਉਣ ਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਵਿਗਾੜਨ ਦਾ ਯਤਨ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਕੌਮ-ਵਿਰੋਧੀ ਛੜਯੰਤਰਾਂ ਤੇ ਸਾਜ਼ਸ਼ਾਂ ਦੇ ਖਤਰਨਾਕ ਸਰੋਤ, ਇਸ ਸਾਮਰਾਜੀ ਬਦੇਸ਼ੀ ਸਰਮਾਏ ਦਾ ਰੋਲ ਬੁਨਿਆਦੀ ਤੌਰ 'ਤੇ ਸਾਡੇ ਕੌਮੀ ਹਿੱਤਾਂ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਹੈ।
    25. ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ, ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਕਿਸਾਨ ਪੱਖੀ ਤਿੱਖੇ ਜ਼ਮੀਨੀ ਸੁਧਾਰਾਂ ਰਾਹੀਂ ਸਾਡੀ ਖੇਤੀ ਨੂੰ ਪੁਨਰ ਸੰਗਠਤ ਕਰਨ ਅਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਤੇ ਭਾਰਤੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰਾਂ, ਜਿਹੜੇ ਕਿ ਦੇਸ਼ 'ਚੋਂ ਭਾਰੀ ਕਮਾਈ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ, ਕੋਲੋਂ ਹਾਸਲ ਕਰਨਯੋਗ ਵਿੱਤੀ ਵਸੀਲਿਆਂ ਨੂੰ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਵਰਤੋਂ ਵਿਚ ਲਿਆਉਣ ਦੀ ਥਾਂ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਨਾਂਅ ਉੱਤੇ ਅਤੇ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਏਕਤਾ-ਅਖੰਡਤਾ ਦੀ ਰਾਖੀ ਦੇ ਨਾਂਅ 'ਤੇ ਲੋਕਾਂ ਉੱਪਰ ਲੱਕ-ਤੋੜ ਭਾਰ ਪਾਇਆ ਹੈ। ਇਸ ਤੱਥ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਕਿ ਭਾਰਤੀ ਪੂੰਜੀ ਵਿਚ ਮਾਤਰਾ, ਕੁੱਲ ਘਰੇਲੂ ਉਤਪਾਦ ਅਤੇ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਵਪਾਰ ਦੇ ਪੱਖੋਂ ਅਤੇ ਸੂਚਨਾ ਤਕਨਾਲੋਜ਼ੀ ਦੇ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਉਤਪਾਦਨ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੇ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਪੱਖੋਂ ਪ੍ਰਭਾਵਸ਼ਾਲੀ ਵਾਧਾ ਹੋਇਆ ਹੈ, ਅੱਜ ਵੀ ਸਾਡੇ ਅਰਥਚਾਰੇ ਦਾ ਇਹ ਇਕ ਉਘੜਵਾਂ ਪਹਿਲੂ ਹੈ ਕਿ ਕੁੱਲ ਮਿਲਾ ਕੇ ਇਹ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਏਜੰਸੀਆਂ ਤੋਂ ਮਿਲਣ ਵਾਲੀ ਸਹਾਇਤਾ ਦਾ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਮੁਥਾਜ ਹੁੰਦਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਬਹੁਕੌਮੀ ਕਾਰਪੋਰੇਸ਼ਨਾਂ ਆਦਿ ਦੇ ਲੁਟੇਰੇ ਹਿੱਤਾਂ ਦੀ ਸੇਵਾ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈ।
    26. 1991 ਤੋਂ ਢਾਂਚਾਗੱਤ ਤਬਦੀਲੀਆਂ ਅਤੇ ਅਖੌਤੀ ਆਰਥਕ ਸੁਧਾਰਾਂ ਨੂੰ ਲਾਗੂ ਕਰਦਿਆਂ, ਇਹ ਮੁਥਾਜੀ ਸਾਡੇ ਅਰਥਚਾਰੇ ਦੇ ਲਗਭਗ ਸਾਰੇ ਹੀ ਖੇਤਰਾਂ ਵਿਚ ਇਸ ਹੱਦ ਤੱਕ ਵੱਧ ਗਈ ਹੈ ਕਿ ਯੋਜਨਾਬੰਦੀ ਲਗਭਗ ਇਕ ਮਖੌਲ ਬਣ ਕੇ ਰਹਿ ਗਈ ਹੈ। ਭਾਰਤੀ ਅਰਥਚਾਰੇ ਦੇ ਲਗਭਗ ਸਾਰੇ ਹੀ ਖੇਤਰ ਬਦੇਸ਼ੀ ਪੂੰਜੀ ਦੇ ਸਿੱਧੇ ਨਿਵੇਸ਼ ਲਈ ਅਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਵਿੱਤੀ ਬਘਿਆੜਾਂ ਦੀ ਮੁਨਾਫੇਖੋਰ ਖੁੱਲ੍ਹ ਖੇਡ ਲਈ ਖੋਲ ਦਿੱਤੇ ਗਏ ਹਨ। ਬਦੇਸ਼ੀ ਵਿੱਤੀ ਪੂੰਜੀ ਨੂੰ ਰਾਜ ਵੱਲੋਂ ਇਕ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਇਕ ਸਹੂਲਤ ਪ੍ਰਦਾਨ ਕੀਤੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ ਅਤੇ ਭਾਰਤੀ ਤੇ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਪੂੰਜੀਪਤੀਆਂ ਵਿਚਕਾਰ ਸਾਂਝ ਭਿਆਲੀ ਦੇ ਅਨੇਕਾਂ ਸਮਝੌਤਿਆਂ 'ਤੇ ਦਸਤਖ਼ਤ ਕੀਤੇ ਜਾ ਰਹੇ ਹਨ।
    27. ਬਦੇਸ਼ੀ ਪੂੰਜੀ ਦੇ ਸਿੱਧੇ ਨਿਵੇਸ਼ ਰਾਹੀਂ ਅਤੇ ਸਾਂਝ ਭਿਆਲੀਆਂ ਰਾਹੀਂ ਸਾਡੇ ਅਰਥਚਾਰੇ ਅੰਦਰ ਲਗਾਤਾਰ ਵੱਧਦੀ ਜਾ ਰਹੀ ਇਹ ਘੁਸਪੈਠ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਭਵਿੱਖ ਲਈ ਅਤੇ ਅੰਦਰੂਨੀ ਤੇ ਬਾਹਰੀ ਤੌਰ 'ਤੇ ਆਜ਼ਾਦਾਨਾ ਰਾਜਸੀ-ਆਰਥਕ ਨੀਤੀਆਂ ਅਪਣਾਉਣ ਦੀ ਸਾਡੀ ਸਮਰੱਥਾ ਲਈ ਗੰਭੀਰ ਖ਼ਤਰੇ ਪੈਦਾ ਕਰ ਰਹੀ ਹੈ। ਇਹ ਇਕ ਅਜਿਹੀ ਭਿਆਨਕ ਅਵਸਥਾ ਹੈ ਜਿਹੜੀ ਕਿ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਅੱਤ ਦੇ ਸੱਜਪਛਾਖੜ ਨੂੰ ਜਨਮ ਦਿੰਦੀ ਹੈ, ਜਿਹੜਾ ਕਿ ਨਾ ਸਿਰਫ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਪੂੰਜੀ ਦੀ ਘੁਸਪੈਠ ਦਾ ਸਮੱਰਥਨ ਕਰਦਾ ਹੈ ਸਗੋਂ ਅਮਰੀਕੀ ਸਾਮਰਾਜ ਨਾਲ ਫੌਜੀ ਅਤੇ ਯੁੱਧਨੀਤਕ ਸੰਧੀਆਂ ਦੀ ਅਤੇ ਆਰਥਕ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਰਾਸ਼ਟਰੀ ਹਿੱਤਾਂ ਦੀ ਮੁਕੰਮਲ ਅਧੀਨਗੀ ਦੀ ਖੁੱਲ੍ਹੀ ਵਕਾਲਤ ਕਰਦਾ ਹੈ।
    28. ਸੋਵੀਅਤ ਯੂਨੀਅਨ ਅੰਦਰ ਸਮਾਜਵਾਦ ਨੂੰ ਵੱਜੀਆਂ ਪਛਾੜਾਂ ਕਾਰਨ ਅਤੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਬਲਾਕ ਦੇ ਖਿੰਡ ਜਾਣ ਉਪਰੰਤ ਸਾਮਰਾਜੀ ਸੰਸਾਰ ਦਾ ਸੱਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਅਮੀਰ ਅਤੇ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਦੇਸ਼, ਅਮਰੀਕਾ, ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡਾ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਲੁਟੇਰਾ ਬਣ ਗਿਆ ਹੈ ਅਤੇ ਏਸ਼ੀਆ, ਅਫਰੀਕਾ ਅਤੇ ਲਾਤੀਨੀ ਅਮਰੀਕਾ ਦੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੀ ਦੌਲਤ ਦੇ ਭੰਡਾਰਾਂ ਨੂੰ ਨਚੋੜਦਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਅਮਰੀਕੀ ਸਾਮਰਾਜ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਪੱਛੜੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਅਧੀਨ ਲਿਆਉਣ ਲਈ ਯਤਨਸ਼ੀਲ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਮੰਤਵ ਲਈ ਮੁੱਖ ਤੌਰ ਤੇ ਫੌਜੀ ਸਮਝੌਤਿਆਂ ਅਤੇ  ਆਰਥਕ ਦਾਬਿਆਂ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਉਹ ਆਰਥਕ ਨਾਕਾਬੰਦੀਆਂ ਆਦਿ ਰਾਹੀਂ ਇਹਨਾਂ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੀਆਂ ਸਰਕਾਰਾਂ ਦੀ ਬਾਂਹ ਮਰੋੜਦਾ ਹੈ, ਆਰਥਕ ਲੁੱਟ-ਚੋਂਘ ਤੇ ਰਾਜਨੀਤਕ ਕੰਟਰੋਲ ਵਧਾਉਣ ਲਈ ਇਹਨਾਂ ਦੇਸ਼ਾਂ ਉੱਪਰ ਹਰ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੇ ਦਬਾਅ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਨਵ-ਬਸਤੀਵਾਦ ਦੇ ਪਸਾਰੇ ਦਾ ਮੁੱਖ ਥੰਮ ਬਣ ਗਿਆ ਹੈ। ਉਹ ਇਹਨਾਂ ਦੇਸ਼ਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਸਿੱਧੇ ਗਲਬੇ ਅਤੇ ਕੰਟਰੋਲ ਅਧੀਨ ਕਰਨ ਲਈ ਵੀ ਯਤਨਸ਼ੀਲ ਹੈ। ਪਿਛਲੇ ਵਰ੍ਹਿਆਂ ਦੀਆਂ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਘਟਨਾਵਾਂ ਨੇ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਤੌਰ 'ਤੇ ਅਫਗਾਨਿਸਤਾਨ ਉੱਪਰ ਅਮਰੀਕੀ ਹਮਲੇ ਨੇ ਅਤੇ ਇਰਾਕ ਉੱਪਰ ਐਂਗਲੋ-ਅਮਰੀਕੀ ਹਮਲੇ ਨੇ ਇਸ ਗੱਲ ਦੇ ਪ੍ਰਤੱਖ ਸਬੂਤ ਦੇ ਦਿੱਤੇ ਹਨ ਕਿ ਅਮਰੀਕਣ ਸਾਮਰਾਜ ਸੰਸਾਰ-ਪਿਛਾਖੜ ਦਾ ਮੁੱਖ ਥੰਮ ਤੇ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਲੁਟੇਰਾ ਹੈ ਅਤੇ ਇਹ ਸਾਰੇ ਸੰਸਾਰ ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਮੁੱਖ ਦੁਸ਼ਮਣ ਬਣ ਚੁੱਕਾ ਹੈ।
    ਇਹਨਾਂ ਹਾਲਤਾਂ ਵਿਚ ਭਾਰਤ ਅੰਦਰ ਅਮਰੀਕਨ ਸਰਮਾਏ ਦਾ ਦਾਖਲਾ ਅਤੇ ਉਸ ਨਾਲ ਸਾਡੀਆਂ ਵੱਧ ਰਹੀਆਂ ਸਾਂਝਾਂ, ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਲਈ ਵੀ ਖਤਰਨਾਕ ਸਥਿਤੀ ਪੈਦਾ ਕਰ ਰਹੀਆਂ ਹਨ। ਉਹ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਲੁੱਟ ਖਸੁਟ ਕਰਨ ਲਈ ਹੋਰ ਵਧੇਰੇ ਰਿਆਇਤਾਂ ਲੈਣ, ਭਾਰਤੀ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਨਾਲ ਭਿਆਲੀ ਸਥਾਪਤ ਕਰਨ, 'ਵਿਸ਼ਵ ਵਪਾਰ ਸੰਸਥਾ' ਰਾਹੀਂ ਆਪਣੇ ਹੁਕਮ ਚਾੜਨ ਅਤੇ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਉੱਪਰ ਰਾਜਸੀ ਦਬਾਅ ਪਾਉਣ ਲਈ ਯਤਨਸ਼ੀਲ ਹੈ। ਉਹ ਸਮਾਜਕ, ਸਭਿਆਚਾਰਕ ਤੇ ਵਿਦਿਅਕ ਖੇਤਰਾਂ ਸਮੇਤ ਸਾਡੇ ਕੌਮੀ ਜੀਵਨ ਦੇ ਸਭਨਾਂ ਪੱਖਾਂ ਵਿਚ ਘੁਸਪੈਠ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਉਹ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਭਿੰਨ-ਭਿੰਨ ਫਿਰਕਾਪ੍ਰਸਤ ਅਤੇ ਸੱਜਪਿਛਾਖੜੀ ਅਨਸਰਾਂ ਨਾਲ ਸਿੱਧੇ ਸਬੰਧ ਸਥਾਪਤ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਨਿਘਾਰ-ਗ੍ਰਸਤ ਸਾਮਰਾਜੀ ਸਭਿਆਚਾਰ ਦੇ ਪਸਾਰੇ ਤੋਂ ਪ੍ਰਗਟ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਸਾਮਰਾਜੀਏ ਸਾਡੇ ਸਮਾਜਕ ਤੇ ਸਭਿਆਚਾਰਕ ਜੀਵਨ ਨੂੰ ਭ੍ਰਿਸ਼ਟ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ। ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ ਜਿੱਥੇ ਸੰਸਾਰ ਦੀਆਂ ਭਿੰਨ-ਭਿੰਨ ਕੌਮਾਂ ਤੇ ਰਾਜਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਆਧੁਨਿਕ ਵਿਗਿਆਨ, ਕਲਾ, ਸਾਹਿਤ ਤੇ ਸਭਿਆਚਾਰ ਦੇ ਵਟਾਂਦਰੇ ਤੇ ਆਜ਼ਾਦ ਵਹਿਣ ਦੇ ਅਸੂਲ ਉਪਰ ਖਲੋਤੀ ਹੈ, ਉੱਥੇ ਇਹ ਨਿਘਾਰ-ਗ੍ਰਸਤ ਸਾਮਰਾਜੀ ਸਭਿਆਚਾਰ ਦੀ ਦਰਾਮਦ ਦੇ ਡੱਟਕੇ ਵਿਰੁੱਧ ਹੈ। ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਨਿਘਾਰ-ਗ੍ਰਸਤ ਪੱਛਮੀ ਸਾਮਰਾਜੀ ਵਿਦਿਆ ਤੇ ਸਭਿਆਚਾਰ ਵਿਰੁੱਧ ਸਾਡੀ ਕੌਮੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦੀ ਲਹਿਰ ਦੁਆਰਾ ਚੁੱਕੇ ਗਏ ਬਗਾਵਤ ਦੇ ਝੰਡੇ ਨੂੰ ਅਗਾਂਹ ਖੜਨ ਦੀ ਥਾਂ ਸਗੋਂ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਸਾਧਨਾਂ ਦੁਆਰਾ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਪਿੱਛੇ ਖਿੱਚੂ ਪੱਛਮੀ ਸਾਹਿਤ, ਕਲਾ ਤੇ ਫਿਲਮਾਂ ਦੇ ਦਾਖਲੇ ਤੇ ਪ੍ਰਸਾਰਨ ਨੂੰ ਉਤਸ਼ਾਹਤ ਕਰਦੀ ਆਈ ਹੈ। ਸਭਿਆਚਾਰਕ ਵਟਾਂਦਰਿਆਂ ਦੀਆਂ ਅਖੌਤੀ ਸਕੀਮਾਂ, ਵਾਸਤਵ ਵਿਚ ਪੱਛਮੀ ਤੇ ਖਾਸਕਰ ਅਮਰੀਕਨ ਸਭਿਆਚਾਰ ਨਾਲ ਨਿਯਮਬੱਧ ਰੂਪ ਵਿਚ ਸਬੰਧ ਸਥਾਪਤ ਕਰਨ ਲਈ ਵਰਤੀਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ। ਪੱਛਮ ਦਾ ਇਹ ਸਭਿਆਚਾਰ ਸਾਡੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਨਵੀਂ ਪੀੜ੍ਹੀ ਦੀ ਵਿਚਾਰਧਾਰਕ, ਸਮਾਜਕ ਤੇ ਸਭਿਆਚਾਰਕ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਉਪਰ ਬੁਰਾ ਅਸਰ ਪਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਇਸ ਨੇ ਸਾਡੇ ਸਮਾਜਕ, ਆਰਥਕ ਤੇ ਰਾਜਸੀ ਜੀਵਨ ਲਈ ਖ਼ਤਰੇ ਪੈਦਾ ਕਰ ਦਿੱਤੇ ਹਨ।
    29. ਕਿਉਂਕਿ ਸਾਡੀਆਂ ਪੰਜ-ਸਾਲਾ ਯੋਜਨਾਵਾਂ ਨਿੱਜੀ ਮੁਨਾਫੇ ਦੇ ਉਦੇਸ਼ ਨਾਲ ਦੇਸੀ ਅਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰਾਂ ਉੱਪਰ ਨਿਰਭਰ ਹਨ, ਇਸ ਲਈ ਇਹ ਸਾਡੇ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਦੇਸ਼ ਭਗਤਕ ਉਤਸ਼ਾਹ ਜਗਾਉਣ ਵਿਚ ਅਸਫਲ ਰਹੀਆਂ ਹਨ। ਜਿਸਦੇ ਫਲਸਰੂਪ ਸਾਡੇ ਲੋਕਾਂ ਅੰਦਰ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਅਮੀਰ ਬਨਣ ਦੀ ਇੱਛਾ ਘਰ ਕਰ ਗਈ ਹੈ। ਸਾਮਰਾਜੀ ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ ਅਤੇ ਉਪਭੋਗਤਾਵਾਦ ਨੇ ਇਸ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਨੂੰ ਹੋਰ ਭੜਕਾਇਆ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸਮਾਜਕ ਤਣਾਅ ਅਤੇ ਜ਼ੁਰਮਾਂ ਦੇ ਉਭਰਣ ਵਿਚ ਹਿੱਸਾ ਪਾਇਆ ਹੈ। ਚੋਰ ਬਾਜ਼ਾਰੀ, ਟੈਕਸਾਂ ਦੀ ਚੋਰੀ ਅਤੇ ਹੋਰ ਆਰਥਕ ਤੇ ਵਿੱਤੀ ਜ਼ੁਰਮਾਂ ਰਾਹੀਂ ਵੱਡੇ ਸਰਮਾਏਦਾਰਾਂ ਵੱਲੋਂ ਅਰਬਾਂ ਰੁਪਏ ਕਮਾਏ ਗਏ ਹਨ ਤੇ ਕਮਾਏ ਜਾ ਰਹੇ ਹਨ। ਇਹ ਮੁਨਾਫੇ ਮੁੜਕੇ ਸਿਰਜਣਾਤਮਕ ਕਿਰਿਆ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਲੱਗਦੇ, ਸਗੋਂ ਸੱਟੇਬਾਜ਼ੀ, ਸ਼ਹਿਰੀ ਜਮੀਨਾਂ ਅਤੇ ਜਾਇਦਾਦਾਂ ਦੀ ਖਰੀਦੋ ਫਿਰੋਖਤ ਅਤੇ  ਵਪਾਰ ਵਿਚ ਲੱਗਦੇ ਹਨ। ਮੁੱਠੀ ਭਰ ਹੱਥਾਂ ਵਿਚ ਇਕੱਠਾ ਹੋ ਰਿਹਾ ਇਹ ਲੁਕਵਾਂਂ ਸਰਮਾਇਆ, ਜਿਸ ਨੂੰ ਆਮ ਤੌਰ 'ਤੇ ਕਾਲਾ ਧਨ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਮੁੱਠੀ ਭਰ ਅਜਾਰੇਦਾਰਾਂ, ਨੌਕਰਸ਼ਾਹਾਂ, ਬੁਰਜੁਆ ਰਾਜਨੀਤੀਵਾਨਾਂ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਲੱਠਮਾਰਾਂ ਦੇ ਹੱਥ ਵਿਚ ਹੈ ਅਤੇ ਇਹ ਵਿਆਪਕ ਰੂਪ ਵਿਚ ਫੈਲੇ ਹੋਏ ਭ੍ਰਿਸ਼ਟਾਚਾਰ, ਰਾਜਨੀਤੀ ਦੇ ਅਪਰਾਧੀਕਰਨ ਤੇ ਭਾਈ ਭਤੀਜਾਵਾਦ ਦਾ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡਾ ਸਰੋਤ ਹੈ ਜਿਸ ਨੂੰ ਖਤਮ ਕਰਨ ਦੇ ਸਾਰੇ ਯਤਨ ਅਸਫਲ ਹੋ ਰਹੇ ਹਨ। ਇਹ ਸਮਾਜਕ-ਰਾਜਨੀਤਕ ਰੋਗ ਅੱਜ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਦੇ ਵਿਕਾਸ ਲਈ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡੇ ਖਤਰੇ ਬਣ ਚੁੱਕੇ ਹਨ।
    30. ਬਿਨਾਂ ਕਿਸੇ ਸੰਦੇਹ ਦੇ, ਸਾਡਾ ਪਿਛਲੇ 5 ਦਹਾਕਿਆਂ ਤੋਂ ਵੀ ਵੱਧ ਦਾ ਤਜ਼ਰਬਾ, ਇਹ ਦਰਸਾਉਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਦੇ ਆਮ ਸੰਕਟ ਦੇ ਦੌਰ ਵਿਚ, ਖਾਸਕਰ ਉਸ ਸਮੇਂ ਜਦੋਂ ਕਿ ਇਹ ਸੰਕਟ ਨਵੇਂ ਗੰਭੀਰ ਪੜਾਅ ਵਿਚ ਪੁੱਜ ਚੁੱਕਾ ਹੈ ਅਤੇ ਵਧੇਰੇ ਢਾਹੂ-ਢੱਠਾ (Bullish) ਤੇ  ਹਮਲਾਵਰ ਬਣ ਚੁੱਕਾ ਹੈ, ਘੱਟ ਵਿਕਸਤ ਦੇਸ਼ਾਂ ਲਈ ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਦੇ ਰਾਹ ਉੱਪਰ ਚਲਕੇ ਵਿਕਾਸ ਕਰਨ ਦਾ ਯਤਨ ਨਿਰਾਰਥਕ ਹੈ। ਅਜਿਹੇ ਵਿਕਾਸ ਦੀਆਂ ਸੰਭਾਵਨਾਵਾਂ ਅਤਿਅੰਤ ਸੀਮਤ ਹਨ। ਏਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਵਿਗਿਆਨ ਅਤੇ ਤਕਨਾਲੋਜੀ ਦੇ ਖੇਤਰਾਂ ਵਿਚ, ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਤੌਰ 'ਤੇ ਸੂਚਨਾ ਤਕਨਾਲੋਜੀ, ਬਾਇਓ-ਤਕਨਾਲੋਜੀ ਅਤੇ ਜੀਵ-ਵਿਗਿਆਨ ਦੇ ਖੇਤਰਾਂ ਵਿਚ ਹੋਈ ਲਾਮਿਸਾਲ ਉੱਨਤੀ ਅਤੇ ਉਸਦੇ ਫਲਸਰੂਪ ਵਸਤਾਂ ਤੇ ਸੇਵਾਵਾਂ ਦੇ ਉਤਪਾਦਨ ਦੀ ਮਾਤਰਾ ਵਿਚ ਹੋਇਆ ਭਾਰੀ ਵਾਧਾ ਵੀ ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਦੇ ਇਸ ਸੰਕਟ ਨੂੰ ਹੱਲ ਕਰਨ ਅਤੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਉਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਮੁਸੀਬਤਾਂ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਕਰਨ ਵਿਚ ਬੁਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਅਸਫਲ ਸਿੱਧ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਹੁਣ ਇਹ ਪ੍ਰਤੱਖ ਰੂਪ ਵਿਚ ਦਿਖਾਈ ਦਿੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਮਰਨਾਊ ਰਾਹ ਆਰਥਕ ਮੁਥਾਜੀ ਤੇ ਪਛੜੇਵੇਂ, ਗਰੀਬੀ ਤੇ ਬੇਰੁਜ਼ਗਾਰੀ ਦੀਆਂ ਸਾਡੀਆਂ ਬੁਨਿਆਦੀ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਨੂੰ ਸੁਲਝਾ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ। ਸਗੋਂ ਇਹ ਸਾਨੂੰ ਲਾਜ਼ਮੀ ਤੌਰ 'ਤੇ ਨਵ-ਬਸਤੀਵਾਦ ਦੇ ਖ਼ਤਰੇ ਵੱਲ ਧੂਹ ਲੈ ਜਾਵੇਗਾ। ਇਹ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਮਨੁੱਖੀ ਅਤੇ ਪਦਾਰਥਕ ਵਸੀਲਿਆਂ ਦੀ ਪੂਰੀ ਵਰਤੋਂ ਯਕੀਨੀ ਬਨਾਉਣ ਦੇ ਵੀ ਅਸਮਰਥ ਹੈ। ਇਹ ਨਿੱਤ ਵੱਧਦੀਆਂ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਨੂੰ ਜਨਮ ਦਿੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਅਸੰਤੁਲਨਾਂ ਤੇ ਸੰਕਟਾਂ ਨਾਲ ਭਰਪੂਰ ਹੈ। ਜਿੱਥੇ ਇਹ ਸਾਧਾਰਨ ਲੋਕਾਂ ਉਪਰ ਅਥਾਹ ਭਾਰ ਪਾਉਂਦਾ ਹੈ,  ਉੱਥੇ ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਇਹ ਵੱਡੇ ਪੂੰਜੀਪਤੀਆਂ ਦੀ ਹੋਰ ਉਚੇਰੇ ਮੁਨਾਫਿਆਂ ਲਈ ਹਵਸ ਨੂੰ ਤਿੱਖਾ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ, ਇਹ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਚੰਗੇਰੇ ਭਵਿੱਖ ਦੀ ਕੋਈ ਆਸ ਨਹੀਂ ਦਵਾਉਂਦਾ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਰਾਹ ਦੇ ਅਟੱਲ ਅੰਤਰ-ਵਿਰੋਧਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਲਿਆ ਖੜ੍ਹਾ ਕਰਦਾ ਹੈ।


III. ਬੁਰਜੁਆ ਖੇਤੀ ਨੀਤੀਆਂ ਦਾ ਲੇਖਾ-ਜੋਖਾ

    31. ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਬੁਰਜੁਆ-ਜਗੀਰੂ ਸਰਕਾਰ ਦੀਆਂ ਨੀਤੀਆਂ ਦੀ ਪੂਰਨ ਅਸਫਲਤਾ ਏਨੇ ਸਾਫ ਚਿਟੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਪ੍ਰਗਟ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ ਜਿੰਨੀ ਖੇਤੀ ਦੇ ਮਾਮਲੇ ਵਿਚ। ਲਗਭਗ ਛੇ ਦਹਾਕਿਆਂ ਦੇ ਬੁਰਜੁਆ ਰਾਜ ਨੇ, ਬਿਨਾਂ ਕਿਸੇ ਸੰਦੇਹ ਦੇ, ਸਾਬਤ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ ਕਿ ਇਸ ਦੀਆਂ ਖੇਤੀ ਨੀਤੀਆਂ ਦੀ ਸੇਧ ਅਥਵਾ ਨਿਸ਼ਾਨਾ ਸਾਡੇ ਜ਼ਮੀਨੀ ਸੰਬੰਧਾਂ ਉੱਤੋਂ ਜਗੀਰੂ ਤੇ ਅਰਧ-ਜਗੀਰੂ ਬੰਧਨਾਂ ਦਾ ਖਾਤਮਾ ਕਰਨਾ ਅਤੇ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਕਿਸਾਨੀ ਨੂੰ ਸਦੀਆਂ ਪੁਰਾਣੀ ਗੁਲਾਮੀ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਕਰਾਉਣਾ ਨਹੀਂ ਸਗੋਂ, ਜਗੀਰੂ ਭੋਂਪਤੀਆਂ ਨੂੰ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਭੋਂਪਤੀਆਂ ਵਿਚ ਤਬਦੀਲ ਕਰਨਾ ਅਤੇ ਧਨੀ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦਾ ਇਕ ਤਬਕਾ ਪ੍ਰਫੁਲਤ ਕਰਨਾ ਹੈ। ਉਹ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਵਿਕਾਸ ਦੀਆਂ ਲੋੜਾਂ ਦੀ ਪੂਰਤੀ ਲਈ ਵਧੇਰੇ ਖੇਤੀ ਉਤਪਾਦਨ ਵਾਸਤੇ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਅਤੇ ਧਨੀ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੇ ਤਬਕਿਆਂ ਉਪਰ ਨਿਰਭਰ ਕਰਨਾ ਲੋੜਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਪਿੰਡਾਂ ਵਿਚ ਇਹਨਾਂ ਤਬਕਿਆਂ ਨੂੰ ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਦਾ ਮੁੱਖ ਰਾਜਨੀਤਕ ਆਧਾਰ ਬਨਾਉਣ ਲਈ ਵੀ ਇਹਨਾਂ ਦੀ ਮਦਦ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ।
    32. ਰਜਵਾੜਾਸ਼ਾਹੀ ਰਿਆਸਤਾਂ ਦਾ ਖਾਤਮਾ, ਸਾਬਕਾ ਰਜਵਾੜਿਆਂ ਨੂੰ ਇਹ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦੁਆ ਕੇ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਕਿ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਕਰੋੜਾਂ ਰੁਪਏ ਸਾਲਾਨਾ ਦੀ ਰਕਮ ਵਜ਼ੀਫਿਆਂ ਵਜੋਂ ਦਿੱਤੀ ਜਾਵੇਗੀ ਜਦ ਕਿ ਉਹਨਾਂ ਦੁਆਰਾ ਲੁੱਟੀ ਅਥਾਹ ਦੌਲਤ ਅਤੇ ਵਾਹੀ ਯੋਗ ਤੇ ਜੰਗਲੀ ਜ਼ਮੀਨ ਦੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਕਬਜੇ ਹੇਠਲੇ ਜ਼ਮੀਨੀ ਖਿੱਤਿਆਂ ਨੂੰ ਉਂਝ ਹੀ ਛੂਹਿਆ ਨਾ ਗਿਆ। ਜਗੀਰਦਾਰ, ਜਿਮੀਂਦਾਰ, ਇਨਾਮਦਾਰ ਆਦਿ ਵਿਚੋਲਿਆਂ ਦੇ ਖਾਤਮੇਂ ਲਈ ਬਣਾਏ ਗਏ ਕਾਨੂੰਨ ਇਹਨਾਂ ਵਿਚੋਲਿਆਂ ਨੂੰ ਜਾਣ ਬੁੱਝਕੇ, ਖੁਦਕਾਸ਼ਤ ਜ਼ਮੀਨਾਂ ਦੇ ਨਾਉਂ ਉਪਰ ਵਿਸ਼ਾਲ ਜ਼ਮੀਨੀ ਸੰਪਤੀ ਆਪਣੇ ਕਬਜ਼ੇ ਵਿਚ ਰੱਖਣ ਦੀ ਆਗਿਆ ਦਿੰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਮੁਆਵਜ਼ੇ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਅਥਾਹ ਦੌਲਤ ਦੇਣ ਦੀ ਗਰੰਟੀ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਵਿਚੋਲਗੀ ਦੇ ਇਹਨਾਂ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਅਤੇ ਬਾਅਦ ਵਿਚ ਰਾਜ-ਭੱਤਿਆਂ (Privy purses) ਦੇ ਖਾਤਮੇ ਦਾ ਸਿੱਟਾ, ਆਜ਼ਾਦ ਰੂਪ ਵਿਚ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਆਪ ਹੀ ਮਾਲਕੀ ਦੇ ਅਧਿਕਾਰ ਹਲਵਾਹਕ ਹੱਥ ਚਲੇ ਜਾਣ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਨਿਕਲਿਆ। ਦੂਜੇ ਬੰਨੇ ਲੱਖਾਂ ਹੀ ਮੁਜਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਕਾਨੂੂੰਨੀ ਅਥਵਾ ਗੈਰ-ਕਾਨੂੰਨੀ ਢੰਗਾਂ ਦੁਆਰਾ ਉਕਾ ਹੀ ਬੇਦਖਲ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਜਾਂ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਤੋਂ ਭਿੰਨ-ਭਿੰਨ ਮਾਤਰਾ ਵਿਚ ਕੀਮਤਾਂ ਤਾਰ ਕੇ ਜ਼ਮੀਨੀ ਅਧਿਕਾਰ ਖਰੀਦਣ ਲਈ ਮਜ਼ਬੂਰ ਕੀਤਾ ਗਿਆ। ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਵਜੀਫਿਆਂ ਦੀ ਸ਼ਕਲ ਵਿਚ ਰਜਵਾੜਿਆਂ ਨੂੰ ਤਾਰੀ ਗਈ ਕਰੋੜਾਂ ਰੁਪਏ ਦੀ ਰਕਮ ਨੇ, ਮੁਆਵਜ਼ੇ ਦੀ ਸ਼ਕਲ ਵਿਚ ਵੱਡੇ ਜ਼ਿਮੀਂਦਾਰਾਂ ਨੂੰ ਕਿਸ਼ਤਾਂ ਵਿਚ ਤਾਰੀ ਗਈ ਕਰੋੜਾਂ ਰੁਪਈਆਂ ਦੀ ਰਕਮ ਨੇ, ਅਤੇ ਜ਼ਮੀਨਾਂ ਵੇਚਣ ਦੁਆਰਾ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਵਲੋਂ ਕਿਸਾਨਾਂ ਵੱਲੋਂ ਖੋਹੀ ਰਕਮ  ਆਦਿ ਨੇ ਖੇਤੀਬਾੜੀ ਨੂੰ ਉਸ ਸਰਮਾਏ ਤੋਂ ਵਾਂਝਿਆ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਜੋ ਕਿ ਉਤਪਾਦਨ ਲਈ ਉਸ ਨੂੰ ਤਿਖੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਲੋੜੀਂਦਾ ਸੀ। ਇਹ ਸਾਰਾ ਖਰਚ ਰਾਜ ਉਪਰ ਬੋਝ ਬਣ ਗਿਆ ਅਤੇ ਇਸ ਤੋਂ ਲਾਭ ਕੇਵਲ ਵਿਹਲੜ ਅਮੀਰਾਂ ਅਥਵਾ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਨੂੰ ਹੋਇਆ।
    33. ਰਈਅਤਵਾੜੀ ਇਲਾਕਿਆਂ ਲਈ ਬਣਾਏ ਮੁਜਾਰਾ ਕਾਨੂੰਨ, ਸਭ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ, ਖੁਦਕਾਸ਼ਤ ਦੇ ਨਾਂਅ ਉਪਰ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਨੂੰ  ਮੁਜ਼ਾਰਿਆਂ ਦੇ ਕਬਜੇ ਹੇਠਲੀ ਜ਼ਮੀਨ ਦੀ ਅਖੌਤੀ ਬਹਾਲੀ ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ ਦਿੰਦੇ ਹਨ। ਮੁਜਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਇਕ ਜਾ ਦੂਸਰੇ ਬਹਾਨੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਵਾਜਬ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਤੋਂ ਵਾਂਝਿਆ ਕਰਨ ਨੇ ਅਖੌਤੀ ਯੋਗ-ਲਗਾਨ ਨੀਯਤ ਕਰਨ ਦੀ ਸਾਰੀ ਮਹੱਤਤਾ ਗੁਆ ਦਿੱਤੀ, ਭਾਵੇਂ ਕਿ ਬਹੁਤੀਆਂ ਹਾਲਤਾਂ ਵਿਚ ਇਹ ਯੋਗ ਲਗਾਨ ਵੀ ਅਯੋਗ ਸਨ। ਇਕ ਬੰਨੇ ਕਾਨੂੰਨਾਂ ਵਿਚ ਜਾਣ ਬੁੱਝ ਕੇ ਰੱਖੇ ਗਏ ਮਘੋਰੇ ਅਤੇ ਦੂਸਰੇ ਬੰਨੇ ਜਗੀਰੂ ਅੰਸ਼ਾਂ ਨਾਲ ਇਕਸੁਰ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹ ਅਧਿਕਾਰੀਆਂ ਵੱਲੋਂ ਉਹਨਾਂ ਉੱਪਰ ਅੱਧੇ-ਮਨ ਨਾਲ ਕੀਤੇ ਗਏ ਅਮਲ ਦੇ ਫਲਸਰੂਪ, ਵਾਸਤਵ ਵਿਚ, ਇਹਨਾਂ ਕਾਨੂੰਨਾਂ ਦਾ ਸਿੱਟਾ ਲੱਖਾਂ ਮੁਜਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਜ਼ਮੀਨ ਤੋਂ ਬੇਦਖਲ ਕਰਨ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਕੰਗਾਲ ਹੋਏ ਕਿਸਾਨਾਂ ਅਤੇ ਖੇਤ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੀਆਂ ਸਫਾਂ ਵਿਚ ਸੁੱਟਣ ਵਿਚ ਨਿਕਲਿਆ ਹੈ।
    34. ਜ਼ਮੀਨ ਦੀ ਹਦਬੰਦੀ ਦੇ ਬਹੁ-ਚਰਚਤ ਕਾਨੂੰਨ ਵੀ ਇਸ ਢੰਗ ਨਾਲ ਬਣਾਏ ਗਏ ਕਿ ਜ਼ਮੀਨ ਦੇ ਵੱਡੇ ਮਾਲਕ ਜਾਂ ਤਾਂ ਆਪਣੀ ਭੋਂਸੰਪਤੀ ਨੂੰ ਅਛੋਹ ਰੂਪ ਵਿਚ ਕਾਇਮ ਰੱਖ ਸਕਣ ਅਤੇ ਜਾਂ ਫਿਰ ਆਪਣੇ ਪਰਿਵਾਰ ਦੇ ਮੈਂਬਰਾਂ ਵਿਚ ਮਨ ਮਰਜ਼ੀ ਨਾਲ ਗਲਤ ਇੰਤਕਾਲ ਕਰ ਸਕਣ ਤਾਂ ਜੋ ਹੱਦਬੰਦੀ ਦੇ ਕਾਨੂੰਨ ਉਹਨਾਂ ਉੱਤੇ ਲਾਗੂ ਹੀ ਨਾ ਹੋ ਸਕਣ। ਬਹੁਤੀਆਂ ਹਾਲਤਾਂ ਵਿਚ ਇਹ ਹੱਦ ਉਂਝ ਹੀ ਬਹੁਤ ਉੱਚੀ ਰੱਖੀ ਗਈ ਅਤੇ ਅਖੌਤੀ ਫਾਰਮਾਂ, ਬਾਗਾਂ ਤੇ ਚਰਾਗਾਹਾਂ ਦੇ ਨਾਂਅ ਉੱਤੇ ਦਿੱਤੀ ਗਈ ਛੋਟ ਨੇ ਵੀ ਇਸ ਕਦਮ ਦੀ ਬੁਨਿਆਦ ਨੂੰ ਠੋਕਰ ਮਾਰੀ। ਕੋਈ ਹੈਰਾਨੀ ਵਾਲੀ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਕਿ ਇਸ ਕਾਨੂੰਨ ਉਪਰ ਅਮਲ ਦੁਆਰਾ ਮਿਹਨਤਕਸ਼ ਕਿਸਾਨੀ ਵਿਚ ਵੰਡਣ ਲਈ ਬਹੁਤ ਥੋੜੀ ਭੋਂ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਈ। ਜਦੋਂਕਿ ਖੇਤੀ ਸੰਬੰਧੀ ਮਸ਼ੀਨਰੀ, ਜਿਹੜੀ ਕਿ ਜ਼ਮੀਨੀ ਵਰਤੋਂ ਦੀ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਵਿਚ ਤਬਦੀਲੀ ਦੀ ਮੰਗ ਕਰਦੀ ਹੈ, ਦੇ ਵਿਕਸਤ ਹੋਣ ਨਾਲ ਵੱਡੇ ਭੂਮੀ-ਪਤੀਆਂ ਵਲੋਂ ਇਕ ਤਕੜਾ ਦਬਾਅ ਬਣਾਇਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਭੂਮੀ ਹੱਦਬੰਦੀ ਕਾਨੂੰਨ, ਜਿੱਨੇ ਕੁ ਵੀ ਉਹ ਹੋਂਦ ਵਿਚ ਹਨ, ਵਾਪਸ ਲਏ ਜਾਣ। ਇਸ ਸੰਭਾਵੀ ਖਤਰੇ ਨਾਲ ਛੋਟੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ਹੱਥੋਂ ਜ਼ਮੀਨ ਖੁਸ ਜਾਣ ਦੀ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਹੋਰ ਤੇਜ਼ ਹੋ ਜਾਵੇਗੀ।  ਕਾਰਪੋਰੇਟ ਖੇਤੀ ਦੇ ਰੁਝਾਨ ਅਧੀਨ ਹੁਣ ਤਾਂ ਭਾਰਤੀ ਹਾਕਮਾਂ ਨੇ ਭੂਮੀ ਸੁਧਾਰਾਂ ਦੇ ਸਾਰੇ ਸੰਕਲਪਾਂ ਨੂੰ ਹੀ ਤਿਆਗ ਦਿੱਤਾ ਹੈ।
    35. ਜ਼ਮੀਨ ਦੀ ਚੱਕਬੰਦੀ ਇਕ ਹੋਰ ਕਦਮ ਹੈ ਜਿਸ ਦੁਆਰਾ ਬੁਰਜੁਆ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਹਾਕਮਾਂ ਨੇ ਖੇਤੀ ਉਤਪਾਦਨ ਵਧਾਉਣ ਦਾ ਯਤਨ ਕੀਤਾ। ਇਹ ਕੰਮ ਵੀ ਕੁਝ ਰਾਜਾਂ ਵਿਚ ਹੀ ਕੀਤਾ ਗਿਆ। ਜਿੱਥੇ-ਜਿੱਥੇ ਇਹ ਕਦਮ ਲਾਗੂ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਹੈ ਉੱਥੇ ਮੁਖ ਲਾਭ ਵਧੇਰੇ ਕਰਕੇ ਮਾਲਕਾਂ ਦੇ ਅਮੀਰ ਤਬਕੇ ਨੂੰ ਹੀ ਹੋਇਆ। ਉਹ ਗਰੀਬ ਤੇ ਦਰਮਿਆਨੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੀ ਕੀਮਤ ਉੱਪਰ ਢੁਕਵੀਆਂ ਥਾਵਾਂ ਉੱਪਰ ਉਤਮ ਭੋਂ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਦੀਆਂ ਚਾਲਾਂ ਚੱਲ ਸਕਣ ਦੇ ਸਮਰੱਥ ਰਹੇ ਹਨ।
    36. ਵਾਹੀ ਜੋਤੀ ਲਈ ਹਲ-ਵਾਹਕਾਂ ਵਿਚ ਵੰਡਣ ਵਾਸਤੇ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਦੀ ਭੋਂ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਦੀ ਗੱਲ ਤਾਂ ਪਾਸੇ ਰਹੀ, ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਆਪਣੇ ਇਸ ਵਰ੍ਹਿਆਂ ਬੱਧੀ ਰਾਜ ਵਿਚ ਵਾਹੀਯੋਗ ਬੰਜਰ ਭੋਂ ਵੀ ਇਕ ਜਾਂ ਦੂਸਰੇ ਬਹਾਨੇ ਖੇਤ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਅਤੇ ਗਰੀਬ ਕਿਸਾਨਾਂ ਵਿਚ ਵੰਡਣ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰ ਕੀਤਾ ਹੈ। ਲੱਖਾਂ ਹੀ ਏਕੜ ਅਜਿਹੀ ਜ਼ਮੀਨ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਰਾਜਾਂ ਵਿਚ ਮੌਜੂਦ ਹੈ ਅਤੇ ਇਹ ਜ਼ਮੀਨ ਅੱਜ ਵੀ ਵੱਖ ਵੱਖ ਰਾਜਾਂ ਵਿਚ ਵੱਡੇ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਅਤੇ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹਾਂ ਦੇ ਕਬਜ਼ੇ ਵਿਚ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਲੋੜਵੰਦ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਇਹ ਜ਼ਮੀਨ ਵਾਹੁਣ ਤੋਂ ਵਾਂਝਿਆ ਰੱਖਿਆ ਗਿਆ ਹੈ। ਜਿੱਥੇ ਕਿਤੇ ਗਰੀਬ ਕਿਸਾਨ ਇਹਨਾਂ ਫਾਲਤੂ ਜ਼ਮੀਨਾਂ, ਜਿਹਨਾਂ ਨੂੰ ਬੰਜਰ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਦੀ ਵਾਹੀ ਲਈ ਡਟੇ ਹਨ, ਉੱਥੇ ਹਰ ਵਰ੍ਹੇ ਉਹਨਾਂ ਉੱਤੇ ਭਾਰੀ ਜੁਰਮਾਨੇ ਲਾ ਕੇ ਵਸੂਲ ਕੀਤੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਕਈ ਰਾਜਾਂ ਵਿਚ ਪ੍ਰਾਜੈਕਟਾਂ ਦੀਆਂ ਥਾਵਾਂ ਜਾਂ ਸਨਅੱਤੀ ਕਾਰੋਬਾਰਾਂ ਦੀਆਂ ਥਾਵਾਂ ਤੋਂ ਉਠਾਏ ਲੋਕਾਂ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਕਰਕੇ ਆਦਿਵਾਸੀਆਂ ਨੂੰ ਮੁਤਬਾਦਲ ਜ਼ਮੀਨ ਨਹੀਂ ਦਿੱਤੀ ਗਈ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਬੇ ਜ਼ਮੀਨੇ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੀਆਂ ਸਫਾਂ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਲ ਹੋਣ ਲਈ ਮਜ਼ਬੂਰ ਕੀਤਾ ਗਿਆ। ਸਾਮਰਾਜੀ ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ ਦੀ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਅਧੀਨ ਦੇਸ਼ ਭਰ ਵਿਚ ਸਨਅੱਤੀ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਨਾਂਅ ਹੇਠ ਬਦੇਸ਼ੀ ਕੰਪਣੀਆਂ ਅਤੇ ਭਾਰਤੀ ਵੱਡੇ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਘਰਾਣਿਆਂ ਲਈ ਸਰਕਾਰ ਵੱਲੋਂ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੀਆਂ ਵਾਹੀਯੋਗ ਜ਼ਮੀਨਾਂ ਉੱਪਰ ਜ਼ਬਰੀ ਕਬਜ਼ਾ ਕੀਤਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ਅਤੇ ਸਬੰਧਤ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਉਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਜ਼ਮੀਨਾਂ ਤੋਂ ਵਿਰਵਿਆਂ ਕੀਤਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ।
    37. ਖੇਤ ਮਜ਼ਦੂਰ, ਜਿੰਨਾਂ ਕੋਲ ਉਕਾ ਜ਼ਮੀਨ ਨਹੀਂ ਜਾਂ ਥੋੜ੍ਹੀ ਜਿਹੀ ਜ਼ਮੀਨ ਹੈ ਤੇ ਜਿਹਨਾਂ ਦਾ ਮੁੱਖ ਗੁਜ਼ਾਰਾ ਆਪਣੀ ਮਿਹਨਤ ਵੇਚਣ ਨਾਲ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਸਾਡੇ ਪੇਂਡੂ ਜੀਵਨ ਦਾ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡਾ ਇਕੱਲਾ ਭਾਗ ਹਨ। ਸਰਕਾਰ ਦੀਆਂ ਖੇਤੀ ਸਬੰਧੀ ਤੇ ਦੂਸਰੀਆਂ ਨੀਤੀਆਂ ਸਦਕਾ ਪਿਛਲੇ ਸਮੇਂ ਦੌਰਾਨ ਲੱਖਾਂ ਹੀ ਬੇਦਖਲ ਹੋਏ ਮੁਜਾਰਿਆਂ, ਤਬਾਹ ਹੋਏ ਕਿਸਾਨਾਂ ਅਤੇ ਉਜੜੇ ਦਸਤਕਾਰਾਂ ਨਾਲ ਇਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਸਫਾਂ ਵਿਚ ਹੋਰ ਵਾਧਾ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਇਹਨਾਂ ਵਿਚੋਂ ਹਜ਼ਾਰਾਂ ਹੀ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਅਤੇ ਧਨੀ ਕਿਸਾਨਾਂ ਅਧੀਨ ਸਾਲਾਨਾਂ ਪੱਧਰ ਉੱਪਰ ਫਾਰਮ ਨੌਕਰਾਂ (ਸੀਰੀਆਂ) ਵਜੋਂ ਕੰਮ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਇਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਘਟੋ-ਘੱਟ ਉਜਰਤਾਂ ਤੈਅ ਕਰਨ ਅਤੇ ਹੋਰ ਸਹੂਲਤਾਂ ਦੇਣ ਸੰਬੰਧੀ ਕੇਂਦਰੀ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਬੁਲਾਰਿਆਂ ਵਲੋਂ 1947 ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਕੀਤੀਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਵੱਡੀਆਂ-ਵੱਡੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਇਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਜੀਵਨ-ਹਾਲਤਾਂ ਨੂੰ ਸੁਧਾਰਨ ਅਤੇ ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਦੀ ਵਹਿਸ਼ੀ ਲੁੱਟ-ਖਸੁੱਟ ਤੋਂ ਬਚਾਉਣ ਲਈ ਅਮਲੀ ਰੂਪ ਵਿਚ ਕੋਈ ਵੀ ਅਸਰਦਾਰ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਕੀਤੀ ਗਈ। ਘਟੋ-ਘੱਟ ਉਜਰਤਾਂ ਦੇ ਕਥਿਤ ਕਾਨੂੰਨ ਜੋ ਵਰ੍ਹਿਆਂ ਦੇ ਦਾਅਵਿਆਂ ਅਤੇ ਉਡੀਕ ਉਪਰੰਤ ਕੁਝ ਰਾਜਾਂ ਵਿਚ ਬਣਾਏ ਗਏ ਹਨ, ਕਾਨੂੰਨ ਦੀ ਪੁਸਤਕ ਵਿਚ ਸਜਾਵਟ ਦੀ ਵਸਤੂ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਹੋਰ ਕੁਝ ਨਹੀਂ। ਉਜਰਤਾਂ, ਕੰਮ ਦੀਆਂ ਦੂਸਰੀਆਂ ਹਾਲਤਾਂ ਤੇ ਉਜਰਤਾਂ ਦੇ ਦਰ ਜੋ ਇਹਨਾਂ ਕਾਨੂੰਨਾਂ ਵਿਚ ਪ੍ਰਵਾਨ ਕੀਤੇ ਗਏ ਹਨ, ਉਹ ਅਕਸਰ ਅਜਿਹੇ ਹਨ ਕਿ ਉਹ ਜਾਂ ਤਾਂ ਸੰਬੰਧਤ ਇਲਾਕਿਆਂ ਵਿਚ ਪ੍ਰਚਲਤ ਉਜਰਤ ਦਰਾਂ ਨਾਲੋਂ ਕਿਤੇ ਥੱਲੇ ਹਨ ਅਤੇ ਜਾਂ ਜਿਥੇ ਉਚੇਰੇ ਦਰ ਨੀਯਤ ਕੀਤੇ ਗਏ ਹਨ, ਉਹ ਲਾਗੂ ਨਹੀਂ ਕੀਤੇ ਗਏ; ਕਿਉਂਕਿ ਹੁਣ ਤੱਕ ਇਸ ਮੰਤਵ ਲਈ ਕਿਤੇ ਵੀ ਕੋਈ ਪ੍ਰਸਾਸ਼ਨਿਕ ਮਸ਼ੀਨਰੀ ਵਿਕਸਤ ਨਹੀਂ ਕੀਤੀ ਗਈ। ਇਹਨਾਂ ਕਿਰਤੀਆਂ ਦੇ ਵਡੇਰੇ ਸਮੂਹ ਕੋਲ ਰਹਿਣ ਲਈ ਨਾ ਤਾਂ ਛੋਟੇ-ਮੋਟੇ ਘਰ ਹਨ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਝੁੱਗੀਆਂ। ਸਾਲ ਵਿਚ ਲਗਭਗ 9 ਮਹੀਨੇ ਜਾਂ ਤਾਂ ਇਹ ਉੱਕਾ ਹੀ ਬੇਰੁਜ਼ਗਾਰ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਜਾਂ ਅਰਧ-ਬੇਰੁਜ਼ਗਾਰੀ ਦੀ ਅਵਸਥਾ ਵਿਚ। ਸਰਕਾਰੀ ਤੇ ਅਰਧ-ਸਰਕਾਰੀ ਏਜੰਸੀਆਂ ਦੀਆਂ ਅਨੇਕਾਂ ਰਿਪੋਰਟਾਂ ਸਪੱਸ਼ਟ ਰੂਪ ਵਿਚ ਦਰਸਾਉਂਦੀਆਂ ਹਨ ਕਿ ਇਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਵਾਸਤਵਿਕ ਉਜਰਤਾਂ ਡਿੱਗ ਰਹੀਆਂ ਹਨ, ਇਹਨਾਂ ਦੇ ਰੁਜ਼ਗਾਰ ਦੇ ਦਿਨ ਘੱਟ ਰਹੇ ਹਨ ਅਤੇ ਇਹਨਾਂ ਦੇ ਸਿਰ ਕਰਜ਼ੇ ਦਾ ਭਾਰ ਵੱਧ ਰਿਹਾ ਹੈ ਤੇ ਕੰਗਾਲੀਕਰਨ 'ਚ ਵੀ ਵਾਧਾ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਇਸ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਵੀ ਇਹਨਾਂ ਲਈ ਕੌਮੀ ਪੱਧਰ 'ਤੇ 'ਸਰਵਪੱਖੀ ਕਿਰਤ ਕਾਨੂੰਨ' ਬਨਾਉਣ ਦੀ ਮੰਗ ਪ੍ਰਤੀ ਨਿਰਦਇਤਾ ਭਰਪੂਰ ਪਹੁੰਚ ਅਪਣਾਈ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਇਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਜੀਵਨ ਹਾਲਤਾਂ ਵਿਚ ਤਿੱਖੇ ਪ੍ਰੀਵਰਤਨ ਕੀਤੇ ਬਿਨਾਂ ਸਾਡੇ ਨਿੱਘਰ ਚੁੱਕੇ ਪੇਂਡੂ ਜੀਵਨ ਦੇ ਮੁਹਾਂਦਰੇ ਨੂੰ ਤਬਦੀਲ ਕਰਨ ਅਤੇ ਖੇਤੀ ਸੈਕਟਰ ਵਿਚ ਉਤਪਾਦਕ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਨੂੰ ਲਾਮਬੰਦ ਕਰਨ ਦੀ ਕਲਪਨਾ ਤੱਕ ਨਹੀਂ ਕੀਤੀ ਜਾ ਸਕਦੀ।
    38. ਸਰਕਾਰ ਵਲੋਂ ਚਲਾਈਆਂ ਗਈਆਂ ਪੰਚਾਇਤ ਰਾਜ (ਪੰਚਾਇਤਾਂ, ਬਲਾਕ ਸੰਮਤੀਆਂ ਤੇ ਜ਼ਿਲਾ ਪ੍ਰੀਸ਼ਦਾਂ) ਅਤੇ ਸਮੂਹਕ ਵਿਕਾਸ ਸਕੀਮਾਂ, ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਸੀਮਤ ਜਿਹੀਆਂ ਸੁਵਿਧਾਵਾਂ ਅਤੇ ਲਾਭ ਦੇ ਸਕਣ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਅੰਤਮ ਨਿਰਣੇ ਵਜੋਂ ਪੇਂਡੂ ਇਲਾਕਿਆਂ ਵਿਚ ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਦੇ ਧਨੀ ਕਿਸਾਨੀ ਅਤੇ ਜਗੀਰਦਾਰੀ ਦੇ ਆਧਾਰ ਨੂੰ ਹੀ ਵਿਸਤ੍ਰਿਤ ਬਣਾਉਣ ਅਤੇ ਪ੍ਰਪੱਕ ਕਰਨ ਦੀਆਂ ਸਾਧਨ ਮਾਤਰ ਸਾਬਤ ਹੋਈਆਂ ਹਨ। ਆਪਣੀਆਂ ਜਮਾਤੀ ਨੀਤੀਆਂ ਅਨੁਸਾਰ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਹਮੇਸ਼ਾਂ ਭੋਂਪਤੀਆਂ ਅਤੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੇ ਧਨੀ ਤਬਕਿਆਂ ਨੂੰ ਹੀ ਵਧੇਰੇ ਕਰਕੇ ਸਿੱਧੀ ਵਿੱਤੀ, ਤਕਨੀਕੀ ਤੇ ਦੂਸਰੀ ਸਹਾਇਤਾ ਦਿੱਤੀ ਜਦ ਕਿ ਵਾਹੀਕਾਰਾਂ ਅਤੇ ਦਸਤਕਾਰਾਂ ਦੇ ਦੂਸਰੇ ਤਬਕਿਆਂ ਨੂੰ ਲੋੜੀਂਦੀ ਮਾਤਰਾ ਵਿਚ ਇਹ ਸਹਾਇਤਾ ਨਹੀਂ ਮਿਲੀ। ਸਮੂਹਕ ਵਿਕਾਸ ਤੇ ਕੌਮੀ ਵਿਸਤਾਰ ਸਕੀਮਾਂ ਉੱਤੇ ਖਰਚ ਕੀਤੀ ਜਾਣ ਵਾਲੀ ਰਕਮ ਦਾ ਵੱਡਾ ਭਾਗ ਵੀ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ, ਧਨੀ ਕਿਸਾਨਾਂ ਅਤੇ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹਾਂ ਦੀ ਜੇਬ ਵਿਚ ਚਲਿਆ  ਗਿਆ ਹੈ। ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਭਾਰੀ ਰਕਮਾਂ ਤਕਾਵੀ ਕਰਜ਼ਿਆਂ ਵਜੋਂ ਦਿੱਤੀਆਂ ਗਈਆਂ। ਟਰੈਕਟਰਾਂ, ਪੰਪਿੰਗ ਸੈਟਾਂ, ਆਇਲ ਇੰਜਨਾਂ ਅਤੇ ਹੋਰ ਖੇਤੀ ਮਸ਼ੀਨਰੀ ਦੀ ਖਰੀਦ ਲਈ ਅਤੇ ਟਿਊਬਵੈਲ ਲਾਉਣ ਲਈ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਖੇਤੀ ਕਰਜ਼ੇ ਵੀ ਵਧੇਰੇ ਕਰਕੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਹੀ ਦਿੱਤੇ ਗਏ। ਸਰਕਾਰ ਵਲੋਂ ਵੰਡੇ ਜਾਂਦੇ ਚੰਗੀ ਕਿਸਮ ਦੇ ਬੀਜਾਂ, ਰਸਾਇਣਕ ਖਾਦਾਂ ਅਤੇ ਹੋਰ ਸੁਧਰੇ ਆਦਾਨਾਂ (Inputs) ਦਾ ਭਾਰੀ ਹਿੱਸਾ ਵੀ ਉਹ ਹੀ ਹੜੱਪ ਕਰ ਜਾਂਦੇ ਹਨ।
    39. ਅਖੌਤੀ ਹਰੇ ਇਨਕਲਾਬ, ਸੰਘਣੀ ਖੇਤੀ ਅਤੇ ਵਪਾਰਕ ਫਸਲਾਂ ਰਾਹੀਂ ਪੇਂਡੂ ਇਲਾਕਿਆਂ ਵਿਚ ਮੁਦਰਾ ਅਰਥਚਾਰੇ ਦਾ ਤਿੱਖਾ ਪਸਾਰ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਭਵਿੱਖ ਮੁੱਖੀ ਵਪਾਰ, ਅਨਾਜਾਂ ਅਤੇ ਹੋਰ ਖੇਤੀ ਜਿਨਸਾਂ ਦੇ ਮੁਨਾਫਾਖੋਰੀ ਤੇ ਸੱਟੇਬਾਜ਼ੀ ਲਈ ਭੰਡਾਰੀਕਰਨ ਵਿਚ ਵੀ ਬਹੁਤ ਵਾਧਾ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਇਸ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ ਭਾਰਤੀ ਅਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਹਿੱਤਾਂ ਦੀ ਖੇਤੀ ਉਤਪਾਦਨ ਉੱਪਰ ਅਤੇ ਖੇਤੀ ਵਿਚ ਵਰਤੀਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਵਸਤਾਂ ਉੱਪਰ ਜਕੜ ਵੀ ਹੋਰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਹੋਈ ਹੈ, ਜਿਸ ਕਾਰਨ ਅਸਾਵੇਂ ਵਟਾਂਦਰੇ ਰਾਹੀਂ, ਮਹਿੰਗੇ ਤੇ ਘਟੀਆ ਕਿਸਮ ਦੇ ਆਦਾਨਾਂ (Inputs) ਰਾਹੀਂ ਅਤੇ ਖੇਤੀ ਵਸਤਾਂ ਦੀਆਂ ਕੀਮਤਾਂ ਵਿਚ ਭਾਰੀ ਉਤਰਾਵਾਂ-ਚੜਾਵਾਂ ਰਾਹੀਂ ਕਿਸਾਨੀ ਦੀ ਲੁੱਟ-ਖਸੁੱਟ ਤਿੱਖੀ ਹੋਈ ਹੈ। ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਖੇਤੀ ਵਸਤਾਂ ਦੇ ਵਿਕਰੇਤਾ ਵਜੋਂ ਵੀ ਅਤੇ ਸਨਅੱਤੀ ਵਸਤਾਂ ਦੇ ਖਰੀਦਦਾਰ ਵਜੋਂ ਵੀ, ਦੋਹਾਂ ਪਾਸਿਆਂ ਤੋਂ, ਕਿਸਾਨਾਂ ਦਾ ਬੁਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਚੰਮ ਲਾਹਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ।
    40. ਇਸ ਸਭ ਕੁੱਝ ਦੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਸੂਦਖੋਰ ਸਰਮਾਏ ਵਿਚ ਵੀ ਚੋਖਾ ਵਾਧਾ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਪੇਂਡੂ ਕਰਜ਼ਦਾਰੀ ਛੱੜਪੇ ਮਾਰ ਕੇ ਵਧੀ ਹੈ। ਇਸ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ ਕਿਸਾਨ ਲਈ, ਆਪਣੇ ਖੇਤੀ ਸੰਬੰਧੀ ਕੰਮਕਾਰ ਲਈ, ਸਾਧਾਰਣ ਸੂਦ ਦਰ ਉਪਰ ਕਰਜ਼ਾ ਹਾਸਲ ਕਰਨਾ ਜ਼ਿਆਦਾ ਤੋਂ ਜ਼ਿਆਦਾ ਔਖਾ ਹੁੰਦਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਸਮੂਹਕ ਕਰਜ਼ਾ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਦੇ ਕਰਜ਼ੇ, ਸਰਕਾਰੀ ਕਰਜ਼ੇ ਅਤੇ ਬੈਂਕਾਂ ਦੇ ਕਰਜ਼ੇ ਸਭ ਰਲਾ ਮਿਲਾ ਕੇ ਵੀ ਕੁਲ ਪੇਂਡੂ ਕਰਜ਼ੇ ਦੀਆਂ ਲੋੜਾਂ ਦਾ ਬੜਾ ਨਿਗੂਣਾ ਜਿਹਾ ਅੰਸ਼ ਬਣਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਇਹ ਕਰਜ਼ੇ ਵੀ ਜ਼ਿਆਦਾਤਰ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਤੇ ਅਮੀਰ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੁਆਰਾ ਹੀ ਵਰਤੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਜਦੋਂਕਿ ਗਰੀਬ ਤੇ ਦਰਮਿਆਨੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੀਆਂ ਲੋੜਾਂ ਦੀ ਪੂਰਤੀ ਲਈ ਕਰਜ਼ੇ ਹਾਸਲ ਕਰਨ ਵਾਸਤੇ ਵਧੇਰੇ ਕਰਕੇ ਆੜ੍ਹਤੀਆਂ ਅਤੇ ਸ਼ਾਹੂਕਾਰਾਂ ਦੀ ਸ਼ਰਨ ਵਿਚ ਜਾਣਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ ਜਿਹੜੇ ਕਿ ਕਰਜ਼ੇ ਉੱਪਰ ਭਾਰੀ ਵਿਆਜ਼ ਲੈਂਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਕਰਜ਼ੇ ਦੇ ਅਜੇਹੇ ਗੁੰਝਲਦਾਰ ਤੇ ਮਰਨਾਊ ਜਾਲ ਵਿਚ ਫਸਾ ਲੈਂਦੇ ਹਨ ਕਿ ਉਹਨਾਂ 'ਚੋਂ ਬਹੁਤਿਆਂ ਨੂੰ ਇਸ ਤੋਂ ਛੁਟਕਾਰਾ ਹਾਸਲ ਕਰਨ ਲਈ ਆਪਣੀਆਂ ਜ਼ਮੀਨਾਂ-ਜਾਇਦਾਦਾਂ ਤੋਂ ਹੱਥ ਧੋਣੇ ਪੈਂਦੇ ਹਨ। ਕਰਜ਼ੇ ਦੇ ਭਾਰ ਕਾਰਨ ਪੈਦਾ ਹੋਈ ਇਸ ਦਰਦਨਾਕ ਅਵਸਥਾ ਵਿਚ ਫਸੇ ਹੋਏ ਹਜ਼ਾਰਾਂ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੇ, ਉਹਨਾਂ ਸਾਰੇ ਹੀ ਪ੍ਰਾਤਾਂ ਵਿਚ ਜਿੱਥੇ ਕਦੇ ਹਰੇ ਇਨਕਲਾਬ ਦਾ ਗੁਣਗਾਣ ਹੁੰਦਾ ਸੀ, ਨਿਰਾਸ਼ਾ-ਵਸ ਖੁਦਕੁਸ਼ੀਆਂ ਕੀਤੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਇਹ ਤਰਾਸਦੀ ਨਿਰੰਤਰ ਵੱਧਦੀ ਹੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਇਸਦੇ ਬਾਵਜੂਦ  ਸਰਕਾਰ ਇਸ ਭਾਰੀ ਪੇਂਡੂ ਕਰਜ਼ੇ ਦਾ ਭਾਰ ਘਟਾਉਣ ਲਈ ਕੋਈ ਪ੍ਰਭਾਵੀ ਕਦਮ ਪੁੱਟਣ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰੀ ਹੈ।
    41. ਇਹਨਾਂ ਖੇਤੀ ਨੀਤੀਆਂ ਦੇ ਮੁਕੰਮਲ ਦੀਵਾਲੀਏਪਨ ਨੇ ਭਾਰਤੀ ਖੇਤੀ ਨੂੰ ਇਕ ਸਰਵਪੱਖੀ ਸੰਕਟ ਵਿਚ ਧੱਕ ਦਿੱਤਾ ਹੈ। ਮੁੱਢਲੇ ਵਰ੍ਹਿਆਂ ਵਿਚ ਸਿੰਚਾਈ ਪ੍ਰਾਜੈਕਟਾਂ ਆਦਿ ਉੱਪਰ ਅਰਬਾਂ-ਖਰਬਾਂ ਰੁਪਏ ਖਰਚਣ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ, ਹੁਣ ਖੇਤੀ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧਤ ਢਾਂਚਾਗਤ ਲੋੜਾਂ ਜਿਵੇਂ ਕਿ ਸਿੰਚਾਈ ਸਹੂਲਤਾਂ, ਖੇਤੀ ਸੰਬੰਧੀ ਖੋਜ ਅਤੇ ਮੰਡੀਕਰਨ ਸਹੂਲਤਾਂ ਆਦਿ ਵਿਚ ਵਾਧਾ ਕਰਨ ਉੱਪਰ ਸਰਕਾਰ ਵੱਲੋਂ ਲੱਗਭਗ ਉੱਕਾ ਹੀ ਕੋਈ ਪੂੰਜੀ ਨਿਵੇਸ਼ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਜਾ ਰਿਹਾ। ਜਿਸਦੇ ਫਲਸਰੂਪ, ਕੁਲ ਮਿਲਾਕੇ, ਖੇਤੀ ਉਤਪਾਦਨ ਖੜੋਤ ਵਿਚ ਹੈ ਅਤੇ ਏਥੇ ਅਨਾਜਾਂ ਦੀ ਪ੍ਰਤੀ ਜੀ ਉਪਲੱਬਧਤਾ ਵੀ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਘਟਦੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ, ਖੁਰਾਕ ਦੇ ਪੱਖ ਤੋਂ ਸਾਡੇ ਸਿਰਾਂ ਉੱਪਰ ਇਕ ਗੰਭੀਰ ਖਤਰਾ ਮੰਡਰਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਪ੍ਰੰਤੂ ਸਰਕਾਰ, ਸਾਮਰਾਜੀ ਨਿਰਦੇਸ਼ਾਂ ਅਧੀਨ, ਖੁਰਾਕੀ ਫਸਲਾਂ ਦੀ ਥਾਂ ਫਸਲੀ ਵਿਭਿੰਨਤਾ ਦਾ ਢੋਲ ਪਿੱਟੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਤੇ ਖੇਤੀ-ਕੰਪਣੀਆਂ ਦੇ ਵੱਡੇ-ਵੱਡੇ ਨਿਗਮ ਉਸਾਰਨ (Corporatisation of agriculture) ਨੂੰ ਹੀ ਸਾਰੀਆਂ ਖੇਤੀ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਦੇ ਹੱਲ ਲਈ ਰਾਮਬਾਣ ਵਜੋਂ ਪ੍ਰਚਾਰ ਰਹੀ ਹੈ; ਜਦੋਂਕਿ ਇਹ ਵੀ ਸਪੱਸ਼ਟ ਹੀ ਹੈ ਕਿ ਜੇਕਰ ਅਖੌਤੀ ਖੇਤੀ-ਵਿਭਿੰਨਤਾ ਉੱਪਰ ਅਮਲ ਹੋ ਗਿਆ ਤਾਂ ਉਸ ਨਾਲ ਗੈਰ-ਜਥੇਬੰਦ, ਨਿਆਸਰੇ ਤੇ ਗਰੀਬ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੀ ਹੋਰ ਵਧੇਰੇ ਚਮੜੀ ਉਧੇੜੀ ਜਾਵੇਗੀ ਅਤੇ ਬੀਜਾਂ ਤੇ ਹੋਰ ਖੇਤੀ ਆਦਾਨਾਂ ਦਾ ਵਪਾਰ ਕਰ ਰਹੇ ਵੱਡੇ ਘਰਾਣਿਆਂ ਤੇ ਬਹੁਕੌਮੀ ਕਾਰਪੋਰੇਸ਼ਨਾਂ ਦੀਆਂ ਦੌਲਤਾਂ ਵਿਚ ਹੋਰ ਵਾਧਾ ਹੋਵੇਗਾ।
    42. ਅੱਜ, ਅਜ਼ਾਦੀ ਦੇ ਲਗਭਗ 6 ਦਹਾਕਿਆਂ ਪਿਛੋਂ ਅਤੇ ਖੇਤੀ ਸਬੰਧੀ ਸੁਧਾਰਾਂ ਦੇ ਸਭਨਾਂ ਕਾਨੂੰਨਾਂ ਸਮੇਤ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ ਏਨੇ ਚਿਰ ਦੇ ਰਾਜ ਪਿਛੋਂ ਵੀ ਜ਼ਮੀਨ ਦੀ ਮਾਲਕੀ ਦਾ ਕੇਂਦਰੀਕਰਨ ਪਹਿਲਾਂ ਵਾਂਗ ਹੀ ਕਾਇਮ ਹੈ। ਸੰਨ 2000 ਵਿਚ ਐਲਾਨੀ ਗਈ 'ਕੌਮੀ ਖੇਤੀ ਨੀਤੀ' ਅਧੀਨ 'ਕਾਰਪੋਰੇਟ ਖੇਤੀ' ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦੇਣ ਨਾਲ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਭੂਮੀ ਮਾਲਕੀ ਦੀ ਸਥਿਤੀ ਲਾਜ਼ਮੀ ਤੌਰ 'ਤੇ ਪੂੰਜੀਪਤੀ ਲੈਂਡਲਾਰਡਾਂ ਅਤੇ ਕੰਪਨੀਆਂ ਵੱਲ ਹੋਰ ਝੁਕੇਗੀ ਅਤੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਜ਼ਮੀਨ ਦੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿਚ ਸੰਚਿਤ ਹੋਣ ਦੀ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਹੋਰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਹੋਵੇਗੀ। ਇਹ ਵੀ ਪ੍ਰਤੱਖ ਹੈ ਕਿ ਜ਼ਮੀਨ ਤੋਂ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀ ਦਾ ਤੋੜਨਾ, ਖੇਤ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਅਤੇ ਗਰੀਬ ਕਿਸਾਨਾਂ ਵਿਚ ਫਾਲਤੂ ਜ਼ਮੀਨ ਦੀ ਵੰਡ ਕਰਨਾ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਕਰਜ਼ੇ ਦੇ ਭਾਰੀ ਬੋਝ ਨੂੰ ਖਤਮ ਕਰਨਾ, ਲੱਖਾਂ ਹੀ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੀ ਸਿਰਜਨਾਤਮਕ ਸ਼ਕਤੀ ਨੂੰ ਬੰਧਨ ਮੁਕਤ ਕਰਨ ਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ  ਉਤਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਪ੍ਰਫੁਲਤ ਕਰਨ ਲਈ ਲਾਜ਼ਮੀ ਸ਼ਰਤ ਹੈ। ਕੇਵਲ ਅਜੇਹੇ ਤਿੱਖੇ ਜ਼ਮੀਨੀ ਸੁਧਾਰ ਹੀ ਖੇਤੀ ਉਤਪਾਦਨ ਵਿਚ ਅਥਾਹ ਵਾਧੇ ਦਾ ਅਧਾਰ ਬਣ ਸਕਦੇ ਹਨ। ਜਦੋਂਕਿ ਵਰਤਮਾਨ ਜ਼ਮੀਨੀ ਸੰਬੰਧਾਂ ਵਿਚ ਹਰ ਸਾਲ ਅਰਬਾਂ ਕਰੋੜ ਰੁਪਏ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ, ਵੱਡੇ-ਵੱਡੇ ਲੈਂਡਲਾਰਡਾਂ ਅਤੇ ਲਹਿਣੇਦਾਰਾਂ ਦੇ ਹੱਥ ਵਿਚ ਚਲੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਇਹ ਰਕਮ ਮੁੜ ਉਤਪਾਦਨ ਦੇ ਮੰਤਵਾਂ ਲਈ ਨਹੀਂ ਵਰਤੀ ਜਾਂਦੀ ਸਗੋਂ ਮੁਨਾਫੇਖੋਰ ਵਪਾਰ ਅਤੇ ਸੂਦਖੋਰ ਪੈਸੇ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਵਰਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਇਹਨਾਂ ਸੰਬੰਧਾਂ ਦਾ ਖਾਤਮਾ ਸਾਡੀਆਂ ਸਨਅੱਤਾਂ ਅਤੇ ਖੇਤੀ ਲਈ ਸਰਮਾਏ ਦਾ ਇਕ ਮਹੱਤਵਪੂਰਨ ਸਰੋਤ ਮੁਹੱਈਆ ਕਰੇਗਾ।
    43. ਮੌਜੂਦਾ ਅਵਸਥਾਵਾਂ ਵਿਚ ਅਸੀਂ ਖੇਤੀ ਨੂੰ ਚੋਖੀ ਮਾਤਰਾ ਵਿਚ ਕਦਾਚਿਤ ਵਿਕਸਤ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦੇ ਅਤੇ ਦੇਸ਼ ਨੂੰ ਲੋੜੀਂਦਾ ਅੰਨ ਤੇ ਕੱਚਾ ਮਾਲ ਮੁਹੱਈਆ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦੇ ਕਿਉਂਕਿ ਜਮੀਨ ਤੋਂ ਵਾਂਝੀ ਗਰੀਬ ਕਿਸਾਨੀ ਖੇਤੀਬਾੜੀ ਨੂੰ ਚੰਗੇਰਾ ਬਣਾਉਣ ਲਈ ਅਤਿਅੰਤ ਮੁਢਲੇ ਆਧੁਨਿਕ ਖੇਤੀ ਸੰਦ ਅਤੇ ਲੋੜੀਂਦੀ ਖਾਦ ਖਰੀਦ ਸਕਣ ਤੋਂ ਵੀ ਅਸਮੱਰਥ ਹੈ।
    ਅਸੀਂ ਆਪਣੀਆਂ ਕੌਮੀ ਸਨਅੱਤਾਂ ਦਾ ਵਿਕਾਸ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦੇ ਅਤੇ ਦੇਸ਼ ਦਾ ਵਡੇਰੀ ਪੱਧਰ ਉੱਤੇ ਸਨਅਤੀਕਰਨ ਵੀ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦੇ ਕਿਉਂਕਿ ਕਿਸਾਨੀ ਜੋ ਅੱਜ ਵੀ ਵਸੋਂ ਦਾ ਲਗਭਗ 75% ਭਾਗ ਹੈ, ਤਿਆਰ ਵਸਤਾਂ ਦੀ ਨਿਗੂਣੀ ਜਿਹੀ ਮਾਤਰਾ ਵੀ ਖਰੀਦ ਨਹੀਂ ਸਕਦੀ।
    ਅਸੀਂ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀਆਂ ਜੀਵਨ ਹਾਲਤਾਂ ਨੂੰ ਬੇਹਤਰ ਨਹੀਂ ਬਣਾ ਸਕਦੇ ਕਿਉਂਕਿ ਗਰੀਬੀ ਦੇ ਸਤਾਏ ਲੱਖਾਂ ਹੀ ਭੁੱਖੇ ਲੋਕ ਆਪਣੇ ਇਲਾਕੇ ਛੱਡ ਕੇ ਸ਼ਹਿਰਾਂ ਵਿਚ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, 'ਕਿਰਤ ਦੀ ਮੰਡੀ' (Labour Market) ਵਿਚ ਭੀੜ ਪੈਦਾ ਕਰਦੇ ਹਨ, ਬੇਰੋਜ਼ਗਾਰਾਂ ਦੀ ਫੌਜ ਵਧਾਉਂਦੇ ਹਨ ਤੇ ਮਿਹਨਤ ਦੀ ਕੀਮਤ ਨੂੰ ਥੱਲੇ ਡੇਗਦੇ ਹਨ।
    ਅਸੀਂ ਆਪਣੇ ਸਭਿਆਚਾਰਕ ਪਛੜੇਵੇਂ ਵਿਚੋਂ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਨਿਕਲਣ ਦਾ ਰਸਤਾ ਨਹੀਂ ਲੱਭ ਸਕਦੇ ਕਿਉਂਕਿ ਗਰੀਬ ਤੇ ਭੁੱਖੇ ਕਿਸਾਨ ਜੋ ਵਸੋਂ ਦੀ ਬਹੁ-ਗਿਣਤੀ ਹਨ, ਆਪਣੇ ਬੱਚਿਆਂ ਨੂੰ ਯੋਗ 'ਤੇ ਉੱਚ-ਪੱਧਰੀ ਵਿਦਿਆ ਦੇਣਾ ਤਾਂ ਇਕ ਪਾਸੇ ਰਿਹਾ, ਮੁੱਢਲੀ ਪ੍ਰਾਇਮਰੀ ਵਿੱਦਿਆ ਦੇਣ ਵਾਸਤੇ ਲੋੜੀਂਦੇ ਪਦਾਰਥਕ ਸਾਧਨਾਂ ਤੋਂ ਵੀ ਵਾਂਝੇ ਹਨ।
    ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਖੇਤੀ ਅਤੇ ਕਿਸਾਨੀ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਜੀਵਨ ਲਈ ਮੁੱਢਲੀ ਮਹੱਤਤਾ ਰੱਖਦੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਇਹ ਅਜੇ ਵੀ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡੇ ਕੌਮੀ ਸਵਾਲ ਵਜੋਂ ਸਾਹਮਣੇ ਖੜੋਤੀਆਂ ਹਨ।


IV. ਬਦੇਸ਼ੀ ਨੀਤੀ

    44. ਕਿਸੇ ਵੀ ਰਾਜ ਅਤੇ ਉਸਦੀ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਬਦੇਸ਼ ਨੀਤੀ ਅੰਤਮ ਨਿਰਣੇ ਵਜੋਂ ਉਸਦੀਆਂ ਅੰਦਰੂਨੀ ਨੀਤੀਆਂ ਦਾ ਅਕਸ ਹੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ, ਅਤੇ ਇਹ ਮੁੱਖ ਰੂਪ ਵਿਚ ਉਸ ਜਮਾਤ ਜਾਂ ਜਮਾਤਾਂ ਦੇ ਹਿੱਤਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਗਟਾ ਕਰਦੀ ਹੈ ਜੋ ਸੰਬੰਧਤ ਰਾਜ ਅਤੇ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਕਰ ਰਹੀਆਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ। ਕੁਦਰਤੀ ਤੌਰ ਤੇ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਬਦੇਸ਼ ਨੀਤੀ ਵੀ ਸਾਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ ਦੁਪਾਸੀ ਕਿਰਦਾਰ--ਸਾਮਰਾਜ ਦੀ ਵਿਰੋਧਤਾ ਵੀ ਅਤੇ ਉਸ ਨਾਲ ਭਿਆਲੀ ਵੀ--ਨੂੰ ਪ੍ਰਗਟ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਸਾਮਰਾਜੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ ਉਲਟ ਭਾਰਤੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਵਿਕਾਸ ਦੀ ਖਾਤਰ ਸੰਸਾਰ-ਅਮਨ ਦੀ ਲੋੜ ਹੈ, ਇਸ ਲਈ ਇਹ ਸੰਸਾਰ ਜੰਗ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਹੈ। ਪਹਿਲਾਂ ਜਦੋਂ ਕਿ ਸੰਸਾਰ ਇਕ ਬੰਨੇ ਸਾਮਰਾਜ ਦੇ ਜੰਗੀ ਕੈਂਪਾਂ ਅਤੇ ਦੂਸਰੇ ਬੰਨ੍ਹੇ ਸਮਾਜਵਾਦ ਦੇ ਅਮਨ ਕੈਂਪ ਵਿਚਕਾਰ ਤਿੱਖੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਵੰਡਿਆ ਹੋਇਆ ਸੰਸਾਰ ਸੀ, ਅਤੇ ਉਸ ਅਵਸਥਾ ਵਿਚ, ਜਦੋਂ ਅਮਰੀਕਾ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਵਿਚ ਸਾਮਰਾਜੀ ਕੈਂਪ ਨੇ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਦੇਸ਼ਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਕੰਟਰੋਲ ਵਿਚ ਲਿਆਉਣ ਦੀ ਖਾਤਰ ਜਾਬਰ ਫੌਜੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਬਣਾਉਣ ਦੀਆਂ ਸਕੀਮਾਂ ਚਾਲੂ ਕੀਤੀਆਂ ਹੋਈਆਂ ਸਨ ਤਾਂ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਇਸ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਨਵ-ਪ੍ਰਾਪਤ ਰਾਜਸੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦੀ ਰਾਖੀ ਕਰਨ ਲਈ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਜਮਾਤੀ ਹਿੱਤਾਂ ਨੂੰ ਅੱਗੇ ਖੜ੍ਹਨ ਲਈ ਨਿਰਪਖਤਾ ਜਾਂ ਧੜਿਆਂ ਤੋਂ ਨਿਰਲੇਪ ਰਹਿਣ ਦੀ ਨੀਤੀ ਅਪਣਾਈ। ਇਸ ਨੀਤੀ ਉੱਪਰ ਚਲਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਸਾਮਰਾਜ ਅਤੇ ਸਮਾਜਵਾਦ ਦੇ ਕੈਂਪਾਂ ਵਿਚਲੇ ਵਿਰੋਧਾਂ ਨੂੰ ਅਤੇ ਅਮਰੀਕਨ ਤੇ ਬਰਤਾਨਵੀ ਸਾਮਰਾਜ ਵਿਚਲੇ ਵਿਰੋਧਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਵਰਤਣ ਦਾ ਯਤਨ ਕੀਤਾ ਗਿਆ। ਏਸੇ ਨੀਤੀ ਅਧੀਨ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਗੁੱਟ-ਨਿਰਲੇਪਤਾ ਅਤੇ ਨਿਰਪੱਖਤਾ ਦੀ ਨੀਤੀ ਨੂੰ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਸਮਿਆਂ 'ਤੇ, ਆਪਣੇ ਫੌਰੀ ਜਮਾਤੀ ਹਿੱਤਾਂ ਅਨੁਸਾਰ, ਵੱਖੋ-ਵੱਖਰੇ ਅਰਥ ਦਿੱਤੇ। ਐਪਰ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਕੈਂਪ ਦੇ ਬਿਖਰ ਜਾਣ ਅਤੇ ਸੰਸਾਰ ਦੇ ਇਕ ਧਰੁਵੀ ਬਣ ਜਾਣ ਨਾਲ ਭਾਰਤੀ ਸਰਕਾਰ ਗੁੱਟ-ਨਿਰਲੇਪਤਾ ਅਤੇ ਨਿਰਪੱਖਤਾ ਦੀ ਨੀਤੀ ਨੂੰ, ਏਸ਼ੀਆ, ਅਫਰੀਕਾ ਤੇ ਲਾਤੀਨੀ ਅਮਰੀਕਾ ਦੇ ਘੱਟ ਵਿਕਸਤ ਤੇ ਵਿਕਾਸਸ਼ੀਲ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੇ ਹਿੱਤਾਂ ਨੂੰ, ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਨਿਸੰਗ ਹੋ ਕੇ ਪਿੱਠ ਦੇ ਗਈ ਹੈ ਅਤੇ ਅਮਰੀਕੀ ਸਾਮਰਾਜ ਵੱਲ ਬੜੀ ਤਿੱਖੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਝੁਕ ਗਈ ਹੈ। ਭਾਵੇਂ ਇਹ ਅਜੇ ਵੀ ਆਪਣੇ ਜਮਾਤੀ ਹਿੱਤਾਂ ਨੂੰ ਵਧਾਉਣ ਲਈ ਅੰਤਰ-ਸਾਮਰਾਜੀ ਅੰਤਰ-ਵਿਰੋਧਾਂ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਕਰਨ ਦੇ ਯਤਨ ਕਰਦੀ ਹੈ ਪ੍ਰੰਤੂ ਅਮਰੀਕਣ ਸਾਮਰਾਜ ਨਾਲ ਨੇੜਲੀ ਇਕਜੁਟਤਾ ਵਿਕਸਤ ਕਰਨਾ ਅਤੇ ਯੁਧਨੀਤਕ ਸਾਂਝਾਂ ਬਨਾਉਣਾ ਹੀ ਇਸ ਦੀ ਅਜੋਕੀ ਬਦੇਸ਼ ਨੀਤੀ ਦਾ ਉਭਰਵਾਂ ਲੱਛਣ ਹੈ।
     45. ਆਜ਼ਾਦੀ ਤੋਂ ਝੱਟ ਪਿਛੋਂ ਦੇ ਸਮੇਂ ਵਿਚ ਵੀ ਜਦੋਂ ਇਹ ਆਪਣੇ ਸਨਅਤੀ ਵਿਕਾਸ ਲਈ ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਅਤੇ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਕਰਕੇ ਅਮਰੀਕਾ ਵੱਲ ਝਾਕਦੀ ਸੀ, ਜਦੋਂ ਇਸਨੂੂੰ ਅਮਰੀਕੀ ਹਥਿਆਰਾਂ ਦੇ ਅਜਿੱਤ ਹੋਣ ਵਿਚ ਪੂਰਨ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਸੀ, ਉਦੋਂ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਸਾਮਰਾਜੀ ਕੈਂਪ ਦੀ ਬਲੈਕਮੇਲ ਅੱਗੇ ਗੋਡੇ ਟੇਕਣ ਦੇ ਰੁਝਾਨ ਦਾ ਬਹੁਤ ਪ੍ਰਗਟਾਵਾ ਕੀਤਾ ਅਤੇ ਇਹ ਉਸ ਵੱਲ ਬਹੁਤ ਝੁਕੀ। ਮਲਾਇਆ ਦੇ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਸੰਘਰਸ਼ ਨੂੰ ਦਬਾਉਣ ਵਾਸਤੇ ਬਰਤਾਨਵੀ ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਨੂੰ ਭਾਰਤ ਦੀ ਧਰਤੀ ਤੋਂ ਗੋਰਖੇ ਭਰਤੀ ਕਰਨ ਵਾਸਤੇ ਕੈਂਪ ਲਾਉਣ ਦੀ ਆਗਿਆ ਦੇਣਾ, ਵਿਅਤਨਾਮ ਜਮਹੂਰੀ ਗਣਰਾਜ ਵਿਰੁੱਧ ਲੜਨ ਜਾਂਦੇ ਫਰਾਂਸੀਸੀ ਸਾਮਰਾਜੀ ਜੰਗੀ ਜਹਾਜਾਂ ਨੂੰ ਭਾਰਤੀ ਅੱਡਿਆਂ ਵਿਚ ਸਹੂਲਤਾਂ ਮੁਹੱਈਆ ਕਰਨਾ; ਭਾਵੇਂ ਨਾ ਗਿਣਾਉਣੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਹੀ, ਕੋਰੀਆ ਵਿਚ ਅਮਰੀਕਨ ਫੌਜ ਨੂੂੰ ਡਾਕਟਰੀ ਸਹਾਇਤਾ ਭੇਜਣਾ, ਸਨਅੱਤੀ ਵਿਕਾਸ ਲਈ ਸੋਵੀਅਤ ਯੂਨੀਅਨ ਵਲੋਂ ਪੇਸ਼ ਕੀਤੀ ਸਹਾਇਤਾ ਨੂੰ ਪਰਵਾਨ ਕਰਨ ਤੋਂ ਹਿਚਕਿਚਾਉਣਾ-ਇਹ ਸਭ ਇਸ ਰੁਝਾਨ ਦੇ ਸਪੱਸ਼ਟ ਸੰਕੇਤ ਸਨ। ਏਸੇ ਪੜਾਅ 'ਤੇ ਹੀ ਭਾਰਤ ਨੇ ਆਮ ਤੌਰ ਤੇ ਸੰਯੁਕਤ ਰਾਸ਼ਟਰ ਵਿਚ ਪੱਛਮੀ ਬਲਾਕ ਦਾ ਸਾਥ ਦਿੱਤਾ। ਇਸ ਤੱਥ ਨੂੰ ਭਾਰਤੀ ਪ੍ਰਤੀਨਿਧ ਨੇ ਸੰਯੁਕਤ ਰਾਸ਼ਟਰ ਵਿਚ ਖੁਲ੍ਹੇ ਆਮ ਅਤੇ ਸਪੱਸ਼ਟ ਰੂਪ ਵਿਚ ਬਿਆਨ ਕੀਤਾ। ਏਸੇ ਸਮੇਂ ਹੀ, ਸੰਯੁਕਤ ਰਾਸ਼ਟਰ ਦੇ ਨਾਂਅ ਹੇਠ ਅਮਰੀਕਾ ਵਲੋਂ ਲੋਕ-ਜਮਹੂਰੀ ਕੋਰੀਆ ਵਿਰੁੱਧ ਛੇੜੀ ਗਈ ਜਾਬਰਾਨਾ ਜੰਗ ਦੀ ਅਤੇ ਉਤਰੀ ਕੋਰੀਆ ਨੂੰ ਹਮਲਾਵਰ ਗਰਦਾਨਣ ਦੇ ਮਤੇ ਦੀ ਭਾਰਤੀ ਪ੍ਰਤੀਨਿਧ ਨੇ ਹਿਮਾਇਤ ਕੀਤੀ।
    46. ਪ੍ਰੰਤੂ ਬਾਅਦ ਵਿਚ ਕੋਰੀਆ ਅਤੇ ਵਿਅਤਨਾਮ ਵਿਚ ਸਾਮਰਾਜੀ ਹਥਿਆਰਾਂ ਦੀ ਭਾਂਜ ਨਾਲ, ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਸੰਸਾਰ ਦੀ ਆਰਥਕ ਤੇ ਫੌਜੀ ਸ਼ਕਤੀ ਦੇ ਵਾਧੇ ਨਾਲ ਅਤੇ ਪ੍ਰਮਾਣੂ ਹਥਿਆਰਾਂ ਵਿਚ ਪੱਛਮ, ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਕਰਕੇ ਅਮਰੀਕਾ ਦੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀ ਟੁੱਟਣ ਨਾਲ, ਏਸ਼ੀਆ ਤੇ ਅਫਰੀਕਾ ਵਿਚ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦੇ ਘੋਲਾਂ ਦੀ ਬੇ-ਮਿਸਾਲ ਚੜ੍ਹਤ ਨਾਲ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਕਾਰਨ ਸਮਾਜਵਾਦ, ਅਮਨ ਤੇ ਕੌਮੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦੇ ਹੱਕ ਵਿਚ ਸੰਸਾਰ ਤਾਕਤਾਂ ਦਾ ਤੋਲ ਬਦਲ ਗਿਆ, ਸਾਮਰਾਜੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਤੋਂ ਆਪਣੇ ਸਨਅੱਤੀ ਵਿਕਾਸ ਲਈ ਭਾਰੀ ਆਰਥਕ ਸਹਾਇਤਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਦਾ ਭਰਮ ਦੂਰ ਹੋਣ ਨਾਲ, ਕੁੰਜੀਵਤ ਮਹੱਤਤਾ ਦੀਆਂ ਸਨਅੱਤਾਂ ਉਸਾਰਨ ਲਈ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਤੋਂ ਨਿਰਸੁਆਰਥ ਸਹਾਇਤਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਦੀਆਂ ਵਧਦੀਆਂ ਸੰਭਾਵਨਾਵਾਂ ਨਾਲ, ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਅਮਨ ਲਹਿਰ ਅਤੇ ਜਨਤਕ ਲੜਾਕੂ ਲਹਿਰ ਦੇ ਵਾਧੇ ਨਾਲ ਜਿਸ ਦਾ ਪ੍ਰਗਟਾਅ ਪਹਿਲੀਆਂ ਆਮ ਚੋਣਾਂ ਵਿਚ ਹੋਇਆ ਅਤੇ ਭਾਰਤ ਉਪਰ ਦਬਾਅ ਪਾਉਣ ਦੇ ਮੰਤਵ ਅਧੀਨ ਸੀਟੋ ਫੌਜੀ ਸੰਧੀ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਲ ਹੋਣ ਬਾਰੇ ਅਮਰੀਕਾ ਅਤੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਦਾ ਸਮਝੌਤਾ ਹੋਣ ਨਾਲ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਗੁਟ-ਨਿਰਲੇਪਤਾ ਦੀ ਨੀਤੀ ਵਿਚ ਇਕ ਨਵਾਂ ਦੌਰ ਆਰੰਭ ਹੋਇਆ। ਇਹ ਉਹ ਦੌਰ ਸੀ ਜਦੋਂ ਹਕੂਮਤ ਫੌਜੀ ਗਠਜੋੜਾਂ ਵਿਰੁੱਧ, ਸਾਮਰਾਜੀ ਹਮਲਿਆਂ ਵਿਰੁੱਧ, ਬਸਤੀਵਾਦ ਵਿਰੁੱਧ, ਜਨਤਕ ਘੋਲਾਂ ਦੀ ਹਿਮਾਇਤ ਵਿਚ, ਪ੍ਰਮਾਣੂ ਹਥਿਆਰਾਂ ਉੱਪਰ ਪਾਬੰਦੀ ਅਤੇ ਨਿਸ਼ਸਤਰੀਕਰਣ ਲਈ ਅਤੇ ਐਫਰੋ-ਏਸ਼ੀਆਈ ਭਰੱਪਣ ਦੇ ਹੱਕ ਵਿਚ ਸਾਹਮਣੇ ਆਈ। ਇਹ ਦੌਰ ਕੋਰੀਆ ਵਿਚ ਅਮਨ ਕਰਾਉਣ ਲਈ ਜਨੇਵਾ ਕਾਨਫਰੰਸ ਵਿਚ ਇਸ ਦੀ ਸ਼ਮੂਲੀਅਤ ਅਤੇ ਇਸ ਦੇ ਸਰਗਰਮ ਰੋਲ ਵਿਚ, ਤਿੱਬਤ ਬਾਰੇ ਹਿੰਦ-ਚੀਨ ਸੰਧੀ ਉਪਰ ਜਿਸ ਵਿਚ ਪੁਰਅਮਨ ਸਹਿਹੋਂਦ ਦੇ ਅਸੂਲ (ਪੰਚਸ਼ੀਲ) ਸ਼ਾਮਲ ਸਨ, ਦਸਖਤ ਕਰਨ ਵਿਚ ਅਤੇ ਏਸ਼ੀਆਈ-ਅਫਰੀਕੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੀ ਬਾਡੂੰਗ ਕਾਨਫਰੰਸ ਵਿਚ ਇਸ ਦੇ ਰੋਲ ਵਿਚ ਵੇਖਿਆ ਗਿਆ।
    ਗੁਟ-ਨਿਰਲੇਪਤਾ ਦੀ ਨੀਤੀ ਨੂੰ ਦਿੱਤੇ ਗਏ ਨਵੇਂ ਸਾਮਰਾਜ ਵਿਰੋਧੀ ਤੱਤ ਨੇ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਇਕ ਹਾਂ-ਪੱਖੀ ਰੋਲ ਅਦਾ ਕੀਤਾ। ਇਸ ਨੇ ਭਾਰਤ ਨੂੰ ਜੰਗ ਅਤੇ ਪ੍ਰਮਾਣੂ ਡਿਪਲੋਮੇਸੀ ਦੀਆਂ ਨੀਤੀਆਂ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ, ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਝਗੜਿਆਂ ਦੇ ਪੁਰਅਮਨ ਨਿਪਟਾਰੇ ਲਈ ਅਤੇ ਪੁਰਅਮਨ ਸਹਿਹੋਂਦ ਦੇ ਹੱਕ ਵਿਚ ਦ੍ਰਿੜਤਾ ਨਾਲ ਖੜ੍ਹਾ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਨਾਲ ਭਾਰਤ ਦੇ ਸੰਬੰਧ ਜ਼ਿਆਦਾ ਨੇੜਲੇ ਅਤੇ ਸੁਖਾਵੇਂ ਹੋ ਗਏ ਅਤੇ ਉਸਦਾ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਮਾਣ, ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਕਰਕੇ ਏਸ਼ੀਆ ਤੇ ਅਫਰੀਕੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ, ਵੱਧ ਗਿਆ।
    47. ਐਪਰ ਲਗਭਗ ਸੰਨ 1958 ਤੋਂ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਕੇ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਬਦੇਸ਼ ਨੀਤੀ ਸਾਮਰਾਜੀ ਅਤੇ ਸਮਾਜਵਾਦੀ, ਦੋਹਾਂ ਹੀ, ਕੈਪਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਸੰਤੁਲਨ ਬਨਾਈ ਰੱਖਣ ਦੇ ਨਵੇਂ ਪੜਾਅ ਵਿਚੋਂ  ਲੰਘੀ ਹੈ। ਕਾਂਗੋ ਵਿਚ ਇਸ ਦਾ ਰੋਲ, ਅਲਜੇਰੀਅਨ ਅਸਥਾਈ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਪਰਵਾਨ ਕਰਨ ਤੋਂ ਇਸਦਾ ਇਨਕਾਰ, ਕਈ ਬਸਤੀਵਾਦ-ਵਿਰੋਧੀ ਮਾਮਲਿਆਂ ਉਪਰ ਇਸ ਵਲੋਂ ਸਪਸ਼ਟ ਅਤੇ ਡਟਵਾਂ ਪੈਂਤੜਾ ਧਾਰਨ ਕਰਨ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰ, ਵਿਅਤਨਾਮ ਅਤੇ ਲਾਊਸ ਸੰਬੰਧੀ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਕੰਟਰੋਲ ਕਮਿਸ਼ਨ ਦੇ ਚੇਅਰਮੈਨ ਵਜੋਂ ਇਸ ਦਾ ਰੋਲ, 1961 ਵਿਚ ਬੈਲਗਰੇਡ ਵਿਚ ਹੋਈ ਨਿਰਪੱਖ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੀ ਕਾਨਫਰੰਸ ਵਿਚ ਇਸ ਦਾ ਸਟੈਂਡ, ਜਿਸ ਨੇ ਭਾਰਤ ਨੂੰ ਬਹੁਗਿਣਤੀ ਏਸ਼ੀਆਈ ਅਫਰੀਕੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਵਿਚ ਲੈ ਆਂਦਾ, ਨਿਰਪੱਖ ਰਾਜਾਂ ਦੀ ਕਾਹਿਰਾ ਵਿਚ ਹੋਈ ਕਾਨਫਰੰਸ ਵਿਚ ਇਸ ਦਾ ਰੋਲ ਅਤੇ ਇਸ ਵਲੋਂ ਸਾਮਰਾਜ ਦੀ ਸ਼ਹਿ ਨਾਲ ਬਣੇ ਮਲੇਸ਼ੀਆ ਨੂੰ ਪਰਵਾਨਗੀ ਦਿੱਤੇ ਜਾਣਾ, ਸਭ ਘਟਨਾਵਾਂ ਇਸ ਨਵੇਂ ਦੌਰ ਦੀ ਗਵਾਹੀ ਭਰਦੀਆਂ ਹਨ।
    48. ਇਹ ਗੱਲ ਨੋਟ ਕਰਨ ਵਾਲੀ ਹੈ ਕਿ ਭਾਵੇਂ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਏਸ਼ੀਆਈ, ਅਫਰੀਕੀ ਦੇਸ਼ਾਂ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਭਾਰਤ ਵੱਲੋਂ ਆਜ਼ਾਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਉਪਰੰਤ ਆਪਣੇ ਗਲੋਂ ਬਸਤੀਵਾਦ ਦੀ ਪੰਜਾਲੀ ਉਤਾਰੀ, ਨਾਲ ਸਬੰਧਤ ਮਾਮਲਿਆਂ ਅਤੇ ਅਜਿਹੇ ਹੋਰ ਮਾਮਲਿਆਂ ਉਪਰ ਸਪੱਸ਼ਟ ਰੂਪ ਵਿਚ ਅਤੇ ਨਿਰੰਤਰ ਸਾਮਰਾਜ ਵਿਰੋਧੀ ਸਟੈਂਡ ਲਿਆ। ਐਪਰ ਉਸ ਸਮੇਂ, ਜਦੋਂ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਕੈਂਪ ਦੀ ਨਿੱਤ ਵੱਧਦੀ ਸ਼ਕਤੀ ਕਾਰਨ, ਅਫਰੀਕਾ ਦੇ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੁਆਰਾ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਲੈਣ ਕਾਰਨ, ਸੰਸਾਰ ਦੀ ਸਥਿਤੀ ਵਧੇਰੇ ਸੁਖਾਵੀਂ ਹੋ ਗਈ ਸੀ, ਆਸ ਤਾਂ ਇਹ ਕੀਤੀ ਜਾ ਸਕਦੀ ਸੀ ਕਿ ਆਜ਼ਾਦ ਭਾਰਤ ਬਸਤੀਵਾਦ ਦੇ ਵਿਰੋਧ, ਗੁਟ ਨਿਰਲੇਪਤਾ ਅਤੇ ਅਮਨ ਦੀ ਨੀਤੀ ਨੂੰ ਵਧੇਰੇ ਦ੍ਰਿੜਤਾ ਨਾਲ ਅੱਗੇ ਖੜੇਗਾ ਪਰ ਹੋਇਆ ਐਨ ਇਸ ਦੇ ਉਲਟ।
    49. ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਤੇ ਵੱਡੇ ਕਾਰੋਬਾਰਾਂ ਦੇ ਵਾਧੇ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜ਼ਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਨਾਲ ਉਸਰੇ ਸੰਬੰਧ, ਜਿਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸਰਕਾਰ ਵਲੋਂ ਸਰਗਰਮੀ ਨਾਲ ਉਤਸ਼ਾਹਤ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਰਿਹਾ, ਸਰਕਾਰ ਦੀਆਂ ਪੰਜ-ਵਰਸ਼ੀ ਯੋਜਨਾਵਾਂ ਦੀ ਪੱਛਮੀ ਦੇਸ਼ਾਂ, ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਕਰਕੇ ਅਮਰੀਕਾ ਅਤੇ ਹੋਰ ਪੱਛਮੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਅਤੇ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਮੁਦਰਾ ਫੰਡ ਅਤੇ ਸੰਸਾਰ ਬੈਂਕ ਵਰਗੀਆਂ ਸਾਮਰਾਜੀ ਏਜੰਸੀਆਂ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਉਪਰ ਵੱਧਦੀ ਨਿਰਭਰਤਾ, ਭਾਰਤੀ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਦਰਪੇਸ਼ ਬੁਨਿਆਦੀ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਸੁਲਝਾ ਸਕਣ ਵਿਚ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਅਸਫਲਤਾ ਅਤੇ  ਸਰਕਾਰ ਦੀਆਂ ਆਰਥਕ ਨੀਤੀਆਂ ਕਾਰਨ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਸਮਾਜਕ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਦਾ ਉਭਰਨਾ ਤੇ ਤਿੱਖਾ ਹੋਣਾ, ਇਸ ਸਭ ਕੁਝ ਦਾ ਸਰਕਾਰ ਦੀਆਂ ਸਭ ਨੀਤੀਆਂ ਉੱਪਰ ਬੜਾ ਅਸਰ ਪਿਆ ਅਤੇ ਬਦੇਸ਼ ਨੀਤੀ ਇਸ ਪ੍ਰਭਾਵ ਖੇਤਰ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਨਹੀਂ ਸੀ ਹੋ ਸਕਦੀ। ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਬਦੇਸ਼ ਨੀਤੀ ਦਾ ਉਪਰੋਕਤ ਪੜਾਅ ਐਨ ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਰਤਾਰਿਆ ਦਾ ਸਿੱਟਾ ਸੀ ਅਤੇ ਇਹ ਬੁਰਜੁਆ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਜਮਾਤੀ ਖਾਸੇ ਵਿਚੋਂ ਉਤਪੰਨ ਹੁੰਦਾ ਸੀ। ਏਸੇ ਦੌਰਾਨ, ਸਾਮਰਾਜੀ ਸਹਾਇਤਾ ਉਪਰ ਵੱਧਦੀ ਨਿਰਭਰਤਾ ਨੇ ਐਂਗਲੋ-ਅਮਰੀਕੀ ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਨੂੰ ਕਸ਼ਮੀਰ ਦੇ ਸਵਾਲ ਉੱਪਰ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਨਾਲ ਝਗੜੇ ਵਿਚ ਵੱਧਦੀ ਮਾਤਰਾ ਵਿਚ ਮੁਦਾਖ਼ਲਤ ਕਰਨ ਦੇ ਸਮਰੱਥ ਬਣਾ ਦਿੱਤਾ।
    50. ਚੀਨ ਨਾਲ ਉਭਰੇ ਸਰਹੱਦੀ ਝਗੜੇ, ਜਿਸ ਨੇ ਕਿ ਏਸ਼ੀਆ ਦੇ ਸੱਭ ਤੋਂ ਵੱਡੇ ਦੋ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਸਰਹੱਦੀ ਲੜਾਈ ਦਾ ਰੂਪ ਵਟਾ ਲਿਆ ਸੀ, ਨਾਲ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਬਦੇਸ਼ ਨੀਤੀ ਵਿਚ ਸਾਮਰਾਜੀ ਬਲਾਕ ਪੱਖੀ ਝੁਕਾਅ ਹੋਰ ਵਧੇਰੇ ਵੱਧ ਗਿਆ। ਪ੍ਰੰਤੂ 1971 ਵਿਚ ਬੰਗਲਾ ਦੇਸ਼ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧਤ ਸੰਕਟ ਇਸ ਨੀਤੀ ਵਿਚ ਇਕ ਨਵਾਂ ਮੋੜ ਸਿੱਧ ਹੋਇਆ ਅਤੇ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਕੈਂਪ, ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਤੌਰ 'ਤੇ ਸੋਵੀਅਤ ਯੂਨੀਅਨ ਜਿਹੜਾ ਕਿ ਭਾਰਤ ਨਾਲ ਠੋਸ ਰੂਪ ਵਿਚ ਖੜਾ ਹੋਇਆ, ਨਾਲ ਬਹੁਤ ਨੇੜਲੇ ਸੰਬੰਧ ਸਥਾਪਤ ਕਰ ਲਏ।
    51. ਐਪਰ, ਜਦੋਂ ਅੱਸੀਵਿਆਂ ਵਿਚ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਆਰਥਕ ਸੰਕਟ ਹੋਰ ਗੰਭੀਰ ਹੋਇਆ ਅਤੇ ਭੁਗਤਾਨ ਸੰਤੁਲਨ ਦੇ ਸੰਕਟ ਉੱਪਰ ਕਾਬੂ ਪਾਉਣ ਲਈ ਸਾਮਰਾਜੀ ਏਜੈਂਸੀਆਂ ਤੋਂ ਫੌਰੀ ਮਦਦ ਦੀ ਲੋੜ ਉੱਭਰੀ ਤਾਂ ਮੁੜ ਬਦੇਸ਼ ਨੀਤੀ ਵਿਚ ਅਮਰੀਕਾ ਵੱਲ ਤਿੱਖਾ ਝੁਕਾਅ ਉਭਰ ਆਇਆ।
    52. ਪ੍ਰਤੱਖ ਤੌਰ 'ਤੇ, ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਹੇਠ ਚੱਲ ਰਹੇ ਰਾਜ ਤੇ ਸਰਕਾਰ ਤੋਂ, ਜਿਹੜੀ ਕਿ ਲੋਕ-ਵਿਰੋਧੀ ਨੀਤੀਆਂ 'ਤੇ ਚਲ ਰਹੀ ਹੋਵੇ, ਨਾ ਹੀ ਗੁਟ-ਨਿਰਲੇਪਤਾ ਦੀ ਨੀਤੀ ਦੀ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਇਸ ਉੱਪਰ ਬਣਦੇ ਹਕੀਕੀ ਅਮਲ ਦੀ ਆਸ ਰੱਖੀ ਜਾ ਸਕਦੀ ਸੀ। ਅਤੇ, ਇਸਦਾ ਸਬੂਤ ਏਥੇ ਸਪੱਸ਼ਟ ਦਿਖਾਈ ਦਿੰਦਾ ਹੈ। ਪ੍ਰੰਤੂ 1991 ਤੋਂ ਨਵੀਂ ਆਰਥਕ ਪਹੁੰਚ ਅਪਨਾਉਣ ਨਾਲ, ਅਤੇ ਨਾਲ ਹੀ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਕੈਂਪ ਦੇ ਬਿਖਰ ਜਾਣ ਨਾਲ, ਗੁਟ-ਨਿਰਲੇਪਤਾ ਦੀ ਬਦੇਸ਼ ਨੀਤੀ ਗੰਭੀਰ ਖਤਰੇ ਅਧੀਨ ਆ ਗਈ ਹੈ ਅਤੇ ਨਿਰੰਤਰ ਰੂਪ ਵਿਚ ਨਿਰਜਿੰਦ ਹੁੰਦੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਅਰਥਚਾਰੇ ਉੱਪਰ ਸਾਮਰਾਜੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਪੂੰਜੀ ਦੀ ਜਕੜ ਮਜ਼ਬੂਤ ਹੋ ਜਾਣ ਨਾਲ ਭਾਰਤ ਸਰਕਾਰ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਮਸਲਿਆਂ ਸੰਬੰਧੀ ਆਜ਼ਾਦਾਨਾ ਪੁਜੀਸ਼ਨਾਂ ਲੈਣ ਅਤੇ ਅਮਰੀਕਣ ਸਾਮਰਾਜ ਦੇ ਸਰਦਾਰਵਾਦੀ ਮਨਸੂਬਿਆਂ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰਨ ਦੇ ਰੁੱਖ ਨੂੰ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਤਿਆਗਦੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਅਮਰੀਕਣ ਸਰਕਾਰ ਨਾਲ ਯੁਧਨੀਤਕ ਸੁਰੱਖਿਆ ਸੰਧੀ ਅਤੇ ਪ੍ਰਮਾਣੂ ਸਮਝੌਤੇ ਉੱਪਰ ਦਸਖਤ ਕਰਕੇ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਗੁੱਟ-ਨਿਰਲੇਪਤਾ ਅਤੇ ਨਿਰਪੱਖਤਾ ਸੰਬੰਧੀ ਆਪਣੀ ਨੀਤੀ ਲੱਗਭਗ ਗਹਿਣੇ ਧਰ ਦਿੱਤੀ ਹੈ। ਇਸ ਲਈ, ਅੱਜ ਇਹ ਇਕ ਪ੍ਰਥਮ ਲੋੜ ਬਣ ਗਈ ਹੈ ਕਿ ਭਾਰਤ ਦੇ ਦੇਸ਼ ਭਗਤ ਜਨਸਮੂਹਾਂ ਨੂੰ ਬਦੇਸ਼ ਨੀਤੀ ਵਿਚਲੇ ਆਜ਼ਾਦਾਨਾ ਤੇ ਨਿਰਪੱਖ ਤੱਤਾਂ ਦੀ ਰਾਖੀ ਲਈ, ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਦੇ ਹਮਲਾਵਰ ਮਨਸੂਬਿਆਂ ਵਿਰੁੱਧ ਅਤੇ ਚੀਨ, ਪਾਕਿਸਤਾਨ, ਬੰਗਲਾ ਦੇਸ਼, ਸ਼੍ਰੀ ਲੰਕਾ, ਨੇਪਾਲ, ਭੁਟਾਨ, ਮਿਆਨਮਾਰ ਅਤੇ ਸੰਸਾਰ ਦੇ ਹੋਰ ਘੱਟ-ਵਿਕਸਤ ਤੇ ਵਿਕਾਸਸ਼ੀਲ ਦੇਸ਼ਾਂ ਨਾਲ ਭਰਾਤਰੀ ਸੰਬੰਧ ਮਜ਼ਬੂਤ ਕਰਨ ਲਈ ਵਿਸ਼ਾਲ ਪੱਧਰ 'ਤੇ ਲਾਮਬੰਦ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇ।


V. ਬੁਰਜੁਆ ਹਕੂਮਤ ਅਧੀਨ ਰਾਜ ਦਾ ਢਾਂਚਾ ਅਤੇ ਜਮਹੂਰੀਅਤ     

53. ਵਰਤਮਾਨ ਭਾਰਤੀ ਰਾਜ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜੀ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਵਿਚ ਬੁਰਜੁਆਜੀ ਤੇ ਜਗੀਰਦਾਰੀ ਦੇ ਜਮਾਤੀ ਰਾਜ ਦਾ ਸਾਧਨ ਹੈ, ਅਤੇ ਇਹ ਜਮਾਤਾਂ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਰਾਹ ਉੱਪਰ ਚਲਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਬਦੇਸ਼ੀ ਵਿੱਤੀ ਸਰਮਾਏ ਨਾਲ ਵਧੇਰੇ ਤੋਂ ਵਧੇਰੇ ਭਿਆਲੀ ਪਾਉਂਦੀਆਂ ਜਾ ਰਹੀਆਂ ਹਨ। ਇਹ ਜਮਾਤੀ ਕਿਰਦਾਰ ਹੀ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਰਾਜ ਦੇ ਕਿਰਦਾਰ ਨੂੂੰ ਨਿਰਧਾਰਤ ਕਰਦਾ ਹੈ।
    54. ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਤੋਂ ਪਿਛੋਂ ਭਾਰਤੀ ਹਾਕਮਾਂ ਤੋਂ ਆਸ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਸੀ ਕਿ ਉਹ ਭਾਸ਼ਾਈ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ਾਂ ਦੇ ਆਧਾਰ ਉੱਪਰ ਇਹਨਾਂ ਰਾਜਾਂ ਨੂੰ ਪੂਰਨ ਖੁਦ ਮੁਖਤਿਆਰੀ ਤੇ ਕਬਾਇਲੀ ਖਿਤਿਆਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਦੇਸ਼ਕ ਜਾਂ ਸਥਾਨਕ ਸਵੈ-ਅਧਿਕਾਰ ਦੇਣ ਨਾਲ ਲੋਕ-ਤਾਂਤਰਿਕ ਭਾਰਤ ਦੇ ਰਾਜਸੀ ਢਾਂਚੇ ਨੂੰ ਨਵਾਂ ਰੂਪ ਦਿੰਦੇ। ਭਾਵੇਂ ਜਨਤਕ ਦਬਾਅ ਅਧੀਨ ਤੇ ਜਨਤਕ ਸੰਗਰਾਮਾਂ ਦੇ ਪਿਛੋਕੜ ਵਿਚ ਇਹਨਾਂ ਨੇ ਰਿਆਸਤਾਂ ਦਾ ਖਾਤਮਾ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਭਾਰਤੀ ਯੂਨੀਅਨ ਵਿਚ ਸਮੋ ਲਿਆ, ਤਦ ਵੀ ਸੌੜੀ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਵਾਲੇ ਅਤੇ ਪਿੱਛੇ ਖਿਚੂ ਅਜ਼ਾਰੇਦਾਰ ਗਰੁੱਪਾਂ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਅਧੀਨ ਸਰਕਾਰ ਨੇ ਸਭ ਰਾਜਾਂ ਨੂੰ ਭਾਸ਼ਾਈ ਅਧਾਰ ਉੱਪਰ ਪੁਨਰਸੰਗਠਤ ਕਰਨ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰ ਕੀਤਾ। ਆਖਰਕਾਰ ਜਮਹੂਰੀ ਜਨਤਾ ਦੇ ਘੋਲਾਂ ਦੇ ਜ਼ੋਰ ਅਧੀਨ, ਭਾਵੇਂ ਰੁਕ-ਰੁਕ ਕੇ ਹੀ, ਇਹ ਸਮੱਸਿਆ ਹੱਲ ਹੋਈ। ਐਪਰ, ਅਜੇ ਵੀ ਕੁਝ ਅਣ-ਨਜ਼ਿਠੀਆਂ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਕਾਇਮ ਹਨ।
    55. ਭਾਸ਼ਾ ਸੰਬੰਧੀ ਸਮੱਸਿਆ ਅਜੇ ਵੀ ਸੰਤੋਖਜਨਕ ਢੰਗ ਨਾਲ ਸੁਲਝਾਈ ਨਹੀਂ ਗਈ। ਵੱਖ-ਵੱਖ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ਾਂ ਦੀਆਂ ਭਾਸ਼ਾਵਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਅਜੇ ਅਸਰਦਾਰ ਢੰਗ ਨਾਲ ਰਾਜ ਪ੍ਰਬੰਧ ਤੇ ਅਦਾਲਤਾਂ ਦੀ ਭਾਸ਼ਾ ਬਨਾਉਣਾ ਅਤੇ ਸਿੱਖਿਆ ਦਾ ਮਾਧਿਅਮ ਬਣਾਇਆ ਜਾਣਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। ਸਾਡੇ ਰਾਜ ਪ੍ਰਬੰਧ ਅਤੇ ਵਿਦਿਅਕ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਅਜੇ ਵੀ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਭਾਰੂ ਹੈ। ਪ੍ਰਾਦੇਸ਼ਕ ਭਾਸ਼ਾਵਾਂ ਦੇ ਪ੍ਰਬੰਧਕੀ ਅਤੇ ਵਿਦਿਅਕ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਆਪਣਾ ਹੱਕੀ ਸਥਾਨ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ, ਪਾਰਲੀਮੈਂਟ ਤੇ ਕੇਂਦਰੀ ਰਾਜ ਪ੍ਰਬੰਧ ਵਿਚ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਬਰਾਬਰ ਦਾ ਸਥਾਨ ਦੇਣ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰ ਕਰਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ, ਗੈਰ-ਹਿੰਦੀ ਲੋਕਾਂ ਉੱਪਰ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਦੀ ਥਾਂ ਹਿੰਦੀ ਠੋਸਣ ਦੇ ਯਤਨ ਕੀਤੇ ਗਏ।
    56. ਭਾਵੇਂ ਸਾਡਾ ਰਾਜਸੀ ਢਾਂਚਾ ਫੈਡਰਲ ਮਿਥਿਆ ਗਿਆ ਸੀ ਤਦ ਵੀ ਅਮਲ ਵਿਚ ਸਾਰੀ ਸ਼ਕਤੀ ਅਤੇ ਅਧਿਕਾਰ ਕੇਂਦਰੀ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿਚ ਕੇਂਦਰਤ ਹਨ। ਰਾਜਾਂ ਪਾਸ ਬੜੀ ਸੀਮਿਤ ਜਿਹੀ ਸ਼ਕਤੀ ਅਤੇ ਅਧਿਕਾਰ ਹਨ, ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਖੁਦਮੁਖਤਾਰੀ ਰਸਮੀ ਹੈ, ਇਹ ਸਥਿਤੀ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ਾਂ ਨੂੰ ਬੁਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਕੇਂਦਰੀ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਮੁਥਾਜ ਬਣਾ ਦਿੰਦੀ ਹੈ, ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਵਿਕਾਸ ਅਤੇ ਦੂਸਰੀਆਂ ਕੌਮੀ ਉਸਾਰੀ ਦੀਆਂ ਸਰਗਰਮੀਆਂ ਨੂੰ ਰੋਕਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਤਰੱਕੀ ਦੇ ਰਾਹ ਵਿਚ ਰੋੜਾ ਬਣਦੀ ਹੈ।
    57. ਅਜੇਹੀ ਅਵਸਥਾ ਵਿਚ ਕੇਂਦਰੀ ਸਰਕਾਰ ਅਤੇ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਦਾ ਉਤਪਨ ਹੋਣਾ ਤੇ ਵੱਧਣਾ ਸੁਭਾਵਕ ਹੀ ਸੀ। ਇਹਨਾਂ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਦੇ ਹੇਠਾਂ, ਆਮ ਤੌਰ 'ਤੇ, ਇਕ ਪਾਸੇ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਅਤੇ ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਸਮੁੱਚੇ ਲੋਕਾਂ, ਸਮੇਤ ਇਕ ਜਾਂ ਦੂਜੇ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ ਦੀ ਸਥਾਨਕ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ, ਵਿਚਕਾਰ ਇਕ ਡੂੰਘੀ ਵਿਰੋਧਤਾਈ ਕੰਮ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਇਹ ਡੂੰਘੇਰੀ ਵਿਰੋਧਤਾਈ ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਅਧੀਨ ਅਸਾਵੇਂ ਆਰਥਕ ਵਿਕਾਸ ਕਾਰਨ ਆਜ਼ਾਦ ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਇਕ ਦਹਾਕੇ ਅੰਦਰ ਹੀ ਤਿੱਖੀ ਹੋਣੀ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਗਈ, ਜਿਸਦੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਕੁੱਝ ਇਕ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਇਲਾਕਾਈ ਬੁਰਜੁਆ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਪਾਰਟੀਆਂ ਉੱਭਰ ਆਈਆਂ, ਜਿਹਨਾਂ ਨੇ ਕੇਂਦਰ ਤੇ ਰਾਜਾਂ ਅੰਦਰ ਸਰਕਾਰਾਂ ਬਨਾਉਣ ਸੰਬੰਧੀ ਕਾਂਗਰਸ ਪਾਰਟੀ ਦੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀ ਨੂੰ ਤੋੜਨ ਵਿਚ ਅਤੇ ਰਾਜਕੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੇ ਜਮਹੂਰੀ ਵਿਕੇਂਦਰੀਕਰਨ ਰਾਹੀਂ ਫੈਡਰਲ ਢਾਂਚਾ ਵਿਕਸਤ ਕਰਨ ਦੇ ਸੰਘਰਸ਼ ਵਿਚ, ਇਕ ਹੱਦ ਤੱਕ, ਹਾਂ-ਪੱਖੀ ਭੂਮਿਕਾ ਨਿਭਾਈ।
    58. ਐਪਰ ਬਾਅਦ ਵਿਚ, ਆਪਣੇ ਜਮਾਤੀ ਹਿੱਤਾਂ ਕਾਰਨ ਇਹਨਾਂ ਬੁਰਜ਼ਵਾ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਇਲਾਕਾਈ ਪਾਰਟੀਆਂ 'ਚੋਂ ਕੁੱਝ ਇਕ ਜਿਵੇਂ ਕਿ ਅਕਾਲੀ ਦਲ, ਡੀ.ਐਮ.ਕੇ., ਏ.ਆਈ.ਏ.ਡੀ.ਐਮ.ਕੇ., ਆਰ.ਜੇ.ਡੀ., ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਪਾਰਟੀ, ਤੈਲਗੂਦੇਸ਼ਮ ਪਾਰਟੀ ਆਦਿ ਵੀ ਖੁੱਲ੍ਹੇ ਤੌਰ 'ਤੇ ਫਿਰਕੂ, ਜਾਤੀਵਾਦੀ ਜਾਂ ਇਲਾਕਾਈ ਛਾਵਨਵਾਦੀ ਨਾਅਰੇ ਲਾਉਣ ਲੱਗ ਪਈਆਂ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਆਪਣੇ ਸੌੜੇ ਸਿਆਸੀ ਹਿੱਤਾਂ ਲਈ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਪਛੜੇਵੇਂ ਦੀ ਦੁਰਵਰਤੋਂ ਕੀਤੀ ਹੈ। ਸਾਮਰਾਜੀ ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ ਦੀ ਆਮਦ ਨਾਲ ਇਹ ਸਾਰੀਆਂ ਇਲਾਕਾਈ ਬੁਰਜੁਆ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਪਾਰਟੀਆਂ ਨਵ-ਉਦਾਰਵਾਦ ਦੀਆਂ ਜ਼ੋਰਦਾਰ ਸਮਰਥਕ ਧਿਰਾਂ ਵਜੋਂ ਸਾਹਮਣੇ ਆਈਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਜਦੋਂ ਵੀ ਤੇ ਜਿੱਥੇ ਵੀ ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਰਾਜ ਕਰਨ ਦਾ ਮੌਕਾ ਮਿਲਿਆ ਹੈ, ਇਹਨਾਂ ਨੇ ਸਾਮਰਾਜੀ ਏਜੈਂਸੀਆਂ ਵਲੋਂ ਨਿਰਦੇਸ਼ਤ ਲੋਕ-ਵਿਰੋਧੀ ਨੀਤੀਆਂ ਨੂੰ ਪੂਰੀ ਤਾਕਤ ਨਾਲ ਲਾਗੂ ਕੀਤਾ ਹੈ।
    59. ਕਈ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਕਈ ਅਜਿਹੇ ਜੁੜਵੇਂ ਇਲਾਕੇ ਹਨ ਜਿਥੇ ਕਬਾਇਲੀ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਅਜੇਹੀ ਵਸੋਂ ਹੈ ਜਿਹਨਾਂ ਦੀ ਆਪਣੀ ਹੀ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਭਾਸ਼ਾ, ਸਭਿਆਚਾਰ ਤੇ ਸੰਸਕ੍ਰਿਤੀ ਹੈ। ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਵਿਕਾਸ ਦੀਆਂ ਨਵੀਆਂ ਸਥਿਤੀਆਂ ਅਧੀਨ ਇਹ ਲੋਕ ਇਕ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੇ ਪਰਿਵਰਤਨ ਤੇ ਤਬਾਹੀ ਦੇ ਦੌਰ ਵਿਚੋਂ ਦੀ ਲੰਘ ਰਹੇ ਹਨ। ਉਹਨਾਂ ਅੰਦਰ ਇਸ ਸਬੰਧੀ ਸੋਝੀ ਵੀ ਉਭਰ ਆਈ ਹੈ। ਵੱਡੇ ਪ੍ਰਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਖਿੰਡੇ-ਪੁੰਡੇ ਤੇ ਨਿੱਕੇ-ਨਿੱਕੇ ਗਰੋਹਾਂ ਵਿਚ ਹੋਣ ਕਰਕੇ ਉਨਾਂ ਦੇ ਵਸੇਬੇ ਦੀਆਂ ਅਜੋਕੀਆਂ ਸਥਿਤੀਆਂ ਵਿਚ ਇਹ ਨਵੀਂ ਸੋਝੀ ਆਪਣੇ ਪ੍ਰਗਟਾਅ ਲਈ ਕੋਈ ਮੌਕਾ ਹਾਸਲ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦੀ। ਜਿੱਥੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਕਾਫੀ ਜ਼ਿਆਦਾ ਹੈ ਤੇ ਭੂਗੋਲਕ ਸਥਿਤੀ ਆਗਿਆ ਦਿੰਦੀ ਹੈ, ਉੱਥੇ ਉਹ ਆਪਣੇ ਇਲਾਕਿਆਂ ਨੂੰ ਤਰੱਕੀ ਦੇਣ, ਪ੍ਰਾਦੇਸ਼ਕ ਜਾਂ ਪੂਰਨ ਖੁਦਮੁਖਤਾਰੀ ਦੀ ਮੰਗ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਪ੍ਰੰਤੂ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਜਿਸ ਲਈ ਇਹ ਕਬਾਇਲੀ ਲੋਕ ਜੰਗਲਾਂ, ਖਾਣਾਂ ਆਦਿ ਵਿਚ ਕਿਰਤ ਦੀ ਸਪਲਾਈ ਦਾ ਚੰਗਾ ਵਸੀਲਾ ਬਣੇ ਹੋਏ ਹਨ ਅਤੇ ਜੋ ਆਪਣੀਆਂ ਕਬਾਇਲੀ ਪ੍ਰਸਥਿਤੀਆਂ ਅਧੀਨ ਉਸ ਦੁਆਰਾ ਲੁੱਟ-ਖਸੁੱਟ ਦੇ ਸਹਿਜੇ ਸ਼ਿਕਾਰ ਹੋ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਵਾਜਬ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰ ਕਰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਸ਼ਕਤੀ ਨਾਲ ਦਬਾਉਂਦੀ ਹੈ ਜਾਂ ਉਪਰਲੇ ਆਗੂਆਂ ਨੂੰ ਕੁੱਝ ਰਿਆਇਤਾਂ ਦੇ ਕੇ ਉਹਨਾਂ ਵਿਚ ਫੁੱਟ ਪਾਉਂਦੀ ਹੈ।
    60. ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆ ਲੀਡਰਸ਼ਿਪ ਬੁਲੰਦ ਅਵਾਜ਼ ਵਿਚ ਦਾਅਵਾ ਕਰਦੀ ਹੈ ਕਿ ਸਾਡਾ ਧਰਮ-ਨਿਰਪੱਖ ਲੋਕਤੰਤਰ ਹੈ ਅਤੇ ਉਹ ਮਜਹਬੀ ਤੇ ਹਨੇਰਵਿਰਤੀ ਵਾਲੇ ਅਸੂਲਾਂ ਦੇ ਇਸ ਵਿਚ ਦਾਖਲੇ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਹੈ। ਪਰ ਸਚਾਈ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਇਨ੍ਹਾਂ ਧਰਮ-ਨਿਰਪੱਖਤਾ ਵਿਰੋਧੀ ਰੁਝਾਨਾਂ ਨੂੰ ਅਸਰਦਾਰ ਢੰਗ ਨਾਲ ਰੋਕਣਾ ਤਾਂ ਦੂਰ ਰਿਹਾ, ਉਹ ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਰਿਆਇਤਾਂ ਦਿੰਦੀ ਤੇ ਮਜ਼ਬੂਤ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਇਸ ਦੇ ਆਗੂ ਨਿਰੰਤਰ ਸੈਕੂਲਰ ਸਟੈਂਡ ਨਹੀਂ ਲੈਂਦੇ ਸਗੋਂ ਖੁਦ ਮਜਹਬੀ ਹਨੇਰਵਿਰਤੀ ਦੇ ਸ਼ਿਕਾਰ ਹਨ। ਉਹ ਧਰਮ ਨਿਰਪੱਖਤਾ ਦੇ ਸਮੁੱਚੇ ਸੰਕਲਪ ਨੂੰ ਵਿਗਾੜਨ ਦਾ ਯਤਨ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਇਹ ਮੰਨਵਾਉਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਧਰਮ ਤੇ ਰਾਜਨੀਤੀ ਨੂੰ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਵੱਖੋ-ਵੱਖ ਰੱਖਣ ਦੀ ਥਾਂ ਧਰਮ ਨਿਰਪੱਖਤਾ ਦਾ ਅਰਥ ਹੈ ਸਭ ਧਾਰਮਕ ਵਿਸ਼ਵਾਸਾਂ ਨੂੰ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਰਾਜਸੀ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਦਖਲ ਦੇਣ ਦੀ ਬਰਾਬਰ ਖੁੱਲ੍ਹ ਦੇਣਾ। ਅਸਲ ਵਿਚ, ਉਹਨਾਂ ਲਈ ਧਰਮ ਨਿਰਪੱਖਤਾ ਇਕ ਰਾਜਨੀਤਕ ਲਾਹੇਵੰਦੀ ਦਾ ਮੁੱਦਾ ਹੈ, ਸਮਾਜਕ ਪ੍ਰਤੀਬੱਧਤਾ ਦਾ ਨਹੀਂ।
    61. ਅਜਿਹੀ ਅਵਸਥਾ ਵਿਚ, ਕਿਰਤੀ ਜਨਸਮੂਹਾਂ ਦੀਆਂ ਬੁਨਿਆਦੀ ਸਮਾਜਿਕ ਆਰਥਕ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਨੂੰ ਨਿਪਟਾਉਣ ਵਿਚ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਪੂਰਨ ਅਸਫਲਤਾ ਤੋਂ ਅਤੇ ਧਰਮ ਨਿਰਪੱਖਤਾ ਪ੍ਰਤੀ ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਦੀ ਇਸ ਥਿੜਕਣਾ ਭਰਪੂਰ ਤੇ ਮੌਕਾਪ੍ਰਸਤ ਪਹੁੰਚ ਤੋਂ ਲਾਹਾ ਲੈ ਕੇ, ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਆਰ.ਐਸ.ਐਸ. ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਹੇਠ ਕੱਟੜ ਫਿਰਕੂ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਵੱਡੀ ਪੱਧਰ 'ਤੇ ਉਭਰੀਆਂ ਹਨ। ਇਸ ਘਟਨਾ ਨੇ ਘੱਟ ਗਿਣਤੀਆਂ ਅੰਦਰ ਅਸੁਰੱਖਿਆ ਅਤੇ ਬੇਗਾਨਗੀ ਦੀਆਂ ਭਾਵਨਾਵਾਂ ਪੈਦਾ ਕੀਤੀਆਂ ਤੇ ਮਜ਼ਬੂਤ ਕੀਤੀਆਂ ਹਨ। ਇਸਦੇ ਪ੍ਰਤੀਕਰਮ ਵਜੋਂ ਘੱਟ ਗਿਣਤੀਆਂ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧਤ ਫਿਰਕੂ ਲੀਡਰ ਅਤੇ ਕੱਟੜਪੰਥੀ ਵੀ ਘੱਟ ਗਿਣਤੀ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਫਿਰਕੂ ਤੇ ਵੰਡਵਾਦੀ ਲੀਹਾਂ 'ਤੇ ਜਥੇਬੰਦ ਕਰਨ ਦੇ ਯਤਨ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ, ਜਿਸ ਨਾਲ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਏਕਤਾ ਅਤੇ ਅਖੰਡਤਾ ਲਈ ਗੰਭੀਰ ਚਿੰਤਾਵਾਂ ਪੈਦਾ ਹੋਈਆਂ ਹਨ।
    ਇਸ ਲਈ ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ ਦਾ ਇਹ ਫਰਜ ਬਣਦਾ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਧਰਮ ਨਿਰਪੱਖਤਾ ਦੇ ਅਸੂਲ ਉੱਪਰ ਨਿਰੰਤਰ ਅਮਲ ਕਰਾਉਣ ਲਈ ਡਟਵਾਂ ਘੋਲ ਲੜੇ। ਇਸ ਅਸੂਲ ਪ੍ਰਤੀ ਹਾਕਮਾਂ ਦੀਆਂ ਥਿੜਕਨਾਂ ਨੂੰ ਨੰਗਾ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇ ਤੇ ਉਹਨਾਂ ਵਿਰੁੱਧ ਲੜਿਆ ਜਾਵੇ। ਹਰ ਧਾਰਮਿਕ ਫਿਰਕੇ ਦੇ--ਭਾਵੇਂ ਉਹ ਬਹੁ ਗਿਣਤੀ ਵਾਲਾ ਹੈ ਜਾਂ ਘੱਟ ਗਿਣਤੀ ਵਾਲਾ--ਅਤੇ ਉਹ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਕਿਸੇ ਧਰਮ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨਹੀਂ, ਸਭ ਦੇ ਜੋ ਮਰਜੀ ਨਾਲ ਧਰਮ ਅਪਨਾਉਣ ਜਾਂ ਨਾਸਤਕ ਰਹਿਣ ਦੇ ਅਧਿਕਾਰ ਦੀ ਰਾਖੀ ਕਰਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਪਾਰਟੀ, ਕੌਮ ਦੇ ਸਮਾਜਕ, ਆਰਥਕ, ਰਾਜਨੀਤਕ ਤੇ ਪ੍ਰਬੰਧਕੀ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਧਰਮ ਦੀ ਕਿਸੇ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦੀ ਵੀ ਦਖਲਅੰਦਾਜ਼ੀ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਸੰਗਰਾਮ ਕਰੇ। ਦੇਸ਼ ਦੇ ਪਬਲਿਕ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਦਖਲਅੰਦਾਜ਼ੀ ਕਰਨ ਦੇ ਸਭਨਾਂ ਧਾਰਮਿਕ ਗਰੁੱਪਾਂ ਦੇ ਆਗੂਆਂ ਦੇ ਯਤਨਾਂ ਵਿਰੁੱਧ ਬਰਾਬਰ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਨ ਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਅਸੀਂ ਬਹੁਸੰਮਤੀ ਧਾਰਮਿਕ ਫਿਰਕੇ ਅਥਵਾ ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੇ ਛਾਵਨਵਾਦੀ ਆਗੂਆਂ ਵਿਰੁੱਧ ਗੋਲਾਬਾਰੀ ਵਧੇਰੇ ਕੇਂਦਰਤ ਕਰੀਏ। ਇਸ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ ਅਸੀਂ ਘੱਟ ਗਿਣਤੀ ਵਾਲੇ ਧਾਰਮਿਕ ਗਰੁੱਪਾਂ ਨੂੰ ਦਸਦੇ ਜਾਈਏ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਵਾਜਬ ਅਧਿਕਾਰ ਧਰਮ ਨਿਰਪੱਖਤਾ ਦੇ ਅਸੂਲ ਉਪਰ ਨਿਰੰਤਰ ਅਮਲ ਦੇ ਆਧਾਰ 'ਤੇ ਹੀ ਕਾਇਮ ਰਹਿ ਸਕਦੇ ਤੇ ਸੁਰੱਖਿਅਤ ਹੋ ਸਕਦੇ ਹਨ।
    62. ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਮੁਕਾਬਲੇ ਦੀਆਂ ਹਾਲਤਾਂ ਵਿਚ ਸੰਵਿਧਾਨ ਵਿਚ ਦੱਬੇ  ਕੁਚਲੇ ਲੋਕਾਂ, ਦਲਿਤਾਂ, ਪਛੜੇ ਹਿੱਸਿਆਂ ਅਤੇ ਘੱਟ ਗਿਣਤੀਆਂ ਦੇ ਗਰੰਟੀ ਸ਼ੁਦਾ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਉੱਪਰ ਵੀ ਅਮਲ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ। ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਬੁਰਜੁਆ-ਜਗੀਰੂ ਰਾਜ, ਏਕਤਾ ਵਿਰੋਧੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਨੂੰ ਬਲ ਬਖਸ਼ਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਮਜਬੂਤ ਧਰਮ ਨਿਰਪੱਖ ਅਤੇ ਸਮਾਨਤਾ ਦੀਆਂ ਨੀਹਾਂ ਉੱਪਰ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਏਕਤਾ ਉਸਾਰਨ ਵਿਚ ਅਸਫਲ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ।
    63. ਪ੍ਰਬੰਧਕੀ ਢਾਂਚਾ ਅਤਿਅੰਤ ਕੇਂਦਰਤ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹੀ ਉਪਰ ਅਧਾਰਤ ਹੋਣ ਕਰਕੇ, ਜੋ ਕਿ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਉਥਾਨ ਨੂੰ ਦ੍ਰਿਸ਼ਮਾਨ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਕੁਝ ਉਪਰਲੇ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹਾਂ, ਜੋ ਦੂਜੇ ਲੋਕਾਂ ਨਾਲੋਂ ਟੁੱਟੇ ਹੋਏ ਹਨ ਤੇ ਜੋ ਲੋਟੂ ਜਮਾਤਾਂ ਦੇ ਹਿੱਤਾਂ ਨੂੰ ਵਫਾਦਾਰੀ ਨਾਲ ਪਾਲਦੇ ਹਨ, ਦੇ ਹੱਥ ਵਿਚ ਸਾਰੀ ਸ਼ਕਤੀ ਕੇਂਦਰਤ ਕਰਦਾ ਹੈ ਤੇ ਇਹ ਸਮੁੱਚੀ ਸ਼ਕਤੀ ਉਹਨਾਂ ਦੁਆਰਾ ਵਰਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਇਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਪੰਚਾਇਤੀ ਰਾਜ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਵੀ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹੀ ਦੇ ਹੱਥਕੰਡਿਆਂ ਦਾ ਸ਼ਿਕਾਰ ਬਣ ਗਈ ਹੈ ਅਤੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਆਸ ਮੁਤਾਬਕ ਸਹੂਲਤਾਂ ਦੇਣ ਵਿਚ ਅਸਫਲ ਸਿੱਧ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ। ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਪੰਚਾਇਤੀ ਰਾਜ, ਪੇਂਡੂ ਇਲਾਕਿਆਂ ਵਿਚ, ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਦੇ ਹੱਥ ਵਿਚ ਆਪਣੀ ਪੁਜੀਸ਼ਨ ਪਕੇਰੀ ਕਰਨ ਦਾ ਹਥਿਆਰ ਬਣ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਲੁਟੇਰੇ ਹਾਕਮਾਂ ਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹਾਂ ਦੁਆਰਾ ਚਲਾਈ ਜਾਂਦੀ ਅਜਿਹੀ ਬੁਰਜੁਆ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਵਿਚ ਜਨਤਾ ਵਾਸਤੇ ਵਾਸਤਵਿਕ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਦੀ ਕੋਈ ਥਾਂ ਨਹੀਂ।
    64. ਨਿਆਂ-ਪਾਲਕਾ, ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ, ਕਿਸਾਨਾਂ ਤੇ ਦੂਸਰੇ ਮਿਹਨਤਕਸ਼ ਤਬਕਿਆਂ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਉਲਾਰ ਹੈ। ਕਾਨੂੂੰਨ, ਵਿਵਹਾਰ ਤੇ ਇਨਸਾਫ ਦਾ ਢਾਂਚਾ ਭਾਵੇਂ ਅਸੂਲੀ ਰੂਪ ਵਿਚ ਅਮੀਰ ਤੇ ਗਰੀਬ ਲਈ ਬਰਾਬਰ ਹੈ, ਪਰ ਅਮਲ ਵਿਚ ਉਹ ਲੋਟੂ ਜਮਾਤਾਂ ਦੇ ਹਿੱਤਾਂ ਨੂੰ ਪਾਲਦੇ ਹਨ ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਜਮਾਤੀ ਰਾਜ ਨੂੰ ਬਰਕਰਾਰ ਰੱਖਦੇ ਹਨ। ਏਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਨਿਆਂ-ਪਾਲਕਾ ਤੇ ਕਾਰਜਕਾਰਨੀ ਨੂੰ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਰੱਖਣ ਦੇ ਬੁਰਜੁਆ ਜਮਹੂਰੀ ਅਸੂਲ ਉਪਰ ਵੀ ਅਮਲ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਅਤੇ ਨਿਆਂ-ਪਾਲਕਾ ਕਾਰਜਕਾਰਨੀ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਤੇ ਕੰਟਰੋਲ ਦੀ ਦੁਬੇਲ ਬਣ ਜਾਂਦੀ ਹੈ।
    65. ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਤੇ ਉਸ ਦੇ ਸਹਿਯੋਗੀ ਲੈਂਡਲਾਰਡ, ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ, ਕਿਸਾਨੀ ਤੇ ਮੱਧ ਸ਼ਰੇਣੀਆਂ ਦੇ ਟਾਕਰੇ ਵਿਚ, ਜਿਨਾਂ ਉੱਪਰ ਉਹ ਰਾਜ ਕਰਦੇ ਹਨ, ਅਤੇ ਜ਼ਮੀਨ, ਸਰਮਾਏ ਤੇ ਵਸੇਬੇ ਦੇ ਸਭ ਸਾਧਨਾਂ ਉੱਪਰ ਆਪਣੀ ਮਾਲਕੀ ਕਾਰਨ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਲੁੱਟ-ਖਸੁੱਟ ਕਰਦੇ ਹਨ, ਸਮੁੱਚੇ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਇਕ ਛੋਟੀ ਜਿਹੀ ਘਟ ਗਿਣਤੀ ਹਨ। ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਤੇ ਉਸਦੀ ਸਰਕਾਰ, ਪਾਰਲੀਮਾਨੀ ਜਮਹੂਰੀ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਵਿਚ ਬਹੁਸੰਮਤੀ ਵੋਟਾਂ ਦੁਆਰਾ ਚੁਣੇ ਜਾਣ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ, ਰਾਜਸੀ ਤੇ ਆਰਥਕ ਤੱਤ ਵਜੋਂ ਇਸ ਘੱਟ ਸੰਮਤੀ ਦੀ ਪ੍ਰਤੀਨਿੱਧਤਾ ਕਰਦੀ ਹੈ।
    66. ਜਦੋਂ ਇਹ ਰਾਜ ਸ਼ਕਤੀ ਤੇ ਇਸ ਦੇ ਜਮਾਤੀ ਹਿੱਤ ਲੁੱਟੇ ਜਾਂਦੇ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਹਿੱਤਾਂ ਨਾਲ ਸਿੱਧੇ ਤੌਰ 'ਤੇ ਟਕਰਾਉਂਦੇ ਹਨ ਤਾਂ ਸਰਕਾਰ ਆਪਣੇ ਰਾਜ ਨੂੰ ਬਣਾਈ ਰੱਖਣ ਲਈ ਫੌਜ ਤੇ ਪੁਲਸ ਉਪਰ ਵੱਧ ਤੋਂ ਵੱਧ ਨਿਰਭਰਤਾ ਕਰਨ ਵੱਲ ਰੁੱਖ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਇਹਨਾਂ ਫੌਜਾਂ ਵਿਚਲੇ ਲੱਖਾਂ ਫੌਜੀ ਜੁਆਨਾਂ ਨੂੰ ਲੋਕਾਂ ਤੋਂ, ਸਾਰੀ ਰਾਜਨੀਤਕ ਚੇਤੰਨਤਾ ਤੋਂ ਤੇ ਸਭ ਰਾਜਸੀ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਤੋਂ ਪਰੇ ਰੱਖਦੀ ਹੈ। ਜੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਚੋਣਾਂ ਵਿਚ ਨਾਗਰਿਕਾਂ ਵਜੋਂ ਵੋਟ ਦੇਣ ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ ਵੀ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਵੀ ਕਿਸੇ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦੇ ਸਾਹਿਤ ਦੁਆਰਾ ਕਿਸੇ ਵੀ ਰਾਜਸੀ ਪਾਰਟੀ ਨੂੰ ਉਹਨਾਂ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚ ਕਰਨ ਦੀ ਆਗਿਆ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ। ਫੌਜੀਆਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਪਾਰਲੀਮਾਨੀ ਹਲਕੇ ਦੇ ਪ੍ਰਤੀਨਿੱਧ ਨੂੰ ਵੀ ਕਿਸੇ ਕੰਮ ਦੀ ਖਾਤਰ ਮਿਲ ਸਕਣ ਦੀ ਆਗਿਆ ਨਹੀਂ।
    67. ਐਪਰ, ਇਹ ਸਾਰਾ ਕੁਝ ਜਰਨੈਲਾਂ, ਨੌਕਰਸ਼ਾਹਾਂ ਅਤੇ ਧੁਰ ਉਪਰਲੇ ਅਫਸਰਾਂ ਉੱਤੇ ਲਾਗੂ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ਜੋ ਆਮ ਤੌਰ ਤੇ ਬੁਰਜੁਆ-ਜਗੀਰੂ ਜਮਾਤਾਂ ਵਿਚੋਂ ਲਏ ਗਏ ਹੁੰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਵਿਚ ਵਿਦਿਆ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕੀਤੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਉਹ ਪਰਦੇ ਪਿਛਿਉਂ ਆਪਣੇ ਹੀ ਢੰਗ ਨਾਲ ਆਪਣੀ ਰਾਜਨੀਤੀ ਚਲਾਉਂਦੇ ਹਨ।
    68. ਭਾਰਤ ਦੇ ਸੰਵਿਧਾਨ ਵਿਚ ਬਾਲਗ ਵੋਟ ਦੁਆਰਾ ਚੁਣੀ ਹੋਈ ਪਾਰਲੀਮੈਂਟ ਦੀ ਵਿਵਸਥਾ ਹੈ ਤੇ ਇਸ ਸੰਵਿਧਾਨ ਵਿਚ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਕੁਝ ਬੁਨਿਆਦੀ ਅਧਿਕਾਰ ਦਿੱਤੇ ਗਏ ਹਨ। ਪ੍ਰੰਤੂ ਲੋਕ ਇਹਨਾਂ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਦੀ ਬਹੁਤ ਹੀ ਸੀਮਤ ਹੱਦ ਤੱਕ ਵਰਤੋਂ ਕਰਨ ਵਿਚ ਸਫਲ ਹੋ ਸਕੇ ਹਨ। ਕਿਰਤੀ ਲੋਕਾਂ ਅਤੇ ਬੁਰਜੁਆ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਜਮਾਤਾਂ ਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਜੋਟੀਦਾਰਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਤਿੱਖੀਆਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਜਾ ਰਹੀਆਂ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਕਾਰਨ ਲੋਕਾਂ ਉੱਪਰ ਜਮਾਤੀ ਜਬਰ ਨਿਰੰਤਰ ਰੂਪ ਵਿਚ ਵਧਿਆ ਹੈ, ਜਿਸ ਨਾਲ ਜਮਹੂਰੀ ਕਦਰਾਂ-ਕੀਮਤਾਂ, ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਅਤੇ ਸਰੋਕਾਰਾਂ ਨੂੰ ਢਾਅ ਲੱਗੀ ਹੈ। ਸੰਵਿਧਾਨ ਵਿਚ ਦਰਜ ਸਾਰੀਆਂ ਹੀ ਜਮਹੂਰੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ, ਜਿਵੇਂ ਕਿ ਪਾਰਲੀਮੈਂਟ, ਵਿਧਾਨ ਪਾਲਕਾ, ਨਿਆਂਪਾਲਕਾ ਅਤੇ ਬੁਨਿਆਦੀ ਅਧਿਕਾਰ ਆਦਿ, ਵੱਡੀ ਹੱਦ ਤੱਕ ਆਪਣੀ ਭਰੋਸੇਯੋਗਤਾ ਗੁਆ ਚੁੱਕੀਆਂ ਹਨ। ਏਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਸਰਵਮੱਤ (ਵੋਟ) ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ ਵੀ, ਵੱਡੀ ਹੱਦ ਤੱਕ, ਧੰਨ ਸ਼ਕਤੀ ਦਾ ਗੁਲਾਮ ਬਣ ਚੁੱਕਾ ਹੈ। ਹਰ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੇ ਸਮਾਜ ਵਿਰੋਧੀ ਅਨਸਰਾਂ, ਅਪਰਾਧੀਆਂ ਅਤੇ ਗੁੰਡਾ ਅਨਸਰਾਂ ਨੇ ਵੀ ਬੁਰਜੁਆ ਰਾਜਨੀਤੀਵਾਨਾਂ ਦੀ ਬੁੱਕਲ ਵਿਚ ਬੜੀ ਸੁਰੱਖਿਅਤ ਥਾਂ ਲੱਭ ਲਈ ਹੈ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੁਣ ਰਾਜਨੀਤੀ ਅੰਦਰ ਵੀ ਧੱਕੜਸ਼ਾਹਾਂ ਦੀ ਭਾਰੀ ਮੰਗ ਹੋ ਗਈ ਹੈ। ਬੁਨਿਆਦੀ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਨੂੰ, ਆਮ ਤੌਰ 'ਤੇ ਇਹਨਾਂ ਵਿਚੋਂ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਨੂੰ, ਰਾਜ ਦੇ ਅਧਿਕਾਰੀਆਂ ਵਲੋਂ ਗਲਤ ਅਰਥ ਦਿੱਤੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, ਵਿਗਾੜਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਤੇ ਕਈ ਵਾਰ ਉਲੰਘਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਜਦੋਂ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ, ਕਿਸਾਨਾਂ ਤੇ ਜਮਹੂਰੀ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਦੂਸਰੇ ਤਬਕਿਆਂ ਦੇ ਸੰਘਰਸ਼ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਤਾਂ ਅਧਿਕਾਰ ਲਾਗੂ ਹੋਣੋਂ ਰੁਕ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਅਮਨ ਕਾਨੂੰਨ ਕਾਇਮ ਰੱਖਣ ਦੇ ਨਾਂਅ ਉੱਪਰ ਲੱਖਾਂ ਦੀ ਵੱਸੋਂ ਵਾਲੇ ਸਮੁੱਚੇ ਇਲਾਕਿਆਂ ਜਾਂ ਖੰਡਾਂ ਨੂੰ ਮਹੀਨਿਆਂ ਤੇ ਸਾਲਾਂ ਬੱਧੀ ਦਫਾ 144 ਅਧੀਨ ਰੱਖਕੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਇਕੱਠੇ ਹੋਣ ਦੀ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਤੋਂ ਵਾਂਝਿਆਂ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ । ਇਸ ਦਾ ਮੰਤਵ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਤੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਹਿੱਤਾਂ ਲਈ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਨ ਤੋਂ ਰੋਕਣਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਮਜ਼ਦੂਰ ਤੇ ਕਿਸਾਨ ਜਦੋਂ ਆਪਣੇ ਰਾਜਸੀ ਤੇ ਆਰਥਕ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਦੀ ਰਾਖੀ ਤੇ ਮੰਗਾਂ ਲਈ ਯਤਨ ਕਰਦੇ ਹਨ ਉਦੋਂ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਤੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ਵਿਰੁੱਧ ਸਰਕਾਰੀ ਅਦਾਰਿਆਂ ਦਾ ਤਸ਼ੱਦਦ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਰੂਪ ਵਿਚ ਵਹਿਸ਼ੀ ਰੂਪ ਧਾਰਨ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਘਿਰਣਤ ਇਹਤਿਆਤੀ ਨਜ਼ਰਬੰਦੀ ਕਾਨੂੰਨ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਰੂਪਾਂ ਵਿਚ ਅਜ਼ਾਦੀ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਦੇ 60 ਸਾਲਾਂ ਵਿਚ ਨਿਰੰਤਰ ਤੌਰ 'ਤੇ ਲਾਗੂ ਰਹੇ ਹਨ। ਅਜਿਹੇ ਕਾਨੂੰਨ ਜੋ ਕਿ ਸਾਬਕਾ ਬਰਤਾਨਵੀ ਹਾਕਮਾਂ ਨੇ ਵੀ ਜੰਗ ਦੇ ਦਿਨਾਂ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਕਦੇ ਵਰਤੋਂ ਵਿਚ ਲਿਆਉਣ ਦੀ ਜੁਅਰਤ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕੀਤੀ, ਕਾਨੂੰਨ ਦੀ ਪੁਸਤਕ ਦਾ ਬਾਕਾਇਦਾ ਅੰਗ ਬਣ ਗਏ ਹਨ ਤੇ ਪਿਛਲੇ 60 ਵਰ੍ਹਿਆਂ ਦੌਰਾਨ ਲਗਾਤਾਰ ਵਰਤੋਂ ਵਿਚ ਲਿਆਂਦੇ ਗਏ ਹਨ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੀ ਸੰਵਿਧਾਨ ਵਿਚ ਰੱਖੀ ਗਈ ਕੌਮੀ ਹੰਗਾਮੀ ਹਾਲਤ ਦੀ ਧਾਰਾ ਦੀ 1975 ਵਿਚ ਗਲਤ ਵਰਤੋਂ ਕੀਤੀ ਗਈ। ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ, ਕਿਸਾਨਾਂ ਤੇ ਦਰਮਿਆਨੀਆਂ ਜਮਾਤਾਂ ਦੇ ਹੱਕੀ ਤੇ ਜਮਹੂਰੀ ਘੋਲਾਂ ਨੂੰ ਦਬਾਉਣ ਲਈ ਆਰਡੀਨੈਂਸ ਆਮ ਹੀ ਜਾਰੀ ਕੀਤੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ।
    69. ਪ੍ਰੈਸ ਦੀ, ਜਲਸੇ ਤੇ ਪ੍ਰਚਾਰ ਕਰਨ ਦੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਵੀ ਵਾਸਤਵ ਵਿਚ ਲੋਟੂ ਜਮਾਤਾਂ ਲਈ ਹੀ ਹੈ ਜਿਹੜੀਆਂ ਕਿ ਰੋਜ਼ਾਨਾਂ ਅਖਬਾਰਾਂ, ਜਲਸਾਗਾਹਾਂ, ਥੇਟਰਾਂ, ਰੇਡੀਓ, ਇਲੈਕਟਰੋਨਿਕ ਮੀਡੀਆ ਅਤੇ ਹੋਰ ਲੋੜੀਂਦੇ ਭਾਰੀ ਵਿੱਤੀ ਵਸੀਲਿਆਂ ਦੀਆਂ ਮਾਲਕ ਹਨ। ਅਤੀ ਆਧੁਨਿਕ ਬਦੇਸ਼ੀ ਪ੍ਰਚਾਰ ਮੀਡੀਏ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਕਰਨ ਲਈ ਵੀ ਇਹ ਲੋਟੂ ਜਮਾਤਾਂ ਹੁਣ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸਮਰੱਥ ਹਨ। ਮਿਹਨਤਕਸ਼ ਲੋਕ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਵਿਸ਼ਾਲ ਵਸੀਲਿਆਂ ਦਾ ਮੁਕਾਬਲਾ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦੇ ਅਤੇ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਰਵਾਇਤੀ ਰੂਪ ਵਿਚ ਹਰੇਕ ਨੂੰ ਦਿੱਤੇ ਗਏ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਕਰਨ ਵਿਚ ਅਸਮਰਥ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ। ਬੁਰਜੁਆ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਸਦਾ ਲੋਟੂ ਅਮੀਰਾਂ ਲਈ ਹੀ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਰਹਿੰਦੀ ਹੈ ਜਦ ਕਿ ਮਿਹਨਤਕਸ਼ ਲੋਕਾਂ ਲਈ ਇਹ ਸਿਰਫ ਲਫਜੀ, ਰਸਮੀ ਤੇ ਛਲਰੂਪੀ ਹੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ।
    70. ਐਪਰ ਸਰਬ ਵਿਆਪੀ ਬਾਲਗ ਵੋਟ ਅਧਿਕਾਰ, ਪਾਰਲੀਮੈਂਟ ਅਤੇ ਰਾਜ ਵਿਧਾਨ ਸਭਾਵਾਂ, ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਲਈ ਸੰਘਰਸ਼ ਵਿਚ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਹਿੱਤਾਂ ਦੀ ਰਾਖੀ ਲਈ, ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਹੱਥ ਵਿਚ ਹਥਿਆਰ ਵਜੋਂ ਕੰਮ ਦੇ ਸਕਦੇ ਹਨ। ਭਾਰਤ ਦਾ ਵਰਤਮਾਨ ਪਾਰਲੀਮਾਨੀ ਪ੍ਰਬੰਧ ਭਾਵੇਂ ਬੁਰਜੁਆਜੀ ਦੇ ਜਮਾਤੀ ਰਾਜ ਦਾ ਹੀ ਇਕ ਰੂਪ ਹੈ ਤਦ ਵੀ ਲੋਕਾਂ ਲਈ ਇਹ, ਇਕ ਹੱਦ ਤੱਕ ਪ੍ਰਗਤੀ ਦਾ ਸੂਚਕ ਹੈ। ਇਹ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਹਿੱਤਾਂ ਦੀ ਰਾਖੀ ਕਰਨ ਅਤੇ ਇਕ ਹੱਦ ਤੱਕ ਰਾਜ ਦੇ ਮਾਮਲਿਆਂ 'ਚ ਮੁਦਾਖ਼ਲਤ ਕਰਨ ਦੇ ਮੌਕੇ ਦਿੰਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਅਮਨ, ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਤੇ ਸਮਾਜਕ ਉਨਤੀ ਲਈ ਸੰਘਰਸ਼ ਨੂੰ ਅੱਗੇ ਖੜਨ ਵਾਸਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਲਾਮਬੰਦ ਕਰਦਾ ਹੈ।
    71. ਪਾਰਲੀਮਾਨੀ ਪ੍ਰਬੰਧ ਅਤੇ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਨੂੰ ਖਤਰਾ ਕਿਰਤੀ ਲੋਕਾਂ ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਪ੍ਰਤੀਨਿੱਧਤਾ ਕਰਨ ਵਾਲੀਆਂ ਪਾਰਟੀਆਂ ਵਲੋਂ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦਾ ਸਗੋਂ ਇਹ ਖਤਰਾ ਲੋਟੂ ਜਮਾਤਾਂ ਵਲੋਂ ਆਉਂਦਾ ਹੈ। ਉਹੀ ਲੋਕ ਪਾਰਲੀਮਾਨੀ ਪ੍ਰਬੰਧ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਜਮਾਤੀ ਹਿੱਤਾਂ ਨੂੰ ਅੱਗੇ ਖੜਨ ਅਤੇ ਮਿਹਨਤਕਸ਼ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਦਬਾਉਣ ਲਈ ਹਥਿਆਰ ਵਜੋਂ ਵਰਤਦੇ ਹਨ, ਇਸ ਨੂੰ ਅੰਦਰੋਂ ਵੀ ਤੇ ਬਾਹਰੋਂ ਵੀ ਢਾਹ ਲਾਉਂਦੇ ਹਨ। ਜਦੋਂ ਲੋਕ ਪਾਰਲੀਮਾਨੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣਾ ਕਾਜ਼ ਅੱਗੇ ਖੜਨ ਲਈ ਵਰਤਣਾ ਆਰੰਭ ਕਰਦੇ ਹਨ, ਅਤੇ ਇਹ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਤੇ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਤੋਂ ਦੂਰ ਚਲੀਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ ਤਾਂ ਇਹ ਜਮਾਤਾਂ ਧਾਰਾ 356 ਦੀ ਵਾਰ-ਵਾਰ ਦੁਰਵਰਤੋਂ ਰਾਹੀਂ ਅਤੇ ਐਮਰਜੰਸੀ ਲਗਾ ਕੇ ਪਾਰਲੀਮਾਨੀ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਨੂੰ ਪੈਰਾਂ ਹੇਠ ਕੁਚਲਣ ਤੋਂ ਵੀ ਦਰੇਗ ਨਹੀਂ ਕਰਦੀਆਂ। ਏਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਦੀਆਂ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਪਾਰਟੀਆਂ ਵੀ ਇਕ ਦੂਜੀ ਨੂੰ ਰਾਜ-ਭਾਗ ਤੋਂ ਪਾਸੇ ਰੱਖਣ ਲਈ ਜਮਹੂਰੀ ਕਦਰਾਂ ਕੀਮਤਾਂ ਦੀ ਸ਼ਰੇਆਮ ਉਲੰਘਣਾ ਕਰਨ ਤੋਂ ਵੀ ਗੁਰੇਜ਼ ਨਹੀਂ ਕਰਦੀਆਂ। ਜਦੋਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਹਿੱਤ ਮੰਗ ਕਰੇ ਉਦੋਂ ਉਹ ਪਾਰਲੀਮਾਨੀ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਦੀ ਥਾਂ ਫੌਜੀ ਡਿਕਟੇਟਰਸ਼ਿਪ ਲਿਆਉਣ ਤੋਂ ਵੀ ਨਹੀਂ ਝਿਜਕਦੀਆਂ। ਇਹ ਖਿਆਲ ਕਰਨਾ ਕਿ ਸਾਡਾ ਦੇਸ਼ ਅਜਿਹੇ ਸਭ ਖਤਰਿਆਂ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਹੈ, ਇਕ ਗੰਭੀਰ ਗਲਤੀ ਤੇ ਇਕ ਖਤਰਨਾਕ ਭੁਲੇਖਾ ਹੋਵੇਗਾ। ਇਹ ਬਹੁਤ ਮਹੱਤਵਪੂਰਨ ਹੈ ਕਿ ਪਾਰਲੀਮਾਨੀ ਤੇ ਜਮਹੂਰੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਦੀ ਅਜਿਹੇ ਖਤਰਿਆਂ ਵਿਰੁੱਧ ਅਤੇ ਲੋਕ-ਹਿੱਤਾਂ ਦੇ ਪੱਖ ਵਿਚ, ਰਾਖੀ ਕੀਤੀ ਜਾਵੇ ਅਤੇ ਅਜਿਹੀਆਂ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਨੂੰ ਪਾਰਲੀਮਾਨੀ ਖੇਤਰ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਦੀਆਂ ਸਰਗਰਮੀਆਂ ਨਾਲ ਜੋੜ ਕੇ ਸੁਯੋਗ ਢੰਗ ਨਾਲ ਵਰਤਿਆ ਜਾਵੇ।
    72. ਆਜ਼ਾਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਦੇ ਇਹਨਾਂ 60 ਸਾਲਾਂ ਦੌਰਾਨ, ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਦੀ ਲੋਟੂ ਖ਼ਸਲਤ ਕਾਰਨ ਇਸ ਅੰਦਰਲੀ ਜਨਮਜਾਤ ਆਰਥਕ ਅਸਥਿਰਤਾ ਵੱਧ ਕੇ ਰਾਜਨੀਤਕ ਅਸਥਿਰਤਾ ਦਾ ਰੂਪ ਵਟਾ ਗਈ ਹੈ ਜਿਹੜੀ ਕਿ ਬੁਰਜੁਆ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਰਾਜਨੀਤਕ ਪਾਰਟੀਆਂ ਦੀ ਭਰੋਸੇਯੋਗਤਾ ਖਤਮ ਹੋ ਜਾਣ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਉਭਰਕੇ ਸਾਹਮਣੇ ਆ ਰਹੀ ਹੈ। ਇਹਨਾਂ ਪਾਰਟੀਆਂ ਦੀਆਂ ਲੋਕ-ਵਿਰੋਧੀ ਨੀਤੀਆਂ ਕਾਰਨ ਅਤੇ ਇਹਨਾਂ ਦੇ ਆਗੂਆਂ ਦੀ ਭਰਿਸ਼ਟ, ਅਨੈਤਿਕ, ਗੈਰ ਜਮਹੂਰੀ ਅਤੇ ਸਵਾਰਥਵਾਦੀ ਧੰਦਿਆਂ ਵਿਚ ਪ੍ਰਤੱਖ ਸ਼ਮੂਲੀਅਤ ਕਾਰਨ, ਆਮ ਕਰਕੇ ਲੋਕ ਇਹਨਾਂ ਪਾਰਟੀਆਂ ਤੋਂ ਵੱਡੀ ਹੱਦ ਤੱਕ ਨਿਰਾਸ਼ ਹਨ।  ਇਹਨਾਂ ਪਾਰਟੀਆਂ ਵਲੋਂ ਲੋਕਾਂ ਨਾਲ ਵਾਰ-ਵਾਰ ਕੀਤੇ ਜਾ ਰਹੇ ਸ਼ਰਮਨਾਕ ਵਿਸ਼ਵਾਸਘਾਤਾਂ ਕਾਰਨ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਗੈਰ-ਜਮਹੂਰੀ ਰਾਜਸੀ ਅਮਲਾਂ ਕਾਰਨ ਲੋਕ ਇਹਨਾਂ ਬੁਰਜੁਆ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਪਾਰਟੀਆਂ ਤੋਂ ਕਾਫੀ ਹੱਦ ਤੱਕ ਅੱਕ ਚੁੱਕੇ ਹਨ। ਲੋਕੀਂ, ਪ੍ਰਤੱਖ ਤੌਰ 'ਤੇ, ਇਕ ਲੋਕ-ਪੱਖੀ ਜਮਹੂਰੀ ਰਾਜਸੀ ਬਦਲ ਦੀ ਭਾਲ ਵਿਚ ਹਨ। ਜਦੋਂਕਿ ਬੁਰਜੁਆ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਆਪਣੀਆਂ ਰਾਜਨੀਤਕ ਪਾਰਟੀਆਂ ਦੀ ਘੱਟ ਰਹੀ ਭਰੋਸੇਯੋਗਤਾ ਦੇ ਇਸ ਸੰਕਟ ਉੱਪਰ ਕਾਬੂ ਪਾਉਣ ਲਈ ਦੋ ਪਾਰਟੀ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਜਾਂ ਦੋ-ਗਠਜੋੜ-ਪ੍ਰਣਾਲੀ, ਜਿਸ ਨੂੰ ਆਮ ਤੌਰ ਤੇ ਕੁਲੀਸ਼ਨ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਆਖਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਵਿਕਸਤ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ, ਤਾਂ ਜੋ ਇਕ ਪਾਸੇ ਲੋਕਾਂ ਅੰਦਰ ਨਿਰੰਤਰ ਡੂੰਘੀ ਹੁੰਦੀ ਜਾ ਰਹੀ ਨਿਰਾਸ਼ਾ ਦੀ ਅਸਰਦਾਰ ਢੰਗ ਨਾਲ ਹਵਾੜ੍ਹ ਨਿਕਲਣ ਦੀ ਵਿਵਸਥਾ ਵੀ ਉਪਲੱਭਧ ਰਹੇ ਅਤੇ ਨਾਲ ਹੀ, ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ, ਜਮਹੂਰੀ ਢੰਗ-ਤਰੀਕਿਆਂ ਤੇ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆਵਾਂ ਦੀ ਕਾਂਟ-ਛਾਂਟ ਕਰਨ, ਜਮਹੂਰੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਨੂੰ ਖੁਰਦ-ਬੁਰਦ ਕਰਨ ਅਤੇ ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ, ਉਦਾਰੀਕਰਨ ਤੇ ਨਿੱਜੀਕਰਨ ਦੀਆਂ ਨੀਤੀਆਂ ਵਿਰੁੱਧ ਵਿਆਪਕ ਰੂਪ ਵਿਚ ਵਿਕਸਤ ਹੋ ਰਹੇ ਪ੍ਰਤੀਰੋਧ ਨੂੰ ਦਬਾਉਣ ਤੇ ਖਤਮ ਕਰਨ ਲਈ ਵਧੇਰੇ ਤੋਂ ਵਧੇਰੇ ਦਮਨਕਾਰੀ ਹੱਥਕੰਡੇ ਅਪਨਾਉਣ ਦਾ ਕੰਮ ਵੀ ਚਲਦਾ ਰਹੇ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਕੁਲ ਮਿਲਾਕੇ, ਬੁਰਜੁਆ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਪਾਰਟੀਆਂ ਦੀ ਭਰੋਸੇਯੋਗਤਾ ਦਾ ਇਹ ਸੰਕਟ ਅੱਗੋਂ ਬੁਰਜੁਆ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਦੇ ਆਮ ਸੰਕਟ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਵਿਕਸਤ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਜਿਸਨੂੰ ਫਾਸ਼ੀਵਾਦੀ ਪਿਛਾਖੜੀ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਵੱਲ ਵੱਧਣ ਤੋਂ ਰੋਕਣ ਲਈ ਕਮਿਊਨਿਸਟਾਂ ਵਲੋਂ, ਲੋਕ-ਜਮਹੂਰੀ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ 'ਤੇ ਆਧਾਰਤ ਸਪੱਸ਼ਟ ਰਾਜਨੀਤਕ ਬਦਲ ਰਾਹੀਂ, ਫੌਰੀ ਤੇ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਮੁਦਾਖ਼ਲਤ ਕਰਨ ਦੀ ਇਤਿਹਾਸਕ ਲੋੜ ਹੈ।


VI. ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਦਸ਼ਾ     

73. ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਜਮਹੂਰੀਅਤ, ਜੋ ਬੁਰਜੁਆ-ਜਗੀਰੂ ਸਰਕਾਰ ਆਜ਼ਾਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਦੇ ਵਰ੍ਹਿਆਂ ਤੋਂ ਵਰਤੋਂ ਵਿੱਚ ਲਿਆ ਰਹੀ ਹੈ, ਤੋਂ ਵਾਸਤਵ ਵਿੱਚ  ਵਾਂਝਿਆ ਰੱਖਿਆ ਗਿਆ ਹੈ, ਤੇ ਕੇਵਲ ਉਚੇਰੀਆਂ ਲੋਟੂ ਜਮਾਤਾਂ ਹੀ, ਦੇਸ਼ ਦੇ ਕਰੋੜਾਂ ਮਿਹਨਤਕਸ਼ਾਂ ਦੀ ਕੀਮਤ ਉਪਰ, ਇਸ ਅਧੀਨ ਪ੍ਰਫੁਲਤ ਹੋ ਰਹੀਆਂ ਹਨ।
    74. ਉਤਪਾਦਨ ਵਿਚ ਵਾਧੇ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ, ਪਦਾਰਥਕ ਤੌਰ 'ਤੇ, ਆਮ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਹਾਲਤ ਬਿਹਤਰ ਨਹੀਂ ਹੋਈ ਕਿਉਂਕਿ ਵਧੇਰੇ ਕਰਕੇ ਵੱਧਦੀ ਦੌਲਤ ਲੋਟੂ ਜਮਾਤਾਂ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿਚ ਇਕੱਠੀ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ। ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ, ਕਿਸਾਨੀ, ਦਰਮਿਆਨੀਆਂ ਜਮਾਤਾਂ ਏਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਦਰਮਿਆਨੇ ਕਾਰੋਬਾਰੀ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਕੁੱਝ ਹਿੱਸੇ ਵੀ ਸਰਕਾਰ ਦੀਆਂ ਨੀਤੀਆਂ ਅਤੇ ਦੇਸੀ ਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਦੇ ਵੱਧਦੇ ਗਲਬੇ ਨੂੰ ਮਾੜਾ ਸਮਝਦੇ ਹਨ। ਮਿਹਨਤਕਸ਼ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਅਸੰਤੁਸ਼ਟਤਾ ਸੰਘਰਸ਼ਾਂ ਦੇ ਕਈ ਰੂਪਾਂ ਵਿਚ ਆਪਣਾ ਪ੍ਰਗਟਾਵਾ ਕਰਦੀ ਹੈ।
    75. ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਉਪਰ ਅਸਿੱਧੇ ਟੈਕਸਾਂ ਰਾਹੀਂ ਵੱਧਦੀ ਮਾਤਰਾ ਵਿਚ ਬੋਝ ਪਾਏ ਗਏ ਹਨ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਮਾਲਕਾਂ ਤੇ ਸਰਕਾਰ ਦੇ ਕਠੋਰ ਹਮਲਿਆਂ ਦਾ ਨਿਰੰਤਰ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ। ਨਾ ਕੇਵਲ ਸਮੁੱਚਾ ਉਤਪਾਦਨ ਸਗੋਂ ਮਜ਼ਦੂਰ ਦੀ ਉਤਪਾਦਕਤਾ ਵੀ ਵਧੀ ਹੈ। ਤਦ ਵੀ ਵੱਧਦੀ ਦੌਲਤ ਵਿਚ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦਾ ਹਿੱਸਾ ਘਟਿਆ ਹੈ ਜਦਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਮਾਲਕਾਂ ਦਾ ਵਧਿਆ ਹੈ। ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੀਆਂ ਅਸਲੀ ਉਜਰਤਾਂ ਵਿਚ ਕੋਈ ਵਾਧਾ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ ਅਤੇ ਜਦੋਂ ਉਹ ਉਜਰਤਾਂ ਵਿਚ ਵਾਧੇ ਲਈ ਲੜੇ ਹਨ ਤੇ ਸਫਲਤਾ ਵੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕੀਤੀ ਹੈ ਤਦ ਵੀ ਨਿੱਤ ਵੱਧਦੀਆਂ ਕੀਮਤਾਂ ਨੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਉਜਰਤ ਦੇ ਸਭ ਵਾਧਿਆਂ ਨੂੰ ਮਨਫ਼ੀ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ। ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਉਦਯੋਗਾਂ ਵਿਚ ਉਜਰਤਾਂ ਦਾ ਪੱਧਰ ਦੂਜੀ ਸੰਸਾਰ ਜੰਗ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਦੇ ਪੱਧਰ ਨਾਲੋਂ ਹੇਠਾਂ ਗਿਆ ਹੈ। ਭਾਵੇਂ ਪਹਿਲਾਂ ਨਵੀਆਂ ਫੈਕਟਰੀਆਂ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਅਤੇ ਵਿਸਤਰਿਤ ਸੇਵਾ ਸੈਕਟਰ ਦੇ ਖੁਲ੍ਹਣ ਨਾਲ ਰੁਜ਼ਗਾਰ ਵਧਿਆ ਪਰ ਸਾਮਰਾਜੀ ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਹੇਠ ਅਤੇ ਸੰਸਾਰ ਬੈਂਕ ਤੇ ਵਿਸ਼ਵ ਵਪਾਰ ਸੰਸਥਾ ਦੇ ਨਿਰਦੇਸ਼ਾਂ ਹੇਠ ਸਮਾਜਕ ਖੇਤਰ ਨੂੰ ਨਿਰੰਤਰ ਤੌਰ 'ਤੇ ਖੁਰਦ-ਬੁਰਦ ਕਰਦੇ ਜਾਣ ਨਾਲ ਰੁਜ਼ਗਾਰ ਦੇ ਵਸੀਲੇ ਬੜੀ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਸੁੰਗੜੇ ਹਨ ਅਤੇ ਰੁਜ਼ਗਾਰ ਰਹਿਤ ਵਿਕਾਸ ਦਾ ਵਰਤਾਰਾ ਵੱਡੀ ਪੱਧਰ 'ਤੇ ਉਭਰਿਆ ਹੈ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਅੱਜ ਬੇਰੁਜ਼ਗਾਰੀ ਦਾ ਦੈਂਤ ਵੱਡੀ ਹੱਦ ਤੱਕ ਬੇਲਗਾਮ ਹੋ ਚੁੱਕਾ ਹੈ ਜਿਸ ਕਾਰਨ ਮਿਹਨਤਕਸ਼ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਪਰਵਾਰਾਂ ਦੇ ਜੀਵਨ ਪੱਧਰ ਨੂੰ ਹੋਰ ਵਧੇਰੇ ਸੱਟ ਲੱਗੀ ਹੈ।
    76. ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨੇ ਪਿਛਲੇ ਵਰ੍ਹਿਆਂ ਵਿਚ ਦ੍ਰਿੜ ਤੇ ਲੰਬੇ ਘੋਲਾਂ ਦੁਆਰਾ ਮਾਲਕਾਂ ਤੇ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਉਜਰਤਾਂ ਦੇ ਨਿਪਟਾਰੇ ਲਈ ਸਰਕਾਰੀ ਮਸ਼ੀਨਰੀ ਜਿਹਾ ਕਿ ਉਜਰਤੀ ਬੋਰਡ, ਘੱਟੋ-ਘੱਟ ਉਜਰਤਾਂ ਦੀਆਂ ਕਮੇਟੀਆਂ, ਟ੍ਰਬਿਊਨਲ ਆਦਿ ਕਾਇਮ ਕਰਨ ਲਈ ਮਜ਼ਬੂਰ ਕੀਤਾ। ਭਾਵੇਂ ਕਈ ਸੰਗਠਿਤ ਸਨਅੱਤਾਂ ਵਿਚ ਉਜਰਤਾਂ ਦਾ ਕੁਝ ਪੱਧਰ ਵੀ ਕਾਇਮ ਹੋਇਆ ਹੈ, ਪ੍ਰੰਤੂ ਉਜਰਤੀ ਗੜਬੜ ਚੌਥ, ਜੋ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਪ੍ਰਬੰਧ ਦਾ ਲੱਛਣ ਹੈ, ਉਵੇਂ ਕਿਵੇਂ ਜਾਰੀ ਹੈ। ਭਾਵੇਂ ਘੱਟੋ-ਘੱਟ ਉਜਰਤਾਂ ਲਈ ਕੁਝ ਨਿਯਮ ਘੜੇ ਗਏ ਹਨ ਪਰ ਅਜੇ ਉਹ ਧਰੇ-ਧਰਾਏ ਪਏ ਹਨ। ਟਰੇਡ ਯੂਨੀਅਨਾਂ ਕਾਇਮ ਕਰਨ ਤੇ ਸਾਮੂਹਕ ਸੌਦੇਬਾਜ਼ੀ ਕਰਨ ਦੇ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਤੋਂ ਮਾਲਕਾਂ ਦੁਆਰਾ ਆਪਣੀ ਮਰਜ਼ੀ ਅਨੁਸਾਰ ਜਾਂ ਤਾਂ ਉੱਕਾ ਹੀ ਇਨਕਾਰ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਜਾਂ ਫਿਰ ਇਸ ਨੂੰ ਢੌਂਗ ਬਣਾਇਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਕਈ ਕਾਨੂੰਨ ਬਣਾਏ ਗਏ ਹਨ ਪਰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਮਾਲਕਾਂ ਦੁਆਰਾ ਖੁਲ੍ਹੇਆਮ ਉਲੰਘਣਾ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਸਰਕਾਰ ਦੁਆਰਾ ਸਥਾਪਤ ਸਨਅੱਤੀ ਸੰਬੰਧਾਂ ਦੀ ਮਸ਼ੀਨਰੀ ਦੀ ਧਾਰਾ ਮੁਖ ਤੌਰ 'ਤੇ ਕਿਰਤੀਆਂ ਦੇ ਸੰਘਰਸ਼ਾਂ ਤੇ ਹੜਤਾਲਾਂ ਵਿਰੁੱਧ ਕੇਂਦਰਤ ਹੈ। ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੇ ਇਕ ਵਰਗ ਨੇ ਸਮਾਜਕ ਸੁਰੱਖਿਆ ਦਾ ਆਧਿਕਾਰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕੀਤਾ ਸੀ ਪਰ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹੀ ਦੁਆਰਾ ਇਸ ਉੱਪਰ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਅਮਲ ਸਹਾਇਕ ਹੋਣ ਦੀ ਥਾਂ ਤਕਲੀਫ ਦਾ ਕਾਰਨ ਵਧੇਰੇ ਬਣਿਆ। ਸਰਕਾਰ ਤੇ ਮਾਲਕਾਂ ਦੀਆਂ ਰਿਹਾਇਸ਼ੀ ਘਰਾਂ ਦੀਆਂ ਅਖੌਤੀ ਸਕੀਮਾਂ ਨੇ ਕਿਰਤੀਆਂ ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਪਰਵਾਰਾਂ ਨੂੰ ਗੰਦੀਆਂ ਬਸਤੀਆਂ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਜਿੱਥੇ ਕਿ ਉਹ ਅੱਜ ਵੀ ਰਹਿਣ ਲਈ ਮਜ਼ਬੂਰ ਹਨ। ਨਵ-ਉਦਾਰਵਾਦੀ ਨੀਤੀਆਂ ਦੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਸਨਅੱਤੀ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੇ ਸੇਵਾ ਸੁਰੱਖਿਆ ਦੇ ਅਧਿਕਾਰ ਨੂੰ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਖੋਰਾ ਲਾ ਦਿੱਤਾ ਗਿਆ ਹੈ ਅਤੇ ਲੁਕਵੇਂ ਤੇ ਕਪਟੀ ਢੰਗ ਨਾਲ 'ਹਾਇਰ ਐਂਡ ਫਾਇਰ' ਦੀ ਨਵੀਂ ਨੀਤੀ ਲਾਗੂ ਕਰ ਦਿੱਤੀ ਗਈ ਹੈ। ਬਦੇਸ਼ੀ ਨਿਵੇਸ਼ਕਾਂ ਦੇ ਆਦੇਸ਼ਾਂ 'ਤੇ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਕਈ ਥਾਵਾਂ 'ਤੇ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਆਰਥਕ ਖਿੱਤੇ ਬਣਾਏ ਗਏ ਹਨ ਜਿੱਥੇ ਕੋਈ ਵੀ ਕਿਰਤ ਕਨੂੂੰਨ ਲਾਗੂ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ।
    77. ਸਾਡੇ ਕਰੋੜਾਂ ਹੀ ਕਿਸਾਨ ਡਾਢੀ ਗਰੀਬੀ ਤੇ ਪਛੜੇਵੇਂ ਵਿਚ ਰਹਿ ਰਹੇ ਹਨ। ਕਿਸਾਨੀ ਦੀ ਚੋਖੀ ਵਸੋਂ ਕੋਲ ਅਸਲ ਵਿਚ ਆਪਣੀ ਕੋਈ ਜ਼ਮੀਨ ਨਹੀਂ ਅਤੇ ਕਈ ਕਰੋੜ ਕੰਗਾਲੀ ਦੀ ਦਸ਼ਾ ਵਿਚ ਰਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਜਦੋਂ ਕਿ ਵੱਧ ਲਗਾਨ ਤੇ ਸੂਦ ਦੁਆਰਾ, ਉੱਚੇ ਟੈਕਸਾਂ ਦੁਆਰਾ ਅਤੇ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਮੰਡੀ ਦੇ ਹੇਰਾ-ਫੇਰਾਂ ਦੁਆਰਾ ਕਿਸਾਨੀ ਦੀ ਲੁੱਟ-ਖਸੁੱਟ ਜਾਰੀ ਹੈ। 'ਵਿਸ਼ਵ ਵਪਾਰ ਸੰਗਠਨ' ਦੇ ਆਦੇਸ਼ਾਂ ਅਧੀਨ ਖੇਤੀ ਲਾਗਤਾਂ 'ਤੇ ਸਬਸਿਡੀਆਂ ਘਟਾ ਦੇਣ ਜਾਂ ਖਤਮ ਕਰ ਦੇਣ ਨਾਲ ਕਿਸਾਨੀ ਦੇ ਕੰਗਾਲੀਕਰਨ ਦੀ ਪ੍ਰਕਿਰਿਆ ਹੋਰ ਤਿੱਖੀ ਹੋ ਗਈ ਹੈ। ਖੇਤ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਤੇ ਗਰੀਬ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਪਰਵਾਰ ਲਈ ਗੁਜ਼ਾਰੇ ਯੋਗ ਉਜਰਤ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਕੰਮ ਕਰਨਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ। ਰੁਜ਼ਗਾਰ ਦੀ ਥੁੜੋਂ, ਭੁੱਖ, ਕਰਜ਼ ਤੇ ਲਾਚਾਰੀ, ਮੁਕਦੀ ਗੱਲ ਸਾਡੀ ਕਿਸਾਨੀ ਦੀ ਤਬਾਹੀ ਅੱਜ ਅਸੀਂ ਪੇਂਡੂ ਇਲਾਕਿਆਂ ਵਿਚ ਵੇਖਦੇ ਹਾਂ।
    78. ਦੇਸ਼ ਦੀ ਭਾਰਤ ਤੇ ਪਾਕਿਸਤਾਨ ਵਿਚ ਫਿਰਕੂ ਵੰਡ ਨੇ ਰਫਿਊਜੀਆਂ ਦੀ ਸਮੱਸਿਆ ਨਾਲ ਲੈ ਆਂਦੀ ਜਿਹਨਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਲੱਖਾਂ ਕਰੋੜਾਂ ਤੱਕ ਪਹੁੰਚ ਗਈ। 1971 ਵਿਚ ਪੂਰਬੀ ਪਾਕਿਸਤਾਨ 'ਚੋਂ ਬੰਗਲਾ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਬਨਣ ਨਾਲ ਇਹ ਸਮੱਸਿਆ ਹੋਰ ਗੰਭੀਰ ਹੋ ਗਈ ਕਿਉਂਕਿ ਉੱਥੋਂ ਭਾਰਤ ਅੰਦਰ ਨਾਜ਼ਾਇਜ਼ ਦਾਖਲਾ ਨਿਰੰਤਰ ਜਾਰੀ ਹੈ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਨਵੇਂ ਸਿਰਜੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਨਿਰੰਤਰ ਖਿਚਾਅ ਅਤੇ ਵਿਰੋਧ ਦੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਬੇਘਰ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਹੋਰ ਵੱਧ ਗਈ ਹੈ। ਇਸ ਤੋਂ ਅੱਗੇ, ਕਸ਼ਮੀਰ ਵਿਚ ਨਿਰੰਤਰ ਚਲ ਰਹੀ ਗੜਬੜ ਕਾਰਨ ਲੱਖਾਂ ਹਿੰਦੂ ਪਰਵਾਰਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਘਰ-ਘਾਟ ਛਡਣੇ ਪਏ ਹਨ ਅਤੇ ਉਹ ਸਾਰੇ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਸ਼ਰਨਾਰਥੀਆਂ ਵਾਂਗ ਰਹਿ ਰਹੇ ਹਨ। ਸ਼ਰਨਾਰਥੀਆਂ ਦੀ ਇਹ ਸਮੱਸਿਆ ਸੰਤੋਖਜਨਕ ਢੰਗ ਨਾਲ ਉੱਕਾ ਹੀ ਸੁਲਝਾਈ ਨਹੀਂ ਗਈ। ਸਰਕਾਰ ਆਪਣੇ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਦਾਅਵਿਆਂ ਤੋਂ ਫਿਰ ਗਈ ਹੈ ਅਤੇ ਇਹਨਾਂ ਵਿਸਥਾਪਤ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਮੁੜ ਵਸੇਬੇ ਲਈ ਕੋਈ ਢੁਕਵਾਂ ਪ੍ਰਬੰਧ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਗਿਆ। ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਦਸ਼ਾ ਅਤਿਅੰਤ ਮੰਦੀ ਹੈ। ਇਹ ਸਮੱਸਿਆ ਅੱਜ ਵੀ ਭਾਰਤ ਦੇ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਭਾਗਾਂ ਦੀ ਵੱਸੋਂ ਦੇ ਜੀਵਨ ਉੱਪਰ ਤਿੱਖੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਅਸਰ-ਅੰਦਾਜ਼ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ। ਸਰਕਾਰ ਦੀਆਂ ਮੁੜ ਵਸੇਬੇ ਦੀਆਂ ਸਕੀਮਾਂ ਤੇ ਉਹਨਾਂ ਉੱਪਰ ਉਸ ਵੱਲੋਂ ਕੀਤੇ ਗਏ ਅਮਲ ਨੇ ਇਸ ਸੰਬੰਧ ਵਿਚ ਰਖੀਆਂ ਗਈਆਂ ਸਭ ਆਸ਼ਾਵਾਂ ਨੂੰ ਝੁਠਲਾ ਦਿੱਤਾ ਹੈ।
    79. ਵਿਕਾਸ ਦਾ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਰਾਹ, ਜੋ ਸਾਡੀਆਂ ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਨੇ, ਬਿਨਾਂ ਤਿੱਖੇ ਜ਼ਮੀਨੀ ਸੁਧਾਰ ਕਰਨ ਅਤੇ ਸਾਡੇ ਅਰਥਚਾਰੇ ਵਿਚੋਂ ਬਦੇਸ਼ੀ ਸਰਮਾਏ ਨੂੰ ਖਤਮ ਕਰਨ ਦੇ, ਆਪਣਾ ਲਿਆ ਸੀ, ਲੱਖਾਂ ਹੀ ਦਸਤਕਾਰਾਂ ਦੇ ਜੀਵਨ ਨੂੰ ਸੱਟ ਮਾਰ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਇਹਨਾਂ ਦਸਤਕਾਰਾਂ ਨੂੰ ਜਾਂ ਤਾਂ ਸਿੱਧੇ ਹੀ ਕੰਗਾਲਾਂ ਦੀਆਂ ਸਫਾਂ ਵਿਚ ਸੁਟਿਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ਜਾਂ ਅਤਿਅੰਤ ਨਿਗੂਣੀ ਆਮਦਨ, ਅੰਨ ਤੇ ਕੱਚੇ ਮਾਲ ਦੀਆਂ ਚੜ੍ਹਦੀਆਂ ਕੀਮਤਾਂ ਅਤੇ ਵਿਭਿੰਨ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੇ ਭਾਰੀ ਟੈਕਸਾਂ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਅਧੀਨ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਚੂਸਿਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਰਾਜਾਂ ਦੇ ਅਤੇ ਕੇਂਦਰੀ ਬਜਟਾਂ ਵਿਚ ਕਦੇ ਕਦਾਈਂ ਦਿੱਤੀਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਨਿਗੂਣੀਆਂ ਸਬ-ਸਿਡੀਆਂ ਤੇ ਹੋਰ ਸਹੂਲਤਾਂ ਵਿਸ਼ਾਲ ਪੱਧਰ ਉੱਪਰ ਪੀੜਤ ਕਿਸਾਨਾਂ ਤੇ ਦਸਤਕਾਰਾਂ ਦੇ ਪਰਿਵਾਰਾਂ ਨੂੰ ਕੋਈ ਵਾਸਤਵਿਕ ਲਾਭ ਪੁਚਾਉਣ ਵਿਚ ਅਸਫਲ ਰਹੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਪਰਵਾਰਾਂ ਕੋਲ ਸਾਧਨਹੀਣ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੀ ਨਿਰੰਤਰ ਵੱਧ ਰਹੀ ਗਿਣਤੀ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਲ ਹੋਣ ਤੋਂ ਬਿਨਾ ਹੋਰ ਕੋਈ ਬਦਲ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਸਰਕਾਰ ਦੀਆਂ ਲੋਕ-ਵਿਰੋਧੀ ਨੀਤੀਆਂ ਇਹਨਾਂ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਦਾ ਕੋਈ ਹੱਲ ਨਹੀਂ ਕਰਦੀਆਂ ਅਤੇ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਦਸਤਕਾਰਾਂ ਵਿਚ ਅਸੰਤੁਸ਼ਟਤਾ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਵੱਧ ਰਹੀ ਹੈ।
    80. ਸ਼ਹਿਰਾਂ ਵਿਚਲੇ ਮੱਧ ਵਰਗ, ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਤੌਰ 'ਤੇ ਨਿਮਨ ਮੱਧ-ਵਰਗ, ਦਾ ਵੀ ਚੰਗਾ ਹਾਲ ਨਹੀਂ। ਜੀਵਨ ਲੋੜਾਂ ਦੀਆਂ ਚੜ੍ਹੀਆਂ ਕੀਮਤਾਂ ਕਾਰਨ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਜੀਵਨ ਪੱਧਰ ਨਿਰੰਤਰ ਡਾਵਾਂਡੋਲਤਾ ਦੀ ਹਾਲਤ ਵਿਚ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। ਪਿਛਲੇ ਵਰ੍ਹਿਆਂ ਦੌਰਾਨ ਸਾਮਰਾਜੀ ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ ਅਤੇ ਨਵ-ਉਦਾਰੀਕਰਨ ਦੀਆਂ ਨੀਤੀਆਂ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਹੇਠ ਮੱਧ ਵਰਗ ਵਿਚ ਬੇਰੁਜ਼ਗਾਰੀ ਤਿੱਖੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਵਧੀ ਹੈ। ਪ੍ਰਾਈਵੇਟ ਦਫਤਰਾਂ, ਕਾਰੋਬਾਰੀ ਅਦਾਰਿਆਂ, ਸਕੂਲਾਂ, ਕਾਲਜਾਂ ਆਦਿ ਵਿਚ ਸਬ-ਸਟੈਂਡਰਡ ਉਜਰਤਾਂ ਉੱਤੇ ਕੰਮ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਮੱਧ ਵਰਗ ਦਾ ਭਵਿੱਖ ਵੀ ਬਹੁਤ ਹੀ ਧੁੰਦਲਾ ਹੈ। ਸਾਡੀਆਂ ਮੱਧ ਸ਼੍ਰੇਣੀਆਂ, ਕਲਾ, ਸਾਹਿਤ, ਵਿਗਿਆਨ ਤੇ ਸਭਿਆਚਾਰ ਦੇ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਮਹੱਤਵਪੂਰਨ ਰੋਲ ਅਦਾ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ ਪਰ ਉਹਨਾਂ ਵਿਚੋਂ ਬਹੁਤ ਸਾਰਿਆਂ ਲਈ ਇਹ ਖੇਤਰ ਬੰਦ ਹਨ। ਏਸੇ ਲਈ ਅਸੀਂ ਮੱਧ ਵਰਗ ਦੇ ਪੜੇ ਲਿਖੇ ਨੌਜੁਆਨਾਂ ਨੂੰ ਸਾਧਾਰਨ ਨੌਕਰੀਆਂ ਲਈ  ਵੀ ਦਰ-ਦਰ ਧੱਕੇ ਖਾਂਦਿਆਂ ਆਮ ਹੀ ਦੇਖ ਰਹੇ ਹਾਂ।  
    81. ਸਰਕਾਰ ਦੀਆਂ ਵਰਤਮਾਨ ਨੀਤੀਆਂ ਨਾਲ ਅਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਤੇ ਭਾਰਤੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਦੇ ਵਧਣ-ਫੁੱਲਣ ਨਾਲ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਸਨਅੱਤਕਾਰਾਂ, ਉਤਪਾਦਕਾਂ, ਕਾਰੋਬਾਰੀ ਲੋਕਾਂ ਅਤੇ ਵਪਾਰੀਆਂ ਨੂੰ ਵੀ ਸੱਟ ਪਈ ਹੈ। ਪੂੰਜੀ, ਕੱਚਾ ਮਾਲ, ਆਵਾਜਾਈ ਦੀਆਂ ਸਹੂਲਤਾਂ, ਦਰਾਮਦ-ਬਰਾਮਦ ਦੇ ਸਵਾਲ  ਸਰਕਾਰ ਤੇ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹਾਂ ਵਲੋਂ ਇਸ ਢੰਗ ਨਾਲ ਹੱਲ ਕੀਤੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਕਿ ਵੱਡੇ ਪੂੰਜੀਪਤੀਆਂ ਅਤੇ ਸਾਮਰਾਜੀ ਲੁਟੇਰਿਆਂ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਸਭ ਨੂੰ ਨੁਕਸਾਨ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਛੋਟੀਆਂ ਤੇ ਘਰੇਲੂ ਸਨਅੱਤਾਂ ਵਿਚ ਬਹੁਤੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਸਦੀਵੀਂ ਸੰਕਟ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨਾ ਪੈ ਰਿਹਾ ਹੈ।
    82. ਹੁਣ ਤੱਕ ਦੀਆਂ ਸਰਕਾਰਾਂ ਵਲੋਂ ਅਪਣਾਈਆਂ ਗਈਆਂ ਲੋਕ ਵਿਰੋਧੀ ਨੀਤੀਆਂ ਦੇ ਸਿੱਟੇ ਵਜੋਂ ਜਨਤਾ ਦੇ ਵਿਸ਼ਾਲ ਹਿੱਸੇ ਚੜ੍ਹਦੀਆਂ ਕੀਮਤਾਂ, ਵੱਧਦੇ ਟੈਕਸਾਂ ਤੇ ਉਜਰਤਾਂ ਦੀ ਅੰਧਾਧੁੰਦ ਕਦਰ ਘਟਾਈ ਕਾਰਨ ਵੱਡੀ ਹੱਦ ਤੱਕ ਨਪੀੜੇ ਗਏ ਹਨ। ਇਕ ਬੰਨੇ ਉਪਰਲੀਆਂ ਲੋਟੂ ਜਮਾਤਾਂ ਦੇ ਕੁਝ ਮੁੱਠੀ ਭਰ ਲੋਕ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਪਿਛਲੱਗ ਐਸ਼ਾਂ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ ਤੇ ਦੂਜੇ ਬੰਨੇ ਕਰੋੜਾਂ ਹੀ ਮੰਦਹਾਲੀ ਤੇ ਗਰੀਬੀ ਵਿਚ ਹਊਕੇ ਭਰ ਰਹੇ ਹਨ। ਇਸ ਲਈ ਇਕ ਬੰਨੇ ਲੋਕਾਂ ਅਤੇ ਦੂਸਰੇ ਬੰਨੇ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਵਿਚ ਚਲਦੇ ਬੁਰਜੁਆ-ਜਗੀਰੂ ਰਾਜ ਵਿਚਕਾਰ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਤਿੱਖੀਆਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਜਾ ਰਹੀਆਂ ਹਨ।


VII. ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਦਾ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ    

83. ਸਾਡੇ ਲੋਕਾਂ ਵਿਚ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਅਰਥਚਾਰਾ ਉਸਾਰਨ ਦੀਆਂ ਨੀਤੀਆਂ ਅਤੇ ਇਸ ਸੰਬੰਧ ਵਿਚ ਕੀਤੇ ਗਏ ਯਤਨਾਂ ਸੰਬੰਧੀ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਭਰਮ-ਨਵਿਰਤੀ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ। ਜੀਵਨ ਖੁਦ ਸਿਖਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਵਰਤਮਾਨ ਬੁਰਜੁਆ ਹਕੂਮਤ ਅਧੀਨ ਪਛੜੇਵੇਂ, ਗਰੀਬੀ, ਭੁੱਖ ਤੇ ਲੁੱਟ ਚੋਂਘ ਤੋਂ ਛੁਟਕਾਰੇ ਦੀ ਕੋਈ ਸੰਭਾਵਨਾ ਨਹੀਂ। ਲੋਕਾਂ ਵਿਚ ਪਸਰੀ ਹੋਈ ਵਿਆਪਕ ਬੇਚੈਨੀ ਤੋਂ ਇਹ ਭਲੀ ਪ੍ਰਕਾਰ ਸਪੱਸ਼ਟ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਸਰਮਾਏਦਾਰੀ ਇਕ ਪ੍ਰਬੰਧ ਵਜੋਂ ਲੋਕਾਂ ਵਿਚ ਬਦਨਾਮ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ।
    84. ਜਿਹਨਾਂ ਇਤਹਾਸਕ ਅਵਸਥਾਵਾਂ ਵਿਚ ਅਸੀਂ ਆਜ਼ਾਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਕੀਤੀ ਸੀ, ਜਦੋਂਕਿ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਸੰਸਾਰ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਹੋਂਦ ਵਿਚ ਸੀ ਤੇ ਆਰਥਕ ਉਨਤੀ ਵੱਲ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਵੱਧ ਰਹੀ ਸੀ ਅਤੇ ਬਸਤੀਵਾਦੀ ਪ੍ਰਬੰਧ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਟੁੱਟ-ਫੁੱਟ ਰਿਹਾ ਸੀ, ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਭਾਰਤੀ ਕਮਿਊਨਿਸਟਾਂ ਵਲੋਂ ਗੈਰ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਰਾਹ ਦੀ ਸੰਭਾਵਨਾ ਦਾ ਸਿਧਾਂਤ ਪੇਸ਼ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਜਿਹੜਾ ਕਿ ਨਵੇਂ ਆਜ਼ਾਦ ਹੋਏ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ, ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਪੜਾਅ ਨੂੰ ਉਲੰਘ ਕੇ ਸਮਾਜਵਾਦ ਵੱਲ ਵੱਧ ਸਕਦਾ ਸੀ। ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਵੀ ਇਸ ਰਾਹ ਦੀਆਂ ਸੰਭਾਵਾਵਾਂ ਦੀ ਵਕਾਲਤ ਕੀਤੀ ਅਤੇ 'ਕੌਮੀ ਜਮਹੂਰੀਅਤ' ਦਾ ਯੁਧਨੀਤਕ ਨਿਸ਼ਾਨਾ ਪੇਸ਼ ਕੀਤਾ, ਜਿਹੜਾ ਕਿ ਕੌਮੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ, ਜਿਸ ਨੂੰ ਕਿ ਉਹਨਾਂ ਅਨੁਸਾਰ ਅੰਗਰੇਜ਼ਾਂ ਨੇ ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਸੌਂਪੀ ਸੀ, ਨਾਲ ਮਿਲਕੇ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਸੀ।
    85. ਐਪਰ ਅਜੇਹਾ ਰਾਹ ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਸਾਡੇ ਲਈ ਸਪੱਸ਼ਟ ਤੌਰ 'ਤੇ ਬੰਦ ਸੀ। ਸਾਡਾ ਦੇਸ਼ ਉਦੋਂ ਵੀ ਜਦੋਂਕਿ ਅੰਗਰੇਜ਼ਾਂ ਦੇ ਬਸਤੀਵਾਦੀ ਰਾਜ ਦਾ ਇਕ ਅੰਗ ਸੀ, ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਲੀਹਾਂ 'ਤੇ ਵਿਕਸਤ ਬਸਤੀਆਂ ਅਤੇ ਅਰਧ-ਬਸਤੀਆਂ 'ਚੋਂ ਇਕ ਸੀ। ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ, ਜਿਹੜੀ ਕਿ ਕੌਮੀ ਮੁਕਤੀ ਲਹਿਰ ਅਤੇ 1947 ਤੋਂ ਨਵੇਂ ਆਜ਼ਾਦ ਹੋਏ ਭਾਰਤ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਕਰਦੀ ਸੀ, ਲਗਾਤਾਰ ਰਾਜ ਸੱਤਾ 'ਤੇ ਕਾਬਜ਼ ਸੀ ਅਤੇ ਉਸਨੇ ਇਕ ਪਾਸੇ ਆਮ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਕੀਮਤ 'ਤੇ ਅਤੇ ਦੂਜੇ ਪਾਸੇ ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਤੇ ਵੱਡੇ ਲੈਂਡਲਾਰਡਾਂ ਨਾਲ ਸਮਝੌਤਿਆਂ ਅਤੇ ਸੌਦਾਬਾਜ਼ੀਆਂ ਰਾਹੀਂ ਆਪਣੇ ਜਮਾਤੀ ਹਿੱਤਾਂ ਨੂੰ ਬੜ੍ਹਾਵਾ ਦੇਣ ਤੇ ਸੁਰੱਖਿਅਤ ਕਰਨ ਲਈ ਰਾਜਸੱਤਾ ਦੀ ਖੁੱਲ੍ਹ ਕੇ ਵਰਤੋਂ ਕੀਤੀ ਸੀ। ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਰਾਹ 'ਤੇ ਅਗਾਂਹ ਵੱਧਦਿਆਂ, ਦੋ ਦਹਾਕਿਆਂ ਦੌਰਾਨ ਹੀ ਭਾਰਤੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰੀਆਂ ਵਿਚ ਭਾਰੀ ਵਾਧਾ ਹੋਇਆ ਸੀ ਅਤੇ ਪੇਂਡੂ ਖੇਤਰਾਂ ਵਿਚ ਵੀ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਵਿਕਸਤ ਹੋ ਰਹੀ ਸੀ। ਅਜੇਹੇ ਬਾਹਰਮੁਖੀ ਯਥਾਰਥ ਦੇ ਹੁੰਦੇ ਹੋਏ ਗੈਰ-ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਰਾਹ 'ਤੇ ਚਲ ਸਕਣ ਯੋਗ 'ਕੌਮੀ ਜਮਹੂਰੀ ਰਾਜ' ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਕਰਨਾ ਨਿਰਾ ਸੋਧਵਾਦ ਸੀ।
    86. ਇਸ ਤੋਂ ਬਿਨਾ, ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਵਿਕਾਸ ਉਸ ਕਿਸਮ ਦਾ ਨਹੀਂ ਹੈ ਜਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦਾ ਕਿ ਯੂਰਪ ਜਾਂ ਦੂਸਰੇ ਵਿਕਸਤ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਸੀ। ਭਾਵੇਂ ਭਾਰਤੀ ਸਮਾਜ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਢੰਗ ਨਾਲ ਵਿਕਾਸ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹੈ ਤਦ ਵੀ ਇਸ ਵਿਚ ਪੂਰਬ-ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਸਮਾਜ ਦੇ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਅੰਸ਼ ਮੌਜੂਦ ਹਨ। ਵਿਕਸਤ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਦੇ ਉਲਟ, ਜਿੱਥੇ ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਉਭਰ ਰਹੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੁਆਰਾ ਤਬਾਹ ਕੀਤੇ ਪੂਰਵ-ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਸਮਾਜ ਦੀ ਰਾਖ 'ਚੋਂ ਉਤਪੰਨ ਹੋਇਆ ਸੀ, ਉੱਥੇ ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਪੂਰਵ-ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਸਮਾਜ ਉੱਪਰ ਠੋਸਿਆ ਗਿਆ। ਨਾ ਤਾਂ ਬਰਤਾਨਵੀ ਬਸਤੀਵਾਦੀਆਂ ਨੇ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਰਾਜ ਇਕ ਸਦੀ ਤੋਂ ਵਧੀਕ ਸਮਾਂ ਰਿਹਾ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਭਾਰਤੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਨੇ ਜਿਸ ਦੇ ਹੱਥਾਂ ਵਿਚ 1947 ਵਿਚ ਤਾਕਤ ਆਈ, ਪੂਰਵ-ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਸਮਾਜ ਉੱਪਰ ਮਾਰੂ ਸੱਟਾਂ ਲਾਈਆਂ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਸਮਾਜ ਦੇ ਸੁਤੰਤਰ ਵਿਕਾਸ ਅਤੇ ਮਗਰੋਂ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਸਮਾਜ ਦੁਆਰਾ ਇਸ ਦਾ ਸਥਾਨ ਲੈਣ ਦੇ ਸੰਬੰਧ ਵਿਚ ਲੋੜ ਹੈ। ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਅਜੋਕਾ ਭਾਰਤੀ ਸਮਾਜ, ਜਮਾਤਾਂ, ਜਾਤਾਂ, ਫਿਰਕਿਆਂ ਅਤੇ ਕਬਾਇਲੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਸਹਿਤ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਸਰਮਾਏ ਦੇ ਗਲਬੇ ਦਾ ਇਕ ਅਜੀਬ ਮੇਲ ਹੈ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਇਹ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਅਤੇ ਉਸਦੀ ਪਾਰਟੀ ਉਪਰ ਆਈ ਹੈ ਕਿ ਪੂਰਵ-ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਸਮਾਜ ਨੂੰ ਤੋੜਨ ਵਿਚ ਦਿਲਚਸਪੀ ਰੱਖਣ ਵਾਲੀਆਂ ਸਭ ਅਗਾਂਹਵਧੂ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਨੂੰ ਇੱਕਮੁੱਠ ਕਰੇ ਅਤੇ ਇਸ ਅੰਦਰ ਇਨਕਲਾਬੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਨੂੰ ਇਸ ਢੰਗ ਨਾਲ ਪ੍ਰਪੱਕ ਬਣਾਏ ਕਿ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੀ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਸੰਪੂਰਨਤਾ ਸਹਿਲ ਹੋ ਜਾਵੇ ਅਤੇ ਸਮਾਜਵਾਦ ਵੱਲ ਤਬਦੀਲੀ ਦਾ ਆਧਾਰ ਤਿਆਰ ਹੋ ਜਾਵੇ।
    87. ਇਹਨਾਂ ਕਾਰਜਾਂ ਦੇ ਪੇਸ਼ੇ ਨਜ਼ਰ ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਪਾਰਟੀ ਆਪਣਾ ਇਹ ਫਰਜ਼ ਸਮਝਦੀ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਇਸ ਖੜੋਤ ਜੋ ਕਿ ਵਰਤਮਾਨ ਸਰਕਾਰ ਅਤੇ ਰਾਜ ਨੇ ਲੋਕਾਂ ਉੱਪਰ ਠੋਸੀ ਹੋਈ ਹੈ,ਵਿਚੋਂ ਨਿਕਲਣ ਲਈ ਅਮਲੀ ਕੰਮ ਤੇ ਰਾਜਸੀ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ ਲੋਕਾਂ ਸਾਹਮਣੇ ਰਖੇ।
    ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਪਾਰਟੀ ਸਮਾਜਵਾਦ ਅਤੇ ਕਮਿਊਨਿਜਮ ਉਸਾਰਨ ਦੇ ਆਪਣੇ ਨਿਸ਼ਾਨੇ ਪ੍ਰਤੀ ਦ੍ਰਿੜਤਾ ਨਾਲ ਪਾਬੰਦ ਹੈ। ਇਹ ਹਾਕਮ  ਜਮਾਤਾਂ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਸਰਕਾਰਾਂ ਦੇ ਬੁਰਜੁਆ ਆਗੂਆਂ ਦੇ ਇਹਨਾਂ ਝੂਠੇ ਦਾਅਵਿਆਂ ਦੇ ਧੋਖੇ ਵਿਚ ਬਿਲਕੁਲ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦੀ ਕਿ ਉਹ ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਨਿਆਂ-ਸੰਗਤ ਸਮਾਜ ਉਸਾਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਇਹ ਗੱਲ ਮੁਢਲੀ ਜਾਣਕਾਰੀ ਵਾਲੀ ਹੈ ਕਿ ਹਕੀਕੀ ਅਤੇ ਸੱਚਾ ਸਮਾਜਵਾਦ ਕੇਵਲ ਤਦ ਹੀ ਉਸਾਰਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ ਜੇਕਰ ਸਮਾਜ ਵਿਚ ਉਤਪਾਦਨ ਦੇ ਸਭ ਮੁਖੀ ਸਾਧਨ ਰਾਜ ਦੀ ਮਾਲਕੀ ਹੇਠ ਹੋਣ, ਜਿੱਥੇ ਹਰ ਇਕ ਤੋਂ 'ਉਸਦੀ ਸਮਰੱਥਾ ਅਨੁਸਾਰ' ਤੇ ਹਰ ਇਕ ਨੂੰ 'ਉਸਦੇ ਕੰਮ ਅਨੁਸਾਰ' ਦਾ ਅਸੂਲ ਲਾਗੂ ਹੋਵੇ ਅਤੇ ਜੋ ਕਮਿਊਨਿਜ਼ਮ ਉਸਾਰਨ ਦਾ ਇਕ ਪੜਾਅ ਬਣੇ ਜਿੱਥੇ ਹਰ ਇਕ ਤੋਂ 'ਉਸਦੀ ਸਮਰੱਥਾ ਅਨੁਸਾਰ' ਅਤੇ ਹਰ ਇਕ ਨੂੰ 'ਉਸਦੀ ਲੋੜ ਅਨੁਸਾਰ' ਦਾ ਅਸੂਲ ਲਾਗੂ ਹੋਵੇਗਾ। ਪ੍ਰਤੱਖ  ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਕੁੱਝ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ ਪ੍ਰਤੀਨਿੱਧਾਂ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਹੇਠਾਂ ਚੱਲਣ ਵਾਲੀ ਵਰਤਮਾਨ ਬੁਰਜੁਆ-ਜਗੀਰੂ ਸਰਕਾਰ ਅਤੇ ਰਾਜ ਅਧੀਨ ਸੰਭਵ ਨਹੀਂ। ਅਸਲੀ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਸਮਾਜ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਕੇਵਲ ਪ੍ਰੋਲਤਾਰੀ ਰਾਜ ਅਧੀਨ ਹੀ ਸੰਭਵ ਹੈ।
    ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਸਮਾਜ ਉਸਾਰਨ ਦੇ ਆਪਣੇ ਨਿਸ਼ਾਨੇ 'ਤੇ ਪਾਬੰਦ ਰਹਿਣ ਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ ਆਰਥਕ ਵਿਕਾਸ ਦੀ ਪੱਧਰ, ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਰਾਜਨੀਤਕ ਵਿਚਾਰਧਾਰਕ ਪ੍ਰਪੱਕਤਾ ਅਤੇ ਉਸ ਦੇ ਸੰਗਠਨ ਦੀ ਪੱਧਰ ਨੂੰ ਧਿਆਨ ਵਿਚ ਰੱਖਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਵਿਚ ਸਭ ਹਕੀਕੀ ਜਗੀਰੂ-ਵਿਰੋਧੀ ਤੇ ਸਾਮਰਾਜ-ਵਿਰੋਧੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੇ ਗਠਜੋੜ ਉੱਪਰ ਆਧਾਰਤ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਦਾ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ ਲੋਕਾਂ ਸਾਹਮਣੇ ਰੱਖਦੀ ਹੈ। ਇਹ ਸਭ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਇਹ ਮੰਗ ਕਰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਵਰਤਮਾਨ ਬੁਰਜੁਆ-ਜਗੀਰੂ ਰਾਜ ਤੇ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਲਾਹਕੇ ਇਸ ਦੀ ਥਾਂ ਦ੍ਰਿੜ ਮਜ਼ਦੂਰ ਕਿਸਾਨ ਏਕੇ ਦੇ ਆਧਾਰ ਉੱਤੇ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਵਿਚ ਲੋਕ-ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਦੇ ਰਾਜ ਅਤੇ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਕੀਤੀ ਜਾਵੇ। ਕੇਵਲ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੀ ਭਾਰਤੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਅਧੂਰੇ ਰਹਿ ਗਏ ਬੁਨਿਆਦੀ ਜਮਹੂਰੀ ਕਾਰਜਾਂ ਨੂੰ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਅਤੇ ਮੁਕੰਮਲ ਰੂਪ ਵਿਚ ਨੇਪਰੇ ਚਾੜ੍ਹਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਦੇਸ਼ ਨੂੰ ਸਮਾਜਵਾਦ ਵੱਲ ਤੋਰਨ ਲਈ ਰਾਹ ਪੱਧਰਾ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਕੰਮ ਤੇ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ ਜੋ ਸਮਾਜਵਾਦ ਵੱਲ ਵੱਧਣ ਦੀ ਪਹਿਲੀ ਸ਼ਰਤ ਵਜੋਂ, ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਸਰਕਾਰ ਨੇਪਰੇ ਚਾੜ੍ਹੇਗੀ, ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਹਨ :
    88. ਰਾਜਕੀ ਢਾਂਚੇ ਦੇ ਖੇਤਰ ਵਿਚ : ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਭਾਰਤ, ਭਾਰਤ ਦੀਆਂ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਕੌਮੀਅਤਾਂ ਦੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਸਵੈ-ਇੱਛਤ ਯੂਨੀਅਨ ਹੋਵੇਗਾ।
    ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ, ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਦੀ ਖੁਦ-ਮੁਖਤਿਆਰੀ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰ ਕਰਦੀ ਕੇਂਦਰੀਕਰਨ ਦੀ ਮੁਹਿੰਮ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਹੈ ਅਤੇ ਇਹ ਸਭਨਾਂ ਵੰਡਵਾਦੀ, ਗੜਬੜ ਪਾਊ ਅਤੇ ਵੱਖਵਾਦੀ ਲਹਿਰਾਂ ਦੇ ਵੀ ਵਿਰੁੱਧ ਹੈ।
    ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਵੱਸਦੀਆਂ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਕੌਮੀਅਤਾਂ ਲਈ ਅਸਲੀ ਬਰਾਬਰੀ ਅਤੇ ਖੁਦ-ਮੁਖਤਿਆਰੀ ਦੇ ਆਧਾਰ ਉੱਤੇ ਭਾਰਤੀ ਯੂਨੀਅਨ ਦੇ ਏਕੇ ਨੂੰ ਕਾਇਮ ਰੱਖਣ ਤੇ ਵਧਾਉਣ ਲਈ ਅਤੇ ਹੇਠ ਲਿਖੇ ਅਨੁਸਾਰ ਜਮਹੂਰੀ ਰਾਜਕੀ ਢਾਂਚਾ ਵਿਕਸਤ ਕਰਨ ਲਈ ਕੰਮ ਕਰਦੀ ਹੈ :-
    (i) ਭਾਰਤੀ ਯੂਨੀਅਨ ਜਮਹੂਰੀ ਕੇਂਦਰਤਾ ਉੱਤੇ ਆਧਾਰਤ ਇਕ ਫੈਡਰੇਸ਼ਨ ਹੋਵੇਗੀ।
    (ii) ਲੋਕ ਖੁਦਮੁਖਤਾਰ ਹਨ। ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਦੀਆਂ ਸਭ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਉਤਰਦਾਈ ਹੋਣਗੀਆਂ। ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਚਲਾਉਣ ਸੰਬੰਧੀ ਬਾਲਗ ਵੋਟ ਅਤੇ ਅਨੁਪਾਤਕ ਪ੍ਰਤੀਨਿੱਧਤਾ ਦੇ ਅਸੂਲਾਂ ਦੇ ਆਧਾਰ ਉੱਤੇ ਚੁਣੇ ਗਏ ਲੋਕ ਪ੍ਰਤੀਨਿਧੀਆਂ ਦੇ ਹੱਥ ਸਰਵ-ਉੱਚ ਸੱਤਾ ਹੋਵੇਗੀ ਅਤੇ ਇਹਨਾਂ ਪ੍ਰਤੀਨਿੱਧਾਂ ਨੂੰ ਵਾਪਸ ਬੁਲਾਇਆ ਜਾ ਸਕੇਗਾ।
    ਸਰਵ-ਵਿਆਪੀ ਬਰਾਬਰ ਤੇ ਸਿੱਧਾ ਵੋਟ ਅਧਿਕਾਰ ਉਹਨਾਂ ਸਭ ਸ਼ਹਿਰੀਆਂ ਨੂੰ ਆਜ਼ਾਦਾਨਾ ਤੇ ਨਿਰਪੱਖ ਤੌਰ 'ਤੇ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋਵੇਗਾ ਜਿਹੜੇ 18 ਸਾਲ ਦੇ ਹੋ ਚੁੱਕੇ ਹੋਣਗੇ। ਪਾਰਲੀਮੈਂਟ, ਰਾਜ ਵਿਧਾਨ ਸਭਾਵਾਂ ਤੇ ਸਥਾਨਕ ਸਵੈ-ਰਾਜ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਦੀਆਂ ਸਭ ਚੋਣਾਂ ਏਸੇ ਆਧਾਰ ਉੱਤੇ ਹੋਣਗੀਆਂ। ਗੁਪਤ ਵੋਟ ਦਾ ਅਤੇ ਕਿਸੇ ਵੀ ਪ੍ਰਤੀਨਿੱਧ ਸੰਸਥਾ ਲਈ ਚੁਣੇ ਜਾਣ ਸੰਬੰਧੀ ਚੋਣਕਾਰ ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਇਆ ਜਾਵੇਗਾ।
    (iii) ਸਰਬ-ਭਾਰਤੀ ਕੇਂਦਰ ਵਿਚ ਬਰਾਬਰ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਵਾਲੇ ਦੋ ਸਦਨ ਹੋਣਗੇ, ਲੋਕ ਸਭਾ ਤੇ ਰਾਜ ਸਭਾ। ਰਾਸ਼ਟਰਪਤੀ ਦੋਹਾਂ ਸਦਨਾਂ ਦੇ ਫੈਸਲਿਆਂ ਅਨੁਸਾਰ ਅਮਲ ਕਰੇਗਾ ਅਤੇ ਉਹਦੇ ਹੋਰ ਕੋਈ ਅਧਿਕਾਰ ਨਹੀਂ ਹੋਣਗੇ।
    (iv) ਭਾਰਤੀ ਯੂਨੀਅਨ ਦੇ ਸਭ ਰਾਜਾਂ ਨੂੰ ਅਸਲੀ ਖੁਦ-ਮੁਖਤਿਆਰੀ (ਅਟਾਨੋਮੀ) ਅਤੇ ਬਰਾਬਰ ਅਧਿਕਾਰ ਹਾਸਲ ਹੋਣਗੇ।
    ਕਬਾਇਲੀ ਇਲਾਕਿਆਂ ਜਾਂ ਉਹਨਾਂ ਇਲਾਕਿਆਂ ਨੂੰ, ਜਿੱਥੇ ਵਸੋਂ ਨਸਲੀ ਬਣਤਰ ਦੇ ਲਿਹਾਜ਼ ਨਾਲ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਕਿਸਮ ਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਸਮਾਜਕ ਤੇ ਸਭਿਆਚਾਰਕ ਹਾਲਤਾਂ ਦੇ ਲਿਹਾਜ਼ ਨਾਲ ਨਿਵੇਕਲੀ ਭਾਂਤ ਦੀ ਹੈ, ਸਬੰਧਤ ਰਾਜ ਦੇ ਅੰਦਰ ਖੇਤਰੀ ਹਕੂਮਤ ਵਾਲੀ ਖੇਤਰੀ ਖੁਦ-ਮੁਖਤਿਆਰੀ ਹਾਸਲ ਹੋਵੇਗੀ। ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਵਿਕਾਸ ਲਈ ਪੂਰੀ-ਪੂਰੀ ਸਹਾਇਤਾ ਮਿਲੇਗੀ।
    (v) ਰਾਜਾਂ ਦੇ ਪੱਧਰ ੳੱਤੇ ਕੋਈ ਉੱਪਰਲੇ ਸਦਨ ਨਹੀਂ ਹੋਣਗੇ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਰਾਜਾਂ ਦੇ ਗਵਰਨਰ ਉਪਰੋਂ ਨੀਅਤ ਕੀਤੇ ਜਾਣਗੇ। ਸਭ ਪ੍ਰਬੰਧਕ ਸੇਵਾਵਾਂ ਸੰਬੰਧਤ ਰਾਜਾਂ ਜਾ ਸਥਾਨਕ ਰਾਜ ਅਧਿਕਾਰੀਆਂ ਦੇ ਸਿੱਧੇ ਕੰਟਰੋਲ ਵਿਚ ਹੋਣਗੀਆਂ। ਰਾਜ ਸਭਾਵਾਂ, ਭਾਰਤੀ ਸ਼ਹਿਰੀਆਂ ਨਾਲ ਇਕੋ ਜਿਹਾ ਸਲੂਕ ਕਰਨਗੀਆਂ ਅਤੇ ਜਾਤ,ਧਰਮ, ਫਿਰਕੇ ਤੇ ਕੌਮੀਅਤ ਦੇ ਆਧਾਰ 'ਤੇ ਕੋਈ ਵਿਤਕਰਾ ਨਹੀਂ ਹੋਵੇਗਾ।
    (vi) ਪਾਰਲੀਮੈਂਟ ਤੇ ਕੇਂਦਰੀ ਰਾਜ ਪ੍ਰਬੰਧ ਵਿਚ ਸਭਨਾਂ ਕੌਮੀ ਭਾਸ਼ਾਵਾਂ ਦੀ ਬਰਾਬਰੀ ਮੰਨੀ ਜਾਵੇਗੀ, ਪਾਰਲੀਮੈਂਟ ਦੇ ਮੈਂਬਰਾਂ ਨੂੰ ਕਿਸੇ ਵੀ ਕੌਮੀ ਭਾਸ਼ਾ ਵਿਚ ਬੋਲਣ ਦਾ ਹੱਕ ਹਾਸਲ ਹੋਵੇਗਾ ਅਤੇ ਦੂਜੀਆਂ ਸਭਨਾਂ ਕੌਮੀ ਭਾਸ਼ਾਵਾਂ ਵਿਚ ਨਾਲੋ ਨਾਲ ਅਨੁਵਾਦ ਕਰਨਾ ਹੋਵੇਗਾ। ਸਭ ਕਾਨੂੰਨ, ਸਰਕਾਰੀ ਹੁਕਮ ਤੇ ਮਤੇ ਸਭਨਾਂ ਕੌਮੀ ਭਾਸ਼ਾਵਾਂ ਵਿਚ ਦਿੱਤੇ ਜਾਣਗੇ। ਸਰਕਾਰੀ ਭਾਸ਼ਾ ਵਜੋਂ ਹਿੰਦੀ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਲਾਜ਼ਮੀ ਕਰਾਰ ਨਹੀਂ ਦਿੱਤੀ ਜਾਵੇਗੀ। ਵੱਧਦੇ ਹੋਏ ਆਰਥਕ, ਸਮਾਜਕ ਤੇ ਬੌਧਿਕ ਮੇਲ-ਮਿਲਾਪ ਦੇ ਦੌਰਾਨ, ਭਾਰਤ ਦੇ ਵੱਖ ਵੱਖ ਰਾਜਾਂ ਦੇ ਲੋਕ ਆਪਣੀਆਂ ਲੋੜਾਂ ਲਈ ਪਰਸਪਰ ਸੰਚਾਰ ਦੀ ਅਤਿ ਢੁਕਵੀਂ ਭਾਸ਼ਾ ਅਮਲ ਵਿਚ ਵਿਕਸਤ ਕਰਨਗੇ। ਰਾਜ ਪ੍ਰਬੰਧ, ਕਾਨੂੰਨ ਸਾਜੀ, ਨਿਆਂ-ਪਾਲਕਾਂ ਦੇ ਖੇਤਰਾਂ ਵਿਚ ਅਤੇ ਪੜ੍ਹਾਈ ਦੇ ਮਾਧਿਅਮ ਵਜੋਂ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਛਿੱਕੇ ਤੇ ਟੰਗ ਦਿੱਤੀ ਜਾਵੇਗੀ ਤੇ ਇਹਦਾ ਸਥਾਨ ਕੌਮੀ ਭਾਸ਼ਾਵਾਂ ਨੂੰ ਦੇ ਦਿੱਤਾ ਜਾਵੇਗਾ। ਵਿਦਿਅਕ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਖੁਦ ਆਪਣੀ ਮਾਂ ਬੋਲੀ ਵਿਚ ਵਿਦਿਆ ਹਾਸਲ ਕਰਨ ਸੰਬੰਧੀ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ, ਰਾਜ ਦੀਆਂ ਸਭਨਾਂ ਪਬਲਿਕ ਤੇ ਰਾਜਕੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਵਿਚ ਰਾਜ ਪ੍ਰਬੰਧ ਦੀ ਭਾਸ਼ਾ ਵਜੋਂ ਉਸ ਭਾਸ਼ਾਈ ਰਾਜ ਦੀ ਕੌਮੀ ਭਾਸ਼ਾ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਅਤੇ ਰਾਜ ਵਿਚ ਅਤਿ ਉਚੇ ਮਿਆਰ ਤੱਕ ਵਿਦਿਆ ਦੇ ਮਾਧਿਅਮ ਵਜੋਂ ਇਹਦੀ ਵਰਤੋਂ; ਜਿੱਥੇ ਕਿਤੇ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੋਵੇ, ਰਾਜ ਦੀ ਭਾਸ਼ਾ ਤੋਂ ਇਲਾਵਾ ਘਟ ਗਿਣਤੀ ਜਾਂ ਘਟ ਗਿਣਤੀਆਂ ਜਾਂ ਕਿਸੇ ਖੇਤਰ ਦੀ ਭਾਸ਼ਾ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਸਬੰਧੀ ਪ੍ਰਬੰਧ ਕਰਨ ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ ਲਾਗੂ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇਗਾ। ਉਰਦੂ ਭਾਸ਼ਾ ਤੇ ਇਹਦੀ ਲਿਪੀ ਦੀ ਰੱਖਿਆ ਕੀਤੀ ਜਾਵੇਗੀ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਉੱਨਤ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇਗਾ।
    (vii) ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਸਰਕਾਰ ਆਰਥਕ, ਰਾਜਸੀ ਤੇ ਸਭਿਆਚਾਰਕ ਖੇਤਰਾਂ ਵਿਚ ਯੂਨੀਅਨ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਲ ਰਾਜਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਅਤੇ ਵੱਖ ਵੱਖ ਰਾਜਾਂ ਦੀਆਂ ਕੌਮਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਪਰਸਪਰ ਮਿਲਵਰਤਨ ਕਾਇਮ ਕਰਕੇ ਤੇ ਵਧਾਕੇ ਭਾਰਤ ਦੇ ਏਕੇ ਨੂੰ ਪੱਕਾ ਕਰਨ ਲਈ ਕਦਮ ਉਠਾਏਗੀ। ਇਹ ਆਰਥਕ ਤੌਰ ਤੇ ਪਛੜੇ ਹੋਏ ਅਤੇ ਕਮਜ਼ੋਰ ਰਾਜਾਂ, ਖੇਤਰਾਂ ਤੇ ਇਲਾਕਿਆਂ ਵੱਲ ਉਚੇਚਾ ਧਿਆਨ ਦੇਵੇਗੀ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਮਾਲੀ ਤੇ ਦੂਜੀ ਸਹਾਇਤਾ ਦੇਵੇਗੀ ਤਾਂ ਜੋ ਆਪਣੇ ਪਛੜੇਵੇਂ ਉੱਤੇ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਕਾਬੂ ਪਾਉਣ ਵਿਚ ਉਹਨਾਂ ਦਾ ਹੱਥ ਵਟਾਇਆ ਜਾਵੇ। ਕੁਦਰਤੀ ਵਸੀਲਿਆਂ ਦੀ ਆਪੋ ਵਿਚ ਵੰਡ ਆਦਿ ਵਰਗੇ ਵਿਵਾਦਾਂ ਨੂੰ ਜਮਹੂਰੀ ਢੰਗ ਨਾਲ ਅਤੇ ਲੋੜ-ਆਧਾਰਤ ਸਿਧਾਂਤ ਅਨੁਸਾਰ ਨਿਪਟਾਇਆ ਜਾਵੇਗਾ।   
    (viii) ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਰਾਜ, ਸਥਾਨਕ ਰਾਜ ਪ੍ਰਬੰਧ ਦੇ ਖੇਤਰ ਵਿਚ, ਪਿੰਡ ਤੋਂ ਉਤਾਂਹ ਵੱਲ ਸਥਾਨਕ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਦਾ ਵਿਸ਼ਾਲ ਜਾਲ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਏਗਾ। ਇਹਨਾਂ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਦੀ ਚੋਣ ਲੋਕ ਸਿੱਧੇ ਤੌਰ ਤੇ ਕਰਨਗੇ ਅਤੇ ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸੱਤਾ ਤੇ ਜ਼ੁਮੇਵਾਰੀ ਸੌਂਪੀ ਜਾਵੇਗੀ ਅਤੇ ਕਾਫੀ ਮਾਲੀ ਸਾਧਨ ਮੁਹੱਈਆ ਕੀਤੇ ਜਾਣਗੇ।
    (ix) ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਰਾਜ, ਸਾਡੀਆਂ ਸਭਨਾਂ ਸਮਾਜਕ ਤੇ ਰਾਜਸੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਵਿਚ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਦਾ ਜਜ਼ਬਾ ਭਰਨ ਦਾ ਜਤਨ ਕਰੇਗਾ। ਇਹ ਕੌਮੀ ਜੀਵਨ ਦੇ ਹਰ ਪੱਖ ਉੱਤੇ ਪਹਿਲਕਦਮੀ ਤੇ ਕੰਟਰੋਲ ਦੀਆਂ ਜਮਹੂਰੀ ਸ਼ਕਲਾਂ ਨੂੰ ਪਸਾਰਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਵਿਚ ਟਰੇਡ ਯੂਨੀਅਨਾਂ, ਕਿਸਾਨਾਂ ਤੇ ਖੇਤ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੀਆਂ ਸਭਾਵਾਂ ਅਤੇ ਕਿਰਤੀ ਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਦੂਜੀਆਂ ਜਮਾਤੀ ਤੇ ਜਨਤਕ ਜਥੇਬੰਦੀਆਂ ਮੁਖੀ ਰੋਲ ਅਦਾ ਕਰਨਗੀਆਂ। ਹਕੂਮਤ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਕਾਨੂੰਨ-ਸਾਜ਼ ਤੇ ਕਾਰਜਕਾਰਨੀ ਮਸ਼ੀਨ ਨੂੰ ਨਿਰੰਤਰ ਤੌਰ 'ਤੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਜਮਹੂਰੀ ਇਛਾਵਾਂ ਦੇ ਸਾਹਮਣੇ ਉਤਰਦਾਈ ਠਹਿਰਾਏਗੀ ਅਤੇ ਇਹ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਏਗੀ ਕਿ ਆਮ ਲੋਕ ਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਜਥੇਬੰਦੀਆਂ ਰਾਜ ਤੇ ਰਾਜ-ਪ੍ਰਬੰਧ ਵਿਚੋਂ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹੀ ਦੇ ਅਤੇ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹੀ ਅਮਲਾਂ ਦੇ ਖਾਤਮੇ ਲਈ ਕੰਮ ਕਰਨ।
    (x) ਨਿਆਂ-ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਦੇ ਮਾਮਲੇ ਵਿਚ ਜ਼ਮਹੂਰੀ ਤਬਦੀਲੀਆਂ ਲਾਗੂ ਕੀਤੀਆਂ ਜਾਣਗੀਆਂ। ਤੁਰੰਤ ਤੇ ਯੋਗ ਨਿਆਂ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਇਆ ਜਾਵੇਗਾ। ਜੱਜਾਂ ਦੀ ਨਿਯੁਕਤੀ ਲਈ ਵੱਖ ਵੱਖ ਪੱਧਰਾਂ ਉੱਤੇ ਪਾਰਲੀਮੈਂਟ, ਵਿਧਾਨ ਸਭਾਵਾਂ ਅਤੇ ਦੂਜੀਆਂ ਲੋਕ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਦੀ ਪ੍ਰਵਾਨਗੀ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੋਵੇਗੀ।
    ਸਭਨਾਂ ਸ਼ਹਿਰੀਆਂ ਨੂੰ ਕਾਨੂੰਨੀ ਚਾਰਾਜੋਈ ਸਹਿਜੇ ਹੀ ਮੁਹੱਈਆ ਕਰਨ ਦੇ ਮੰਤਵ ਨਾਲ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਕਾਨੂੰਨੀ ਸਹਾਇਤਾ ਤੇ ਸਲਾਹ-ਮਸ਼ਵਰੇ ਮੁਫਤ ਦਿੱਤੇ ਜਾਣਗੇ।
    ਕਿਸੇ ਵੀ ਕਰਮਚਾਰੀ ਵਿਰੁੱਧ ਕਾਨੂੰਨ ਦੀ ਅਦਾਲਤ ਵਿਚ ਮੁਕਦਮਾ ਚਲਾਉਣ ਸੰਬੰਧੀ ਲੋਕਾਂ ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਇਆ ਜਾਵੇਗਾ।
    (xi) ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਹਕੂਮਤ ਹਥਿਆਰਬੰਦ ਫੌਜਾਂ ਦੇ ਸਿਪਾਹੀਆਂ ਵਿਚ ਦੇਸ਼ ਭਗਤੀ, ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਅਤੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਸੇਵਾ ਦਾ ਜਜ਼ਬਾ ਭਰੇਗੀ। ਇਹ ਉਹਨਾਂ ਲਈ ਚੰਗਾ ਜੀਵਨ ਮਿਆਰ ਅਤੇ ਵਧੀਆ ਸੇਵਾ ਹਾਲਤਾਂ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਏਗੀ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸਭਿਆਚਾਰਕ ਜੀਵਨ ਲਈ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਬੱਚਿਆਂ ਦੀ ਵਿਦਿਆ ਤੇ ਭਲਾਈ ਲਈ ਸੰਭਵ ਵਧੇਰੇ ਮੌਕੇ ਮੁਹੱਈਆ ਕਰੇਗੀ। ਇਹ ਸਭ ਰਿਸ਼ਟ-ਪੁਸ਼ਟ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਫੌਜੀ ਸਿਖਲਾਈ ਹਾਸਲ ਕਰਨ ਲਈ ਹੱਲਾਸ਼ੇਰੀ ਦੇਵੇਗੀ ਅਤੇ ਉਸ ਵਿਚ ਕੌਮੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਤੇ ਇਹਦੀ ਰੱਖਿਆ ਦਾ ਜਜ਼ਬਾ ਭਰੇਗੀ।
    (xii) ਪੂਰਨ ਸ਼ਹਿਰੀ ਆਜ਼ਾਦੀਆਂ ਦੀ ਜਾਮਨੀ ਦਿੱਤੀ ਜਾਵੇਗੀ। ਵਿਅਕਤੀਗਤ ਆਜ਼ਾਦੀ ਤੇ ਨਿਵਾਸ ਦੀ ਸੁਰੱਖਿਆ ਅਤੇ ਕਿਸੇ ਆਦਮੀ ਨੂੰ ਬਿਨਾਂ ਮੁਕੱਦਮਾਂ ਚਲਾਏ ਨਜ਼ਰਬੰਦ ਨਹੀਂ ਰੱਖਿਆ ਜਾਵੇਗਾ। ਜ਼ਮੀਰ, ਧਾਰਮਕ ਵਿਸ਼ਵਾਸਾਂ ਤੇ ਪੂਜਾ ਪਾਠ ਦੀ, ਤਕਰੀਰ, ਪ੍ਰੈਸ, ਇਕੱਤਰਤਾ, ਹੜਤਾਲ ਤੇ ਇਕੱਠੇ ਹੋਣ ਦੀ ਬੇਰੋਕ-ਟੋਕ ਆਜ਼ਾਦੀ, ਇਕ ਤੋਂ ਦੂਜੀ ਥਾਂ ਆ ਜਾ ਸਕਣ ਅਤੇ ਕੰਮ ਕਰਨ ਦੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਹੋਵੇਗੀ।
    (xiii) ਕੰਮ ਦੇ ਅਧਿਕਾਰ ਦੀ ਹਰ ਸ਼ਹਿਰੀ ਦੇ ਮੂਲ ਅਧਿਕਾਰ ਵਜੋਂ ਜਾਮਨੀ ਦਿੱਤੀ ਜਾਵੇਗੀ। ਧਰਮ, ਜਾਤ-ਪਾਤ, ਲਿੰਗ, ਨਸਲ ਤੇ ਕੌਮੀਅਤ ਵੱਲ ਕੋਈ ਧਿਆਨ  ਦਿੱਤੇ ਬਗੈਰ ਸਭਨਾਂ ਸ਼ਹਿਰੀਆਂ ਲਈ ਸਮਾਨ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਦੀ ਅਤੇ ਸਮਾਨ ਕੰਮ ਲਈ ਸਮਾਨ ਤਨਖਾਹ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਈ ਜਾਵੇਗੀ।
    (xiv) ਤਨਖਾਹਾਂ ਤੇ ਆਮਦਨਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਵੱਡੇ ਪਾੜੇ ਮਿਟਾਏ ਜਾਣਗੇ।
    (xv) ਇਕ ਜਾਤ ਵਲੋਂ ਦੂਜੀ ਉੱਤੇ ਸਮਾਜਕ ਜਬਰ ਦਾ ਖਾਤਮਾ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇਗਾ ਅਤੇ ਛੂਤ-ਛਾਤ ਵਾਲਾ ਵਰਤਾਅ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਨੂੰ ਕਾਨੂੰਨ ਦੁਆਰਾ ਸਜਾ ਮਿਲੇਗੀ।
    ਅਨੁਸੂਚਿਤ ਜਾਤੀਆਂ (ਦਲਿਤਾਂ), ਕਬੀਲਿਆਂ ਅਤੇ ਦੂਜੀਆਂ ਪਛੜੀਆਂ  ਜਾਤੀਆਂ ਲਈ ਸੇਵਾਵਾਂ, ਵਿਦਿਅਕ ਸਹੂਲਤਾਂ ਅਤੇ ਹੋਰ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਸਹੂਲਤਾਂ ਦੇ ਮਾਮਲੇ ਵਿਚ ਉਚੇਚੀਆਂ ਰਿਆਇਤਾਂ ਦਿੱਤੀਆਂ ਜਾਣਗੀਆਂ।  
    (xvi) ਸਮਾਜਕ ਨਾ ਬਰਾਬਰੀਆਂ ਤੇ ਅਯੋਗਤਾਵਾਂ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਸ਼ਿਕਾਰ ਇਸਤਰੀਆਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ, ਨੂੰ ਦੂਰ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇਗਾ। ਸੰਪਤੀ ਦੀ ਵਿਰਾਸਤ, ਵਿਆਹ ਤੇ ਤਲਾਕ ਦੇ ਕਾਨੂੰਨਾਂ ਨੂੰ ਲਾਗੂ ਕਰਨ, ਕਿੱਤਿਆਂ ਅਤੇ ਸੇਵਾਵਾਂ ਸੰਬੰਧੀ ਤੇ ਦਾਖਲੇ ਸਬੰਧੀ ਮਾਮਲਿਆਂ ਵਿਚ ਇਸਤਰੀਆਂ ਨੂੰ ਮਰਦਾਂ ਬਰਾਬਰ ਹੱਕ ਹੋਣਗੇ।
    (xvii) ਰਾਜ ਦੇ ਸੈਕੂਲਰ (ਧਰਮ-ਨਿਰਪੱਖ) ਖਾਸੇ ਦੀ ਜ਼ਾਮਨੀ ਦਿੱਤੀ ਜਾਵੇਗੀ। ਰਾਜ ਦੇ ਮਾਮਲਿਆਂ ਅਤੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਰਾਜਸੀ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਧਾਰਮਕ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਦੇ ਦਖਲ ਦੀ ਮਨਾਹੀ ਕਰ ਦਿੱਤੀ ਜਾਵੇਗੀ। ਧਾਰਮਕ ਘਟ ਗਿਣਤੀਆਂ ਦੀ ਰੱਖਿਆ ਕੀਤੀ ਜਾਵੇਗੀ ਅਤੇ ਉਹਨਾ ਵਿਰੁੱਧ ਹਰ ਕਿਸਮ ਦੇ ਵਿਤਕਰੇ ਦੀ ਮਨਾਹੀ ਕੀਤੀ ਜਾਵੇਗੀ।
    (xviii) ਰਾਜ ਵਿਦਿਆ ਨੂੰ ਮੁਕੰਮਲ ਰੂਪ ਵਿਚ ਆਪਣੇ ਹੱਥ ਵਿਚ ਲੈ ਲਵੇਗਾ ਅਤੇ ਇਹਦੇ ਸੈਕੂਲਰ ਖਾਸੇ ਨੂੰ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਇਆ ਜਾਵੇਗਾ। ਸੈਕੰਡਰੀ ਪੱਧਰ ਤੱਕ ਮੁਫ਼ਤ ਅਤੇ ਲਾਜ਼ਮੀ ਵਿਦਿਆ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਈ ਜਾਵੇਗੀ।
    (xix) ਸਿਹਤ ਸੇਵਾਵਾਂ ਦਾ ਵਿਸ਼ਾਲ ਜਾਲ ਵਿਛਾ ਦਿੱਤਾ ਜਾਵੇਗਾ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਲਈ ਇਕ ਪੈਸਾ ਵੀ ਨਹੀਂ ਦੇਣਾ ਪਵੇਗਾ ਅਤੇ ਕਿਰਤੀ ਲੋਕਾਂ ਲਈ ਆਰਾਮ-ਘਰ ਤੇ ਮਨ ਪਰਚਾਵਾ ਕੇਂਦਰ ਕਾਇਮ ਕੀਤੇ ਜਾਣਗੇ ਅਤੇ ਬੁਢਾਪਾ ਪੈਨਸ਼ਨਾਂ ਦੀ ਜ਼ਾਮਨੀ ਦਿੱਤੀ ਜਾਵੇਗੀ।
    (xx) ਲੋਕ-ਜਮਹੂਰੀ ਰਾਜ ਤੇ ਸਰਕਾਰ ਨਵਾਂ ਅੱਗਾਂਹਵਧੂ ਲੋਕ ਸਭਿਆਚਾਰ ਵਿਕਸਤ ਕਰਨ ਤੇ ਫੈਲਾਉਣ ਲਈ ਸਾਡੇ ਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਰਚਨਾਤਮਕ ਯੋਗਤਾਵਾਂ ਦੀ ਪ੍ਰਫੁਲਤਾ ਦਾ ਅਹਿਮ ਕਾਰਜ ਹੱਥ ਲੈਣਗੇ ਅਤੇ ਅਜੇਹਾ ਸਭਿਆਚਾਰ ਵਿਕਸਤ ਕਰਨਗੇ ਜੋ ਖਾਸੇ ਵਜੋਂ ਜਗੀਰੂ-ਵਿਰੋਧੀ, ਸਾਮਰਾਜ-ਵਿਰੋਧੀ ਤੇ ਜਮਹੂਰੀ ਹੋਵੇਗਾ। ਇਹ ਅਜਿਹੇ ਸਾਹਿਤ, ਕਲਾ ਤੇ ਸਭਿਆਚਾਰ ਨੂੰ ਅਗੇ ਵਧਾਉਣ, ਉਤਸ਼ਾਹ ਦੇਣ ਅਤੇ ਵਿਕਸਤ ਕਰਨ ਲਈ ਹੇਠ ਲਿਖੇ ਲੋੜੀਂਦੇ ਕਦਮ ਪੁੱਟੇਗੀ ਜਿਹੜੇ :
    - ਆਪਣੀਆਂ ਜੀਵਨ ਹਾਲਤਾਂ ਬਿਹਤਰ ਬਨਾਉਣ ਅਤੇ ਆਪਣਾ ਪਦਾਰਥਕ ਤੇ ਸਭਿਆਚਾਰਕ ਜੀਵਨ ਖੁਸ਼ਹਾਲੀ ਭਰਪੂਰ ਤੇ ਅਮੀਰ ਬਣਾਉਣ ਲਈ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਘੋਲਾਂ ਵਿਚ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਸਹਾਈ ਹੋਣਗੇ।
    - ਜਾਤ-ਪਾਤ, ਫਿਰਕੂ ਨਫਰਤ ਤੇ ਧਾਰਮਕ ਕੱਟਰਤਾ ਤੋਂ ਅਤੇ ਅਧੀਨਤਾ, ਹਨੇਰ-ਬਿਰਤੀਵਾਦ ਤੇ ਵਹਿਮਾਂ-ਭਰਮਾਂ ਦੇ ਵਿਚਾਰਾਂ ਤੋਂ ਛੁਟਕਾਰਾ ਹਾਸਲ ਕਰਨ ਵਿਚ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਮਦਦ ਕਰਨਗੇ।
    - ਹਰ ਕੌਮੀਅਤ, ਜਿਸ ਵਿਚ ਕਬਾਇਲੀ ਲੋਕ ਵੀ ਸ਼ਾਮਲ ਹਨ, ਦੀ ਇਸ ਸੰਬੰਧੀ ਸਹਾਇਤਾ ਕਰਨਗੇ ਕਿ ਉਹ ਆਪਣੀ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਭਾਸ਼ਾ, ਸਭਿਆਚਾਰ ਅਤੇ ਜੀਵਨ ਢੰਗ ਨੂੰ ਸਮੁੱਚੇ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਜਮਹੂਰੀ ਜਨਤਾ ਦੀਆਂ ਸਾਂਝੀਆਂ ਉਮੰਗਾਂ ਨਾਲ ਇਕ-ਮਿਕ ਹੁੰਦਿਆਂ ਵਿਕਸਤ ਕਰੇ।
    - ਦੁਨੀਆਂ ਭਰ ਦੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਤੇ ਸਾਰੇ ਅਮਨ-ਪਸੰਦ ਲੋਕਾਂ ਨਾਲ ਭਰੱਪਣ ਦੀਆਂ ਭਾਵਨਾਵਾਂ ਵਿਕਸਤ ਕਰਨ ਵਿਚ ਅਤੇ ਨਸਲੀ ਤੇ ਕੌਮੀ ਨਫ਼ਰਤ ਦੇ ਵਿਚਾਰਾਂ ਤੋਂ ਮੁਕਤੀ ਪਾਉਣ ਵਿਚ ਸਹਾਇਤਾ ਕਰਨਗੇ।
89. ਕਿਸਾਨੀ ਸਮੱਸਿਆ ਅਤੇ ਖੇਤੀਬਾੜੀ ਦੇ ਖੇਤਰ ਵਿਚ :
    (i) ਜਗੀਰਦਾਰੀ ਬਿਨਾਂ ਮੁਆਵਜ਼ਾ ਖਤਮ ਕਰੇਗੀ ਅਤੇ ਖੇਤ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਤੇ ਗਰੀਬ ਕਿਸਾਨਾਂ ਨੂੰ ਮੁਫਤ ਜ਼ਮੀਨ ਦੇਵੇਗੀ।
    (ii) ਕਿਸਾਨਾਂ, ਖੇਤ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਅਤੇ ਛੋਟੇ ਦਸਤਕਾਰਾਂ ਦੇ ਸਿਰ ਆੜ੍ਹਤੀਆਂ ਸਮੇਤ ਸਾਰੇ ਲਹਿਣੇਦਾਰਾਂ ਅਤੇ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਦੇ ਜੋ ਕਰਜ਼ੇ ਹਨ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਖਤਮ ਕਰੇਗੀ।
    (iii) ਕਿਸਾਨਾਂ ਅਤੇ ਦਸਤਕਾਰਾਂ ਲਈ ਲੰਮੇ ਸਮੇਂ ਦੇ ਸਸਤੇ ਕਰਜ਼ੇ ਅਤੇ ਖੇਤੀ ਉਤਪਾਦਨ ਦੀਆਂ ਵਾਜਬ ਕੀਮਤਾਂ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਏਗੀ, ਵਿਕਸਤ ਬੀਜਾਂ ਅਤੇ ਆਧੁਨਿਕ ਸੰਦਾਂ ਤੇ ਤਕਨੀਕ ਦੀ  ਵਰਤੋਂ ਦੁਆਰਾ ਖੇਤੀਬਾੜੀ ਦੇ ਢੰਗਾਂ ਵਿਚ ਬਿਹਤਰੀ ਲਿਆਉਣ ਵਾਸਤੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਕਰੇਗੀ।
    (vi) ਗਾਰੰਟੀ-ਸ਼ੁਦਾ ਸਿੰਚਾਈ ਸਹੂਲਤਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਬੰਧ ਕਰੇਗੀ।
    (v) ਖੇਤ-ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਲਈ ਯੋਗ ਉਜਰਤਾਂ ਅਤੇ ਚੰਗੇਰੀਆਂ ਜੀਵਨ ਹਾਲਤਾਂ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਏਗੀ।
    (vi) ਖੇਤੀਬਾੜੀ, ਖੇਤੀ ਸਬੰਧੀ ਸੇਵਾਵਾਂ ਅਤੇ ਦੂਸਰੇ ਮੰਤਵਾਂ ਲਈ ਸਵੈ-ਇੱਛਾ ਦੇ ਆਧਾਰ ਉੱਤੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ਤੇ ਦਸਤਕਾਰਾਂ ਦੀਆਂ ਸਹਿਕਾਰੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਉਤਸ਼ਾਹਤ ਕਰੇਗੀ।
90. ਸਨਅੱਤ ਅਤੇ ਕਿਰਤ ਦੇ ਖੇਤਰ ਵਿਚ :
    ਸਾਡੀ ਸਨਅੱਤ ਕਿਸਾਨ ਦੀ ਅਤਿਅੰਤ ਘਟ ਖਰੀਦ ਸ਼ਕਤੀ ਤੋਂ ਹੀ ਨਹੀਂ ਸਗੋਂ ਬਦੇਸ਼ੀ ਸਰਮਾਏ ਦੀ ਲੁੱਟ ਤੋਂ ਵੀ ਮਾਰ ਖਾਂਦੀ ਹੈ। ਜਿੰਨਾ ਚਿਰ ਸਨਅੱਤੀਕਰਨ ਦਾ ਵਿਸਥਾਰ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ, ਉਨਾ ਚਿਰ ਸਾਡਾ ਦੇਸ਼ ਖੁਸ਼ਹਾਲ ਦੇਸ਼ ਨਹੀਂ ਬਣ ਸਕਦਾ। ਪਰ ਉਸ ਹੱਦ ਤੱਕ ਸਾਡਾ ਸਨਅੱਤੀਕਰਨ ਕਦੇ ਹੋ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ, ਜਿੰਨਾ ਚਿਰ ਬਰਤਾਨਵੀ, ਅਮਰੀਕੀ ਤੇ ਦੂਸਰਾ ਬਦੇਸ਼ੀ ਸਰਮਾਇਆ ਭਾਰਤ ਵਿਚ ਮੌਜੂਦ ਹੈ ਅਤੇ ਉਸ ਨੂੰ ਸਾਮਰਾਜੀ ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ ਅਧੀਨ ਹੋਰ ਡੂੰਘੇ ਧਸਣ ਦੇ ਅਵਸਰ ਮੁਹੱਈਆ ਕੀਤੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ, ਕਿਉਂਕਿ ਅਜਿਹੇ ਵਿੱਤੀ ਸਰਮਾਏ ਦੇ ਮੁਨਾਫੇ ਦੇਸ਼ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਲੈ ਜਾਏ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਅਸੀਂ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਵਰਤਣੋਂ ਵਾਂਝੇ ਰਹਿ ਜਾਂਦੇ ਹਾਂ।
    ਇਸ ਲਈ ਸਨਅੱਤ ਦੇ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਸਰਕਾਰ :
    (i) ਬਾਗਾਂ, ਖਾਣਾਂ, ਤੇਲ ਸਾਫ ਕਰਨ ਦੇ ਕਾਰਖਾਨਿਆਂ ਤੇ ਫੈਕਟਰੀਆਂ, ਜਹਾਜ਼ਰਾਨੀ ਆਦਿ ਅਤੇ ਵਪਾਰ ਵਿਚ ਲੱਗੇ ਸਭ ਬਦੇਸ਼ੀ ਸਰਮਾਏ ਉੱਪਰ ਕਬਜ਼ਾ ਕਰ ਲਏਗੀ। ਇਹ ਸਭ ਬੈਂਕਾਂ, ਕਰਜ਼ਾ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਅਤੇ ਦੂਸਰੀਆਂ ਅਜ਼ਾਰੇਦਾਰ ਸਨਅੱਤਾਂ ਦਾ ਕੌਮੀਕਰਨ ਕਰੇਗੀ। ਬਦੇਸ਼ੀ ਵਪਾਰ ਦਾ ਕੌਮੀਕਰਨ ਹੋਵੇਗਾ।     
    (ii) ਆਰਥਕ ਪਛੜੇਵੇ ਉੱਤੇ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਕਾਬੂ ਪਾਉਣ ਦੇ ਮੰਤਵ ਨਾਲ ਅਤੇ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਸਨਅੱਤ ਨੂੰ ਨਿਰੰਤਰ ਵਿਸਥਾਰ ਦੇਣ ਲਈ ਰਾਜਕੀ ਸੈਕਟਰ ਨੂੰ ਅਤਿਅੰਤ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਵਿਕਸਤ ਕਰੇਗੀ। ਰਾਜਕੀ ਮਾਲਕੀ ਵਾਲੇ ਨਵੇਂ ਕਾਰਖਾਨੇ ਸਥਾਪਤ ਕਰਨ ਦੇ ਨਾਲ-ਨਾਲ ਇਹ ਰਾਜਕੀ ਸੈਕਟਰ ਨੂੰ ਭਾਰੂ ਅਤੇ ਫੈਸਲਾਕੁਨ ਬਣਾ ਦੇਵੇਗੀ।
    (iii) ਛੋਟੀਆਂ ਤੇ ਦਰਮਿਆਨੀਆਂ ਸਨਅੱਤਾਂ ਨੂੰ ਕਰਜ਼ੇ ਦੀਆਂ ਸਹੂਲਤਾਂ ਦੇ ਕੇ, ਵਾਜਬ ਕੀਮਤਾਂ ਉਂਤੇ ਕੱਚਾ ਮਾਲ ਦੇ ਕੇ ਅਤੇ ਮੰਡੀ ਸੰਬੰਧੀ ਸਹੂਲਤਾਂ ਦੇ ਸੰਬੰਧ ਵਿਚ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਕਰਕੇ, ਸਹਾਰਾ ਦੇਵੇਗੀ।
    (iv) ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਹਿੱਤਾਂ ਵਿਚ ਦੇਸ਼ ਦਾ ਸੰਤੁਲਤ ਤੇ ਯੋਜਨਾਬੱਧ ਆਰਥਕ ਵਿਕਾਸ ਯਕੀਨੀ ਬਨਾਉਣ ਲਈ ਅਰਥਚਾਰੇ ਦੇ ਵਿਭਿੰਨ ਸੈਕਟਰਾਂ ਨੂੰ ਨਿਯਮਬੱਧ ਅਤੇ ਇਕ-ਸੁਰ ਕਰੇਗੀ।
    (v) ਵੱਡੇ ਕਾਰੋਬਾਰਾਂ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧਤ ਵਿਅਕਤੀਆਂ ਨੂੰ ਰਾਜਕੀ ਸੈਕਟਰ ਦੇ ਪ੍ਰਬੰਧ ਵਿਚੋਂ ਛੇਕ ਕੇ ਅਤੇ ਸਨਅੱਤਾਂ ਨੂੰ ਚਲਾਉਣ ਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਪ੍ਰਬੰਧ ਵਿਚ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਅਤੇ ਤਕਨੀਸ਼ਨਾਂ ਦੀ ਰਚਨਾਤਮਕ ਸ਼ਮੂਲੀਅਤ ਨੂੰ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਕੇ, ਰਾਜਕੀ ਸੈਕਟਰ ਦੇ ਪ੍ਰਬੰਧ ਦਾ ਜਮਹੂਰੀਕਰਨ ਕਰੇਗੀ।
    (vi) ਗੁਜ਼ਾਰੇ ਜੋਗੀਆਂ ਉਜਰਤਾਂ ਨਿਯਤ ਕਰਕੇ, ਕੰਮ ਦੇ ਘੰਟੇ ਘਟਾਕੇ, ਹਰ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦੀ ਅਪੰਗਤਾ ਅਤੇ ਬੇਰੁਜ਼ਗਾਰੀ ਵਿਰੁੱਧ ਰਾਜ ਅਤੇ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀਆਂ ਦੇ ਪੈਸੇ ਨਾਲ ਸਮਾਜੀ ਬੀਮਾ ਕਰਕੇ, ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਲਈ ਸਾਫ ਸੁਥਰੇ ਘਰਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਬੰਧ ਕਰਕੇ, ਟਰੇਡ ਯੁਨੀਅਨਾਂ ਨੂੰ ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਸਾਮੂਹਕ ਸੌਦੇਬਾਜ਼ੀ ਕਰਨ ਅਤੇ ਹੜਤਾਲ ਕਰ ਸਕਣ ਦੇ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਨੂੰ ਬਾਕਾਇਦਾ ਮਾਨਤਾ ਦੇ ਕੇ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਦੇ ਜੀਵਨ ਪੱਧਰ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਕੰਮਕਾਰ ਦੀਆਂ ਹਾਲਤਾਂ ਵਿਚ ਤਿੱਖੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਬਿਹਤਰੀ ਲਿਆਏਗੀ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਅੰਦਰ ਚੰਗੇਰੇ ਕੰਮ-ਸਭਿਆਚਾਰ ਦੀ ਭਾਵਨਾ ਵਿਕਸਤ ਕਰਨ ਲਈ ਉਚੇਚੇ ਪ੍ਰਬੰਧ ਕਰੇਗੀ।
    (vii) ਜਨਤਕ ਵੰਡ ਪ੍ਰਣਾਲੀ ਨੂੰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਕਰੇਗੀ ਅਤੇ ਜਨ-ਸਾਧਾਰਨ ਦੇ ਹਿੱਤਾਂ ਵਿਚ ਕੀਮਤ-ਨੀਤੀ ਅਸਰਦਾਰ ਢੰਗ ਨਾਲ ਲਾਗੂ ਕਰੇਗੀ।
    (viii) ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ, ਕਿਸਾਨਾਂ ਤੇ ਦਸਤਕਾਰਾਂ ਨੂੰ ਟੈਕਸਾਂ ਤੋਂ ਵੱਧ ਤੋਂ ਵੱਧ ਛੋਟ ਦਿੱਤੀ ਜਾਵੇਗੀ ਜਦਕਿ ਖੇਤੀਬਾੜੀ, ਸਨਅੱਤ ਅਤੇ ਵਪਾਰ ਵਿਚ ਗਰੇਡਡ (ਦਰਜੇ ਵਾਰ) ਟੈਕਸ ਲਾਇਆ ਜਾਵੇਗਾ ਅਤੇ ਮੁਨਾਫਿਆਂ ਉੱਤੇ ਕੰਟਰੋਲ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇਗਾ।
91. ਬਦੇਸ਼ ਨੀਤੀ ਦੇ ਖੇਤਰ ਵਿਚ :
    ਇਹ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਉਣ ਲਈ ਕਿ ਸੰਸਾਰ ਅਮਨ ਦੀ ਰਾਖੀ, ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਸੰਬੰਧਾਂ ਦੇ ਜਮਹੂਰੀਕਰਨ, ਪੁਰਅਮਨ ਸਹਿਹੋਂਦ ਲਈ ਅਤੇ ਸਾਮਰਾਜੀ ਚੌਧਰਵਾਦ ਵਿਰੁੱਧ ਸੰਘਰਸ਼ ਵਿਚ ਭਾਰਤ ਆਪਣਾ ਬਣਦਾ ਰੋਲ ਅਦਾ ਕਰੇ, ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਸਰਕਾਰ:
    (i) ਹਰ ਸੰਭਵ ਢੰਗ ਨਾਲ ਏਸ਼ੀਆ, ਅਫਰੀਕਾ ਅਤੇ ਲਾਤੀਨੀ ਅਮਰੀਕਾ ਦੇ ਵਿਕਾਸਸ਼ੀਲ ਅਤੇ ਘੱਟ ਵਿਕਸਤ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਏਕਤਾ ਨੂੰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਕਰੇਗੀ, ਅਮਨ ਅਤੇ ਸੁਤੰਤਰਤਾ ਦੇ ਹਿੱਤ ਵਿਚ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਅਤੇ ਸਭ ਅਮਨਪਸੰਦ ਦੇਸ਼ਾਂ ਨਾਲ ਮਿਲਵਰਤਨ ਅਤੇ ਮਿੱਤਰਤਾ ਵਾਲੇ ਸੰਬੰਧਾਂ ਨੂੰ ਹੋਰ ਅੱਗੇ ਵਧਾਏਗੀ, ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ ਵਿਰੁੱਧ ਅਤੇ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਤੇ ਸਮਾਜਵਾਦ ਲਈ ਲੜ ਰਹੇ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਸਭ ਘੋਲਾਂ ਦੀ ਹਮਾਇਤ ਕਰੇਗੀ।
    (ii) ਪੰਚਸ਼ੀਲ ਦੇ ਅਧਾਰ ਉੱਪਰ ਵਿਭਿੰਨ ਸਮਾਜਕ ਪ੍ਰਬੰਧਾਂ ਵਾਲੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਪੁਰਅਮਨ ਸਹਿਹੋਂਦ ਲਈ ਯਤਨ ਕਰੇਗੀ।
    (iii) ਮਨੁੱਖਤਾ ਨੂੰ ਪ੍ਰਮਾਣੂ ਜੰਗ ਦੇ ਖਤਰੇ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਕਰਾਉਣ ਲਈ ਸਭ ਅਮਨ ਪਸੰਦ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਨਾਲ ਮਿਲਕੇ, ਆਪਣੇ ਵਿੱਤ ਅਨੁਸਾਰ ਜੋ ਕੁਝ ਵੀ ਕਰ ਸਕਦੀ ਹੈ, ਇਹ ਕਰੇਗੀ। ਪਰਮਾਣੂ ਹਥਿਆਰਾਂ ਅਤੇ ਮਨੁੱਖੀ ਬੀਜਨਾਸ਼ ਦੇ ਸਭ ਦੂਸਰੇ ਹਥਿਆਰਾਂ ਦੇ ਤਜ਼ਰਬਿਆਂ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਤਿਆਰੀ ਉਪਰ ਫੌਰੀ ਤੌਰ 'ਤੇ ਪਾਬੰਦੀ ਲਾਉਣ ਦੀ ਮੰਗ ਕਰੇਗੀ ਅਤੇ ਨਿਊਕਲਿਆਈ ਤੇ ਪਰਮਾਣੂ ਹਥਿਆਰਾਂ ਦੇ ਭੰਡਾਰਾਂ ਦੇ ਖਾਤਮੇ ਲਈ ਯਤਨ ਕਰੇਗੀ। ਪਰਮਾਣੂ ਹਥਿਆਰਾਂ ਤੋਂ ਰਹਿਤ ਖੇਤਰਾਂ ਵਾਸਤੇ ਸਮਝੌਤਿਆਂ ਲਈ ਯਤਨ ਕਰੇਗੀ।
    (iv) ਜੰਗ ਨੂੰ ਟਾਲਣ,ਅਮਨ ਕਾਇਮ ਕਰਨ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਸੁਰੱਖਿਅਤ ਰੱਖਣ ਲਈ ਕੰਮ ਕਰੇਗੀ। ਆਮ ਅਤੇ ਨਿਯੰਤਰਤ ਨਿਸਸ਼ਤ੍ਰੀਕਰਨ ਦੇ ਸਮਝੌਤੇ ਵਾਸਤੇ ਕੰਮ ਕਰੇਗੀ, ਸਭ ਫੌਜੀ ਸੰਧੀਆਂ ਤੇ ਸਭ ਬਦੇਸ਼ੀ ਫੌਜੀ ਅੱਡਿਆਂ ਦੇ ਖਾਤਮੇ ਅਤੇ ਦੂਸਰੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚੋਂ ਸਭ ਬਦੇਸ਼ੀ ਫੌਜਾਂ ਦੀ ਵਾਪਸੀ ਦੀ ਮੰਗ ਕਰੇਗੀ। ਸਾਮਰਾਜੀ ਜੰਗਬਾਜਾਂ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਚਾਲਾਂ ਤੇ ਸਾਜ਼ਸ਼ਾਂ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਅਤਿਅੰਤ ਚੌਕਸੀ ਵਰਤੇਗੀ ਅਤੇ ਅਜਿਹੀ ਚੌਕਸੀ ਦੀ ਭਾਵਨਾ ਲੋਕਾਂ ਵਿਚ ਉਭਾਰੇਗੀ।
    (v) ਭਾਰਤ ਨੂੰ ਬਰਤਾਨਵੀ ਕਾਮਨਵੈਲਥ ਤੋਂ ਬਾਹਰ ਕੱਢੇਗੀ। ਬਰਤਾਨੀਆਂ, ਅਮਰੀਕਾ ਅਤੇ ਹੋਰ ਸਾਮਰਾਜੀ ਦੇਸ਼ਾਂ ਨਾਲ ਅਜਿਹੇ ਸਭ ਸਮਝੌਤਿਆਂ ਅਤੇ ਸੰਧੀਆਂ ਦਾ ਤਿਆਗ ਕਰੇਗੀ ਜੋ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਹਿੱਤਾਂ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਹਨ ਅਤੇ ਕੌਮੀ ਮਾਣ-ਸਨਮਾਨ ਦੇ ਅਨੁਸਾਰੀ ਨਹੀਂ।
    (vi) ਬਹੁਕੌਮੀ ਕਾਰਪੋਰੇਸ਼ਨਾਂ ਵਲੋਂ ਵਾਤਾਵਰਨ ਨੂੰ ਪ੍ਰਦੂਸ਼ਤ ਕਰਨ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰੇਗੀ ਅਤੇ ਵਾਤਾਵਰਨ ਦੀ ਸੰਭਾਲ ਤੇ ਪਰਿਆਵਰਨ ਦਾ ਸੰਤੁਲਨ ਬਣਾਈ ਰੱਖਣ ਲਈ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਸਹਿਯੋਗ ਤੇ ਸਹਿਕਾਰਤਾ ਵਧਾਉਣ ਦੇ ਯਤਨ ਕਰੇਗੀ।
    (vii) ਭਾਰਤ ਦੇ ਗੁਵਾਂਢੀਆਂ ਚੀਨ, ਪਾਕਿਸਤਾਨ, ਬੰਗਲਾ ਦੇਸ਼, ਨੇਪਾਲ, ਭੁਟਾਨ, ਸ਼੍ਰੀਲੰਕਾ ਅਤੇ ਮਿਆਨਮਾਰ ਨਾਲ ਸਭ ਮਤਭੇਦ ਅਤੇ ਝਗੜੇ ਪੁਰਅਮਨ ਢੰਗ ਨਾਲ ਨਜਿੱਠਣ ਅਤੇ ਮਿੱਤਰਤਾ ਵਾਲੇ ਸੰਬੰਧ ਸਥਾਪਤ ਕਰਨ ਲਈ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਅਤੇ ਠੋਸ ਯਤਨ ਕਰੇਗੀ।


VIII. ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਮੋਰਚੇ ਦੀ ਉਸਾਰੀ    

92. ਇਹ ਪਰਤੱਖ ਹੈ ਕਿ ਭਾਰਤੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਬੁਨਿਆਦੀ ਕਾਰਜ਼ਾਂ ਨੂੰ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਨੇਪਰੇ ਚਾੜ੍ਹਨ ਲਈ ਵਰਤਮਾਨ ਪੜਾਅ ਉੱਪਰ ਇਹ ਅਤਿਅੰਤ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੈ ਕਿ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜੀ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਹੇਠਲੇ ਅਜੋਕੇ ਬੁਰਜੁਆ-ਜਗੀਰੂ ਰਾਜ ਦੀ ਥਾਂ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਵਿਚ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਰਾਜ ਸਥਾਪਤ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇ।
    93. ਇਹ ਵੀ ਸਪਸ਼ਟ ਹੈ ਕਿ ਵਰਤਮਾਨ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆ ਲੀਡਰਸ਼ਿਪ ਨੂੰ, ਜਿਸ ਨੇ ਜਾਗੀਰਦਾਰੀ ਨਾਲ ਭਿਆਲੀ ਪਾ ਲਈ ਹੈ, ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਤੋਂ ਉਤਾਰੇ ਬਿਨਾਂ, ਅਤੇ ਉਸ ਦੀ ਥਾਂ ਰਾਜ ਉੱਤੇ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਸਥਾਪਤ ਕੀਤੇ ਬਿਨਾਂ ਕਿਸਾਨੀ ਦੇ ਹਿੱਤਾਂ ਵਿਚ ਹਕੀਕੀ ਤਿੱਖੇ ਜ਼ਮੀਨੀ ਸੁਧਾਰ ਨਹੀਂ ਕੀਤੇ ਜਾ ਸਕਦੇ, ਜੋ ਕਿ ਸਾਡੇ ਜਨਸਮੂਹਾਂ ਨੂੰ ਕਾਫੀ ਅੰਨ, ਸਾਡੀਆਂ ਸਨਅੱਤੀ ਵਸਤਾਂ ਲਈ ਲੋੜੀਂਦਾ ਕੱਚਾ ਮਾਲ ਤੇ ਵੱਧਦੀ ਮਾਰਕੀਟ ਅਤੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਵਿਕਾਸ ਲਈ ਵਾਧੂ ਪੂੰਜੀ ਨਿਰਮਾਣ ਦਾ ਇਕੋ ਇਕ ਸਰੋਤ ਹੋ ਸਕਦੇ ਹਨ।
    94. ਇਹ ਵੀ ਉਤਨਾ ਹੀ ਸਪਸ਼ਟ ਹੈ ਕਿ ਸਾਡਾ ਅਰਥਚਾਰਾ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਸਰਮਾਏ ਤੇ ਉਸ ਦੀ ਲੁੱਟ ਤੋਂ ਓਨਾ ਚਿਰ ਮੁਕਤ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ ਜਿੰਨਾ ਚਿਰ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਸਰਮਾਏ ਨਾਲ ਸਮਝੌਤੇ ਅਤੇ ਭਿਆਲੀ ਦੀ ਨੀਤੀ ਵਾਲੇ ਮੌਜੂਦਾ ਹਾਕਮ ਰਾਜ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਸਰਮਾਏ ਨੂੰ ਕੰਟਰੋਲ ਕਰਨ ਤੇ ਕਾਬੂ ਹੇਠ ਰੱਖਣ ਲਈ ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਨੂੰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਨੀਹਾਂ ਉੱਤੇ ਖੜ੍ਹਾ ਕਰਨ ਲਈ, ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਵਿਚ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਦੀ ਦ੍ਰਿੜਤਾ ਸਹਿਤ ਸਥਾਪਨਾ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ, ਕੋਈ ਗਰੰਟੀ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦੀ।
    95. ਅਤੇ ਫੇਰ, ਇਹ ਵੀ ਸਭ ਨੂੰ ਵੱਧਦੀ ਮਾਤਰਾ ਵਿਚ ਸਪਸ਼ਟ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਜਿੰਨਾ ਚਿਰ ਲੋਕ ਵਿਰੋਧੀ ਨੀਤੀਆਂ ਵਾਲੇ ਵਰਤਮਾਨ ਰਾਜ ਤੇ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਰੱਦ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ, ਇਸ ਨੂੰ ਫੈਸਲਾਕੁਨ ਰੂਪ ਵਿਚ ਭਾਂਜ ਨਹੀਂ ਦਿੱਤੀ ਜਾਂਦੀ ਅਤੇ ਇਸ ਦੀ ਥਾਂ ਲੋਕ-ਪੱਖੀ ਜਮਹੂਰੀ ਨੀਤੀਆਂ ਵਾਲੇ ਮੁਤਬਾਦਲ ਰਾਜ ਤੇ ਸਰਕਾਰ ਸਥਾਪਤ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੇ, ਤਦ ਤਕ ਸਾਡੇ ਲੋਕਾਂ ਲਈ ਨਾ ਤਾਂ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਮੁਸ਼ਕਲਾਂ ਭਰਪੂਰ ਰਾਹ ਤੋਂ, ਜੋ ਇਤਿਹਾਸਕ ਤੌਰ ਤੇ ਪੁਰਾਣਾ ਹੋ ਚੁੱਕਿਆ ਹੈ, ਬਚ ਸਕਣਾ ਸੰਭਵ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਸਾਡੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਸਰਮਾਏਦਾਰੀ ਦੀ, ਜੋ ਕਿ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਅਜਿਹੇ ਰਾਹ ਦੀ ਇਕ ਲਾਜ਼ਮੀ ਉਪਜ ਹੈ, ਵੱਧਦੀ ਜਕੜ ਤੋਂ ਆਜ਼ਾਦ ਕਰਾਇਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ।
    96. ਸਾਡੇ ਇਨਕਲਾਬ ਦਾ ਵਰਤਮਾਨ ਪੜਾਅ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਦਰਪੇਸ਼ ਬੁਨਿਆਦੀ ਕੰਮ ਨਾ ਕੇਵਲ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਰੂਪ ਨੂੰ ਮਿਥਦੇ ਹਨ, ਸਗੋਂ ਇਸਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਲਈ ਸੰਘਰਸ਼ ਵਿਚ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਜਮਾਤਾਂ ਦੇ ਰੋਲ ਨੂੰ ਵੀ ਸਪਸ਼ਟ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਅਜੋਕੇ ਪੜਾਅ ਉੱਪਰ ਸਾਡੇ ਇਨਕਲਾਬ ਦਾ ਖਾਸਾ ਜਾਗੀਰਦਾਰ ਵਿਰੋਧੀ, ਸਾਮਰਾਜ ਵਿਰੋਧੀ, ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਵਿਰੋਧੀ ਅਤੇ ਜਮਹੂਰੀ ਹੈ। ਨਿਸਚੇ ਹੀ, ਇਹ ਸ਼ਬਦ ਦੇ ਉਹਨਾਂ ਰਵਾਇਤੀ ਅਰਥਾਂ ਵਿਚ ਜਮਹੂਰੀ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ ਜਦੋਂ ਕਿ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਬੁਰਜੁਆਜੀ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਕਰ ਰਹੀ ਸੀ। ਸਾਡਾ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਸੰਸਾਰ ਇਤਿਹਾਸ ਦੇ ਬਿਲਕੁਲ ਨਵੇਂ ਦੌਰ ਦਾ ਇਨਕਲਾਬ ਹੈ, ਜਿੱਥੇ ਪਰੋਲੇਤਾਰੀ ਜਮਾਤ ਤੇ ਇਸਦੀ ਰਾਜਸੀ ਪਾਰਟੀ ਨੇ ਲੀਡਰਸ਼ਿਪ ਸੰਭਾਲਣੀ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਅੱਧ ਵਿਚਕਾਰੇ ਦਗ਼ਾ ਦੇਣ ਲਈ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ ਰਹਿਮ ਉੱਪਰ ਨਹੀਂ ਛੱਡ ਦੇਣਾ। ਅੱਜ ਦੇ ਦੌਰ ਵਿਚ ਪਰੋਲੇਤਾਰੀ ਜਮਾਤ ਨੂੰ, ਸਮਾਜਵਾਦ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਲਈ ਅਗਾਂਹ ਵੱਧਣ ਦੇ ਸੰਬੰਧ ਵਿਚ ਇਕ ਜ਼ਰੂਰੀ ਕਦਮ ਵਜੋਂ, ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਕਰਨੀ ਹੋਵੇਗੀ। ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਇਹ ਪੁਰਾਣੀ ਕਿਸਮ ਦਾ ਬੁਰਜੁਆ-ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਨਹੀਂ ਸਗੋਂ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਸਰਦਾਰੀ ਅਤੇ ਅਗਵਾਈ ਵਿਚ ਸੰਗਠਤ ਨਵੀਂ ਕਿਸਮ ਦਾ ਲੋਕ-ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਹੈ।
    97. ਜਾਗੀਰੂ ਵਿਰੋਧੀ ਅਤੇ ਸਾਮਰਾਜ ਵਿਰੋਧੀ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਨੂੰ ਸਭ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਕਿਸਾਨੀ ਦੇ ਹੱਕ ਵਿਚ ਤਿੱਖੇ ਜ਼ਰਈ ਸੁਧਾਰ ਕਰਨ ਦੇ ਕੰਮ ਨੂੰ ਨੇਪਰੇ ਚਾੜਨਾ ਹੋਵੇਗਾ ਤਾਂਕਿ ਖੇਤੀਬਾੜੀ ਅਤੇ ਸਨਅੱਤ ਦੇ ਖੇਤਰਾਂ ਦੀਆਂ ਸਾਡੀਆਂ ਉਤਪਾਦਨ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਉੱਪਰੋਂ ਜਗੀਰੂ ਅਤੇ ਅਰਧ-ਜਗੀਰੂ ਬੰਧਨਾ ਦੀ ਰਹਿੰਦ ਖੂੰਹਦ ਨੂੰ ਹੂੰਝਿਆ ਜਾਵੇ। ਇਸ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ ਸਮਾਜਕ ਪ੍ਰਬੰਧ ਨੂੰ ਸੁਧਾਰਨ ਦੇ ਅਜਿਹੇ ਤਿੱਖੇ ਕਦਮ ਚੁਕਣੇ ਪੈਣਗੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਰਾਹੀਂ ਪੂਰਵ-ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਸਮਾਜ ਦੇ ਚਿੰਨ੍ਹ ਜਿਵੇਂ ਕਿ ਜਾਤ-ਪਾਤ ਅਤੇ ਹੋਰ ਸਮਾਜਕ ਸੰਬੰਧ ਜੋ ਪੇਂਡੂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਯੁੱਗਾਂ ਪੁਰਾਣੇ ਪਛੜੇਵੇਂ ਨਾਲ ਬੰਨ੍ਹੀ ਰੱਖਦੇ ਹਨ, ਖਤਮ ਹੋਣ। ਐਪਰ ਸਮਾਜਕ ਢਾਂਚੇ ਵਿਚ ਅਜਿਹੇ ਤਿੱਖੇ ਸੁਧਾਰ ਕਰਨ ਦਾ ਕੰਮ ਖੇਤੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੀ ਸੰਪੂਰਨਤਾ ਨਾਲ ਜੁੜਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ, ਜੋ ਕਿ ਵਾਸਤਵ ਵਿਚ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦਾ ਧੁਰਾ ਹੈ। ਇਸ ਦੇ ਪੂਰੇ ਮਹੱਤਵ ਅਤੇ ਜ਼ਰੂਰਤ ਨੂੰ ਸਮਝਣ ਵਿਚ ਅਸਫਲਤਾ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਅਸਲੀ ਤੱਤ ਨੂੰ ਹੀ ਭੁੱਲਣ ਦੇ ਬਰਾਬਰ ਹੈ। ਸਾਡੇ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦਾ ਦੂਸਰਾ ਜ਼ਰੂਰੀ ਕੰਮ ਸਾਡੇ ਕੌਮੀ ਅਰਥਚਾਰੇ ਵਿਚੋਂ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਸਰਮਾਏ ਦਾ ਉੱਕਾ ਹੀ ਖਾਤਮਾ ਅਥਵਾ ਇਸ ਨੂੰ ਬਾਹਰ ਕੱਢ ਮਾਰਨਾ ਅਤੇ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਸਾਡੇ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਆਰਥਕ, ਰਾਜਨੀਤਕ ਅਤੇ ਸਮਾਜਕ ਜੀਵਨ ਨੂੰ ਇਸ ਦੇ ਸਭ ਤਬਾਹਕੁਨ ਪ੍ਰਭਾਵਾਂ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਕਰਵਾਉਣਾ ਹੈ। ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਇਹਨਾਂ ਦੋ ਬੁਨਿਆਦੀ ਕੰਮਾਂ ਦਾ ਨੇਪਰੇ ਚਾੜਿਆ ਜਾਣਾ ਸਾਡੇ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਸਨਮੁੱਖ ਹੈ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਹੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਸਰਮਾਏ ਦੀ ਸ਼ਕਤੀ ਨੂੰ ਤੋੜਨ ਦਾ ਕੰਮ ਜੁੜਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ।
    98. ਐਪਰ, ਅਜੋਕੇ ਪ੍ਰਸੰਗ ਵਿਚ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਇਹ ਬੁਨਿਆਦੀ ਕੰਮ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜੀ ਅਤੇ ਇਸ ਦੇ ਰਾਜਨੀਤਕ ਪ੍ਰਤੀਨਿੱਧਾਂ, ਜੋ ਰਾਜ ਵਿਚ ਆਗੂ ਪੁਜੀਸ਼ਨਾਂ ਉੱਤੇ ਬੈਠੇ ਹਨ, ਦੀ ਦ੍ਰਿੜ ਵਿਰੋਧਤਾ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਵਿਰੁੱਧ ਸੰਗਰਾਮ ਕੀਤੇ ਬਿਨਾਂ ਨੇਪਰੇ ਨਹੀਂ ਚਾੜ੍ਹੇ ਜਾ ਸਕਦੇ। ਉਹ ਤਿੱਖੇ ਤੇ ਹਕੀਕੀ ਖੇਤੀ ਸੁਧਾਰਾਂ ਵਿਚ ਰੋੜਾ ਅਟਕਾਉਂਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਭਿਆਲ ਬਣਾ ਕੇ ਆਪਣੇ ਸੌੜੇ ਜਮਾਤੀ ਹਿੱਤ ਪਾਲਣ ਲਈ ਜਗੀਰੂ ਤੇ ਅਰਧ-ਜਗੀਰੂ ਕਿਸਮ ਦੀ ਜਗੀਰਦਾਰੀ ਵਿਚ ਸੋਧਾਂ ਕਰਨ ਦੇ ਰਾਹ ਤੁਰ ਪਏ ਹਨ ਤਾਂ ਕਿ ਉਹ ਆਪਣੇ ਜਮਾਤੀ ਕਬਜੇ ਨੂੰ ਸਹਾਰਾ ਦੇ ਸਕਣ। ਉਹ ਆਪਣੀ ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਨੂੰ ਬਦੇਸ਼ੀ ਵਿੱਤੀ ਅਤੇ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਸਰਮਾਏ ਨਾਲ ਵਧੇਰੇ ਤੋਂ ਵਧੇਰੇ ਭਿਆਲੀ ਪਾਉਣ ਅਤੇ ਇਹਨਾਂ ਦੇ ਡੂੰਘੇ ਤੇ ਬੇਰੋਕ ਦਾਖਲੇ ਨੂੰ ਸਹਿਲ ਬਣਾਉਣ ਲਈ ਵਰਤਦੇ ਹਨ। ਅਤੇ ਫੇਰ, ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰਾਂ ਨਾਲ ਸਮਝੌਤੇ ਤੇ ਭਿਆਲੀ ਅਤੇ ਵੱਡੇ ਭਾਰਤੀ ਸਾਮੰਤਵਾਦ ਨਾਲ ਮੁਹਾਜ ਬਣਾਉਣ ਦੀਆਂ ਆਪਣੀਆਂ ਨੀਤੀਆਂ ਸਦਕਾ ਉਹ ਜ਼ੋਰਦਾਰ ਢੰਗ ਨਾਲ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਰਾਹ ਤੁਰ ਰਹੇ ਹਨ, ਜੋ ਬਦਲੇ ਵਿਚ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਸਰਮਾਏ ਦੇ ਵਾਧੇ ਅਤੇ ਦਬਦਬੇ ਨੂੰ ਚੋਖਾ ਸਹਿਲ ਬਣਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਨਾ ਕੇਵਲ ਜਾਗੀਰਦਾਰੀ ਅਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਸਰਮਾਏ ਦੇ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਵਿਰੁੱਧ ਹੈ ਸਗੋਂ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਨਾਲ ਨਾਲ ਇਹ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜੀ ਦਾ ਵੀ ਦੁਸ਼ਮਣ ਹੈ ਜੋ ਰਾਜ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਕਰ ਰਹੀ ਹੈ, ਸਾਮਰਾਜੀ ਸਰਮਾਏ ਨਾਲ ਕਰੰਘੜੀ ਪਾ ਚੁੱਕੀ ਹੈ ਅਤੇ ਸਾਮਰਾਜੀ ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ ਦੀ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਮੁਦਈ ਹੈ।
    99. ਕੁਦਰਤੀ ਤੌਰ 'ਤੇ ਇਹਨਾਂ ਹਾਲਤਾਂ ਵਿਚ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਅਟੱਲ ਤੌਰ 'ਤੇ ਹਿੰਦੁਸਤਾਨ ਦੀ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜੀ ਦੀ ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਵਿਚ ਆ ਖਲੋਂਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਹਾਲਤ ਵਿਚ ਇਨਕਲਾਬ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਲਈ ਬਣਾਇਆ ਜਾਣ ਵਾਲਾ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਪੁਰਾਣੀ ਭਾਂਤ ਦਾ ਆਮ ਜਿਹਾ ਕੌਮੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ ਜਿਹਾ ਕਿ ਸਾਡੇ ਕੌਮੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦੇ ਘੋਲ ਦੇ ਪੜਾਅ ਤੇ ਸੀ, ਜਦੋਂ ਇਨਕਲਾਬ ਦੀ ਧਾਰਾ ਮੁੱਖ ਤੌਰ 'ਤੇ ਬਰਤਾਨਵੀ ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ ਦੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਰਾਜ ਵਿਰੁੱਧ ਕੇਂਦਰਤ ਸੀ। ਇਨਕਲਾਬ ਦਾ ਜਮਹੂਰੀ ਖੇਤੀ ਸੰਬੰਧੀ ਪੜਾਅ ਅਤੇ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਇਸ ਪੜਾਅ 'ਚ ਜਮਾਤੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦਾ ਨਵਾਂ ਸੰਤੁਲਨ ਉਸਾਰੇ ਜਾਣ ਵਾਲੇ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ ਲਈ ਨਵੇਂ ਤੱਤ ਦੀ ਮੰਗ ਕਰਦਾ ਹੈ।
    100. ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ ਸਫਲਤਾ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਉਸਾਰਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਅਤੇ ਇਨਕਲਾਬ ਸਫਲਤਾ ਦੀ ਸਿਖਰ ਨਹੀਂ ਛੋਹ ਸਕਦਾ ਜੇਕਰ ਇਸਦੀ ਅਗਵਾਈ ਭਾਰਤ ਦੀ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਅਤੇ ਇਸਦੀ ਪ੍ਰਤੀਨਿੱਧ ਰਾਜਸੀ ਪਾਰਟੀ, ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਪਾਰਟੀ ਦੇ ਹੱਥ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੀ। ਇਤਿਹਾਸਕ ਤੌਰ ਤੇ ਆਧੁਨਿਕ ਸਮਾਜ ਵਿਚ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਕੋਈ ਵੀ ਹੋਰ ਜਮਾਤ  ਇਹ ਰੋਲ ਅਦਾ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦੀ। ਸਾਡੇ ਸਮੇਂ ਦਾ ਸਮੁੱਚਾ ਤਜ਼ਰਬਾ ਇਸ ਸਚਾਈ ਨੂੰ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦਰਸਾਉਂਦਾ ਹੈ।
    101. ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਦਾ ਧੁਰਾ ਅਤੇ ਆਧਾਰ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਤੇ ਕਿਸਾਨੀ ਦਾ ਦ੍ਰਿੜ ਏਕਾ ਹੈ। ਇਹ ਏਕਾ ਹੀ ਕੌਮੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦੀ ਰਾਖੀ ਕਰਨ, ਦੂਰ-ਰਸ ਜਮਹੂਰੀ ਪਰਿਵਰਤਨਾਂ ਨੂੰ ਨੇਪਰੇ ਚਾੜ੍ਹਨ ਅਤੇ ਸਰਬ-ਪੱਖੀ ਸਮਾਜਕ ਪ੍ਰਗਤੀ ਨੂੰ ਯਕੀਨੀ ਬਨਾਉਣ ਲਈ ਮਹੱਤਵਪੂਰਨ ਸ਼ਕਤੀ ਹੈ ਤੇ ਫੇਰ ਇਹ ਗੱਲ ਵੀ ਨੋਟ ਕਰਨ ਵਾਲੀ ਹੈ ਕਿ ਜਗੀਰੂ-ਵਿਰੋਧੀ ਤੇ ਸਾਮਰਾਜ-ਵਿਰੋਧੀ ਕੰਮਾਂ ਨੂੰ ਨੇਪਰੇ ਚਾੜ੍ਹਨ ਲਈ ਕੌਮੀ ਬੁਰਜੁਆਜੀ ਦੇ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਭਾਗ ਜਿਸ ਮਾਤਰਾ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਲ ਹੁੰਦੇ ਹਨ, ਇਸ ਦੀ ਵੀ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਤੇ ਕਿਸਾਨਾਂ ਦੇ ਏਕੇ ਅਤੇ ਦ੍ਰਿੜਤਾ ਉਪਰ ਕੋਈ ਘੱਟ ਨਿਰਭਰਤਾ ਨਹੀਂ। ਮੁਕਦੀ ਗੱਲ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਇਨਕਲਾਬ ਨੂੰ ਸਫਲਤਾ ਤੱਕ ਲਿਜਾਣ ਲਈ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਦੀ ਉਸਾਰੀ ਦੀ ਕਾਮਯਾਬੀ ਅਟੁੱਟ ਮਜ਼ਦੂਰ ਕਿਸਾਨ ਏਕਾ ਉਸਾਰਨ ਨਾਲ ਜੁੜੀ ਹੋਈ ਹੈ।
    102. ਇਹ ਆਮ ਜਾਣੀ ਜਾਂਦੀ ਗੱਲ ਹੈ ਕਿ ਸਾਡੀ ਕਿਸਾਨੀ ਇਕੋ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀ ਨਹੀਂ। ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਇਸ ਵਿਚ ਫੈਸਲਾਕੁੰਨ ਢੰਗ ਨਾਲ ਦਾਖਲ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਵਿਚ ਨਿਸ਼ਚਤ ਦਰਜੇਬੰਦੀ ਹੋ ਗਈ ਹੈ। ਕਿਸਾਨੀ ਦੇ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਭਾਗ ਇਨਕਲਾਬ ਵਿਚ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਰੋਲ ਅਦਾ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਖੇਤ ਮਜ਼ਦੂਰ ਤੇ ਗਰੀਬ ਕਿਸਾਨ ਜੋ ਪੇਂਡੂ ਵਸੋਂ ਦਾ 70 ਪ੍ਰਤੀਸ਼ਤ ਭਾਗ ਹਨ ਅਤੇ ਜੋ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਦੀ ਬੇਤਰਸ ਲੁੱਟ-ਖਸੁੱਟ ਦਾ ਸ਼ਿਕਾਰ ਹਨ, ਅਜੋਕੇ ਸਮਾਜ ਵਿਚ ਆਪਣੀ ਜਮਾਤੀ ਸਥਿਤੀ ਕਾਰਨ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੇ ਬੁਨਿਆਦੀ ਭਾਈਵਾਲ ਹੋਣਗੇ। ਦਰਮਿਆਨੇ ਕਿਸਾਨ ਵੀ ਸੂਦਖੋਰ ਸਰਮਾਏਦਾਰ, ਪਿੰਡਾਂ ਵਿਚਲੇ ਜਗੀਰੂ ਤੇ ਪੂੰਜੀਪਤੀ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਅਤੇ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਮਾਰਕਿਟ ਦੀ ਲੁੱਟ-ਖਸੁੱਟ ਦੇ ਸ਼ਿਕਾਰ ਹਨ ਅਤੇ ਪੇਂਡੂ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਦਾ ਗਲਬਾ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਸਮਾਜਕ ਪੁਜੀਸ਼ਨ ਉਪਰ ਕਈ ਢੰਗਾਂ ਦੁਆਰਾ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਅਸਰ-ਅੰਦਾਜ਼ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਵਿਚ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਭਰੋਸੇਯੋਗ ਭਾਈਵਾਲ ਬਣਾ ਦਿੰਦਾ ਹੈ।
    103. ਧਨੀ ਕਿਸਾਨ, ਕਿਸਾਨੀ ਦਾ ਇਕ ਹੋਰ ਪ੍ਰਭਾਵਸ਼ਾਲੀ ਅੰਗ ਹਨ। ਬੁਰਜੁਆ ਖੇਤੀ ਸੁਧਾਰਾਂ ਨੇ ਨਿਰਸੰਦੇਹ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਕੁਝ ਭਾਗਾਂ ਨੂੰ ਲਾਭ ਪਹੁੰਚਾਇਆ ਹੈ ਅਤੇ ਆਜ਼ਾਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਤੋਂ ਪਿਛੋਂ ਦੇ ਨਵੇਂ ਰਾਜ ਪ੍ਰਬੰਧ ਵਿਚ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਇਕ ਹੱਦ ਤੱਕ ਲਾਭ ਹਾਸਲ ਕੀਤੇ ਹਨ। ਉਹ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਦੀਆਂ ਸਫਾਂ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਲ ਹੋਣ ਦੀ ਇੱਛਾ ਰੱਖਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਫਾਰਮਾਂ ਉੱਪਰ ਕੰਮ ਕਰਨ ਲਈ ਕਿਰਾਏ ਉੱਤੇ ਮਜ਼ਦੂਰ ਲਾਉਣ ਦੇ ਕਾਰਨ ਉਹ ਉਨ੍ਹਾਂ ਵੱਲ ਵੈਰ ਭਾਵ ਰੱਖਦੇ ਹਨ। ਐਪਰ, ਭਾਰੀ ਟੈਕਸ, ਖੇਤੀ ਆਦਾਨਾਂ ਅਤੇ ਸਨਅੱਤੀ ਵਸਤਾਂ ਦੀਆਂ ਉੱਚੀਆਂ ਕੀਮਤਾਂ ਅਤੇ ਸਿੱਕੇ ਦਾ ਫੈਲਾਉ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਨਿਰੰਤਰ ਪ੍ਰੇਸ਼ਾਨ ਕਰਦਾ ਹੈ ਤੇ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਭਵਿੱਖ ਨੂੰ ਅਨਿਸ਼ਚਤ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ। ਭਾਰਤੀ ਅਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਵਪਾਰੀਆਂ, ਮੁਨਾਫਾਖੋਰਾਂ ਅਤੇ ਸਨਅਤਕਾਰਾਂ ਦੀ ਜਕੜ ਵਿਚ ਹੋਣ ਕਰਕੇ ਮੰਡੀ ਦੇ ਤਬਾਹਕੁੰਨ ਉਤਰਾਵਾਂ ਚੜ੍ਹਾਵਾਂ ਕਾਰਨ ਉਹ ਕਈ ਵਾਰ ਬੁਰਜੂਆ-ਜਗੀਰਦਾਰ ਸਰਕਾਰ ਵਲੋਂ ਅਪਣਾਈਆਂ ਜਾਂਦੀਆਂ ਨੀਤੀਆਂ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਆ ਖਲੋਂਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਉਹ ਵੀ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਵਿਚ ਲਿਆਂਦੇ ਜਾ ਸਕਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਵਿਚ ਇਤਹਾਦੀਆਂ ਵਜੋਂ ਨਾਲ ਰਖੇ ਜਾ ਸਕਦੇ ਹਨ।
    104. ਸ਼ਹਿਰੀ ਅਤੇ ਦੂਸਰੀਆਂ ਮੱਧ ਸ਼੍ਰੇਣੀਆਂ, ਆਪਣੀਆਂ ਨਾਕਾਫੀ ਤਨਖਾਹਾਂ ਤੇ ਨਿਗੂਣੀਆਂ ਆਮਦਨਾਂ ਕਾਰਨ ਅਤੇ ਬੁਰਜੁਆ-ਜਗੀਰਦਾਰ ਹਕੂਮਤ ਵਲੋਂ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਸਰਮਾਏ ਨਾਲ ਸਮਝੌਤਾ ਕਰਕੇ ਤੇ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਨਾਲ ਭਿਆਲੀ ਪਾ ਕੇ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਰਾਹ 'ਤੇ ਚੱਲਣ ਦੀ ਇਸ ਦੀ ਹੋੜ ਅਧੀਨ, ਬੁਰੀ ਤਰਾਂ ਦੁੱਖ ਸਹਿ ਰਹੀਆਂ ਹਨ। ਅਨਾਜ, ਕੱਪੜਿਆਂ ਤੇ ਦੂਸਰੀਆਂ ਜੀਵਨ ਲੋੜਾਂ ਦੀਆਂ ਨਿੱਤ ਵੱਧਦੀਆਂ ਕੀਮਤਾਂ, ਉਨ੍ਹਾ ਦੇ ਬੱਚਿਆਂ ਦੀ ਵਿਦਿਆ ਉੱਪਰ ਵੱਧਦਾ ਖਰਚ ਅਤੇ ਰਾਜ ਦੁਆਰਾ ਲਾਏ ਜਾ ਚੁੱਕੇ ਭਾਰੀ ਸਿੱਧੇ ਅਤੇ ਅਸਿੱਧੇ ਟੈਕਸਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਭਾਵ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਸਖਤ ਸੱਟ ਲਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਬੇਰੁਜ਼ਗਾਰੀ ਇਕ ਹੋਰ ਕਹਿਰ ਹੈ ਜੋ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਨਿਰੰਤਰ ਚਿੰਤਾਤੁਰ ਰੱਖਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਜਮਾਤ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਵਿਚ ਭਿਆਲ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਹੋਵੇਗੀ। ਇਸ ਨੂੰ ਇਨਕਲਾਬ ਵਿਚ ਖਿੱਚਣ ਵਾਸਤੇ ਹਰ ਯਤਨ ਕਰਨਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ।
    105. ਭਾਰਤੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ ਵੀ, ਸਾਡੇ ਵਰਗੇ ਵਿਕਾਸਸ਼ੀਲ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਹੋਣ ਕਰਕੇ, ਜਮਾਤ ਵਜੋਂ ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ ਅਤੇ ਜਗੀਰੂ ਅਤੇ ਅਰਧ-ਜਗੀਰੂ ਖੇਤੀ ਪ੍ਰਬੰਧ ਨਾਲ ਟਕਰਾਅ ਤੇ ਵਿਰੋਧ ਹਨ। ਪਰ ਰਾਜ ਸੱਤਾ 'ਤੇ ਕਾਬਜ਼ ਹੋਣ  ਪਿਛੋਂ ਇਸਦਾ ਵੱਡਾ ਤੇ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਭਾਗ ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਉੱਪਰ ਆਪਣੇ ਅਧਿਕਾਰ ਨੂੂੰ ਸਮਝੌਤੇ, ਦਬਾਅ ਅਤੇ ਸੌਦੇਬਾਜੀ ਦੁਆਰਾ ਇਹਨਾਂ ਵਿਰੋਧਾਂ ਨੂੰ ਸੁਲਝਾਉਣ ਲਈ ਵਰਤਣ ਦਾ ਯਤਨ ਕਰਦਾ ਆਇਆ ਹੈ। ਇਸ ਅਮਲ ਵਿਚ ਉਹਨਾਂ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰਾਂ ਨਾਲ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਸੰਬੰਧ ਸਥਾਪਤ ਕਰ ਲਏ ਹਨ ਅਤੇ ਜਗੀਰਦਾਰਾਂ ਨਾਲ ਤਾਕਤ ਸਾਂਝੀ ਕੀਤੀ ਹੋਈ ਹੈ। ਇਹ ਉਪਰਲਾ ਤਬਕਾ ਆਪਣੇ ਖਾਸੇ ਵਜੋਂ ਲੋਕ ਵਿਰੋਧੀ ਅਤੇ ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਵਿਰੋਧੀ ਹੈ ਅਤੇ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਅਤੇ ਇਸਦੇ ਮੰਤਵਾਂ ਦੀ ਜ਼ੋਰਦਾਰ ਮੁਖਾਲਫਤ ਕਰਦਾ ਹੈ।
    106. ਕੌਮੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ ਦੂਸਰੇ ਵਿਸ਼ਾਲ ਤਬਕੇ, ਜਿਹਨਾਂ ਦੇ ਜਾਂ ਤਾਂ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰਾਂ ਨਾਲ ਉੱਕਾ ਹੀ ਕੋਈ ਸੰਬੰਧ ਨਹੀਂ ਅਤੇ ਜਾਂ ਫਿਰ ਇਹ ਸੰਬੰਧ ਚਿਰ-ਸਥਾਈ ਨਹੀਂ, ਜੋ ਆਪ ਅਜਾਰੇਦਾਰ ਨਹੀਂ ਅਤੇ ਅਜ਼ਾਰੇਦਾਰਾਂ ਦੇ ਹੱਥੋਂ ਕਈ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਸੱਟਾਂ ਸਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਬਾਹਰਮੁਖੀ ਤੌਰ 'ਤੇ ਜਗੀਰਦਾਰ ਵਿਰੋਧੀ ਅਤੇ ਸਾਮਰਾਜ ਵਿਰੋਧੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਮੁਖੀ ਕੰਮਾਂ ਦੇ ਨੇਪਰੇ ਚਾੜ੍ਹਨ ਵਿਚ ਦਿਲਚਸਪੀ ਰੱਖਦੇ ਹਨ। ਜਿਉਂ-ਜਿਉਂ ਸੰਸਾਰ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਪ੍ਰਬੰਧ ਦਾ ਸੰਕਟ ਡੂੰਘਾ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਜਿਉਂ-ਜਿਉਂ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰਾਂ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਆਪਣੀ ਪੂਰਨ ਤੀਖਣਤਾ ਸਹਿਤ ਵੱਧ ਰਹੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਜਿਉਂ-ਜਿਉਂ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਆਪਣੀ ਆਰਥਕ ਸ਼ਕਤੀ ਅਤੇ ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਦੀ ਆਗੂ ਹੋਣ ਦੀ ਆਪਣੀ ਪੁਜੀਸ਼ਨ ਰਾਹੀਂ ਦੇਸ਼ ਵਿਚਲੇ ਆਪਣੇ ਭਰਾਵਾਂ ਦੀ ਕੀਮਤ ਉੱਤੇ ਇਸ ਸੰਕਟ ਨੂੰ ਸੁਲਝਾਉਣ ਦਾ ਯਤਨ ਕਰਦੀ ਹੈ, ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੇ ਇਹ ਤਬਕੇ ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਵਿਚ ਆਉਣ ਲਈ ਮਜ਼ਬੂਰ ਹੋਣਗੇ ਅਤੇ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਵਿਚ ਸਥਾਨ ਲੈ ਸਕਦੇ ਹਨ। ਪਰ ਇਹ ਗੱਲ ਯਾਦ ਰੱਖੀ ਜਾਵੇ ਕਿ ਉਹ ਅਜੇ ਵੀ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਨਾਲ ਰਾਜ ਸੱਤਾ ਵਿਚ ਭਾਈਵਾਲ ਹਨ ਅਤੇ ਇਸੇ ਰਾਜ ਅਧੀਨ ਅੱਗੇ ਵੱਧਣ ਦੀਆਂ ਉਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਬੜੀਆਂ ਆਸ਼ਾਵਾਂ ਹਨ। ਬਾਹਰਮੁਖੀ ਤੌਰ ਤੇ ਆਪਣੇ ਅੱਗੇ ਵਧੂ ਚਰਿੱਤਰ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਇਹ, ਭਾਰਤੀ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਅਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰਾਂ ਦੇ ਟਾਕਰੇ ਵਿਚ ਆਪਣੀ ਅਤਿਅੰਤ ਕਮਜ਼ੋਰ ਪੁਜੀਸ਼ਨ ਕਾਰਨ, ਅਸਥਿਰ ਹਨ ਅਤੇ ਇਹ ਇਕ ਬੰਨੇ ਸਾਮਰਾਜ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਭਿਆਲ ਭਾਰਤੀ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਅਤੇ ਦੂਸਰੇ ਬੰਨੇ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ ਵਿਚਕਾਰ ਅਤਿਅੰਤ ਡਾਵਾਂਡੋਲਤਾਵਾਂ ਦਾ ਪ੍ਰਗਟਾਵਾ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਇਹਨਾਂ ਦੇ ਦੋਗਲੇ ਸੁਭਾਅ ਕਾਰਨ ਇਨਕਲਾਬ ਵਿਚ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਸ਼ਮੂਲੀਅਤ ਕਈ ਇਕ ਠੋਸ ਹਕੀਕਤਾਂ ਜਿਵੇਂ ਕਿ ਜਮਾਤੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੇ ਤੋਲ ਵਿਚ ਤਬਦੀਲੀ, ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ-ਜਗੀਰਦਾਰੀ ਅਤੇ ਲੋਕਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਦੇ ਤਿੱਖੇਪਣ ਅਤੇ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਹੇਠਲੇ ਰਾਜ ਅਤੇ ਬੁਰਜੁਆਜੀ ਦੇ ਬਾਕੀ ਭਾਗਾਂ ਵਿਚਕਾਰ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਦੀ ਡੂੰਘਾਈ ਉਪਰ ਨਿਰਭਰ ਹੈ।
    107. ਬੁਰਜੁਆਜੀ ਦੇ ਅਜਿਹੇ ਭਾਗਾਂ ਨੂੰ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਦੇ ਪੱਖ ਵਿਚ ਲਿਆਉਣ ਲਈ ਹਰ ਯਤਨ ਕੀਤਾ ਜਾਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀਆਂ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਦੇ ਡੂੰਘੇ ਤੇ ਠੋਸ ਅਧਿਐਨ ਦੁਆਰਾ ਭਾਰਤੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰਾਂ ਅਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਸਾਮਰਾਜੀ ਦੁਸ਼ਮਣਾਂ ਦੇ ਖਿਲਾਫ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਸਭ ਘੋਲਾਂ ਦੀ ਹਮਾਇਤ ਕਰਨ ਦਾ ਕੋਈ ਵੀ ਮੌਕਾ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨੂੰ ਗੁਆਉਣਾ ਨਹੀਂ ਚਾਹੀਦਾ।
    108. ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਅਤੇ ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਪਾਰਟੀ, ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਲਿਆਉਣ ਲਈ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਉਸਾਰਨ ਦੇ ਆਪਣੇ ਬੁਨਿਆਦੀ ਨਿਸ਼ਾਨੇ ਨੂੰ ਇਕ ਪਲ ਲਈ ਵੀ ਅੱਖੋਂ ਉਹਲੇ ਨਾ ਕਰਦੀ ਹੋਈ ਅਤੇ ਇਸ ਤੱਥ ਨੂੰ ਵੀ ਨਾ ਭੁਲਾਉਂਦੀ ਹੋਈ ਕਿ ਇਸ ਨੇ ਅਵੱਸ਼ ਹੀ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜੀ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਹੇਠਲੇ ਵਰਤਮਾਨ ਭਾਰਤੀ ਰਾਜ ਨਾਲ ਟਕਰਾਅ ਵਿਚ ਆਉਣਾ ਹੈ, ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਸਮੇਤ ਭਾਰਤੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਅਤੇ ਬਦੇਸ਼ੀ ਸਾਮਰਾਜਵਾਦੀਆਂ ਵਿਚਕਾਰ ਜੋ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਮੌਜੂਦ ਹਨ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸਾਹਮਣੇ ਰੱਖਦੀ ਹੈ। ਇਹ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਸਾਮਰਾਜੀ ਚੌਧਰਵਾਦ ਦੇ ਸਵਾਲ, ਦੂਜੇ ਵਿਕਾਸਸ਼ੀਲ ਦੇਸ਼ਾਂ ਨਾਲ ਆਰਥਕ ਅਤੇ ਰਾਜਸੀ ਸਬੰਧਾਂ ਦੇ ਸਵਾਲ, ਬਦੇਸ਼ੀ ਅਜਾਰੇਦਾਰਾਂ ਅਤੇ ਸਾਮਰਾਜੀ ਏਜੈਂਸੀਆਂ ਤੋਂ ਮਿਲਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਦੀਆਂ ਸ਼ਰਤਾਂ ਦੇ ਸਵਾਲ, ਸਾਡੀਆਂ ਬਰਾਮਦਾਂ ਲਈ ਲੋੜੀਂਦੀ ਮੰਡੀ ਲੱਭਣ ਦੇ ਸਵਾਲ, ਸਾਡੀ ਬਦੇਸ਼ ਨੀਤੀ ਅਤੇ ਕੌਮੀ ਸੁਰੱਖਿਆ ਦੇ ਸਵਾਲਾਂ ਤੇ ਆਪਣਾ ਪ੍ਰਗਟਾਵਾ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ। ਸੰਸਾਰ ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਦੇ ਆਮ ਸੰਕਟ ਦੇ ਦਿਨੋ-ਦਿਨ ਤਿੱਖਾ ਹੋਣ ਦੇ ਪਿਛੋਕੜ ਵਿਚ ਕੌਮੀ ਅਤੇ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਵਿਭਿੰਨ ਵਿਰੋਧਤਾਈਆਂ ਦਾ ਤਿੱਖਾ ਹੋਣਾ ਅਵੱਸ਼ਕ ਹੈ। ਇਸ ਵਰਤਾਰੇ ਦਾ ਚੰਗੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਅਧਿਐਨ ਕਰਦੀ ਹੋਈ ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਪਾਰਟੀ, ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਨਾਲ ਅਜਿਹੇ ਹਰ ਮਤਭੇਦ, ਤਰੇੜ, ਟੱਕਰ ਅਤੇ ਵਿਰੋਧ ਨੂੰ ਵਰਤਣ ਦਾ ਯਤਨ ਕਰੇਗੀ ਤਾਂ ਕਿ ਸਾਮਰਾਜੀਆਂ ਨੂੰ ਨਿਖੇੜਿਆ ਜਾਵੇ ਅਤੇ ਜਮਹੂਰੀ ਵਿਕਾਸ ਲਈ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਸੰਘਰਸ਼ ਨੂੰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇ। ਬੁਰਜੁਆ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਪਾਰਟੀਆਂ ਨਾਲ ਕਿਸੇ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦੀ ਏਕਤਾ ਜਾਂ ਸਾਂਝੇ ਮੁਹਾਜ਼ ਬਾਰੇ ਕਿਸੇ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦਾ ਭੁਲੇਖਾ ਨਾ ਰੱਖਦੀ ਹੋਈ, ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਸੰਸਾਰ ਅਮਨ ਦੀ ਰਾਖੀ ਲਈ ਅਤੇ ਨਵ-ਬਸਤੀਵਾਦ, ਨਵ-ਉਦਾਰਵਾਦ ਤੇ ਸਾਮਰਾਜੀ ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਦੇ ਸਭ ਸੁਆਲਾਂ 'ਤੇ, ਜੋ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਹਕੀਕੀ ਹਿੱਤਾਂ ਵਿਚ ਹਨ, ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ ਨਾਲ ਵਿਰੋਧ ਵਾਲੇ ਸਭ ਆਰਥਕ ਤੇ ਰਾਜਸੀ ਮਸਲਿਆਂ, ਉਹਨਾਂ ਸਾਰੇ ਸੁਆਲਾਂ ਬਾਰੇ ਜੋ ਸਾਡੀ ਪ੍ਰਭੁਸੱਤਾ ਨੂੰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਕਰਨ ਅਤੇ ਆਜ਼ਾਦ ਬਦੇਸ਼ ਨੀਤੀ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧਤ ਹਨ, ਉੱਤੇ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ਹਮਾਇਤ ਦੇਣ ਤੋਂ ਸੰਕੋਚ ਨਹੀਂ ਕਰੇਗੀ।
    109. ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਇਕਜੁੱਟ ਪਾਰਟੀ ਤੇ ਰਾਜਨੀਤਕ ਤੌਰ 'ਤੇ ਪ੍ਰਭਾਵਸ਼ਾਲੀ ਤੇ ਸਰਗਰਮ ਲਹਿਰ ਦੀ ਗੈਰ-ਮੌਜੂਦਗੀ ਵਿਚ, ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਰਾਹ ਦੀਆਂ ਵਿਰੂਪਤਾਵਾਂ ਵਿਰੁੱਧ ਨਿਰੰਤਰ ਵੱਧਦੀ ਆ ਰਹੀ ਲੋਕ-ਬੇਚੈਨੀ ਦੀ ਕੁਝ ਨਾਂਹ-ਪੱਖੀ, ਪਿਛਾਖੜੀ ਅਤੇ ਉਲਟ-ਇਨਕਲਾਬੀ ਤਾਕਤਾਂ ਨੇ ਆਪਣੇ ਆਧਾਰਾਂ ਨੂੰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਕਰਨ ਲਈ, ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਤੌਰ 'ਤੇ ਹਿੰਦੀ ਭਾਸ਼ਾਈ ਖੇਤਰਾਂ ਵਿਚ, ਘੋਰ ਦੁਰਵਰਤੋਂ ਕੀਤੀ ਹੈ। ਇਹ ਪਿਛਾਖੜੀ ਤਾਕਤਾਂ ਹੁਣ ਕੁੱਝ ਰਾਜਾਂ ਅਤੇ ਕੇਂਦਰ ਵਿਚ ਵੀ, ਰਾਜਨੀਤਕ ਘਟਨਾਵਾਂ ਉੱਪਰ ਭਾਰੀ ਪ੍ਰਭਾਵ ਪਾਉਣ ਦੀ ਪੁਜੀਸ਼ਨ ਵਿਚ ਹਨ। ਇਹ ਬੁਰਜੁਆ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਦੀਆਂ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਵਿਰੋਧੀ ਚਾਲਾਂ ਤੇ ਮਨਸੂਬਿਆਂ ਨੂੰ ਵੀ ਚੋਖੀ ਤੇ ਸਪੱਸ਼ਟ ਸਹਾਇਤਾ ਜੁਟਾ ਰਹੀਆਂ ਹਨ। ਇਹਨਾਂ ਪਿਛਾਖੜੀ ਤਾਕਤਾਂ 'ਚੋਂ ਭਾਰਤੀ ਜਨਤਾ ਪਾਰਟੀ ਹੁਣ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਹੈ। ਆਰ.ਐਸ.ਐਸ. ਦੀ ਫਾਸ਼ੀਵਾਦੀ ਵਿਚਾਰਧਾਰਾ ਨਾਲ ਲੈਸ ਇਹ ਪਾਰਟੀ ਪੁਨਰ-ਸੁਰਜੀਤੀਵਾਦ ਦੀ ਝੰਡਾਬਰਦਾਰ ਵਜੋਂ ਉਭਰੀ ਹੈ ਅਤੇ ਇਸ ਨੇ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ 'ਧਰਮ ਆਧਾਰਤ ਫਿਰਕੂ ਰਾਜ' ਸਥਾਪਤ ਕਰਨ ਦਾ ਨਿਸ਼ਾਨਾ ਮਿੱਥ ਰੱਖਿਆ ਹੈ। ਇੰਝ, ਇਹ ਹੁਣ ਤੱਕ ਜਮਹੂਰੀ ਦਿਸ਼ਾ ਵਿਚ ਹਾਸਲ ਕੀਤੀਆਂ ਗਈਆਂ ਸਾਡੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਪ੍ਰਾਪਤੀਆਂ ਨੂੰ ਮਲੀਆਮੇਟ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਇਸ ਪਾਰਟੀ ਦੇ ਘੋਰ ਫਿਰਕੂ ਅਮਲ ਅਤੇ ਇਸ ਵਲੋਂ ਤੇ ਆਰ.ਐਸ.ਐਸ. ਨਾਲ ਸੰਬੰਧਤ ਹੋਰ ਜਥੇਬੰਦੀਆਂ ਵਲੋਂ ਘੱਟ ਗਿਣਤੀ ਧਰਮਾਂ ਨਾਲ ਸੰਬੰਧਤ ਲੋਕਾਂ ਉੱਪਰ ਕੀਤੇ ਗਏ ਵਹਿਸ਼ਿਆਨਾ ਹਮਲਿਆਂ ਨੇ ਉਹਨਾਂ ਅੰਦਰ ਅਸੁਰੱਖਿਆ ਦੀ ਡੂੰਘੀ ਭਾਵਨਾ ਪੈਦਾ ਕੀਤੀ ਹੈ। ਇਸ ਦੀ ਪ੍ਰਤੀਕਿਰਿਆ ਵਜੋਂ, ਉਹਨਾਂ ਨੇ ਵੀ ਫਿਰਕੂ ਲੀਹਾਂ 'ਤੇ ਆਪਣੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਵਾਲੇ ਕੁਝ ਇਕ ਤਕੜੇ ਇਲਾਕੇ ਸਥਾਪਤ ਕੀਤੇ ਹਨ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਇਹ ਪਿਛਾਖੜੀ ਵਰਤਾਰਾ ਨਾ ਸਿਰਫ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਏਕਤਾ ਲਈ ਹਾਨੀਕਾਰਕ ਹੈ, ਬਲਕਿ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਪੱਧਰ 'ਤੇ ਉੱਭਰ ਰਹੀਆਂ ਕੱਟੜਪੰਥੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਨਾਲ ਮਿਲਕੇ, ਇਹ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਆਮ ਸਲਾਮਤੀ ਲਈ ਵੀ ਅਤੇ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਏਕਤਾ-ਅਖੰਡਤਾ ਲਈ ਵੀ ਗੰਭੀਰ ਖਤਰੇ ਪੈਦਾ ਕਰਦਾ ਹੈ।
    ਏਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੀ, ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਦੀ ਦਲਿਤਾਂ ਅਤੇ ਸਮਾਜ ਕੇ ਦੱਬੇ ਕੁਚਲੇ ਤੇ ਪਛੜੇ ਹਿੱਸਿਆਂ ਦੀਆਂ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਨੂੰ ਨਿਪਟਾਉਣ ਵਿਚ ਘੋਰ ਅਸਫਲਤਾ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਕੁੱਝ ਜਾਤੀਵਾਦੀ ਆਗੂਆਂ ਨੇ ਆਪਣਾ ਸੌੜਾ ਰਾਜਨੀਤਕ ਆਧਾਰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਬਨਾਉਣ ਲਈ ਵੀ ਕੀਤੀ ਹੈ। ਇਹਨਾਂ ਜਾਤੀਵਾਦੀ ਲਹਿਰਾਂ ਦੀਆਂ ਜੜ੍ਹਾਂ ਭਾਵੇਂ ਸਮਾਜਕ ਜਬਰ 'ਤੇ ਆਰਥਕ ਲੁੱਟ-ਚੋਂਘ ਦੇ ਸ਼ਿਕਾਰ ਭਾਗਾਂ ਵਿਚ ਹਨ, ਪਰ ਫੇਰ ਵੀ ਇਹਨਾਂ ਦੇ ਆਗੂ ਇਹਨਾਂ ਭਾਗਾਂ ਨੂੰ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਇਨਕਲਾਬੀ ਲਹਿਰ ਤੋਂ ਦੂਰ ਰੱਖਣ ਲਈ ਹਰ ਸੰਭਵ ਯਤਨ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਤੋਂ ਬਿਨ੍ਹਾਂ, ਇਹਨਾਂ ਫਿਰਕੂ ਤੇ ਜਾਤੀਵਾਦੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੀਆਂ ਗਤੀਵਿਧੀਆਂ ਵਿਚ ਵੰਡਵਾਦੀ ਤੇ ਫੁੱਟ ਪਾਊ ਭੂਮਿਕਾਵਾਂ ਨਿਭਾਉਣ ਵਾਲੇ ਤੱਤ ਹੋਣ ਕਰਕੇ ਬੁਰਜੁਆ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਅਤੇ ਸਾਮਰਾਜੀ ਘੁਸਪੈਠੀਏ ਵੀ ਇਹਨਾਂ ਲਹਿਰਾਂ ਨੂੰ ਗੁੱਝੀ ਜਾਂ ਖੁੱਲ੍ਹੀ ਸਹਾਇਤਾ ਦਿੰਦੇ ਹਨ।
    ਇਸ ਲਈ, ਲੋਕ-ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਲਈ ਸੰਘਰਸ਼ ਨੂੰ ਅਗਾਂਹ ਵਧਾਉਣ ਵਾਸਤੇ ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ ਨੂੰ ਭਾਰਤੀ ਜਨਤਾ ਪਾਰਟੀ ਦੀ ਵਿਚਾਰਧਾਰਾ ਅਤੇ ਉਸਦੇ ਰਾਜਨੀਤਕ ਉਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਰੁੱਧ ਨਿਰੰਤਰ ਰੂਪ ਵਿਚ ਜ਼ੋਰਦਾਰ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਨਾ ਪਵੇਗਾ। ਪਾਰਟੀ ਲਈ ਇਹ ਵੀ ਲਾਜ਼ਮੀ ਹੋਵੇਗਾ ਕਿ ਉਹ ਸਮਾਜਕ ਜਬਰ ਅਤੇ ਜਾਤੀਵਾਦੀ ਉਤਪੀੜਨ ਦੇ ਸਵਾਲਾਂ 'ਤੇ ਪਹਿਲਕਦਮੀਂ ਕਰਦਿਆਂ ਤੁਰੰਤ ਠੋਸ ਰੂਪ ਵਿਚ ਦਖਲਅੰਦਾਜ਼ੀ ਕਰੇ ਅਤੇ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦਲਿਤਾਂ ਤੇ ਪਛੜੀਆਂ ਸ਼੍ਰੇਣੀਆਂ ਦੀ ਇਕ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਜਨਤਕ ਲਹਿਰ ਵਿਕਸਤ ਕਰੇ ਤਾਂ ਜੋ ਜਾਤੀਵਾਦੀ ਪਾਰਟੀਆਂ ਦੇ ਪਿੱਛੇ ਖੜ੍ਹੇ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੇ ਸਾਂਝੇ ਘੋਲਾਂ ਰਾਹੀਂ ਜਨਤਕ ਲਾਮਬੰਦੀ ਵੱਲ ਖਿੱਚਣ ਵਿਚ ਵੀ ਕੋਈ ਕਸਰ ਬਾਕੀ ਨਾ ਰਹੇ।
    110. ਇਹਨਾਂ ਸਭ ਕਾਰਕਾਂ (Factors) ਉੱਤੇ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਅਧਾਰਤ ਕਰਦਿਆਂ ਹੋਇਆਂ ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਪਾਰਟੀ ਸਭ ਦੇਸ਼ ਭਗਤਕ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਨਾਲ ਅਥਵਾ ਉਹਨਾਂ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਨਾਲ ਜੋ ਕਿ ਪੂਰਵ-ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਸਮਾਜ ਦੀ ਸਭ ਰਹਿੰਦ ਖੂੰਹਦ ਨੂੰ ਹੂੰਝਣ ਵਿਚ, ਕਿਸਾਨੀ ਦੇ ਹਿੱਤਾਂ ਵਿਚ ਖੇਤੀ ਇਨਕਲਾਬ ਨੂੰ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਨੇਪਰੇ ਚਾੜ੍ਹਨ ਵਿਚ, ਬਦੇਸ਼ੀ ਸਰਮਾਏ ਦੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਜੰਜੀਰਾਂ ਤੋੜਨ ਅਤੇ ਭਾਰਤੀ ਅਰਥਚਾਰੇ, ਸਮਾਜਕ ਜੀਵਨ ਅਤੇ ਸਭਿਆਚਾਰ ਦੀ ਤਿੱਖੀ ਮੁੜ-ਉਸਾਰੀ ਦੇ ਰਾਹ ਦੀਆਂ ਸਭ ਰੁਕਾਵਟਾਂ ਦੂਰ ਕਰਨ ਵਿਚ ਦਿਲਚਸਪੀ ਰੱਖਦੀਆਂ ਹਨ, ਨਾਲ ਇਕਜੁੱਟ ਹੋਣ ਦਾ ਕੰਮ ਆਪਣੇ ਸਾਹਮਣੇ ਰੱਖਦੀ ਹੈ।
    111. ਮਜ਼ਦੂਰ ਕਿਸਾਨ ਏਕੇ ਦੇ ਧੁਰੇ ਦੁਆਲੇ, ਸਾਰੀਆਂ ਦੇਸ਼ ਭਗਤਕ ਤੇ ਜਮਹੂਰੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੀ ਇਨਕਲਾਬੀ ਏਕਤਾ ਰਾਹੀਂ, ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਨਿਸ਼ਾਨਿਆਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਦਾ ਘੋਲ ਬੜਾ ਗੁੰਝਲਦਾਰ ਤੇ ਲੰਮਾ ਘੋਲ ਹੈ। ਇਹ ਘੋਲ ਵਿਭਿੰਨ ਪੜਾਵਾਂ ਵਿਚ, ਵਿਭਿੰਨ ਪਰਸਥਿਤੀਆਂ ਵਿਚ ਚਲਾਇਆ ਜਾਵੇਗਾ। ਇਨਕਲਾਬੀ ਲਹਿਰ ਦੇ ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਇਹਨਾਂ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਪੜਾਵਾਂ ਵਿਚ ਇਕੋ ਹੀ ਜਮਾਤ ਦੇ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਤਬਕਿਆਂ ਵਲੋਂ ਵੱਖਰੀਆਂ-ਵੱਖਰੀਆਂ ਪੁਜ਼ੀਸ਼ਨਾਂ ਲੈਣਾ ਆਵੱਸ਼ਕ ਹੈ। ਵੱਖ-ਵੱਖ ਜਮਾਤਾਂ ਵਲੋਂ ਅਤੇ ਇਕੋ ਹੀ ਜਮਾਤ ਵਿਚ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਤਬਕਿਆਂ ਵਲੋਂ ਪੁਜੀਸ਼ਨਾਂ ਦੇ ਇਸ ਪਰਿਵਰਤਨ ਤੋਂ ਪੈਦਾ ਹੁੰਦੀਆਂ ਗੁੰਝਲਾਂ ਹੀ ਇਨਕਲਾਬੀ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੇ ਆਗੂ ਵਜੋਂ ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਪਾਰਟੀ ਉਸਾਰਨ ਅਤੇ ਇਸ ਦੀਆਂ ਸਫਾਂ ਵਿਚ ਅਤਿਅੰਤ ਸੁਹਿਰਦ ਅਤੇ ਆਪਾ ਵਾਰੂ ਇਨਕਲਾਬੀਆਂ ਨੂੰ ਲਿਆਉਣ ਦੀ ਮਹੱਤਤਾ ਅਤੇ ਲੋੜ ਨੂੰ ਦਰਸਾਉਂਦੀਆਂ ਹਨ। ਕੇਵਲ ਅਜਿਹੀ ਪਾਰਟੀ ਹੀ ਜੋ ਆਪਣੀਆਂ ਸਫਾਂ ਨੂੰ ਨਿਰੰਤਰ ਮਾਰਕਸਵਾਦ-ਲੈਨਿਨਵਾਦ ਦੀ ਭਾਵਨਾ ਵਿਚ ਸਿੱਖਿਆ ਤੇ ਮੁੜ ਸਿਖਿਆ ਦਿੰਦੀ ਹੈ, ਜਮਾਤੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੇ ਬਦਲਦੇ ਸੰਤੁਲਨ ਅਨੁਸਾਰ ਢੁਕਵੇਂ ਅਮਲ ਦੇ ਸਭ ਰੂਪਾਂ ਵਿਚ ਨਿਪੁੰਨਤਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰ ਸਕਣ ਦੇ ਸਮਰੱਥ ਹੋਵੇਗੀ। ਕੇਵਲ ਅਜਿਹੀ ਪਾਰਟੀ ਹੀ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਵਿਭਿੰਨ ਮੋੜਾਂ-ਘੋੜਾਂ ਰਾਹੀਂ, ਜੋ ਇਨਕਲਾਬੀ ਲਹਿਰ ਵਿਚ ਅਵੱਸ਼ ਆਉਂਦੇ ਹਨ, ਲੰਘਾਅ ਸਕਣ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਕਰਨ ਦੇ ਸਮਰੱਥ ਹੋਵੇਗੀ।
    112. ਪਾਰਟੀ ਨੂੰ ਪ੍ਰਤੱਖ ਤੌਰ ਤੇ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਬਦਲਦੀ ਰਾਜਸੀ ਅਵਸਥਾ ਦੀਆਂ ਲੋੜਾਂ ਅਨੁਸਾਰ ਕਈ ਅੰਤਰਿਮ ਨਾਅਰੇ ਘੜਨੇ ਪੈਣਗੇ। ਲੋਕਾਂ ਸਾਹਮਣੇ ਵਰਤਮਾਨ ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਨੂੰ ਗੱਦੀਉਂ ਲਾਹੁਣ ਅਤੇ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਅਤੇ ਕਿਸਾਨੀ ਦੇ ਦ੍ਰਿੜ ਏਕੇ ਦੇ ਆਧਾਰ  ਉੱਪਰ ਨਵਾਂ ਜਮਹੂਰੀ ਰਾਜ ਸਥਾਪਤ ਕਰਨ ਦਾ ਕੰਮ ਰੱਖਦੀ ਹੋਈ ਵੀ ਪਾਰਟੀ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਫੌਰੀ ਸਹੂਲਤਾਂ ਦੇਣ ਦੇ ਘੱਟੋ-ਘੱਟ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ ਨਾਲ ਜੁੜੀਆਂ ਪ੍ਰਾਂਤਕ ਪੱਧਰ ਦੀਆਂ ਸਰਕਾਰਾਂ ਨੂੰ ਹੋਂਦ ਵਿਚ ਲਿਆਉਣ ਦੀਆਂ ਸਭ ਸੰਭਾਵਨਾਵਾਂ ਦੀ ਪੂਰੀ-ਪੂਰੀ ਵਰਤੋਂ ਕਰੇਗੀ। ਅਜਿਹੀਆਂ ਸਰਕਾਰਾਂ ਦਾ ਬਨਣਾ ਮਿਹਨਤਕਸ਼ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਇਨਕਲਾਬੀ ਲਹਿਰ ਨੂੰ ਉਤਸ਼ਾਹ ਦੇਵੇਗਾ ਅਤੇ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਉਸਾਰਨ ਦੇ ਅਮਲ ਵਿਚ ਸਹਾਇਕ ਹੋਵੇਗਾ। ਐਪਰ, ਇਹ ਦੇਸ਼ ਦੀਆਂ ਆਰਥਕ ਅਤੇ ਰਾਜਸੀ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਨੂੰ ਕਿਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਵੀ ਬੁਨਿਆਦੀ ਰੂਪ ਵਿਚ ਹੱਲ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕੇਗਾ। ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪਾਰਟੀ, ਆਰਜੀ ਖਾਸੇ ਵਾਲੀਆਂ ਅਜਿਹੀਆਂ ਸਰਕਾਰਾਂ ਨੂੰ, ਜੋ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਫੌਰੀ ਰਾਹਤ ਦਿੰਦੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਜਨਤਕ ਲਹਿਰ ਮਜ਼ਬੂਤ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ, ਬਨਾਉਣ ਦੀਆਂ ਸਭ ਸੰਭਾਵਨਾਵਾਂ ਨੂੰ ਵਰਤਦੀ ਹੋਈ ਵੀ ਆਮ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਵੱਡੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਹੇਠਲੇ ਵਰਤਮਾਨ ਬੁਰਜੁਆ ਜਗੀਰਦਾਰ ਰਾਜ ਨੂੰ ਬਦਲਣ ਦੀ ਲੋੜ ਬਾਰੇ ਨਿਰੰਤਰ ਸੁਸਿਖਿਅਤ ਕਰਦੀ ਰਹੇਗੀ।
       113. ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਪਾਰਟੀ, ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ ਅਤੇ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਤਬਦੀਲੀ ਦਾ ਉਦੇਸ਼ ਪੁਰਅਮਨ ਢੰਗ ਦੁਆਰਾ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਨ ਦਾ ਯਤਨ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਜਨਤਕ ਇਨਕਲਾਬੀ ਲਹਿਰ ਵਿਕਸਤ ਕਰਨ ਦੁਆਰਾ, ਘੋਲ ਦੇ ਪਾਰਲੀਮਾਨੀ ਤੇ ਗੈਰ-ਪਾਰਲੀਮਾਨੀ ਰੂਪਾਂ ਨੂੰ ਜੋੜਨ ਦੁਆਰਾ,ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਅਤੇ ਉਸ ਦੇ ਇਤਹਾਦੀ, ਪਿਛਾਖੜੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੇ ਪ੍ਰਤੀਰੋਧ ਉਪਰ ਕਾਬੂ ਪਾਉਣ ਅਤੇ ਇਹ ਤਬਦੀਲੀ ਪੁਰ-ਅਮਨ ਢੰਗ ਨਾਲ ਲਿਆਉਣ ਦਾ ਪੂਰਾ ਯਤਨ ਕਰਨਗੇ।
    ਐਪਰ, ਇਹ ਗੱਲ ਸਦਾ ਧਿਆਨ ਵਿਚ ਰੱਖਣ ਦੀ ਲੋੜ ਹੈ ਕਿ ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਕਦੇ ਵੀ ਆਪਣੇ ਆਪ ਸੱਤਾ ਨਹੀਂ ਛੱਡਦੀਆਂ। ਉਹ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਜਮਹੂਰੀ ਇੱਛਾ ਦਾ ਉਲੰਘਣ ਕਰਨ ਅਤੇ ਇਸ ਇੱਛਾ ਨੂੰ ਗੈਰ ਕਨੂੰਨੀ ਢੰਗ ਦੁਆਰਾ ਅਤੇ ਤਸ਼ੱਦਦ ਦੁਆਰਾ ਬਦਲਣ ਦਾ ਯਤਨ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ। ਇਸ ਕਰ ਕੇ ਇਨਕਲਾਬੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਲਈ ਇਹ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਸੁਚੇਤ ਰਹਿਣ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਕੰਮ ਨੂੰ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਢਾਲਣ ਕਿ ਉਹ ਸਭ ਸਥਿਤੀਆਂ ਅਤੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਰਾਜਸੀ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਆਉਂਦੇ ਸਭ ਮੋੜਾਂ-ਘੋੜਾਂ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰ ਸਕਣ।


IX ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਪਾਰਟੀ ਦੀ ਉਸਾਰੀ

    114. ਜਨ ਸਮੂਹਾਂ ਨੂੰ ਬੁਰਜੁਆ, ਜਗੀਰੂ ਤੇ ਅਰਧ-ਜਗੀਰੂ ਵਿਚਾਰਧਾਰਾਵਾਂ ਦੇ ਪ੍ਰਭਾਵ ਤੋਂ ਮੁਕਤ ਕਰਾਉਣ ਲਈ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਰਾਜਸੀ ਚੇਤਨਾ ਨੂੰ ਉਚਿਆਉਣ ਲਈ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਵਿਗਿਆਨਕ ਸਮਾਜਵਾਦ ਦੀਆਂ ਪੁਜੀਸ਼ਨਾਂ ਉੱਪਰ ਲਿਆਉਣ ਲਈ, ਵਿਚਾਰਧਾਰਕ ਮੋਰਚੇ 'ਤੇ ਜ਼ੋਰਦਾਰ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਨੇ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹਨ। ਕਮਿਊਨਿਜ਼ਮ ਦੀ ਵਿਰੋਧਤਾ ਹਾਕਮ ਜਮਾਤਾਂ ਦਾ ਪਰਤੱਖ ਵਿਚਾਰਧਾਰਕ ਹਥਿਆਰ ਹੈ। ਉਹ ਇਸ ਹਥਿਆਰ ਨੂੰ ਜਮਹੂਰੀ ਲਹਿਰ ਉੱਪਰ ਵਿਚਾਰਧਾਰਕ ਹਮਲੇ ਜਾਰੀ ਰੱਖਣ ਲਈ ਅਤੇ ਕਮਿਊਨਿਸਟਾਂ ਨੂੰ ਦੂਜੀਆਂ ਜਮਹੂਰੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਨਾਲੋਂ ਨਿਖੇੜਨ ਲਈ ਵਰਤਦੇ ਹਨ। ਕਮਿਊਨਿਜਮ ਦੀ ਇਹ ਵਿਰੋਧਤਾ ਮਾਰਕਸੀ ਸਿਧਾਂਤ ਵਿਚ ਭਾਰੀ ਵਿਗਾੜ ਪਾਉਂਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਵਿਚਾਰਧਾਰਾ ਅਤੇ ਵਿਵਸਥਾ ਵਿਰੁੱਧ ਭੱਦੀਆਂ ਊਜਾਂ ਲਾਉਂਦੀ ਹੈ, ਕਮਿਊਨਿਸਟਾਂ ਦੇ ਉਦੇਸ਼ਾਂ ਨੂੰ ਸ਼ੇਖ-ਚਿੱਲੀਵਾਦ ਵਜੋਂ ਪੇਸ਼ ਕਰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਜਮਹੂਰੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਤੇ ਜਥੇਬੰਦੀਆਂ ਨੂੰ ਘ੍ਰਿਣਾਮਈ ਹਮਲਿਆਂ ਦਾ ਸ਼ਿਕਾਰ ਬਣਾਉਂਦੀ ਹੈ। ਕਮਿਊਨਿਜ਼ਮ ਦੀ ਵਿਰੋਧਤਾ ਸਾਡੇ ਕੌਮੀ ਹਿੱਤਾਂ ਅਤੇ ਸਮੁੱਚੇ ਤੌਰ 'ਤੇ ਜਮਹੂਰੀ ਲਹਿਰ ਦੇ ਹਿੱਤਾਂ ਦੇ ਵੀ ਵਿਰੁੱਧ ਹੈ। ਕਮਿਊਨਿਸਟਾਂ ਲਈ ਇਹ ਲਾਜ਼ਮੀ ਹੈ ਕਿ ਉਹ ਕਮਿਊਨਿਜ਼ਮ ਦੀ ਵਿਰੋਧਤਾ ਨੂੰ ਬੇਨਕਾਬ ਕਰਨ ਅਤੇ ਇਸ ਵਿਰੁੱਧ ਅਤਿਅੰਤ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਢੰਗ ਨਾਲ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਨ। ਸੋਵੀਅਤ ਯੂਨੀਅਨ ਅਤੇ ਪੂਰਬੀ ਯੂਰਪ ਦੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਸਮਾਜਵਾਦ ਨੂੰ ਵੱਜੀਆਂ ਗੰਭੀਰ ਪਛਾੜਾਂ ਨੇ ਨਾ ਸਿਰਫ ਮਾਰਕਸਵਾਦ-ਲੈਨਿਨਵਾਦ ਦੇ ਕੱਟੜ ਜਮਾਤੀ ਦੁਸ਼ਮਣਾਂ ਨੂੰ ਸਮਾਜਵਾਦ ਵਿਰੁੱਧ ਦੁਸ਼ਮਨਾਨਾ ਗੋਲਾਬਾਰੀ ਕਰਨ ਦਾ ਇਕ ਅਰਸ਼ੋਂ ਲੱਥਾ ਮੌਕਾ ਦਿੱਤਾ ਹੈ ਸਗੋਂ ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਲਹਿਰ ਦੇ ਅੰਦਰਲੇ ਸੱਜੇ ਸੋਧਵਾਦੀਆਂ ਨੇ ਵੀ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਅੰਦਰ ਭੰਬਲਭੂਸੇ ਪੈਦਾ ਕਰਨ ਲਈ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੀ ਲਹਿਰ ਨੂੰ ਕੁਰਾਹੇ ਪਾ ਕੇ ਜਮਾਤੀ ਭਿਆਲੀ ਤੇ ਸੋਸ਼ਲ ਡੈਮੋਕਰੇਸੀ ਦੀ ਪੱਟੜੀ ਚਾੜ੍ਹਨ ਲਈ ਇਸ ਦੀ ਘੋਰ ਦੁਰਵਰਤੋਂ ਕੀਤੀ ਹੈ। ਇਸ ਲਈ ਕਮਿਊਨਿਸਟਾਂ ਦੇ ਸਨਮੁੱਖ ਇਹਨਾਂ ਸਾਰੇ ਦੁਸ਼ਮਣਾਂ ਦਾ ਪੂਰੀ  ਤਾਕਤ ਨਾਲ ਵਿਰੋਧ ਕਰਨ ਦਾ ਮੁਸ਼ਕਲਾਂ ਭਰਪੂਰ ਕਾਰਜ ਆ ਖੜ੍ਹੋਤਾ ਹੈ।
    ਧਾਰਮਕ ਹਨੇਰਬਿਰਤੀਵਾਦ, ਫਿਰਕਾਪ੍ਰਸਤੀ, ਜਾਤੀਵਾਦ ਅਤੇ ਬੁਰਜੁਆ ਕੌਮ ਪ੍ਰਸਤੀ ਤੇ ਖੇਤਰੀ ਸ਼ਾਵਨਵਾਦ ਵਰਗੇ ਸਾਰੇ ਗੈਰ-ਜਮਾਤੀ ਰੁਝਾਨਾਂ ਦੀ ਪਿਛਾਖੜੀ ਸਵਾਰਥੀ ਹਿੱਤਾਂ ਵਲੋਂ ਜਮਹੂਰੀ ਲਹਿਰ ਦੇ ਵਾਧੇ ਨੂੰ ਰੋਕਣ ਅਤੇ ਇਸ ਵਿਚ ਦੁਫੇੜ ਪਾਉਣ ਲਈ ਵਰਤੋਂ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਹਿੰਦੂਤਵ ਅਤੇ ਹਿੰਦੀ-ਸ਼ਾਵਨਵਾਦ ਨੇ ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਆਪਣਾ ਸਿਰ ਚੁੱਕਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ਜਿਹਨਾਂ ਦੀ ਪ੍ਰਤੀਕਿਰਿਆ ਵਜੋਂ ਘਟ ਗਿਣਤੀ ਰੂੜ੍ਹੀਵਾਦੀ ਤੇ ਦੂਸਰੇ ਭਾਸ਼ਾਈ ਗਰੁੱਪ ਵੱਖਵਾਦੀ ਤੇ ਵੰਡਵਾਦੀ ਮੰਗਾਂ ਉਠਾ ਰਹੇ ਹਨ। ਇਹ ਸਾਰੇ ਹੀ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਸਾਂਝੀ ਲਹਿਰ ਅਤੇ ਇਨਕਲਾਬੀ ਲਹਿਰ ਲਈ ਹਾਨੀਕਾਰਕ ਹਨ। ਇਸ ਲਈ ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਪਾਰਟੀ ਇਹਨਾਂ ਸਾਰੇ ਹੀ ਲੋਕ ਵਿਰੋਧੀ ਰੁਝਾਨਾਂ ਵਿਰੁੱਧ ਬੇਕਿਰਕ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰੇਗੀ।
    ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਬੁਰਜੁਆ ਆਗੂ ਅਤੇ ਸੋਸ਼ਲ ਡੈਮੋਕਰੇਸੀ ਦੀ ਪ੍ਰਤੀਨਿੱਧਤਾ ਕਰਦੇ ਆਗੂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਧੋਖਾ ਦੇਣ ਲਈ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਲੱਫਾਜ਼ੀ ਦੀ ਵਧਾ ਚੜ੍ਹਾਅ ਕੇ ਵਰਤੋਂ ਕਰਦੇ ਹਨ, ਜਦੋਂਕਿ ਇਹ ਬੁਰਜੁਆ ਤੇ ਨਿੱਕ-ਬੁਰਜੁਆ ਆਗੂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਹਕੀਕੀ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਰਾਹ ਲਈ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਨ ਤੋਂ ਦੂਰ ਰੱਖਣ ਲਈ ਨਿਰੰਤਰ ਯਤਨ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਉਹ ਮਾਰਕਸਵਾਦੀ-ਲੈਨਿਨਵਾਦੀ ਸਿਧਾਂਤ ਅਤੇ ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਪਾਰਟੀ 'ਤੇ ਆਪਣੇ ਹਮਲਿਆਂ ਨੂੰ ਲੁਕਾਉਣ ਲਈ 'ਸਰਬੱਤ ਦੇ ਭਲੇ' ਵਰਗੇ ਲੁਭਾਣੇ ਨਾਅਰੇ ਦਿੰਦੇ ਹਨ। ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਪਾਰਟੀ ਜਨ ਸਮੂਹਾਂ ਦੇ ਸਨਮੁੱਖ ਇਹ ਵਿਆਖਿਆ ਪੇਸ਼ ਕਰਦੀ ਹੈ ਕਿ ਬੁਰਜੁਆ-ਲੈਂਡਲਾਰਡ ਜਮਾਤਾਂ ਦੀ ਪ੍ਰਤੀਨਿੱਧਤਾ ਕਰਦੀ ਸਰਕਾਰ ਕੋਲ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਭਲੇ ਲਈ ਉੱਕਾ ਹੀ ਕੋਈ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ ਨਹੀਂ ਹਨ ਅਤੇ ਅਜਿਹੇ ਬੁਰਜੁਆ ਤੇ ਨਿੱਕ-ਬੁਰਜੁਆ ਸਿਧਾਂਤਾਂ ਵਿਚ ਵਿਗਿਆਨਕ ਸਮਾਜਵਾਦ ਦਾ ਕਿਣਕਾ ਮਾਤਰ ਵੀ ਨਹੀਂ ਹੈ।
    ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ ਜਮਹੂਰੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਦੀ ਏਕਤਾ ਅਤੇ ਮਜ਼ਬੂਤੀ ਲਈ ਇਹ ਵੀ ਲਾਜ਼ਮੀ ਹੈ ਕਿ ਸੱਜੇ-ਪੱਖੀ ਸਮਾਜਵਾਦੀਆਂ, ਸੋਧਵਾਦੀਆਂ ਅਤੇ ਖੱਬੇ ਸੰਕੀਰਨਤਾਵਾਦੀ ਮਾਅਰਕੇਬਾਜ਼ਾਂ ਦੀਆਂ ਫੁੱਟ-ਪਾਊ ਅਤੇ ਗੈਰ-ਕਮਿਊਨਿਸਟ  ਪੁਜੀਸ਼ਨਾਂ ਵਿਰੁੱਧ ਵੀ ਬੇਕਿਰਕ ਵਿਚਾਰਧਾਰਕ ਅਤੇ ਰਾਜਨੀਤਕ ਸੰਘਰਸ਼ ਕੀਤੇ ਜਾਣ, ਕਿਉਂਕਿ ਇਹ ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਵਿਰੋਧੀ ਤੇ ਗੈਰ-ਜਮਾਤੀ ਰੁਝਾਨ ਵੀ ਦੇਸ਼ ਅੰਦਰ ਕਈ ਰੂਪਾਂ ਤੇ ਗਰੁੱਪਾਂ ਵਿਚ ਉਭਰ ਆਏ ਹਨ।
    115. ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਸਥਾਪਨਾ, ਇਹਨਾਂ ਕਾਰਜਾਂ ਨੂੰ ਸਫਲਤਾ ਨਾਲ ਨੇਪਰੇ ਚਾੜ੍ਹਨਾ, ਅਤੇ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਰਾਜ ਵਿਚ ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਦੀ ਲੀਡਰਸ਼ਿਪ ਇਹ ਗੱਲ ਯਕੀਨੀ ਬਣਾਏਗੀ ਕਿ ਭਾਰਤੀ ਇਨਕਲਾਬ ਜਮਹੂਰੀ ਪੜਾਅ ਉੱਪਰ ਹੀ ਨਾ ਅਟਕ ਜਾਏ ਸਗੋਂ ਤੇਜ਼ੀ ਨਾਲ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਤਬਦੀਲੀ ਦੇ ਪੜਾਅ ਵਿਚ ਪੁੱਜ ਜਾਵੇ।
    116. ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ ਲੋਕਾਂ ਸਾਹਮਣੇ ਇਹ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ ਪੇਸ਼ ਕਰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਅਜੋਕੇ ਸਮੇਂ ਦੇ ਇਹ ਮੁਖੀ ਕਾਰਜ ਸਾਹਮਣੇ ਲਿਆਉਂਦੀ ਹੈ ਤਾਂ ਕਿ ਸਾਡੇ ਲੋਕਾਂ ਅੱਗੇ ਉਸ ਨਿਸ਼ਾਨੇ ਦੀ ਤਸਵੀਰ ਸਪੱਸ਼ਟ ਹੋ ਜਾਵੇ, ਜਿਸ ਲਈ ਉਹ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ ਅਤੇ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਜਮਹੂਰੀ ਕੌਮੀ ਪ੍ਰਗਤੀ ਦੇ ਰਾਹ ਦਾ ਪਤਾ ਲੱਗ ਜਾਵੇ।
    ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ ਕਰੋੜਾਂ ਹੀ ਮਿਹਨਤਕਸ਼ਾਂ, ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ, ਕਿਸਾਨੀ, ਮਿਹਨਤਕਸ਼ ਬੁੱਧੀਜੀਵੀਆਂ, ਮੱਧ ਸ਼੍ਰੇਣੀਆਂ ਅਤੇ ਨਾਲ ਹੀ ਹਕੀਕੀ ਜਮਹੂਰੀ ਵਿਕਾਸ ਵਿਚ ਅਤੇ ਖੁਸ਼ਹਾਲ ਜੀਵਨ ਸਿਰਜਣ ਵਿਚ ਦਿਲਚਸਪੀ ਰੱਖਣ ਵਾਲੀ ਕੌਮੀ ਬੁਰਜੁਆਜ਼ੀ ਨੂੰ ਇਹਨਾਂ ਫੌਰੀ ਕਾਰਜਾਂ ਦੀ ਪੂਰਤੀ ਲਈ ਅਤੇ ਨਿਸ਼ਾਨੇ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਲਈ ਇਕੋ-ਇਕ ਸਹੀ ਤੇ ਸੱਚੀਂਦੇ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਵਿਚ ਇਕਮੁੱਠ ਹੋਣ ਦਾ ਸੱਦਾ ਦਿੰਦੀ ਹੈ।
    117. ਭਾਰਤੀ ਲੋਕਾਂ ਦੀਆਂ ਲੜਾਕੂ ਰਵਾਇਤਾਂ ਨੂੰ ਅੱਗੇ ਖੜਦੀ ਹੋਈ, ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ ਦੇਸ਼ ਭਗਤੀ ਨੂੰ ਪਰੋਲੇਤਾਰੀ ਕੌਮਾਂਤਰੀਵਾਦ ਨਾਲ ਜੋੜਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਆਪਣੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਸਰਗਰਮੀਆਂ ਤੇ ਸੰਘਰਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਮਾਰਕਸਵਾਦ-ਲੈਨਿਨਵਾਦ ਦੇ ਫਲਸਫੇ ਅਤੇ ਅਸੂਲਾਂ ਤੋਂ ਅਗਵਾਈ ਲੈਂਦੀ ਹੈ, ਜਿਹੜਾ ਕਿ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਮਨੁੱਖ ਹੱਥੋਂ ਲੁੱਟ ਨੂੰ ਖਤਮ ਕਰਨ ਲਈ ਅਤੇ ਮਿਹਨਤਕਸ਼ ਜਨਸਮੂਹਾਂ ਦੀ ਮੁਕੰਮਲ ਬੰਦਖਲਾਸੀ ਲਈ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸਹੀ ਰਾਹ ਦਰਸਾਉਣ ਵਾਲਾ ਇਕੋ-ਇਕ ਸਿਧਾਂਤ ਹੈ। ਪਾਰਟੀ ਮਿਹਨਤਕਸ਼ ਜਨਤਾ ਦੇ ਅਤਿਅੰਤ ਵਿਕਸਤ, ਅਤਿਅੰਤ ਸਰਗਰਮ ਅਤੇ ਅਤਿਅੰਤ ਆਪਾਵਾਰੂ ਧੀਆਂ ਪੁੱਤਰਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੀਆਂ ਸਫਾਂ ਵਿਚ ਇਕੱਠਿਆਂ ਕਰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਦ੍ਰਿੜ ਮਾਰਕਸਵਾਦੀ-ਲੈਨਿਨਵਾਦੀ ਅਤੇ ਪਰੋਲੇਤਾਰੀ ਕੌਮਾਂਤਰੀਵਾਦੀਆਂ ਵਜੋਂ ਵਿਕਸਤ ਕਰਨ ਦਾ ਨਿਰੰਤਰ ਯਤਨ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਪਾਰਟੀ ਆਪਣੀਆਂ ਸਾਰੀਆਂ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਤੇ ਵਸੀਲੇ, ਵਿਕਾਸ ਦੇ ਜਮਹੂਰੀ ਰਾਹ ਲਈ ਸੰਘਰਸ਼  ਵਾਸਤੇ ਸਮੁੱਚੀਆਂ ਦੇਸ਼ ਭਗਤ ਤੇ ਜਮਹੂਰੀ ਸ਼ਕਤੀਆਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਨਾਲ ਜੋੜਨ ਦੇ ਕਾਰਜ ਦੇ ਲੇਖੇ ਲਾਉਂਦੀ ਹੈ--ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ ਦੀ ਪੂਰਤੀ ਲਈ ਸ਼ਕਤੀਸ਼ਾਲੀ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਮੁਹਾਜ਼ ਉਸਾਰਨ ਦੇ ਮਹਾਨ ਕਾਰਜ ਦੇ ਲੇਖੇ।
    118. ਇਸ ਪ੍ਰਕਾਰ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਜਮਹੂਰੀ ਵਿਕਾਸ ਲਈ ਸੰਘਰਸ਼ ਕਰਦੀ ਹੋਈ ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ, ਸਾਮਰਾਜੀ ਸੰਸਾਰੀਕਰਨ, ਜਿਹੜਾ ਕਿ ਹੁਣ ਸਮਾਜਕ ਵਿਕਾਸ ਲਈ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡਾ ਖਤਰਾ ਬਣ ਚੁੱਕਾ ਹੈ, ਵਿਰੁੱਧ ਚਲ ਰਹੇ ਸੰਸਾਰ ਵਿਆਪੀ ਸੰਘਰਸ਼ ਵਿਚ, ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਦੀ ਰਾਖੀ ਲਈ ਲੜੇ ਜਾ ਰਹੇ ਸੰਘਰਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਅਤੇ ਸਮਾਜਵਾਦ ਲਈ ਲੜੇ ਜਾ ਰਹੇ ਸੰਸਾਰ ਵਿਆਪੀ ਸੰਘਰਸ਼ ਵਿਚ ਆਪਣਾ ਸਥਾਨ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕਰਦੀ ਹੈ।  ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਸਭ ਸੋਧਵਾਦੀ ਤੇ ਕੱਟੜਪੰਥੀ ਕੁਰਾਹਿਆਂ ਤੋਂ ਬਚਾਉਂਦੀ ਹੋਈ ਮਾਰਕਸਵਾਦ-ਲੈਨਿਨਵਾਦ ਦੀ ਪਵਿੱਤਰਤਾ ਦੀ ਰਾਖੀ ਲਈ ਵਚਨਬੱਧ ਹੈ। ਪਾਰਟੀ ਅਜੋਕੇ ਸੋਧਵਾਦ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ, ਜੋ ਹੁਣ ਸੰਸਾਰ-ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਲਹਿਰ ਨੂੰ ਚੰਬੜਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ਅਤੇ ਮੁੱਖ ਖਤਰਾ ਬਣ ਗਿਆ ਹੈ, ਘੋਲ ਕਰਨ ਦਾ ਪ੍ਰਣ ਕਰਦੀ ਹੋਈ ਨਾਲ ਹੀ ਖੱਬੇ ਕੁਰਾਹੇ ਅਤੇ ਮਾਅਰਕੇਬਾਜ਼ੀ ਵਿਰੁੱਧ ਵੀ ਸੁਚੇਤ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਲਹਿਰ ਦੀ ਏਕਤਾ ਨੂੰ ਮਜ਼ਬੂਤ  ਕਰਨ ਦਾ ਯਤਨ ਕਰਦੀ ਹੈ ਜੋ ਕਿ ਸੰਸਾਰ ਵਿਚ, ਅਤੇ ਹਰ ਦੇਸ਼ ਵਿਚ, ਮਹਾਨ ਅਕਤੂਬਰ ਇਨਕਲਾਬ ਨਾਲ ਆਰੰਭ ਹੋਏ ਨਵੇਂ ਦੌਰ ਵਲੋਂ ਉਪਜਾਈਆਂ ਗਈਆਂ ਨਵੀਆਂ ਸੰਭਾਵਨਾਵਾਂ ਨੂੰ ਯਥਾਰਥ ਵਿਚ ਬਦਲਨ ਦੀ ਇਕੋ-ਇਕ ਭਰੋਸੇਯੋਗ ਗਰੰਟੀ ਹੈ।
    119. ਇਹ ਵੀ ਇਕ ਅਜੋਕਾ ਪ੍ਰਤੱਖ ਯਥਾਰਥ ਹੈ ਕਿ ਸੀ.ਪੀ.ਆਈ.(ਐਮ) ਜਿਸਨੇ ਕਿ 1964 ਵਿਚ, ਆਪਣੇ ਜਨਮ ਸਮੇਂ, ਜਮਾਤੀ ਭਿਆਲੀ ਦੀ ਸੱਜੀ ਸੋਧਵਾਦੀ ਲਾਈਨ ਵਿਰੁੱਧ ਜ਼ੋਰਦਾਰ ਰਾਜਨੀਤਕ-ਵਿਚਾਰਧਾਰਕ ਸੰਘਰਸ਼ ਆਰੰਭ ਕੀਤਾ ਸੀ ਅਤੇ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ, ਕਿਸਾਨਾਂ ਤੇ ਹੋਰ ਕਿਰਤੀ ਜਨਸਮੂਹਾਂ ਵਿਚਲੇ ਲੱਖਾਂ ਲੜਾਕੂ ਕਾਰਕੁੰਨਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਵੱਲ ਖਿੱਚਿਆ ਸੀ, ਹੁਣ ਪਾਰਲੀਮਾਨੀਵਾਦ ਦੇ ਸੁਧਾਰਵਾਦੀ ਕੁਰਾਹੇ ਦੀ ਦਲਦਲ ਵਿਚ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਧੱਸ ਚੁੱਕੀ ਹੈ। ਇਸ ਪਾਰਟੀ ਨੇ, ਅਪਡੇਟ ਕਰਨ ਦੇ ਬਹਾਨੇ ਹੇਠ, 1964 ਵਿਚ ਪ੍ਰਵਾਨ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ ਸੋਧ ਲਿਆ ਹੈ ਅਤੇ ਉਸ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ ਵਿਚਲੀ ਵਿਗਿਆਨਕ ਸਮਝਦਾਰੀ ਅਤੇ ਇਨਕਲਾਬੀ ਭਾਵਨਾ ਦਾ ਘਾਣ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ।
     ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ ਕਮਿਊਨਿਸਟ ਲਹਿਰ ਨੂੰ ਵੱਜੀ ਇਸ ਪਛਾੜ ਦੇ ਠੋਸ ਕਾਰਨਾਂ ਦੀ ਨਿਸ਼ਾਨਦੇਹੀ ਕਰਨ ਲਈ ਗੰਭੀਰਤਾ ਸਹਿਤ ਯਤਨ ਕਰੇਗੀ, ਭਵਿੱਖ ਵਿਚ ਅਜੇਹੇ ਗੈਰ ਜਮਾਤੀ ਰੁਝਾਨਾਂ ਵਿਰੁੱਧ ਵੱਧ ਤੋਂ ਵੱਧ ਚੌਕਸ ਰਹੇਗੀ ਅਤੇ ਇਹਨਾਂ ਨਵ ਸੋਧਵਾਦੀਆਂ ਵਲੋਂ ਭਾਰਤ ਅੰਦਰ ਲੋਕ ਜਮਹੂਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਕਾਜ਼ ਨੂੰ ਪਹੁੰਚਾਏ ਗਏ ਭਾਰੀ ਨੁਕਸਾਨ ਉੱਪਰ ਕਾਬੂ ਪਾਉਣ ਲਈ ਲੋੜੀਂਦੇ ਯਤਨਾਂ ਵਿਚ ਆਪਣੇ ਵੱਲੋਂ ਕੋਈ ਕਸਰ ਬਾਕੀ ਨਹੀਂ ਰਹਿਣ ਦੇਵੇਗੀ।
    120. ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ ਨੂੰ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਹੈ ਕਿ ਸਾਡੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਲੋਕ, ਮਜ਼ਦੂਰ ਜਮਾਤ ਅਤੇ ਇਸ ਦੇ ਇਨਕਲਾਬੀ ਹਰਾਵਲ ਦਸਤੇ ਦੀ ਅਗਵਾਈ ਵਿਚ ਮਾਰਕਸਵਾਦ-ਲੈਨਿਨਵਾਦ ਦੀਆਂ ਸਿਖਿਆਵਾਂ ਤੋਂ ਅਗਵਾਈ ਲੈਂਦੇ ਹੋਏ, ਇਹ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ ਸਿਰੇ ਚਾੜ੍ਹ ਲੈਣਗੇ। ਸਾਡੀ ਪਾਰਟੀ ਨੂੰ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਹੈ ਕਿ ਸਾਡਾ ਮਹਾਨ ਦੇਸ਼, ਭਾਰਤ, ਵੀ ਇਕ ਜੇਤੂ ਲੋਕ-ਜਮਹੂਰੀਅਤ ਵਜੋਂ ਉਭਰੇਗਾ ਅਤੇ ਸਮਾਜਵਾਦ ਦੇ ਰਾਹ ਵੱਲ ਅੱਗੇ ਵਧੇਗਾ।